- मच्छरों की संख्या में बीते कुछ सालों बड़ा इजाफा हुआ है और इस वजह से डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारी का भी डर बना ही रहता है। उत्तर प्रदेश में कई जगह स्थानीय प्रशासन, तालाब और अन्य पानी के स्रोतों में गम्बूसिया मछ्ली छोड़कर मच्छरों से निपटना चाहता है।
- गम्बूसिया मछली मच्छरों के लार्वा को खाती है और इससे मच्छरों की संख्या कम हो जाती है। मच्छरों से निपटने के लिए आजकल कई जगह इसका इस्तेमाल किया जाता है।
- अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन का यह कदम उचित नहीं है और इससे भविष्य में इकोसिस्टम को नुकसान हो सकता है।
मॉनसून का इंतजार चल रहा है। मॉनसून के साथ-साथ मच्छरों का मौसम भी आने वाला है। 2021 में उत्तर प्रदेश के कई जिलों ने डेंगू और मलेरिया जैसे घातक बीमारी का प्रकोप झेला। बीमारी को फैलने से रोकने के लिए और मच्छर के खतरे से निपटने के लिए कन्नौज, मुरादाबाद, फिरोजाबाद, लखनऊ और अमरोहा जिला प्रशासनों ने स्थानीय पानी के स्रोतों में गम्बूसिया प्रजाति के मछ्ली को छोड़ना शुरू किया है।
फिरोजाबाद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी दिनेश कुमार प्रेमी ने मीडिया को बताया कि गम्बूसिया मछली का सफल प्रयोग पहले बरेली और बदायूं जिला में हो चुका है। मीडिया को दिए गए उनके बयान के अनुसार बदायूं जिले से इस मछली के बीज का इंतजाम किया जा रहा है और 50 पैकेट का इंतजाम कर लिया गया है। फिरोजाबाद प्रशासन, जिले के तालाबों और ग्रामीण क्षेत्र में इसका उपयोग करेगा।
कीटाणु को नियंत्रित करने के लिए जैविक उपाय का उपयोग पहली बार नहीं हो रहा है। डेंगू और मलेरिया जैसे जानलेवा बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए मच्छरों पर नियंत्रण जरूरी है। इसके लिए दुनिया भर में कई तरह के प्रयास किये गए हैं जिसमें मच्छर मछ्ली, ड्रैगनफ़लीज़ और जलीय कछुआ का उपयोग हुआ। वियतनाम में पानी के बड़े टैंकों में मछ्ली की कोपपोड प्रजाति को छोड़ कर डेंगू को फैलने से रोकने में सफलता मिल चुकी है।
मच्छर के लार्वा के खिलाफ लड़ाई में जैविक नियंत्रक के रूप में गम्बूसिया मछ्ली का सबसे व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। नेशनल सेंटर फॉर वेक्टर बोर्न डिजीज कंट्रोल (NVBDCP) के अनुसार भारत में इस प्रजाति का उपयोग 1928 से होता आ रहा है। इसके अनुसार लार्वा खाने वाला मछ्ली गम्बूसिया एफ़्फ़िनिस (पश्चिमी मोस्क़ुइटोंफिश) मच्छरों से निपटने का एक बेहतर विकल्प है। यह अलग-अलग तापमान में जीवित रह सकती है। साथ ही पानी में मौजूद रासायनिक और जैविक सामग्री के साथ भी जीवित रह सकती है। हालांकि यह बहुत ज्यादा जैविक प्रदूषण सहन नहीं कर सकता। इसके बारे में बताया जाता है कि एक पूरी विकसित मछ्ली प्रति दिन 100 से 300 तक लार्वा खा सकती है।
मच्छरों से निजात दिलाने में मददगार पर है आक्रामक प्रजाति
विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थानीय पोखर, तालाबों में गम्बूसिया मछ्ली को छोड़ने का अंजाम भविष्य में नुकसानदायक होगा। आइयूसीएन ने गम्बूसिया मछ्ली की प्रजाति को 100 सबसे ज्यादा आक्रामक प्रजाति के सूची में रखा है। इसमे आगे कहा गया है की मच्छरों को कम करने में यह मछली, स्थानीय प्रजातियों के मछली से बेहतर विकल्प नहीं है।
