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खनन से जुड़े लोग: भविष्य को लेकर बज रही खतरे की घंटी

  • अपनी आजीविका के लिए भारत में लाखों लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयला क्षेत्र पर निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कोयले से दूरी बनाने की बात हो रही है।
  • साथ ही उन लोगों के भविष्य को लेकर भी चिंता जताई जा रही है जिनका जीवन कोयले की अर्थव्यवस्था से जुड़ी है। चिंता यह है कि अगर कोयले से जुड़ी अर्थव्यवस्था ठप पड़ गयी तो इनका जीवन कैसे चलेगा।
  • कोयले की अर्थव्यवस्था से जुड़े झारखंड के तीन जिलों की यात्रा कर मोंगाबे-हिन्दी ने वहां के लोगों से बातचीत की। इन जिलों में चतरा, हजारीबाग और धनबाद शामिल हैं जहां ऐसे लोग भारी तादाद में हैं। अगर कोयले से दूरी बनी और इन लोगों के लिए रोजगार के नए अवसर नहीं बनाये गए तो भविष्य की राह मुश्किल होगी।

अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े खनन की कहानी में कैनरी पक्षी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस दौरान इस गाने वाले पक्षी की मदद से यह पता लगाया जाता था कि कोयला खदान में जहरीली गैस तो नहीं है। अंग्रेजी में आज भी ‘कैनरीज इन ए कोल माइन’ मुहावरे का खूब प्रयोग होता है जिसे हिन्दी में ‘खतरे की घंटी’ के समकक्ष रखा जा सकता है। कोयले की दुनिया में ऐसी ही एक खतरे की घंटी बज रही है जिसको अगर अनसुना किया गया तो भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।  देश में एनर्जी ट्रांजिशन पर पूरा जोर है। इसका तात्पर्य ऊर्जा के स्रोतों में परिवर्तन से है जिसमें प्रदूषण फैलाने वाले कोयले को छोड़ नवीन ऊर्जा के स्रोतों को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। ऐसे में आपको लग सकता है कि यह तो अच्छी खबर है, इसमें खतरे की घंटी कहां है! 

पर क्या आपने कभी सोचा है कि उनलोगों का क्या होगा जो अपनी आजीविका के लिए कोयले की अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं! यह खतरे की घंटी इन्हीं लोगों के लिए है। अगर इन लाखों लोगों की खबर लिए बिना कोयले से दूरी बनाई गयी तो इनकी आजीविका पर गंभीर खतरा आ सकता है। भारत में कोयला क्षेत्र का एक बड़ा तंत्र है और कम से कम 1.3 करोड़ से लेकर 2 करोड़ के बीच लोग अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से।

दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर भारत ने ऊर्जा क्षेत्र को लेकर कुछ प्रतिबद्धताएं तय कर रखी हैं जिसको हासिल करने की पूरी कोशिश हो रही है। यानी आने वाले भविष्य में देश में नवीन ऊर्जा के माध्यम से रौशनी फैलेगी। पर भविष्य को लेकर जो रूपरेखा तैयार की गयी है उसमें इस एक हिस्से का भविष्य अंधकारमय दिखता है। इस हिस्से में वही लोग हैं जिनकी बात ऊपर की गयी है। मोंगाबे-हिन्दी ने झारखंड के तीन जिलों की यात्रा की। चतरा, हजारीबाग और धनबाद। ये कोयला खनन के मामले में प्रमुख जिले हैं। इस यात्रा में तस्वीरों के माध्यम से ऐसे ही लोगों को हाईलाइट करने की कोशिश की गई जो इस परिवर्तन के केंद्र में हैं और किसी भी बदलाव की स्थिति में सबसे अधिक प्रभावित होंगे। 

