- भारत में पिछले 60 वर्षों में आक्रामक विदेशी प्रजातियों के कारण 12730 करोड़ डॉलर या कहें 10 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। इस तरह भारत, अमेरिका के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है जहां ऐसे आक्रामक प्रजातियों की वजह से सबसे अधिक नुकसान होता है। यह जानकारी एक अध्ययन में सामने आई है।
- आक्रामक प्रजाति के पौधे, जीव-जंतु और अन्य कवक-बैक्टेरिया की केवल 3 फीसदी प्रजातियां ही ज्ञात हैं जिससे नुकसान का आकलन किया गया है। शेष 97 फीसदी नुकसानदायक प्रजातियों के बारे में जानकारी या तो उपलब्ध नहीं है या इसके बारे में बेहद कम जानकारी मौजूद है।
- विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में संपूर्ण नुकसान का 35 प्रतिशत जानवरों की प्रजाति, 15% पौधों और 1% कवक और बैक्टीरिया की वजह से होता है। बाकी नुकसान कई अन्य प्रजातियों की वजह से होता है।
- शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में आक्रामक प्रजातियों से निपटने के लिए जैव सुरक्षा मुद्दों में इसके प्रबंधन को भी शामिल किया जाना चाहिए।
घुसपैठिया शब्द पढ़कर हमारे जेहन में किसी पड़ोसी देश से आए किसी इंसान की तस्वीर उभरती है। पर देश में घुसपैठ कई तरह से हो रहा है और उससे लाखों-करोड़ों का नुकसान भी हो रहा है। यहां जिस घुसपैठ की बात हो रही है वह बाहरी मूल के जीव-जंतुओं से संबंधित है। इन आक्रामक प्रजातियों में पेड़-पौधों से लेकर बैक्टेरिया और कवक तक शामिल हैं जो बाहर से आए और यहां अपना विस्तार करने लगे।
हाल के प्रकाशित एक अध्ययन में भारत में ऐसे घुसपैठियों की पड़ताल की गयी और इससे होने वाले नुकसान का भी अनुमान लगाया गया।
इस विश्लेषण के अनुसार, भारत में 330 ऐसे आक्रामक प्रजातियों की पहचान हुई है जो कि देश के बाहर से हमारे यहां आ घुसे हैं। इनमें से महज 10 प्रजातियों की वजह से पिछले 60 वर्षों में अर्थव्यवस्था को 12,730 करोड़ डॉलर का नुकसान हो चुका है। 24 मई 2022 को डॉलर के मुकाबले रुपये का जो भाव था उसके अनुसार यह 9,88,300 करोड़ रुपये के बराबर होता है। किसी भी दृष्टि से यह आंकड़ा चौकाने वाला है।
ये घुसपैठिए प्रजाति के जीव न केवल नई-नई बीमारियां फैलाते हैं बल्कि धीरे धीरे खेती और जंगल पर कब्जा भी जमाते जाते हैं और इससे स्थानीय नस्ल के जीव-जंतुओं को काफी नुकसान होता है।
भारत में पाए जाने वाले 2,000 से अधिक विदेशी प्रजातियों में से 330 प्रजातियों को आक्रामक घोषित किया गया है। हालांकि इस अध्ययन में जिस खर्चे का आकलन हुआ है वह मात्र 10 प्रजातियों से ही जुड़ा है। इस वजह से भारत, अमेरिका के बाद, आक्रामक प्रजातियों की वजह से नुकसान उठाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। इस आंकड़े को 112 देशों के शोधकर्ताओं ने वैश्विक विश्लेषण के आधार पर पता लगाया है।
“सिर्फ 3 प्रतिशत प्रजातियों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव को हम जान पाए हैं। भारत में शेष 97% आक्रामक प्रजातियों के लिए जानकारी या तो कम है या है ही नहीं। इस मामले में जानकारी का बड़ा अभाव है,” कहते हैं आलोक बंग जो एक विकासवादी जीवविज्ञानी हैं और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक भी।
भारत में इस नुकसान को बहुत कम करके आंका जाता है। 20 से लेकर 10,000 गुना तक कम। “इस वैश्विक विश्लेषण के आधार पर और भारत के जीडीपी के अनुसार हमने पिछले छह दशकों में आक्रामक प्रजातियों पर लगभग 3.4 लाख करोड़ डॉलर खर्च हुआ होगा। अगर आबादी के लिहाज से देखें तो यह खर्च लगभग 1700 लाख करोड़ डॉलर हो सकता है,” बंग ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत के दौरान विस्तार से बताया।
इन घुसपैठिये जीव-जन्तु को लेकर आंकड़ों की कमी इसलिए है क्योंकि कई क्षेत्र और इससे होने वाले नुकसान पर गंभीरता से काम नहीं हुआ। इन आंकड़ों के न होने से होने वाले नुकसान का अनुमान भी सही से नहीं लगाया जा सकता। इसलिए इस अध्ययन में गूगल खोज और गूगल स्कॉलर जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स की मदद लेनी पड़ी। इस लागत के आकलन के लिए देश भर के उन 20 शोधकर्ताओं और हितधारकों के साथ बातचीत भी की गई जो आक्रामक प्रजातियों पर काम करते हैं।
