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मुश्किल हो रहा हिमालयी मशरूम गुच्छी का संग्रह, बढ़ता हुआ तापमान है जिम्मेदार

पर्याप्त मशरूम इकट्ठा करने के बाद स्थानीय लोग इसे एक साथ किसी रस्सी में माला की तरह गुंथकर रखते हैं। उसके बाद इसे धूप में सुखाने के लिए टांग दिया जाता है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा

पर्याप्त मशरूम इकट्ठा करने के बाद स्थानीय लोग इसे एक साथ किसी रस्सी में माला की तरह गुंथकर रखते हैं। उसके बाद इसे धूप में सुखाने के लिए टांग दिया जाता है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा

  • हिमालय क्षेत्र में पाया जाने वाला मशरूम गुच्छी, मोर्चेल्ल्केए परिवार से वास्ता रखता है। यह खाए जाने वाले सबसे महंगे फंगी के तौर पर मशहूर है। यह मशरूम, देश में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में बहुत ऊंचाई पर बसे जिलों में पाया जाता है।
  • फरवरी के बाद मिट्टी में नमी रहती है और यह उसी समय में उगता है। मशरूम को उगने के लिए बर्फ जरूरी होता है, इसलिए भारत में इसे कृत्रिम तरीके से नहीं उगाया जाता।
  • बढ़ते तापमान के कारण जमीन में नमी कम हो जाती है और गुच्छी पनपने के लिये स्थिति प्रतिकूल हो जाती है। इस कारण से इस मशरूम की उपलब्धता कम हो रही है।
  • मशरूम की कमी की वजह से इसपर निर्भर स्थानीय लोगों का रोजगार छिन सकता है। कोशिश हो रही है कि इस मशरूम को कृत्रिम रूप से भी उगाया जाए।

शिमला के कोटी की रहने वाली रीना देवी पिछले साल तक घर के नजदीक के जंगल में दिन में 6-7 घंटे बिताती थीं। वे गुच्छी चुनने के लिये घर से जंगल के लिये निकलती थी।  रीना अक्सर 100 ग्राम मशरूम लेकर घर लौटती थीं। इस जमा किए गुच्छी को हर साल मार्च से मई तक संग्रह करके रखना होता है। गुच्छी एक प्रकार का मशरूम होता है और बाजार में इसकी अच्छी खासी कीमत मिल जाती है। 

38 साल की रीना दो बच्चों की मां हैं और ऐसे इलाके में रहती हैं जहां के कई लोग कुछ ग्राम मशरूम के लिये घंटों जंगल में खाक छाना करते हैं ताकि वह अपना परिवार चला सकें। कुछ लोग इसे परिवार की कम आमदनी में कुछ अतिरिक्त आमदनी जोड़ के लिए भी करते हैं। रीना कहती हैं, “लॉकडाउन के कारण रोजगार बुरी तरह से प्रभावित हो गया। इस वजह से मेरे परिवार और आस-पड़ोस के लोगों ने पिछले दो सालों से मार्च, अप्रैल और मई महीने में जंगल की खूब खाक छानी है। उस दौरान सभी की आमदनी कम हो गई थी और सबके पास पर्याप्त समय था। गुच्छी के सहारे तंगी के दिनों में हमें कुछ राहत मिल गयी। 

रीना आगे कहती हैं, “परिवार के गुजर बसर के लिये हम इस पर निर्भर नहीं हैं लेकिन फरवरी महीना आने पर हमे गुच्छी संग्रह करके उसे शिमला के बाजार में बेचकर कुछ अतिरिक्त पैसा कमाने का उम्मीद होती है।”

गुच्छी की उपलब्धता में कमी 

मशरूम संग्रहकों के लिये यह काम दिन -प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह है गुच्छी का सिर्फ प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होना। इसकी उपलब्धता भी काफी कम होती जा रही है।  रीना समझाती हैं, “पिछले 3-4 सालों से गुच्छी कम  दिख रहा है। पहले लोग दिन में 200-300 ग्राम गुच्छी संग्रह कर लेते थे। लेकिन आज लोग पूरा दिन कोशिश करने पर भी ज्यादा से ज्यादा 100 ग्राम ही जुटा पाते हैं।” 

