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भूजल स्तर में गिरावट से धंस रही जमीन, भविष्य में बढ़ेंगी मुश्किलें

विशेषज्ञ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे जलभृतो से पानी गायब होता जायेगा, वैसे ही भूमि या तो अचानक रूप से या फिर आहिस्ता-आहिस्ता बैठती जाएगी। इससे भूमि का क्षरण हो सकता है।

विशेषज्ञ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे जलभृतो से पानी गायब होता जायेगा, वैसे ही भूमि या तो अचानक रूप से या फिर आहिस्ता-आहिस्ता बैठती जाएगी। इससे भूमि का क्षरण हो सकता है।

  • भूजल स्तर में गिरावट तो चिंता की बात है क्योंकि इससे साफ पानी के कमी हो जाने का खतरा उत्पन्न हो रहा है। इससे भविष्य में और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। भूजल स्तर गिरने से जमीन की भीतरी परत जहां पानी इकठ्ठा होता है, वह सिकुड़ रही हैं और जमीन बैठती जा रही है। इसलिए भूजल के अत्यधिक दोहन से जमीन के धंसने का खतरा बना रहता है।
  • जमीन धंसने के कारण इमारतों में दरार आ सकती है, बाढ़ का ख़तरा बना रहता है और जमीन की भीतरी परत (एकुइफेर) की धारण क्षमता नष्ट हो जाती है।
  • भूजल का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ, भूजल के समुचित इस्तेमाल की सलाह देते हैं साथ ही इसके प्रभाव को समझने के लिए और अधिक शोध किए जाने पर बल देते हैं।

भारत का उत्तरी क्षेत्र का मैदानी इलाका बेहद उपजाऊ है। हालांकि इस उपजाऊ क्षेत्र में मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। जमीन के नीचे का जल स्तर तेजी से खत्म होता जा रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) के अनुसार, पिछले दशक में उत्तरी भारत का भूजल 8.8 करोड़ एकड़-फिट कम हो चुका है।

भूजल के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण जल स्तर में गिरावट आ रही है। भूजल स्तर के इस गिरावट से आने वाली पीढ़ियों के लिए पानी की कमी होगी। लेकिन यह बात यहीं तक सीमित नहीं है। वैज्ञानिक सक्रिय रूप से इस बात को लेकर अध्ययन कर रहे हैं कि आखिर भूमिगत जल में आयी कमी किस तरह से जमीन की ऊपरी सतह को संकुचित कर रही है। इससे जलभृतों (एकुइफेर) में अपरिवर्तनीय बदलाव हो रहे हैं।  यह जलभृत जमीन का वह हिस्सा होता है जहां भूजल इकट्ठा होता है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे जलभृतो से पानी गायब होता जायेगा, वैसे ही भूमि या तो अचानक रूप से या फिर आहिस्ता-आहिस्ता बैठती जाएगी। इससे भूमि का क्षरण हो सकता है।  

भूमिगत जल किस तरह से ऊपर की जमीन को प्रभावित करता है?

भूजल पृथ्वी के सतह से बहुत गहराई में पाया जाता है। भूजल यहां पर मिट्टी के छिद्रों या चट्टानों की दरारों के बीच बची खाली जगहों को भर देता है। उन गहराइयों से पानी पर दबाव पड़ता है जिससे वह पृथ्वी को ऊपर की ओर धकेलता है। कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के शोधकर्ता और सिविल इंजीनियर शगुन गर्ग बताते हैं कि पृथ्वी का वजन पानी और अंदुरूनी पदार्थ, दोनों से मिलकर बनता है। जब भूजल को अत्यधिक मात्रा में निकाला जाता है या उसका दोहन किया जाता है तो ऐसी स्थिति में अंदुरूनी पदार्थ ही भार को मैनेज करते हैं। 

अत्यधिक भूजल दोहन के मामले में भारत पहले स्थान पर है। जबकि भारत में यदि अन्य इलाकों के मुक़ाबले उत्तरी गंगा के मैदानी क्षेत्रों की तुलना की जाये, तो यहां भूजल का दोहन अन्य क्षेत्रों से कहीं अधिक है। यहां भूजल के खत्म होने के चलते जमीन की सतह का आकार तेजी से बदल रहा है।  