46 साल के भोली यादव 20 साल से एक कोयला खदान के बाहर चाय बेचते हैं। कहते हैं, “मैं यहां सुबह 4 बजे आता हूं और शाम 7 या 8 बजे तक रहता हूं। यही मेरी जिंदगी है। मैंने पढ़ाई-लिखाई तो अच्छे से की नहीं तो मुझे कोईअच्छी नौकरी कैसे मिलेगी! कोयला खदान बंद हो जाएगा तो मैं क्या करुंगा, मुझे नहीं मालूम। भविष्य के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि दिहाड़ी मजदूर के तौर पर शायद कोई काम मिल जाए। पर क्या पता इस उम्र में मैं दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम कर पाऊंगा भी या नहीं।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
46 साल के भोली यादव 20 साल से एक कोयला खदान के बाहर चाय बेचते हैं। कहते हैं, “मैं यहां सुबह 4 बजे आता हूं और शाम 7 या 8 बजे तक रहता हूं। यही मेरी जिंदगी है। मैंने पढ़ाई-लिखाई तो अच्छे से की नहीं है तो मुझे कोई अच्छी नौकरी कैसे मिलेगी! कोयला खदान बंद हो जाएगा तो मैं क्या करुंगा, मुझे नहीं मालूम। भविष्य के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि दिहाड़ी मजदूर के तौर पर शायद कोई काम मिल जाए। पर क्या पता इस उम्र में मैं दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम कर पाऊंगा भी या नहीं।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
30 वर्षीय अर्जुन उरांव कोयले के ट्रकों का वजन करते हैं। “कोयला खनन की वजह से हमारी जमीन बर्बाद हो गई। खनन पूरा हो जाए तो कंपनियों को गड्ढों को फिर से भरना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है। अगर ऐसा हो तो हमें अपनी जमीन पर खेती कर सकते हैं। यहां खनन कंपनी काम करना बंद कर दिया और यहां से चली भी गयी। पर अब भी हम अपने जमीन पर खेती नहीं कर सकते क्योंकि यह किसी काम की बची ही नहीं। तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
30 वर्षीय अर्जुन उरांव कोयले के ट्रकों का वजन करते हैं। “कोयला खनन की वजह से हमारी जमीन बर्बाद हो गई। खनन पूरा हो जाए तो कंपनियों को गड्ढों को फिर से भरना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है। अगर ऐसा हो तो हमें अपनी जमीन पर खेती कर सकते हैं। यहां खनन कंपनी काम करना बंद कर दिया और यहां से चली भी गयी। पर अब भी हम अपने जमीन पर खेती नहीं कर सकते क्योंकि यह किसी काम की बची नहीं।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
35 वर्षीय बिगन कहते हैं, “मैं बेंगलुरु में एक स्टोन क्रेशर संचालित करता था। अब अपने गांव वापस में गया हूँ। मेरा गांव झारखंड में है। खेती-बाड़ी के लिए जमीन नहीं है इसलिए मैं खदान में काम करता हूं। अगर खनन बंद हो गया तो मैं किसी लायक नहीं रहूँगा।,”तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
35 वर्षीय बिगन कहते हैं, “मैं बेंगलुरु में एक स्टोन क्रेशर संचालित करता था। अब अपने गांव वापस में गया हूँ। मेरा गांव झारखंड में है। खेती-बाड़ी के लिए जमीन नहीं है इसलिए मैं खदान में काम करता हूं। अगर खनन बंद हो गया तो मैं किसी लायक नहीं रहूंगा।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
