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छत्तीसगढ़ में तेंदूपत्ता खुद बेचना चाहते है आदिवासी, सरकार को है ऐतराज

तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। आदिवासी इलाकों में इसे हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। आदिवासी इलाकों में इसे हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

  • छत्तीसगढ़ में इस साल कई गांवों ने ‘हरा सोना’ कहे जाने वाले तेंदूपत्ता की बिक्री खुद करने का फैसला किया है। लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा करने पर क़ानूनी कार्रवाई की बात कही है।
  • राज्य सरकार का कहना है कि तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण किया जा चुका है, इसलिए इसकी बिक्री सरकार ही कर सकती है। दूसरी ओर संग्राहक वन अधिकार क़ानून और सुप्रीम कोर्ट का हवाला दे रहे हैं।
  • तेंदूपत्ता संग्राहकों का आरोप है कि सरकार उन्हें तेंदूपत्ता की कम क़ीमत देती है, जबकि खुले बाज़ार में इसकी अधिक क़ीमत मिलती है।

छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के डोटोमेटा के सरपंच जलकू नेताम खुश हैं कि इस बार उनके गांव के लोगों को तेंदूपत्ता की सही क़ीमत मिलेगी। उनका आरोप है कि वनोपज खास कर तेंदूपत्ता संग्रहण के नाम पर अब तक आदिवासियों का शोषण होता रहा है और अब उनके गांव के लोग इस शोषण का शिकार नहीं होंगे।

जलकू नेताम कहते हैं,“देश का पंचायत क़ानून, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र में आदिवासियों को यह अधिकार देता है कि उनकी ग्रामसभा परंपरागत कामकाज और परंपरा के अनुरुप अपने हक़ में कोई फ़ैसला कर सके। इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि जहां तेंदूपत्ता की अच्छी क़ीमत मिलेगी, हम तेंदूपत्ता वहीं बेचेंगे। देश का वन अधिकार क़ानून भी हमें वन संसाधनों के संग्रहण, संरक्षण और संवर्धन का अधिकार देता है।”

सरकार के बजाय खुले बाज़ार में तेंदूपत्ता बेचने की घोषणा करने वाले जलकू नेताम या डोटोमेटा अकेला गांव नहीं है, जिसने इस तरह का फ़ैसला किया है। इस साल कांकेर ज़िले के घोटूनवेड़ा, बुरका, अंजाड़ी जैसे 60 से अधिक गांवों में लोगों ने तेंदूपत्ता सरकार को नहीं बेचने का फ़ैसला किया है। पड़ोसी ज़िले राजनांदगांव के मेंढा, केंडाल, चिखलाकसा, कांडे जैसे कई गांवों से ऐसी ही ख़बरें आ रही हैं। 

राजनांदगांव ज़िले में वन विभाग के एक अधिकारी ने मोंगाबे-हिंदी से बातचीत में कहा कि अकेले मानपुर इलाके के दर्जन भर से अधिक गांवों में लोगों ने सरकारी समिति को तेंदूपत्ता बेचने से इंकार कर दिया है। वन विभाग के लोगों ने गांवों में जा कर समझाने की कोशिश की लेकिन गांव के लोग वनाधिकार क़ानून और पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया (पेसा) का हवाला दे कर साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि वे अपनी मर्जी से तेंदूपत्ता कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र हैं। 

वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे
वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

इस अधिकारी ने कहा, “ज़िले के शीर्ष अधिकारियों से बातचीत के बाद हम लोगों ने तय किया है कि इस मुद्दे पर कोई बड़ा बखेड़ा न खड़ा हो जाए, इसलिए पहले ज़िले के दूसरे गांवों से तेंदूपत्ता की ख़रीदी कर ली जाए। इसके बाद सरकार को तेंदूपत्ता नहीं बेचने वाले गांवों में लोगों के पत्ते जब्त किये जाएंगे और उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई भी करेंगे।”

हरा सोना

तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। आदिवासी इलाकों में इसे हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। द ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के आंकड़े के अनुसार तेंदूपत्ता के संग्रहण में देश भर में 75 लाख लोगों को लगभग तीन महीने का रोजगार मिलता है। इसके अलावा इन पत्तों से बीड़ी बनाने के काम में लगभग 30 लाख लोगों की रोजी-रोटी चलती है।

1964 से पहले देश भर में तेंदूपत्ता का बाज़ार खुला हुआ था। वन विभाग पत्तों को एकत्र करने के अधिकार की नीलामी किसी भी व्यक्ति, समूह या ठेकेदार को देता था। लेकिन तेंदूपत्ता एकत्र करने के बदले ठेकेदारों द्वारा कम पैसा देने और एकत्र करने वालों से अधिक काम लेने की लगातार आने वाली शिकायतों के बाद 1964 में अविभाजित मध्यप्रदेश ने तेंदूपत्ता के व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया।

