- लद्दाख में लोग अक्सर अपने मवेशियों को बचाने के लिए भेड़ियों को मार डालते हैं। अब इन्हीं लोगों को साथ लेकर भेड़ियों के संरक्षण की मुहिम शुरू हुई है।
- शिकारी भेड़िया जब मवेशियों को शिकार बनाता है तो लोग शंडोंग की मदद से इसका बदला लेते हैं। शंडोंग उल्टे कीप के आकार की पत्थर की दीवारों के साथ फंसाने वाले गड्ढे हैं। इसे आम तौर पर गांव या चरवाहों के कैंप के पास बनाया जाता है।
- लोग इसमे फंस जाने वाले भेड़ियों को बचाने के लिए शंडोंग से कुछ पत्थर निकाल देते हैं, जिससे भेड़िया वहां से सुरक्षित निकल जाता है।
आज से चार दशक पहले सर्दी की एक सुबह एक 10-12 साल का लड़का लद्दाख के बीहड़ क्षेत्र में अपने पिता के साथ घोड़े पर यात्रा कर रहा था। वे लोग रमस्ते से रवाना हुए थे। रमस्ते ग्या गांव का हिस्सा है जो कि लेह शहर से 75 से 80 किलोमीटर दूर है। उनकी इस यात्रा का मकसद था डोगपाओं से खेत में उपयोग करने के लिए खाद खरीदना। रास्ते में शोर-शराबे के कारण उन्हें रुकना पड़ा। उन्होने देखा बहुत सारे लोग शंडोंग के पास इकट्ठा हुए हैं जिसमे एक शंकु (लद्दाख में भेड़िया को शंकु कहा जाता है) फंसा हुआ था। स्थानीय परंपरा के अनुसार गांव वाले भेड़िया को जान से मारने के लिए पत्थर फेंक रहे थे। वह लड़का अपने पिता के साथ भी़ड़ में शामिल हो गया और पत्थरों की बरसात कर दी। उस भेड़िये की मौत हो गई।
वही लड़का आज 57 साल का हो गया है, नाम है कर्मा सोनम। कभी पत्थरों से भेड़ियों की जान लेने वाले कर्मा सोनम ने लद्दाख क्षेत्र में तिब्बती भेड़ियों के संरक्षण का बीड़ा उठाया है। वे नेचर कंजरवेशन फ़ाउंडेशन (एनसीएफ) के फील्ड प्रबन्धक के तौर पर तैनात होकर महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। एनसीएफ और स्नो लेपर्ड ट्रस्ट के द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर लद्दाख में भेड़िया संरक्षण की पहल का ब्योरा हाल में प्रकाशित “ए कम्यूनिटी बेस्ड कंजरवेशन इनिशिएटिव इन ट्रांस हिमालय” में प्रकाशित हुआ।
मुनिव खनयारी एनसीएफ से जुड़े संरक्षण विज्ञानी हैं और इस लेख के लेखकों में एक हैं। उन्होने अध्ययन के बारे में बताया, “भारतीय ट्रांस हिमालय क्षेत्र में इंसान और जंगली पशुओं का संपर्क लगातार होता आ रहा है। वजह इंसान, जंगली जानवरों के आसपास ही रहता है। अक्सर इंसान और जानवर, विशेष रूप से भेड़िये और हिम तेंदुओं के बीच संघर्ष होता रहता है। क्योंकि ये जानवर लोगों के मवेशियों को मारकर खा जाते हैं। इस बात का बदला लेने के लिए और मवेशियों को बचाने के मकसद से लोग इन शिकारी भेड़ियों की हत्या कर देते हैं। पहले के अध्ययनों से पता चलता है कि हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोग भेड़ियों के खिलाफ अधिक नकारात्मक रवैया रखते हैं बजाए कि अन्य जंगली जानवर जैसे हिम तेंदुआ इत्यादि। क्षेत्र में घूमने पर पता चलता है कि लोग भेड़ियों को प्रताड़ित करने के लिए कई तरीके अपनाया करते थे।”
