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वैश्विक और स्थानीय घटनाओं से कैसे प्रभावित होता है भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून?

उदयपुर में मॉनसून की बारिश। हवा में धूल से भी बारिश का पैटर्न बदलता है। तस्वीर- मैके सैवेज/विकिमीडिया कॉमन्स

उदयपुर में मॉनसून की बारिश। हवा में धूल से भी बारिश का पैटर्न बदलता है। तस्वीर- मैके सैवेज/विकिमीडिया कॉमन्स

  • भारतीय ग्रीष्म मॉनसून का समय आमतौर पर मई के अंत से सितंबर तक होता है।
  • ग्रीष्मकालीन मॉनसून न केवल विश्वस्तरीय और दीर्घकालिक बल्कि अल्पकालिक एवं स्थानीय वजह से भी प्रभावित होता है।
  • ग्रीष्म मॉनसून के दौरान होने वाली वर्षा से लाखों किसानों के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है।

आमिर खान की फिल्म लगान में एक बहुत मशहूर दृश्य है जिसमें सूखे से परेशान लोग बादल की राह देख रहे हैं। उस सूखाग्रस्त इलाके में काले बादल आते हैं और लोगों में खुशी की लहर दौड़ जाती है। गीत गाए जाते हैं, जश्न मनाया जाता है पर वे बादल बरसते नहीं, आगे निकल जाते हैं। यह कोई एक फिल्म का दृश्य नहीं बल्कि भारत की एक शाश्वत तस्वीर है जिसमें पानी लाते इन मेघों का खूब इंतजार किया जाता है। खासकर उन बादलों का जो ग्रीष्मकालीन मॉनसून में आते हैं। 

यह मॉनसून भारत में रहने वाले अरबों लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि देश में होने वाली अधिकांश वर्षा (70-90%) इसी की वजह से होती है। मई के आखिर से शुरू होकर सितंबर महीने तक। 

हालांकि इस ग्रीष्म मॉनसून के दौरान देश में होने वाली वर्षा, हर साल एक समान नहीं होती। अगर मॉनसून में होने वाली बारिश में अनुमान के मुकाबले दस प्रतिशत की भी कमी-बेशी हो जाए तो देश की पूरी अर्थव्यवस्था पर इसका बहुत बड़ा असर होता है। क्योंकि भारत में लाखों किसानों की आजीविका और देश की जीडीपी इस मॉनसून के दौरान वर्षा और उसके पैटर्न पर निर्भर करती है। शायद इसीलिए, सबकी निगाह भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के मॉनसून को लेकर की जाने वाली भविष्यवाणी पर टिकी रहती है। 

पिछले 30-50 सालों में हुए अध्ययन से काफी कुछ समझ में आने लगा है कि इस ग्रीष्मकालीन मॉनसून को प्रभावित करने वाले कारक कौन हैं। वैश्विक स्तर पर कई सारे कारक हैं जैसे अल नीनो, ला नीना, हिंद महासागर डाइपोल (द्विध्रुव) जैसे कई दीर्घकालिक भौगोलिक वजहें। कुछ अल्पकालिक स्थानीय कारण भी है जिससे ग्रीष्मकालीन मॉनसून में होने वाली वर्षा प्रभावित होती है। इसमें वायु प्रदूषण खासकर धूल के बादल और सिंचाई के तरीके शामिल हैं। 

अल नीनो और ला नीना क्या हैं? इनसे भारतीय मॉनसून को कैसे प्रभावित होता है?

पिछले कई सालों से ‘अल नीनो’ (El Niño’) और ला नीना (‘La Niña’) का काफी जिक्र होने लगा है। खासकर ग्रीष्मकालीन मॉनसून के संदर्भ में। क्या आपने कभी सोचा है कि ये कौन सी बला है? 

अल नीनो का अर्थ होता है बालक। यह समुद्र की सतह का बड़े पैमाने पर गर्म होने को इंगित करता है। यह भूमध्य रेखा के आसपास मध्य और पूर्व-मध्य प्रशांत महासागर की सतह के गर्म होने को दर्शाता है। इसका नाम स्पेनिश में ‘क्राइस्ट चाइल्ड’ के  संदर्भ में रखा गया है क्योंकि दिसंबर में क्रिसमस के आस-पास ही यह गर्म लहर के रूप में उभरता है। दक्षिण अमेरिकी तट के नजदीक।  

पिछले 30-50 वर्षों में चल रहे शोध से कई वजहों का पता चला है जो भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून को प्रभावित करते हैं। इससे अल नीनो, ला नीना, हिंद महासागर डाइपोल (द्विध्रुव) जैसे समुद्र में होने वाली कई ऐसी घटनाओं का पता चला है जो भारत के ग्रीष्मकालीन मॉनसून को प्रभावित करते हैं। तस्वीर- लेनमैटर/विकिमीडिया कॉमन्स
पिछले 30-50 वर्षों में चल रहे शोध से कई वजहों का पता चला है जो भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून को प्रभावित करते हैं। इससे अल नीनो, ला नीना, हिंद महासागर डाइपोल (द्विध्रुव) जैसे समुद्र में होने वाली कई ऐसी घटनाओं का पता चला है जो भारत के ग्रीष्मकालीन मॉनसून को प्रभावित करते हैं। तस्वीर– लेनमैटर/विकिमीडिया कॉमन्स