इसके बाद पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र ने 1969 में, आंध्रप्रदेश ने 1971 में, ओडिशा ने 1973 में, गुजरात ने 1979 में, राजस्थान ने 1974 में और 2000 में अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ ने इसी व्यवस्था को अपनाया। इस व्यवस्था के तहत राज्य का वन विभाग तेंदूपत्ता का संग्रहण करवाता है और फिर उसे व्यापारियों को बेचता है। तेंदू पत्ता को एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाने के लिए अनुज्ञा भी वन विभाग ही जारी करता है। 1984 में राज्य सरकार ने सहकारिता के माध्यम से तेंदूपत्ता का व्यापार करने के लिए राज्य लघु वनोपज संघ का गठन किया।

छत्तीसगढ़ में हर साल लगभग 13.76 लाख परिवारों से राज्य सरकार तेंदूपत्ता का संग्रहण करवाती रही है। संग्रहण का यह काम वन विभाग का छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज (व्यापार एवं विकास) सहकारी संघ करता है। राज्य में इस संघ के 31 ज़िला युनियन और 901 प्राथमिक वनोपज सहकारी समितियां हैं। राज्य भर में 10,300 से अधिक संग्रहण केंद्र या फड़ हैं, जहां संग्राहकों से तेंदूपत्ता एकत्र किए जाते हैं।

छत्तीसगढ़ जब अलग राज्य बना था, तब एक मानक बोरा तेंदूपत्ता के संग्रहण के बदले 400 रुपया दिया जाता था। मानक बोरा यानी एक बोरे में पत्तों की एक हज़ार गड्डी और प्रत्येक गड्डी में 50 पत्ते। 2018 तक तेंदूपत्ता के प्रति बोरे के लिए 1800 रुपये दिए जाते थे। लेकिन 2018 में राज्य में कांग्रेस पार्टी की सरकार आने के बाद इसकी क़ीमत 4000 रुपये कर दी गई। 

छत्तीसगढ़ में तेंदू पत्ता के एक मानक बोरे की कीमत इस समय 4000 रुपए प्रति बोरा है। एक मानक बोरे में तेन्दूपत्ता की एक हजार गड्डियां होती है और प्रत्येक गड्डी में 50 पत्ते होते है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे
छत्तीसगढ़ सरकार ने तेंदूपत्ता के एक मानक बोरे की कीमत 4000 रुपए प्रति बोरा तय की है। एक मानक बोरे में तेंदूपत्ता की एक हजार गड्डियां होती है और प्रत्येक गड्डी में 50 पत्ते होते है। हालांकि, आरोप है कि खुले बाजार में एक बोरे की कीमत 8000 से अधिक मिल रही है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि अगले साल यानी 2019 में इसी दर से 15,05,521.683 मानक बोरा तेंदूपत्ता की ख़रीदी की गई। लेकिन अगले साल तेंदूपत्ता संग्राहकों को इस बढ़ी हुई क़ीमत का कोई बहुत लाभ नहीं हुआ क्योंकि सरकार ने साल 2020 में महज 9,72,798.058 मानक बोरा तेंदूपत्ता की ख़रीदी की। राज्य बनने के बाद यह पहला अवसर था, जब इतनी कम मात्रा में सरकार ने ख़रीदी की थी। 2021 में राज्य सरकार ने 13,05,508.503 बोरा तेंदूपत्ता की ख़रीदी की।

कांकेर के तेंदूपत्ता संग्राहक मनोहर बघेल कहते हैं, “सरकार ने क़ीमत भले बढ़ा दी लेकिन ख़रीदी के दिन कम कर दिए। हमें भले सरकार 4000 रुपये दे कर उदारता की मुद्रा अपना रही है लेकिन हमसे संग्रहित तेंदूपत्ता को वह इससे कहीं ऊंची क़ीमत पर बेचती है। आप मुनाफ़े का अंदाज इससे लगा सकते हैं कि इस साल तेंदूपत्ता की नीलामी की औसत दर 8,067 रुपये प्रति मानक बोरा की दर है। यहां तक कि तेंदूपत्ता संग्राहकों को 2020 और 2021 की प्रोत्साहन पारिश्रमिक अब तक नहीं दी गई है। यही कारण है कि तेंदूपत्ता का संग्रहण करने वाले अब सरकार से मुक्त हो कर अपनी मर्जी से तेंदूपत्ता बेचना चाहते हैं।”