शंडोंग को स्तूप में तब्दील करने की पहल
भारत में ट्रांस हिमालय या टेथीज हिमालय क्षेत्र समुद्र से 3500 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर है। यह हिमालय की सबसे प्राचीन शृंखला है। केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख भारत में ट्रांस हिमालय क्षेत्र का सबसे बड़ा बर्फ़ीला रेगिस्तान है। ऊंचाई, बीहड़ भूभाग और प्रतिकूल मौसम के कारण यहां खेती करना मुश्किल है, इसलिए यहां रहने वाले घुमंतू या अर्ध घुमंतू समुदाय के लिए पशुपालन ही रोजगार का मुख्य जरिया है। इनलोगों के लिए शिकारी भेड़िये काफी मुश्किल पैदा करते हैं और इनके मवेशियों का शिकार करते हैं। ऐसे में ये लोग लोग भेड़ियों के जान के दुश्मन बन जाते हैं और शेंडोंग की मदद से अक्सर बदला लेते हैं।
शंडोंग तुलनात्मक रूप से बड़ा उल्टे कीप के आकार का गड्ढा होता है जिसमें पत्थर की दीवारें होती हैं। इसे आम तौर पर गांव या चरवाहों के कैंप के नजदीक बनाया जाता है। अमूमन भेड़िये को आकर्षित करने के लिए किसी जीवित पालतू पशु को गड्ढे में डाला जाता है। स्थानीय समुदाय के लोग बारी-बारी से अपनी भेड़ या बकरी को गड्ढे में रखते हैं। भेड़िया जब गड्ढे में छलांग लगाता है तो उल्टे-कीप की आकार का पत्थर की दीवार के कारण वह वहां फंस जाता है और आम तौर लोग उसपर पत्थर से हमला करते हैं और मार देते हैं।
इस अध्ययन में पूर्वी लद्दाख में जून 2019 से मार्च 2020 के बीच सर्वे किये गये 64 गांव में 58 गांव के 94 शंडोंग को सूचीबद्ध किया गया है। फील्ड वर्क के बारे में मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में खनयरी बताते हैं, “हमने सर्वे के लिए लद्दाख को 6 ब्लॉकों में बांटा- चांगथंग, रोङ्ग, शाम, नूबरा, कार्गिल और जांस्कर। कोविड-19 से जुड़े प्रतिबंधों के कारण हम लोगों ने सिर्फ रोङ्ग, शाम और चांगथंग को सर्वे के लिए चुना। इन जगहों को चुनने के पीछे दो कारण थे, एक तो यहां इंसान और भेड़ियों में टकराव ज्यादा होता है और दूसरे, इन जगहों पर तुलनात्मक रूप से आसानी से पहुंचा जा सकता है।”
अध्ययन में सूचीबद्ध किये गये 37 शंडोंग का उपयोग पिछले दशकों (2010-2020) में होने का सूचना है। इन में 15 अभी भी चल रहे हैं। पिछले एक दशक से 34 शंडोंग काम नहीं कर रहे हैं। शेष 23 शंडोंग का उपयोग अंतिम बार कब हुआ था, इसके बारे में कहना मुश्किल है।
अध्ययन में शंडोंग के अलावा दूसरे किसी तरीके से भेड़ियों को मारने का कोई सबूत नहीं मिला है। भेड़ियों को उनके मांद में मारने की कुछ घटना दो दशक पहले दर्ज की गई गयी थी।
स्थानीय समुदाय को भेड़ियों की हत्या नहीं करने के बारे में सहमत करने में पार्टनर्स (PARTNERS) सिद्धांत कारगर बना। यह शब्द प्रेजेंस (उपस्थिति), एप्टनेस (उपयुक्तता), रिस्पेक्ट (सम्मान), ट्रांस्पैरेंसी (पारदर्शिता), निगोशिएशन (बातचीत), एंपैथी (सहानुभूति), रिस्पोंसिवनेस (जवाबदेही) और स्ट्रिटिजिक सपोर्ट (रणनीतिक समर्थन) जैसे शब्दों से बना है।