वहीं ला नीना का अर्थ है बालिका। यह अल नीनो के ठीक विपरीत परिस्थितियों को जाहिर करता है। जैसे उन्हीं क्षेत्रों में जहां अल नीनो की शुरुआत होती है वहीं समुद्र के सतह के ठंडा होने को ला नीना के नाम से बुलाते हैं। ये दोनों घटनाएं बारी बारी से होती हैं ताकि संतुलन बना रहे। ये दोनों घटनाएं अल नीनो सदर्न आसलैशन (ENSO) नाम की वायु मंडल संबंधित प्रक्रिया का हिस्सा है। इससे दुनिया भर में मौसम पर प्रभाव पड़ता है। यह हर 3-7 साल (औसतन 5 साल) में घटित होता है और आमतौर पर नौ महीने से दो साल तक रहता है। यह बाढ़, सूखा और अन्य मौसम संबंधी वैश्विक परिवर्तन से जुड़ा हुआ है।

अगला सवाल यह होगा कि यह भारत में आने वाले ग्रीष्म मॉनसून को कैसे प्रभावित करता है। इसको ऐसे समझिए कि अल नीनो की वजह से वह हवा कमजोर पड़ जाती है जो मानसून के बादल लेकर आती है। जब उष्ण कटिबंधीय प्रशांत महासागर में गर्माहट होती है तो भारत के ऊपर अंतर-उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में बहने वाली दक्षिण-पूर्वी हवाएं कमजोर हो जाती हैं। इससे कम बारिश या सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न होती है। वहीं ला नीना का प्रभाव अल नीनो के प्रभाव के एकदम विपरीत होता है। यह अच्छे मॉनसून और औसत से अधिक वर्षा के लिए जिम्मेदार है।

132 वर्षों में भारत में वर्षा के रुझानों के आधार पर यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में गंभीर सूखा हमेशा अल नीनो वाले वर्षों में ही रहा है। हालांकि, इसके विपरीत की स्थिति के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारत की ग्रीष्मकालीन मॉनसून वर्षा पर ENSO का प्रभाव 30% तक  तक होता है। बाकी अन्य कारकों में हिंद महासागर द्विध्रुवीय, अटलांटिक समुद्र की सतह का तापमान (एसएसटी), भूमध्यरेखीय हिंद महासागर में तापमान के इस उतार-चढ़ाव का भी काफी प्रभाव होता है। 

हिंद महासागर द्विध्रुवीय, भूमध्यरेखीय हिंद महासागर दोलन, अटलांटिक समुद्र की सतह के तापमान में परिवर्तन और मस्कारेने जैसे भारी-भरकम शब्दों का भी अर्थ समझना जरूरी है। 

हिंद महासागर द्विध्रुवीय (IOD) भी ENSO की तरह ही होता है जिसमें पश्चिम से पूर्व की ओर भूमध्य रेखा के साथ लगा हिंद महासागर का हिस्सा गर्म और ठंडा होता है। इससे भूमध्यरेखीय हिंद महासागर दोलन (EQUINOO) उत्पन्न होता है जो हिंद महासागर (पश्चिमी और पूर्वी भूमध्यरेखीय के बीच) कम या अधिक बादल निर्माण को दिखाता है। IOD की खोज 1999 में ही की गई थी, और EQUINO  को 2002 में खोजा गया था। इन दोनों को भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। अगर ये दोनों प्रक्रिया सकारात्मक हैं तो अधिक वर्षा की संभावना बनती है। 

अटलांटिक समुद्र की सतह का तापमान में परिवर्तनशीलता भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून को उसी तरह प्रभावित करती है जैसे अल नीनो और ला नीना की प्रक्रिया करती है। अटलांटिक महासागर की सतह के गर्म होने से मॉनसून कमजोर हो जाता है और ठंडा होने का विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून पर इस घटना का प्रभाव अटलांटिक नीनो के रूप में भी जाना जाता है।

कई अध्ययनों ने भूमि के विशाल भूभाग पर सिंचाई और ग्रीष्म मॉनसून के बीच एक कड़ी की पहचान की है। तस्वीर- अंकुर पी / विकिमीडिया कॉमन्स
कई अध्ययनों ने भूमि के विशाल भूभाग पर सिंचाई और ग्रीष्म मॉनसून के बीच एक कड़ी की पहचान की है। तस्वीर– अंकुर पी / विकिमीडिया कॉमन्स

ऐसा ही एक भारी-भरकम शब्द है मस्कारेने जो हाई दक्षिण हिंद महासागर में एक अर्ध-स्थायी उच्च दबाव वाला क्षेत्र है। यह भारत से लगभग 4,000 किमी दूर, मस्कारेने द्वीप समूह के पास है। मस्कारेन हाई, अप्रैल के मध्य में विकसित होना शुरू होता है। इससे हिंद महासागर से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर ग्रीष्मकालीन मॉनसून हवाओं को शक्ति मिलती है। 