इधर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में इस बात को लेकर भी एक याचिका दायर की गई है कि तेंदूपत्ता अधिनियम 1964 के अनुसार जंगल की ज़मीन पर तेंदूपत्ता उगने की स्थिति में वन विभाग उसका उत्पादक और मालिक दोनों होता था। इसलिए तेंदूपत्ता का संग्रह करने वाले को वन विभाग केवल ‘संग्राहक दर’ का भुगतान करता था। लेकिन 2006 में लागू वनाधिकार क़ानून के बाद जंगल पर आदिवासी और परंपरागत निवासियों का अधिकार है। ऐसे में तेंदूपत्ता का संग्रहण करने वाले को केवल ‘संग्रहण शुल्क’ के बजाय तेंदूपत्ता की ‘ख़रीद दर’ का भुगतान करना चाहिए। 

सरकारी तर्क

ऐसा नहीं है कि तेंदूपत्ता को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग पहली बार उठी है। समय-समय पर तेंदूपत्ता संग्राहकों ने तेंदूपत्ता की कम क़ीमत का हवाला देते हुए इसकी क़ीमत को लेकर पहले भी सवाल उठाए हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाके में तो माओवादियों ने सबसे पहले तेंदूपत्ता की क़ीमत बढ़ाने की मांग के साथ खड़े हो कर ही अपनी जगह बनाई। 1996 में पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम पारित होने के बाद एक बार फिर से तेंदूपत्ता को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग उठने लगी। वन अधिकार क़ानून लागू होने के बाद भी इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सरकारी एकाधिकार को लेकर सवाल उठे। हालांकि इन मांगों का कोई खास असर नहीं हुआ। लेकिन अब कांकेर और राजनांदगांव ज़िले में खुद तेंदूपत्ता बेचने के गांवों के फ़ैसले ने सरकार की चिंता बढ़ा दी है।


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छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ के प्रबंध निदेशक संजय शुक्ला का कहना है कि सरकार के लिए तेंदूपत्ता संग्रहित करने के बजाये सीधे व्यापारियों को बेचने का फैसले के पीछे कुछ व्यापारी ही शामिल हैं, जो औने-पौने भाव में तेंदूपत्ता की ख़रीदी करना चाहते हैं। इसलिए वे ग्रामीणों को बरगला रहे हैं। संजय शुक्ला का कहना है कि तेंदूपत्ता एकत्र करने वालों को चार हज़ार रुपये प्रति मानक बोरा तो मिलता ही है, बिक्री से प्राप्त लाभांश भी उन्हें बांटा जाता है। इसके अलावा उनके लिए बीमा योजना और दूसरी सुविधाएं भी वन विभाग सुनिश्चित करता है। अगर ग्रामीण सीधे तेंदूपत्ता बेचें तो इन सुविधाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा।

संजय शुक्ला ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “राज्य में पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार अधिनियम का क़ानून अभी बना नहीं है। वन अधिकार क़ानून ग्रामीणों को सहकारी समिति बना कर इसकी बिक्री की बात कहता है। जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सहकारी समिति के माध्यम से ही ख़रीदी होती है। ऐसे में सरकार की सहमति के बिना ना तो ग्रामीण इसकी बिक्री कर सकते हैं और ना ही व्यापारी इसका परिवहन कर सकते हैं। ऐसा करने पर हमें मजबूरन क़ानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी।”

आदिवासी इलाकों में इसे हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है।
आदिवासी इलाकों में इसे हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि वनोपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए तेंदूपत्ता आय का सबसे बड़ा स्रोत है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

लेकिन छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच के विजेंद्र अजनबी इन तर्कों से सहमत नहीं हैं। वे बताते हैं कि पड़ोसी प्रदेश महाराष्ट्र ने पिछले 7 वर्षों से वनाधिकार प्राप्त ग्रामसभाओं को तेंदूपत्ता तोड़ने और स्वयं व्यापार करने की इज़ाज़त दे रखी है। इसमें यदि कोई अड़चन होती है तो आदिवासी विकास विभाग उन्हें मदद भी करता है। महाराष्ट्र में तहसील व जिला स्तर की ग्रामसभाओं का फेडरेशन तेंदू पत्ते व्यापार को अंजाम दे रहा है।

विजेंद्र का आरोप है कि लघु वनोपज के व्यापार पर अपना एकाधिकार बनाये रख कर वन-विभाग अपना रसूख बनाये रखना चाहता है, ताकि विभाग की धमक लोगों पर बनी रहे। जबकि, स्वयं केन्द्रीय मंत्रालय में आदिवासी कार्य देख रहे, प्रदेश में वन विभाग के प्रधान सचिव ने राज्यों को लिखे अपने पत्र में वनोपज पर एकाधिकार ख़त्म करने की बात कही थी। 