2017 में एनसीएफ ने शंडोंग को निष्प्रभावी करने की संभावना को लेकर स्थानीय समुदाय से चर्चा करने की शुरुआत की। सोनम ने बताया, “इस पहल के बारे में हमने प्रभावशाली धार्मिक नेता हिज एमिनेंस बकुला रंगडोल न्यिमा रिम्पोछे से चर्चा की और शंडोंग के जगहों पर प्रतिकात्मक रूप से स्तूप (बौद्ध धर्म का प्रतीक) बनाने के प्रस्ताव पर उनसे सुझाव मांगा।”
स्तूप अर्ध-गोलाकार टीले जैसी संरचना है जिसमें मूर्ति, धर्म-ग्रंथ या बौद्ध सन्यासी/ सन्यासीन के अवशेष रखे जाते हैं। शंडोंग से कुछ पत्थर निकालकर भेड़िया को निकलने का रास्ता देकर शंडोंग को निष्प्रभावी बनाया जाता है।
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चूसुल गांव के लोगों ने 2018 में गांव के चारों शंडोंग को निष्प्रभावी बना दिया और उसके नजदीक एक स्तूप का निर्माण किया। पिछले शिकार के प्रति संरक्षण और पश्चाताप की प्रतिबद्धता के रूप में एक के बगल में एक स्तूप बनाया। स्तूप को सार्वजनिक रूप से रंगडोल न्यिमा रिम्पोछे ने प्रतिष्ठित किया गया था। सोनम ने बताया कि तब से अब तक गया गांव के रुमत्से और रोंग क्षेत्र के हिम्या गांव में दो और स्तूपों का निर्माण हो चुका है.
लद्दाख में चरवाहों और शिकारी जानवरों के बीच रिश्ता
हालांकि ट्रांस हिमालय क्षेत्र में शान (लद्दाख में हिम तेंदुआ) और अन्य शिकारी जानवर पाए जाते हैं लेकिन चरवाहा समुदाय को भेड़िया से सबसे ज्यादा नफरत है। अध्ययन में भेड़ियों का ज्यादा दिखना, गरजना/गुर्राना और झुंड में रहना इसका कारण हैं, अध्ययन में यह बात कही गयी है। बहुत सारे चरवाहे 300-350 पशु पालते हैं। सोनम ने बताया, “पहले भेड़ और बकरी की संख्या बराबर होती थी। लेकिन अब भेड़ के मुक़ाबले बकरियों की संख्या बढ़ गई है। मांस के अलावा बकरी के दूध का उपयोग मक्खन और दही बनाने के लिये किया जाता है। इसके अलावा बकरी से मिलने वाला पशमीना ऊन की भी मांग अधिक है।”
भेड़िये और शान सिर्फ भेड़ और बकरी को अपना शिकार नहीं बनाते हैं बल्कि वे घोड़े और याक जैसे बड़े जानवरों का भी शिकार करते हैं। घोड़े और याक का इस्तेमाल न सिर्फ जमीन जोतने में होता है बल्कि यातायात के साधन के तौर पर भी इनका इस्तेमाल होता है। सोनम ने बताया, “मेरे गांव में 500 से ज्यादा याक हैं और ये भेड़ियों के सबसे प्रमुख शिकार है।”
शिकारी भेड़ियों द्वारा मवेशी का हत्या करने पर, चरवाहे को क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है। लेकिन घुमंतू चरवाहों के लिए मुआवजा मिलना आसान नहीं है। पूर्वी लद्दाख के रोङ्ग क्षेत्र के रहने वाले और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक रिग्जेन डोर्जय कहते हैं, “क्षतिपूर्ति की मांग करने के लिये चरवाहों को को लेह शहर जाना पड़ता है। दूर-दराज के कुछ गांव से ट्रेक करके लेह पहुंचने में 3 दिन समय लगता है। वन विभाग, लोगों को पशु की मारे जाने का सबूत के रूप में फोटो की मांग करता है। यह प्रक्रिया इतनी झंझट वाली है कि चरवाहे आम तौर पर इससे बचते हैं।”