32 वर्षीय किरण कुमारी, एक दिहाड़ी मजदूर हैं। कहती हैं, “मैं कोयला खनन शुरू होने के बाद विस्थापित हो गयी और एक पुनर्वासित गांव में रहती हूं। यहां वैसे तो एक सिलाई केंद्र है, लेकिन बंद ही रहता है। लोग इसे पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। जब हमारे पास जमीन थी, तो हमें खाने-पीने की चिंता नहीं रहती थी। हम अपना गेहूं खुद उगाते थे। अब मुझे हर दिन काम की तलाश करनी पड़ती है। मैं जल्दी निकल जाती हूं और देर शाम ही घर वापस लौट पाती हूं। हमें अपने गांव में ही कुछ काम मिल जाता तो जीवन थोड़ा आसान रहता। तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
32 वर्षीय किरण कुमारी, एक दिहाड़ी मजदूर हैं। कहती हैं, “मैं कोयला खनन शुरू होने के बाद विस्थापित हो गयी और एक पुनर्वासित गांव में रहती हूं। यहां वैसे तो एक सिलाई केंद्र है, लेकिन बंद ही रहता है। लोग इसे पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। जब हमारे पास जमीन थी, तो हमें खाने-पीने की चिंता नहीं रहती थी। हम अपना गेहूं खुद उगाते थे। अब मुझे हर दिन काम की तलाश करनी पड़ती है। मैं जल्दी निकल जाती हूं और देर शाम ही घर वापस लौट पाती हूं। हमें अपने गांव में ही कुछ काम मिल जाता तो जीवन थोड़ा आसान रहता। तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
40 वर्षीय बाजे उरांव, एक कोयला खदान में पंप संचालक हैं। कहते हैं, “मेरे पास 20 एकड़ पुश्तैनी जमीन थी जो ज्यादातर कोयला कंपनियों के पास चली गई। अब मेरे पास दो-तीन एकड़ ही बची है। मैंने अपनी जमीन नौकरी के बदले में दे दी। लगभग दस लोगों को मैं जानता हूं, जिनके पास जमीन के बदले नौकरी मिली है। हालांकि, इस नौकरी से मेरी कमाई बहुत कम है। घर चल जाए इसके लिए मैं अपनी छोटी सी जमीन पर खेती भी करता हूं।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
40 वर्षीय बाजे उरांव, एक कोयला खदान में पंप संचालक हैं। कहते हैं, “मेरे पास 20 एकड़ पुश्तैनी जमीन थी जो ज्यादातर कोयला कंपनियों के पास चली गई। अब मेरे पास दो-तीन एकड़ ही बची है। मैंने अपनी जमीन नौकरी के बदले में दे दी। लगभग दस लोगों को मैं जानता हूं, जिनको जमीन के बदले नौकरी मिली है। हालांकि, इस नौकरी से मेरी कमाई बहुत कम है। घर चल जाए इसके लिए मैं अपनी छोटी सी जमीन पर खेती भी करता हूं।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
50 वर्षीय उली चाय की दुकान चलाती हैं। इनका कहना है, "यहां सब कुछ खोद दिया गया है। अगर हमारी जमीन को वापस भरकर समतल नहीं किया गया तो हम कहां जाएंगे? तस्वीर- सैयम खोसला/कार्बन कॉपी
50 वर्षीय उली चाय की दुकान चलाती हैं। इनका कहना है, “यहां सब कुछ खोद दिया गया है। अगर हमारी जमीन को वापस भरकर समतल नहीं किया गया तो हम कहां जाएंगे? तस्वीर- सैयम खोसला/कार्बन कॉपी
राजेश कुमार एक विद्युत अभियंता के तौर पर काम करते हैं। कहते हैं, “कोयला एक सीमित संसाधन है और यह निश्चित रूप से किसी दिन समाप्त हो जाएगा। जब यह खत्म हो जाएगा, तो मुझे दूसरे जिलों में नौकरी तलाशनी होगी या फिर खेती-बाड़ी करना होगा।”तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी
राजेश कुमार एक विद्युत अभियंता के तौर पर काम करते हैं। कहते हैं, “कोयला एक सीमित संसाधन है और यह निश्चित रूप से किसी दिन समाप्त हो जाएगा। जब यह खत्म हो जाएगा, तो मुझे दूसरे जिलों में नौकरी तलाशनी होगी या फिर खेती-बाड़ी करना होगा।” तस्वीर- सैयम खोसला / कार्बन कॉपी

 

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इस लेख को कार्बन कॉपी के सहयोग से तैयार किया गया है।

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