विजेंद्र कहते हैं, “प्रदेश के वन विभाग द्वारा ग्रामीणों को स्वयं तेंदूपत्ता विक्रय करने के निर्णय के विरुद्ध धमकी दिया जाना खेदजनक एवं वनाधिकार कानून का उल्लंघन है। इसके अलावा, यह हरकत अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दंडनीय भी हो सकता है। इस अधिनियम की संशोधित (2016) धारा ३(1) छ ( 3(1) G)  के तहत वनाधिकार का लाभ लेने से रोकने को अत्याचार माना गया है। यह माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश का भी उल्लंघन है।”

क्या है सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

2013 में सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित नियामगिरी फ़ैसले में इस मुद्दे पर विस्तार से निर्देश दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने लघु वनोपज को लेकर जारी दिशा निर्देश में साफ़ कहा कि राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन अधिकार अधिनियम की धारा 3 (1) ग के अंतर्गत लघु वनोपज से जुड़े वन अधिकारों को धारा 2 (झ) में परिभाषित सभी लघु वनोपज के संबंध में सभी वनक्षेत्रों में मान्य कर दिया गया है और राज्य की नीतियों को कानून के प्रावधान के अनुसार संशोधित कर दिया गया है। अधिनियम की धारा 2 (झ) में लघु वनोजप के अंतर्गत पादप मूल के सभी गैर-ईमारती वनोपज हैं, जिनमें बांध, झाड़, झंखाड़, ठूंठ, बेंत, टसर, कोया, शहद, मोम, लाख, तेंदू या केंदू पत्ता, औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियों, मूल, कंद और इसी प्रकार के उत्पाद शामिल हैं।

अदालत ने अपने फ़ैसले में साफ कहा कि कई राज्यों में लघु वनोपज, विशेष कर तेंदूपत्ता जैसे ऊंचे दर के वनोपज व्यापार में वन निगमों का एकाधिकार, इस क़ानून की भावना के विरुद्ध है, अतः उसे अब समाप्त किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वनाधिकार धारक या उनकी सहकारी समिति/फेडरेशन को ऐसे लघु वनोपज किसी को भी बेचने के लिए पूरी छूट दी जानी चाहिए। आजीविका के लिए, स्थानीय यातायात के समुचित साधन का उपयोग करते हुए जंगल के अंदर और बाहर, व्यक्तिगत या सामूहिक प्रसंस्करण, मूल्य आवर्धन और विपणन करने देना चाहिए। राज्य सरकारों को सभी लघु वनोपज की आवाजाही को राज्य सरकार के परिवहन नियमों के दायरे से बाहर करना चाहिए और इस उद्देश्य के लिए, परिवहन नियमों में उचित संशोधन किया जाना चाहिए। यहां तक कि ग्राम सभा से भी परिवहम अनुज्ञा की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। व्यक्तिगत रुप से या अधिकार धारकों की सहकारी समितियों/संघों द्वारा सामूहिक रुप से एकत्र किए गए लघु वनोपज के प्रसंस्करण, मूल्य आवर्धन पर किसी भी तरह का शुल्क/भार/रॉयल्टी इस अधिनियम की शक्तियों से परे होगा।


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सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकारों को जंगल के भीतर निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक रहवासियों को न केवल लघु वनोपज के निर्बाध संपूर्ण अधिकारों को हस्तांतरित करने में, बल्कि उनके द्वारा एकत्र और संसाधित लघु वनोपज के लिए लाभकारी मूल्य दिलाने की सुविधा भी उपलब्ध करानी चाहिए।

सरकार के प्रवक्ता और राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अक़बर का कहना है कि सरकार क़ानूनी निर्देशों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है। मोहम्मद अक़बर ने मोंगाबे हिंदी से कहा,“मेरी जानकारी में नहीं है कि गांवों में लोग खुद से तेंदूपत्ता बेचना चाहते हैं। अगर ऐसा कुछ है तो सरकार आदिवासियों के हित का ध्यान रख कर ही कोई फ़ैसला लेगी।”

लेकिन डोटोमेटा के सरपंच जलकू नेताम इसे भुलावे की बात कहते हैं। जलकू नेताम कहते हैं,“ सरकार हमसे चार हज़ार रुपये प्रति बोरा के हिसाब से तेंदूपत्ता का भुगतान करती है, जबकि हमने व्यापारी से बात की है और वे तेंदूपत्ता के लिए 11 हज़ार रुपये प्रति बोरा का भुगतान करेंगे। अब कोई हमे समझाए कि हमारा हित किसमें है!”

तेंदूपत्ता संग्राहक और सरकार के बीच उपजा विवाद कहां तक पहुंचेगा, यह कह पाना तो अभी मुश्किल है लेकिन अभी दोनों पक्ष इस तेंदू पत्ता के नियम-क़ानून के पेंच के मामले में ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ वाली मुद्रा में हैं। ऐसे में लगता नहीं है कि इसका कोई हल जल्दी निकल पाएगा।

 

बैनर तस्वीरः तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है।  तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल/मोंगाबे

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