उपशी बीट ऑफिस के फोंरेस्ट गार्ड खेनराब फूंटसोग ने बताया कि वन विभाग मारे दिये गये पशुओं के बाजार मूल्य का 60 प्रतिशत मुआवजा देता है।
फूंटसोग को 50 से ज्यादा बर्फीली भेड़ियों को बचाने के लिये रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलेंड का “सेव द स्पेसिस” पुरस्कार मिला है। उनके अनुसार हिम तेंदुआ, दूसरे भेड़ियों की तुलना में पशुधन को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। वो कहते हैं, “हिम तेंदुआ अगर पशु बाड़ा में घुस पाता है तो वे एक रात में सभी पशुओं को मार सकता है।
भविष्य की राह
सोनम कहते हैं कि शंडोंग को निष्प्रभावी या बेअसर बनाने की पहल शुरू होने के बाद क्षेत्र में भेड़ियों की हत्या की खबर नहीं है।
ट्रांस हिमालय क्षेत्र में जैव विविधता के संरक्षण के विषय में एनसीएफ की भविष्य योजना के बारे में व्यवहार पारिस्थितिकी विज्ञानी और अध्ययन के दूसरी लेखिका मानवी शर्मा कहती हैं, “हम हिमालय के भेड़ियों के संरक्षण के लिये स्थानीय समुदाय से संवाद जारी रखेंगे। यह क्षेत्र न सिर्फ आकर्षक हिम तेंदुओं का घर है बल्कि यहां समृद्ध जैव –विविधता भी है। हम स्थानीय समुदाय की सक्रिय भागीदारी से लद्दाख क्षेत्र में खुर वाले स्तन-धारी जानवरों के स्थिति और उनके क्षेत्रवार वितरण को निगरानी करने के लिये एक कार्यक्रम शुरू करने का योजना बना रहे हैं।”
सोनम खेती-पशुपालक परिवार से आते हैं। वे कहते हैं कि नयी पीढ़ी को चरवाही का काम पसंद नहीं है। “मैं ग्या-मिरु गांव का हूं। मेरे गांव के 150 परिवारों में सिर्फ 12 परिवार ही चरवाही में सक्रिय हैं।”
वन रक्षक फूंटसोग को लगता है कि समुदाय में पशु चराने का काम कम होते जाने के कारण भेड़ियों द्वारा पशुधन को नुकसान पहुंचाने की घटना कम होती जायेगी और भविष्य में ये खतम हो जायेगा। पशु चराने का काम कम होने के कारण पहाड़ी घास के लिये पालतू पशुओं और जंगली खुर वाले स्तन –धारी पशुओं में प्रतिस्पर्धा कम होगी। इससे खुर वाले स्तनधारी पशुओं की संख्या बढ़ेगी। भविष्य में अगर लोग पशुपालन करना छोड़ देंगे तो भेड़ियों के भोजन के तौर पर जंगली स्तन-धारी जीव मौजूद रहेंगे।
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बैनर तस्वीरः लद्दाख के इस इलाके के लोग भेड़ियों का शिकार करने के लिए शंडोंग का प्रयोग करते रहे हैं। यह एक उल्टा कीप आकार का गड्ढा होता है जिसमें भेड़ियों को फंसाया जाता है। हालांकि, संरक्षण की कोशिशों की वजह से अब ज्यादातर शंडोंग काम नहीं कर रहे हैं। तस्वीर- कर्मा सोनम