इसके बाद इस मछली से जुड़ी चुनौतियां आती हैं। जैसे एक बार इसको किसी जलाशय में छोड़ दिया गया तो फिर इसका सफाया करना मुश्किल हो जाता है। “इस प्रजाति को नियंत्रित करना मुश्किल है क्योंकि मादा गम्बूसिया गर्भवती हो जाती हैं और अनुकूल स्थिति में कहीं भी अंडा दे सकती हैं,” अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकॉलोजीएंड द इनवैरोन्मेंट में शोधकर्ता नोविन राजा कहते हैं। इनके अनुसार, “गम्बूसिया समय से पहले भी यौन परिपक्वता हासिल कर सकता है और परिवरेश के अनुसार शरीर के आकार को बदल सकता है।” नोविन एक शोधकर्ता हैं और 2020 में प्रायद्वीपीय भारत में गम्बूसिया का प्रबंधन और आक्रमण के विषय पर प्रकाशित लेख के सहलेखक हैं।
गम्बूसिया मछ्ली को तेजी से फैलने, उच्च पुनरुत्पादन दर और इकोसिस्टम पर उसके नकारात्मक प्रभाव के कारण इसे प्लेग फैलाने वाली छोटी मछ्ली भी कहा जाता है। अधिक से अधिक भोजन पर कब्जा करने के लिए गम्बूसिया मछ्ली, अन्य मछलियों से प्रतिस्पर्धा करती हैं। यह भी पता चला है कि यह दूसरे मछलियों के अंडे और मेढक के लार्वा का भी शिकार करता है। राजा कहते हैं, “किसी जगह पर पहुंचने के बाद गम्बूसिया मछ्ली वहां के पूरे भोजन चक्र को नष्ट कर देता है और इसके कारण इकोसिस्टम में असंतुलन पैदा हो जाता है। गम्बूसिया मछ्ली के कारण, मछ्लीपालन के प्रयासों पर भी नकारात्मक असर होता है क्योंकि गम्बूसिया, दूसरी मछ्ली के अंडों को भी शिकार बनाता है। गम्बूसिया मछ्ली की आक्रामक होने के कारण कई देशों ने इसके नियंत्रण के लिए कानून बनाया है। उत्तरी अमेरिका से ऑस्ट्रेलिया में मच्छरों पर जैविक रूप से नियंत्रण पाने के लिए इस मछली का प्रयोग किया गया। इससे मच्छर पर नियंत्रण तो नहीं मिल पाया लेकिन इस मछ्ली के आक्रामक व्यवहार और स्थानीय मछलियों को नुकसान जरूर हुआ।
इन्हीं सारी मुश्किलों को देखते हुए क्वीन्सलैंड के खेती और मछ्ली विभाग ने 2019 के अपने दिशा-निर्देश में कहा, “गम्बूसिया बायोसिक्योरिटी कानून 2014 के तहत प्रतिबंधित आक्रामक मछ्ली है। न इसे रखना है, न खान है और न ही बेचना है। यही नहीं बिना अनुमति के इसे पर्यावरण में छोड़ना भी नहीं है। यह मछ्ली पकड़े जाने पर इसे तुरंत मार कर पानी से दूर किसी जगह पर दफना देना है या कूड़ेदान में डाल देना है।”
क्या हो भविष्य की राह?
प्राकृतिक आवास के क्षरण के बाद सबसे बड़ा खतरा है विदेशी आक्रामक प्रजातियों का विस्तार। शोध करने वाले और प्रकृति से सरोकार रखने वाले लोग आक्रामक विदेशी प्रजाति को लेकर लोगों को जागरूक कर रहे हैं।
राजा कहते हैं, “हाल के सालों में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण ने गम्बूसिया मछ्ली को भारत में आक्रामक विदेशी प्रजाति घोषित किया है। लेकिन सरकार के विभागों में संवाद की कमी के कारण स्थानीय जल स्रोतों में गम्बूसिया मछ्ली छोड़ा जाना जारी है।”
आक्रामक प्रजाति को नियंत्रित करने के लिए कई तरीके अपनाए जा सकते हैं। सबसे पहले तो गम्बूसिया के वितरण का मैपिंग करना चाहिए। इसके बाद वैज्ञानिक आधार पर किए गए अध्ययनों द्वारा सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव का आंकलन करना चाहिए। परिदृश्य और स्थानीय पारिस्थितिक पर प्रजाति के प्रभाव के आधार पर कारगर नियंत्रण पद्धति विकसित करने की जरूरत है।
राजा कहते हैं, “लेकिन सबसे पहले पानी में गम्बूसिया छोड़ना बंद हो। अन्यथा स्थिति और विकराल होती जाएगी और इससे जैव विविधता तथा स्थानीय रोजगार के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी।”
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बैनर तस्वीरः गम्बूसिया मछली अलग-अलग तापमान में जीवित रह सकती है। तस्वीर- NOZO/विकिमीडिया कॉमन्स