पानी की बढ़ती मांग के कारण एनसीआर दिल्ली गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। यह नक्शा खतरे के जोखिम का विश्लेषण करता है। इस क्षेत्र में जमीन तेजी से धंस रही है। दिल्ली के कुछ हिस्सों जैसे कि कापसखेड़ा, जो कि इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास है वहां का अध्ययन करते हुए उन्होंने पाया कि 2014-15 के दौरान यहां भूमि क्षरण की दर 11 सेंटीमीटर प्रति वर्ष थी। बाद के दो सालों में क्षरण की यह दर बढ़कर 17 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी ज्यादा हो गयी थी। तस्वीर साभार- अध्ययन
पानी की बढ़ती मांग के कारण एनसीआर दिल्ली गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। यह नक्शा खतरे के जोखिम का विश्लेषण करता है। इस क्षेत्र में जमीन तेजी से धंस रही है। दिल्ली के कुछ हिस्सों जैसे कि कापसखेड़ा, जो कि इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास है वहां का अध्ययन करते हुए उन्होंने पाया कि 2014-15 के दौरान यहां भूमि क्षरण की दर 11 सेंटीमीटर प्रति वर्ष थी। बाद के दो सालों में क्षरण की यह दर बढ़कर 17 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी ज्यादा हो गयी थी। तस्वीर साभार- अध्ययन

गर्ग ने दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में जलोढ़ मिट्टी के जलभृतों का अध्ययन किया और पाया कि इस क्षेत्र में जमीन तेजी से धंस रही है। दिल्ली के कुछ हिस्सों जैसे कि कापसखेड़ा, जो कि इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास है वहां का अध्ययन करते हुए उन्होंने पाया कि 2014-15 के दौरान यहां भूमि क्षरण की दर 11 सेंटीमीटर प्रति वर्ष थी। बाद के दो सालों में क्षरण की यह दर बढ़कर 17 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी ज्यादा हो गयी थी।

गर्ग के अलावा, दूसरे अन्य शोधकर्ताओं ने भी पंजाब से लेकर पश्चिमी बंगाल और गुजरात तक गंगा के क्षेत्रों का अध्ययन किया और उन्हें भी जमीन के धंसने के सबूत मिले हैं। 

क्या भूमि संकुचन सिर्फ भूजल स्तर के कारण ही होता है?

पृथ्वी का धंसना कई चीजों पर निर्भर करता है, जिसमें मिट्टी की किस्म और भुरभुरापन भी निहित है। गर्ग बताते है, “यदि जमीन में चूना पत्थर की मात्रा अधिक होती है, तो वह पानी में घुल सकता है।” जिससे जमीन पर और दबाव पड़ता है। “कुछ मामलों में, कोयले या पेट्रोलियम का बहुत ज़्यादा खनन जैसे कारक भी भूमि क्षरण में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।”

लेकिन ऐसे मामलों में जहां पर धरती पतले और महीन मिट्टी के कणों से निर्मित होती है- जैसे कि गंगा के उपजाऊ मैदान में पाई जाने वाली जलोढ़ मिट्टी। ऐसी जगहों पर कठोर चट्टानों की तुलना में जमीन का धंसना ज़्यादा होता है। जल विज्ञानी विवेक ग्रेवाल ऐसा बताते हैं। वे ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज ऑफ़ इंडिया नामक ट्विटर माइक्रोब्लॉग चलाते हैं जिसमें वे देश के भूजल से जुड़े मसलों पर चर्चा करते हैं।

हालांकि, ग्रेवाल इस बात पर जोर देते हैं कि भूमि का क्षरण पूरी तरह से मानव जनित गतिविधियों की देन है। टेकटोनिक प्लेटो की हलचल भी भूमि क्षरण का एक मुख्य कारण हो सकता है, जोकि लाखों वर्ष में कभी एक बार होती है। वह कहते हैं, “जमीन का एक सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से खिसकने की गति जियोलॉजिकल समय के अनुरूप नहीं है बल्कि यह मानव जनित है।” गर्ग आगे कहते हैं, “80% से अधिक भूमि का क्षरण, भूजल के खत्म होने से होता है।”

ज़मीन के धंसने से क्या होता है?

ज़मीन के धंसने के कई मायने हो सकते हैं। गर्ग स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि यदि ज़मीन का धंसना काफी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है, तो इसका मतलब है कि वह क्षेत्र बाढ़ की चपेट में आ सकता है। लेकिन यदि ऐसे क्षेत्र जहां ज़मीन के धंसने की दर भिन्न-भिन्न होती है, उन क्षेत्रों की सड़कों, इमारतों और घरों जैसे नागरिक बुनियादी ढांचों को प्रभावित कर सकता है। यह प्रक्रिया बुनियाद को कमजोर कर सकती है या इमारतों में दरार पैदा कर सकती है।

छत्तीसगढ़ में 9वीं शताब्दी का सुरंग टीला मंदिर सीढ़ियों में धंसा हुआ है और इसे मिट्टी के धंसने का परिणाम माना जाता है। तस्वीर- सारा वेल्च / विकिमीडिया कॉमन्स
छत्तीसगढ़ में 9वीं शताब्दी का सुरंग टीला मंदिर धंसा हुआ है और इसे मिट्टी के धंसने का परिणाम माना जाता है। तस्वीर– सारा वेल्च / विकिमीडिया कॉमन्स