मशरूम संग्रहकों के लिये यह काम दिन -प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह है गुच्छी का सिर्फ प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होना। इसकी उपलब्धता भी काफी कम होती जा रही है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा
मशरूम संग्रह करने वालों के लिये यह काम दिन-प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह है गुच्छी का सिर्फ प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होना। इसकी उपलब्धता भी काफी कम होती जा रही है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा

स्थानीय लोग बताते हैं कि गुच्छी मिलने के मौसम भी बदलाव हो रहा है। रीना ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “पहले गुच्छी जनवरी के बाद अप्रैल तक मिलता था। लेकिन अब, पिछले 5-6 सालों से यह सिर्फ मार्च से जून तक मिलता है।”  

क्या जलवायु परिवर्तन है गुच्छी की कम उपलब्ध होने की वजह?

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक और सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान केंद्र के निर्देशक अनिल कुमार के अनुसार गुच्छी जलवायु परिवर्तन का शिकार है। उन्होंने मोंगाबे -हिन्दी को बताया, “साल दर साल तापमान बढ़ने के कारण जमीन में नमी की कमी होने लगती है और गुच्छी के लिये जमीन में नमी होना जरूरी है। इस मशरूम को आम मशरुमों की तरह कृत्रिम परिवेश में नहीं उगाया जा सकता। यह मशरूम जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रहा और उसके साथ इंसान की कुछ गतिविधियों से इसकी पैदावार कम हो रही है।” 

जमीन की सतह का तापमान जनवरी 2022 में 0.89 डिग्री सेल्सियस (1.60 डिग्री फ़ारेनहाइट) था। जो बीसवीं सदी के औसत तापमान से ज्यादा था और यह पिछले 143 सालों में जनवरी महीना के तापमान में छठा सबसे गरम साल रहा। 

कुमार इसकी एक और वजह समझाते हैं, “हिमाचल और कश्मीर के गांव के लोग जब गुच्छी तोड़ने जाते हैं तो वे उस जगह पर मिलने वाले सभी मशरूम को तोड़ डालते हैं जिसके कारण फंगी को अगले मौसम में जीवन चक्र पूरा करने का मौका नहीं मिलता है। इससे अगले मौसम में गुच्छी की उपलब्धता कम हो जाती जाता है।”  

वह कहते हैं, “मशरूम उगना जारी रखने के लिए कुछ मशरूम को छोड़ना होगा,नहीं तो अगला उत्पाद कहां से आयेगा?” लोग मशरूम संग्रह करने के समय उसे जड़ से उजाड़ देते हैं, ऐसा करने से बचना चाहिए। मशरूम को तना से अलग करना चाहिये।”  

कृत्रिम तरीके से ज्यादा मशरूम उगाने की संभावना 

वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन, जंगल की कटाई और जड़ से मशरूम तोड़ने के कारण, खाने लायक सबसे महंगा मशरूमों में से एक, गुच्छी की पैदावार कम होती जा रही है। लेकिन मशरूम अनुसंधान प्रबंधन के हाल के शोध से मशरूम को कृत्रिम तरह से उगाने की बात सामने आना स्थानीय लोगों के लिए उम्मीद की किरण है।   

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, मशरूम अनुसंधान निदेशालय ने पहली बार सफलतापूर्वक से दुनिया के सबसे महंगे मशरूम गुच्छी को कृत्रिम तरह से उगाया है। किसानों द्वारा कृत्रिम तरह से उसे उगाने से पहले उस पर काम चल रहा है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक और सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान केंद्र के निर्देशक अनिल कुमार के अनुसार गुच्छी जलवायु परिवर्तन का शिकार है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक और सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान केंद्र के निर्देशक अनिल कुमार के अनुसार गुच्छी की उपज जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रही है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा

कुमार ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “मोरेल मशरूम या गुच्छी की खेती अभी भी पूरी तरह प्रकृति द्वारा नियंत्रित है। हम इन्हे घरों में अर्ध-नियंत्रित परिवेश में कृत्रिम तरह से उगाने की कोशिश की जा रही है।” 

रीना देवी के घर से 5 किलोमीटर दूरी पर रहने वाली हेमावती पिछले एक दशक से ज्यादा समय से गुच्छी संग्रह कर रही हैं। वह हिमाचल प्रदेश सरकार के चतुर्थ श्रेणी की कर्मचारी हैं लेकिन पांच सदस्य के परिवार को चलाने के लिए उन्हें अतिरिक्त आमदनी की जरूरत होती है और वे यह काम करती हैं। मोंगाबे- हिन्दी से बातचीत में कहती हैं, “मैं स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में सफाई कर्मचारी हूं लेकिन हर रविवार और छुट्टी के दिनों में मैं गुच्छी तोड़ने जाती हूँ।” 

41 साल की हेमावती आगे कहती हैं, “मेरे परिवार के सदस्य फरवरी के अंत से गुच्छी के लिए जंगल जाना शुरू करते हैं। वे हर दिन सवेरे 11 बजे मशरूम की खोज में जंगल की यात्रा शुरू करते हैं और सूरज अस्त होने के बाद घर लौटते हैं। किसी-किसी दिन हमें कोई मशरूम नहीं मिलता है। गुच्छी के मटमैले रंग के कारण कई बार आंखों के सामने रहने के बावजूद यह दिख नहीं पाता। सबकुछ आपकी किस्मत और आपके ध्यान पर निर्भर करता है। हमें खोजने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है और जो मशरूम इकट्ठा होता है, उसे हम सुखाते हैं और फिर बेचते हैं।  


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पर्याप्त मशरूम इकट्ठा करने के बाद स्थानीय लोग इसे एक साथ किसी रस्सी में माला की तरह गुंथकर रखते हैं। उसके बाद इसे धूप में सुखाने के लिए टांग दिया जाता है। “हम इसे धूप में कई दिनों तक इसके अंदर की नमी को खत्म करने के लिए रखते हैं ताकि मशरूम ज्यादा दिन तक टिक सके,” उन्होंने कहा। 

ज़्यादातर लोग बेचने के लिए मशरूम संग्रह करते हैं लेकिन वे पर्याप्त मात्रा में संग्रह कर पाने की स्थिति में ही बेच पाते हैं। 

उन्होंने बताया कि उनके परिवार को मशरूम बेचे हुए कई साल हो गए। पर्याप्त मात्रा में यह इकट्ठा नहीं हो पाता। घर में बनाने लायक मशरूम भी बहुत कम दिन ही मिल पाता है। हम गुच्छी की सब्जी बनाते हैं या गुच्छी का पुलाव बनाते हैं।आप को यह शिमला के कुछ गिने चुने रेस्तरां में ही बहुत ऊंची कीमत पर मिलेगा।” 

स्थानीय लोग सुखाये गए गुच्छी लेकर शिमला के मुख्य बाजार में जाते हैं और उसे पैकेजिंग और खुदरा व्यापार के लिए बेच दिया जाता है। हालांकि स्थानीय लोगों को गुच्छी बेचकर ज्यादा पैसा नहीं मिलता है। मोंगाबे -हिन्दी से बात करते हुए हेमावती कहती हैं, “अगर हम मुख्य बाजार में थोक व्यापारी को 10,000 रुपया किलो से बेचते हैं तो इसे पेकेजिंग के बाद 30,000 रुपया में बेचा जाता है।” 

 

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बैनर तस्वीरः पर्याप्त मशरूम इकट्ठा करने के बाद स्थानीय लोग इसे एक साथ किसी रस्सी में माला की तरह गुंथकर रखते हैं। उसके बाद इसे धूप में सुखाने के लिए टांग दिया जाता है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा   

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