अर्ध-जलीय और जलीय प्रजातियों से सबसे अधिक नुकसान
विश्लेषण से पता चलता है कि अर्ध-जलीय और जलीय प्रजातियों के घुसपैठ से अधिक नुकसान होता है बनिस्बत के स्थल पर घुसपैठ करने वाले जीव-जंतु। उदाहरण के लिए येलो फीवर को ही लीजिए। इस बीमारी के फैलने की वजह एक मच्छर है जो अर्धजलीय प्रजाति है। येलो फीवर एक संक्रामक रोग है और इसके रोकथाम के लिए काफी खर्च करना होता है।
शोध के लेखक इस समस्या से निपटने के लिए राष्ट्रीय नीतियों में कुछ आसान बदलावों का सुझाव देते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय नीतियों और दिशानिर्देशों में थोड़ा बदलाव कर सर्टिफिकेशन, देश में बीजों के प्रवेश के बाद निगरानी और त्वरित प्रतिक्रिया देने वाले तंत्र को विकसित करने की आवश्यकता है।
“जोखिम का मूल्यांकन करने के लिए ऐसे तंत्र की जरूरत है जिससे यह आसानी से पता चल जाए कि किस प्रजाति से अधिक नुकसान हो रहा है और किससे कम। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों ने इस तरह के रास्ते इख्तियार किये हैं,” बंग ने कहा।
एक ‘व्हाइट लिस्ट’ अप्रोच होता है जिसके तहत बाहर से आने वाले हर प्रजाति को देसी प्रजाति के लिए खतरा माना जाता है। खासकर तब तक जब अध्ययन से यह स्पष्ट न हो जाए कि इससे क्या नुकसान होगा। इससे घुसपैठ कर रहे जीव-जंतुओं को नियंत्रण करने में मदद मिली है।
“इसके विपरीत अगर ‘ब्लैक लिस्ट’ वाला तरीका अपनाते हैं, जिसमें जबतक किसी प्रजाति के नुकसानों के बारे में वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध नहीं होता है, उसे प्रतिबंधित नहीं किया जाता। इस तरह से किसी प्रजाति को ब्लैक लिस्ट में डालने के लिए वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता होती है और यह तरीका देश को आक्रामक प्रजातियों से बचाने का बेहतर तरीका नहीं है,” बंग कहते हैं।
नित्या मोहंती ने अंडमान द्वीपों में भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी भारतीय बुलफ्रॉग (होपलोबैट्राचस टाइगरिनस) और चित्तीदार हिरण के फैलने का अध्ययन किया है। वह, इस अध्ययन से नहीं जुड़ी हैं। उनका कहना है कि आक्रामक प्रजातियों के असर को समझने के लिए आर्थिक नुकसान का आकलन एक बेहतर तरीका है। इसमें स्थानीय आजीविका और पारिस्थितिकी तंत्र के नुकसान का आकलन किया जाता है।
उदाहरण के लिए, सुंदर फूलों वाली एक उष्णकटिबंधीय अमेरिकी झाड़ी लैंटाना को आईयूसीएन द्वारा शीर्ष 10 सबसे खराब आक्रामक प्रजातियों में से एक माना जाता है। 1809 में घुसपैठ करने वाले इस पौधे पर नियंत्रण पाने के लिए प्रति हेक्टेयर करीब 5,430 रुपए खर्च होता है। यह जंगलों, कृषि क्षेत्रों, खाली जमीन और सड़कों के किनारे फैले हुए हैं। यह जगह, भोजन और संसाधनों के लिए देसी पौधों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है। इससे मिट्टी का पोषक चक्र भी बदल जाता है। इस आक्रमण के परिणामस्वरूप वनों में रहने वाले शाकाहारी जीवों के लिए उन घरेलू पौधों की कमी हो जाती है जो उनका चारा रहा है। इस एक पौधे ने भारत के 40% से अधिक बाघ क्षेत्र पर आक्रमण किया है।
भारत समग्र रूप से आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन पर बहुत अधिक खर्च नहीं करता है। कुछ जंगलों में लैंटाना या पार्थेनियम (गाजर घास) के प्रबंधन जैसे कुछ विशिष्ट कार्यक्रम हैं,” मोहंती ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। उन्होंने उन संस्थानों में निवेश करने पर जोर दिया जो दीर्घकालिक अनुसंधान और दीर्घकालिक प्रबंधन के लिए अनुसंधान करते हैं।