किसी विशेष क्षेत्र में भूमि क्षरण के सही प्रभावों का आकलन करने के लिए, विस्तृत ज़मीनी विश्लेषण के साथ ओवरलैप किये गए कम्प्यूटेशनल डेटा की आवश्यकता होती है। फिर भी, यह अनुमान लगाया गया है कि 2040 तक दुनिया के कुल सतह का लगभग 8% भूमि के क्षरण होने की संभावना है। यह दुनिया के प्रमुख शहरों में रहने वाले 21% यानी कि 120 करोड़ लोगों को प्रभावित करेगा। दूसरी अन्य आपदाओं की तरह ही यह अनुमान है कि दुनिया के दूसरे भागों के बजाय भूमि क्षरण का सबसे अधिक प्रभाव एशिया में होगा। एक अनुमान के मुताबिक एशियाई आबादी का 86 % भूमि क्षरण से प्रभावित होगी। जिसमें कि लगभग 8.17 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान होगा। 

भूमि का धंसना कितना वास्तविक और कितना सामान्य है?

ग्रेवाल बताते हैं कि भूमि धंसने के सबसे शुरुआती मामलों में से जो प्रकाश में आया था, वह संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलिफोर्निया का मामला था। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर 1930 के दशक से मुख्य रूप से कृषि कार्यों के चलते भूजल में गिरावट को देखा गया।

दुनिया के उन सभी इलाकों में भूमि क्षरण को देखा गया है जहां पर भूजल का बहुत अधिक दोहन हुआ है। भूमि धंसने के सबसे प्रमुख मामलों में से एक मैक्सिको में घटित हुआ था। वहां पर भूमि के धंसने की दर में भिन्नता के चलते इमारतें झुकी हुई हैं। पिछले दशक के दरम्यान इंडोनेशिया की राजधानी, जकार्ता में जमीन 2.5 मीटर धंस चुकी है। यह समस्या इतनी विकराल बन चुकी है कि वहां की सरकार राजधानी को स्थानांतरित करने की योजना बना रही है। चीन और ईरान जैसे देशों में भी पिछले कुछ दशकों में भूमि धंसने के लक्षण दिखने लगे हैं। 

क्या हम क्षरण होती भूमि को ठीक कर सकते हैं?

भूजल का रिचार्ज होना एक स्वाभाविक या प्राकृतिक प्रक्रिया है। यदि हम दोहन किये गये भूजल के बराबर की मात्र में इसको रिचार्ज कर दें, या फिर जल का समुचित इस्तेमाल करें तो हम भू क्षरण को कम कर सकते हैं।

हालांकि, शोध बताता है कि देश में भूजल का इतना अधिक दोहन हो चुका है कि इसको बहाल करने की दर खपत करने से कहीं आगे निकल चुकी है। भारत में लगभग 433 अरब क्यूबिक मीटर भूजल का सालाना इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट बताती है कि यह काफी गंभीर स्थिति को दर्शाता है। 

ग्रेवाल सलाह देते हैं कि ऐसे मामलों में मैनेज्ड एकुइफेर रिचार्ज (MAR) ही एक मात्र संभावित हल है। मैनेज्ड एकुइफेर रिचार्ज, भूजल स्तर को बहाल करने की कृत्रिम विधि है, जिसे अक्सर हाइड्रोलॉजिकल बैंकिंग की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। 


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जबकि गर्ग का मानना है कि किसी अन्य मामलें में एकुइफेर अपनी भण्डारण की क्षमता को खो देते हैं, तो अपरिवर्तनीय बदलाव हो सकता हैं। “एक बार यदि पृथ्वी अपने नीचे के जल को धारण करने की क्षमता को खो देती है और जमीन धंस जाती है, तब ऐसी स्थिति में जलभृतों की क्षमताओं को वापस लाना संभव नहीं है।” इस बात से ग्रेवाल भी सहमत हैं और कहते हैं कि यह कोई फैलने-सिकुड़ने वाली चीज नहीं है बल्कि यह स्थिर है।

उदाहरण के लिए, गर्ग ने अपने शोध में पाया कि कापसखेड़ा के कुछ खास इलाकों में जलभृत अपनी क्षमता को खो चूकी है। लेकिन, फिर भी हमें शोध कार्य को जारी रखना है और पूरी घटना को भूवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझना है। गर्ग ने निष्कर्ष में कहा, “दुर्भाग्य से, भारत के पास इस तरह के शोध की काफी कमी है, यह भी एक चिन्ता का विषय है।”

 

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बैनर तस्वीरः विशेषज्ञ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि जैसे-जैसे जलभृतो से पानी गायब होता जायेगा, वैसे ही भूमि या तो अचानक रूप से या फिर आहिस्ता-आहिस्ता बैठती जाएगी। इससे भूमि का क्षरण हो सकता है। तस्वीर– अनिल/पिक्साबे  

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