2021 में जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हालिया शोध से पता चलता है कि भारतीय मॉनसून की वर्षा में वार्षिक बदलाव इन बड़े कारकों पर निर्भर करता है। 

“हमने जिस तंत्र की बात की है उसमें उच्च और निम्न दबाव का पैटर्न, हवा की गति, और वातावरण में नमी के बीच एक भौतिक संबंध दिखता है। हमने यह भी दिखाया है कि विभिन्न उष्णकटिबंधीय जलवायु संबंधित घटनाएं जैसे ENSO, IOD, EQUINOO, आदि से यह सब प्रभावित होते हैं और परिणामस्वरूप भारत का ग्रीष्मकालीन मॉनसून भी प्रभावित होता है,” भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक एंड ओशनिक साइंसेज के प्रोफेसर और अध्ययन के सह-लेखक अरिंदम चक्रवर्ती कहते हैं।

सिंचाई से भारतीय ग्रीष्म मॉनसून कैसे प्रभावित होता है?

भारतीय मॉनसून को प्रभावित करने वाले आश्चर्यजनक स्थानीय कारकों में  सिंचाई भी शामिल है। क्लाइमेट डायनेमिक्स पत्रिका में 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत के गंगा के मैदानों पर वर्षा कम होने की प्रवृत्ति इस क्षेत्र में व्यापक सिंचाई के कारण हो सकती है। अध्ययन में पाया गया है कि शीतकालीन सिंचाई (नवंबर-मार्च) से अगले वर्षा होने वाली मॉनसून की बारिश मजबूत होती है। हालांकि, साल भर सिंचाई होने लगी है और इससे ग्रीष्मकालीन मॉनसून वर्षा (जून-सितंबर) में उल्लेखनीय कमी आई है।

“ऐसी संभावना है क्योंकि सिंचाई मिट्टी की नमी के स्तर और तापमान को एक साथ प्रभावित करती है जिससे वायुमंडलीय स्थिरता भी प्रभावित होता है। चूंकि सिंचाई बड़े भूभाग पर होती है तो इससे नमी का केंद्र दक्षिण की तरफ शिफ्ट हो जाता है खासकर मॉनसून के समय में,” चक्रवर्ती कहते हैं। 

आईआईटी बॉम्बे में सिविल इंजीनियरिंग विभाग से 2019 में एक अन्य अध्ययन में सिंचाई और मॉनसून के वर्षा पैटर्न में बदलाव के बीच की कड़ी की भी पहचान की गई थी। इस शोध से पता चलता है कि उत्तर भारत में बढ़ी हुई सिंचाई सितंबर में मानसूनी वर्षा को भारत के उत्तर-पश्चिम की ओर स्थानांतरित कर देती है, जबकि मध्य भारत में वर्षा पैटर्न भी बदला है और अत्यधिक वर्षा दर्ज होने लगी है। 


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एरोसोल और धूल अन्य स्थानीय वजह हैं जिन्हें भारत में मॉनसून के दौरान वर्षा को प्रभावित करने के लिए जिम्मेदार माना गया है। 2022 में हाल के एक अध्ययन में, आईआईटी भुवनेश्वर के शोधकर्ताओं ने दिखाया है कि मध्य-पूर्वी रेगिस्तान (सहारा और सिनाई) से अरब सागर में ले जाने वाली धूल की वजह से भारत और दक्षिण एशिया में तत्कालीक तौर पर वर्षा अधिक हो सकती है। “अरब सागर के ऊपर धूल (मध्य-पूर्वी रेगिस्तान से) से प्रेरित यह गर्मी, भारतीय क्षेत्र की हवा और नमी का बहाव को तेज करती है यानी मॉनसून के बादल तेजी से जाते हैं,” आईआईटी भुवनेश्वर में स्कूल ऑफ अर्थ, ओशन एंड क्लाइमेट साइंस  में प्रोफेसर वी. विनोज कहते हैं। ये दोनों अध्ययनों में शामिल थे। 

“हमारे शोध से यह भी पता चलता है कि अल नीनो से जुड़े सूखे के साल  के दौरान धूल और भारतीय मॉनसून के बीच यह संबंध मजबूत होता है। इसके अलावा, धूल प्रेरित वर्षा वृद्धि, पूरे दक्षिण एशियाई मॉनसून क्षेत्र में व्यापक हो चला है। हमें यह समझने के लिए धूल भरी आंधियों पर नज़र रखना शुरू करना होगा कि वे भारतीय मॉनसून को कैसे प्रभावित करती हैं। क्योंकि यह तो स्पष्ट हो चुका है कि मध्य भारत जैसे कुछ क्षेत्रों में वर्षा पर इसका  काफी प्रभाव पड़ रहा है,” उन्होंने आगे कहा।

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

 

बैनर तस्वीरः उदयपुर में मॉनसून की बारिश। हवा में धूल से भी बारिश का पैटर्न बदलता है। तस्वीर– मैके सैवेज/विकिमीडिया कॉमन्स

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