“यदि हमारे पास जैव-सुरक्षा को लेकर एक नोडल संस्थान होगी तो अनुसंधान और वर्तमान में चल रहे प्रबंधन के प्रयासों के बीच बेहतर समन्वय हो सकता है। इससे शोध से सामने आए प्रबंधन के नए तरीकों का उपयोग भी बेहतर हो पाएगा। क्योंकि आक्रामक प्रजातियों के लिए प्रबंधन के लिए नई-नई रणनीतियों की जरूरत होती है। आपको शोध के आधार पर अपनी योजनाओं को संशोधित करने की आवश्यकता हो सकती है। इसलिए, मुझे लगता है कि ऐसे संस्थानों में निवेश करना चाहिए जो समग्र रूप से जैव सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं। अन्य देशों की तरह, केवल एक प्रजाति पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय पूरी तरह से इनवेसिव या घुसपैठिए जीव-जंतुओं को लेकर योजना बननी चाहिए,” मोहंती ने कहा।
पैसिफिक फॉरेस्ट इनवेसिव स्पीशीज नेटवर्क (APFISN) से जुड़े टीवी संजीव कहते हैं कि आर्थिक नुकसान समझ में आने के बाद नीति निर्माता इस ओर ध्यान देंगे। इस तरह का विश्लेषण शोधकर्ताओं को घुसपैठिए प्रजातियों के आर्थिक प्रभाव मूल्यांकन के लिए प्रोत्साहित करेगा। संजीव इस शोध से जुड़े हुए नहीं है।
भाषाई विविधता से आक्रामक प्रजातियों का प्रबंधन मुश्किल
आक्रामक प्रजातियों पर काम करने को मुश्किल बनाने में भारत की भाषाई विविधता भी एक वजह हो सकती है। लेखकों ने अध्ययन के लिए अंग्रेजी में प्रकाशित स्रोतों को खंगाला, हालांकि हिंदी में दो प्रकाशित स्रोत थे, लेकिन उन्हें अंतिम विश्लेषण से हटाना पड़ा। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि दोनों अखबार की रिपोर्ट थीं और उनकी विश्वसनीयता की पुष्टि नहीं की जा सकती थी।
“भारत जैसे भाषाई रूप से विविध देश में ऐसे पौधों पर क्षेत्रीय भाषाओं में भी काम हो सकते हैं। इसे ऑनलाइन खोजना मुश्किल है। इसके अलावा, “आक्रामक प्रजातियों”, “जैविक आक्रमणों” या क्षेत्रीय भाषाओं में आक्रामक प्रजातियों के सामान्य नामों के लिए उपयुक्त शब्दों का इस्तेमाल न के बराबर होता है। नतीजा यह कि ऐसे शोध या अध्ययन को ढूंढना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी में, यदि आप आक्रामक विदेशी प्रजातियों के पर्यायवाची शब्द खोजेंगे तो कुछ खास नहीं मिलता। क्षेत्रीय भाषाओं में खोज शब्द खोजना और भी कठिन है,” उन्होंने कहा।
जलवायु परिवर्तन और आक्रामक प्रजातियों का प्रसार
अब तो जलवायु प्रभावों को समझने के लिए उससे होने वाले आर्थिक नुकसान का सहारा लिया जाता है। पर इन आक्रामक प्रजातियों से होने वाले नुकसान के लिए ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए एडीज मच्छरों के कारण कुछ सबसे घातक बीमारियां होती हैं। इससे स्वास्थ्य व्यवस्था पर बड़ा आर्थिक बोझ बढ़ता है। लेकिन इसे कभी ऐसे नहीं देखा जाता कि यह बीमारी इसलिए हुई कि एक जीव ने घुसपैठ किया और यह उसकी कीमत है।
इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव आक्रामक प्रजातियों की तुलना में अधिक ठोस हैं और दोनों मुद्दों को अक्सर एक साथ जोड़ दिया जाता है।
बंग कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग सबसे बड़ी आपदाएं हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि अन्य पर्यावरण संबंधी चिंताएं भी हैं, जो जलवायु संकट से अलग हैं। जैव विविधता का संकट, न सिर्फ जलवायु परिवर्तन से बल्कि आक्रामक प्रजातियां, वनों की कटाई, प्रदूषण, मरुस्थलीकरण, आदि की वजह से भी हो रहा है। सभी पर्यावरणीय संकटों के लिए जलवायु संकट शब्द का प्रयोग न तो उपयोगी है और न ही प्रभावी।
हालांकि, जलवायु परिवर्तन और घुसपैठ करने वाले जीव-जंतुओं से निपटने की कोशिश में तारतम्यता बहुत जरूरी है।
“पृथ्वी के गर्म होने की वजह से भी आक्रामक प्रजातियां तेजी से फैल सकती हैं। वे स्थान जो कुछ प्रजातियों के लिए पहले दुर्गम थे, अब जलवायु में बदलाव के कारण मुफीद हो गए हैं। इसलिए, जलवायु संकट पर कोई भी कार्रवाई अनजाने में आक्रामक प्रजातियों की समस्या में भी मदद करेगी। दूसरी ओर, आक्रामक प्रजातियों की समस्या से निपटने से जलवायु संकट को भी रोकने में मदद मिलेगी,” बंग कहते हैं।
इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।
बैनर तस्वीरः सुंदर फूलों वाले उष्णकटिबंधीय अमेरिकी झाड़ी लैंटाना को आईयूसीएन द्वारा शीर्ष 10 सबसे खराब आक्रामक प्रजातियों में से एक माना जाता है। तस्वीर– मोक्की/विकिमीडिया कॉमन्स