- एक नए अध्ययन में पाया गया है कि कृत्रिम रसायनों और मानव निर्मित प्रदूषकों जैसे नए तत्वों का उत्सर्जन हमारे प्लेनेट के लिए निर्धारित सीमा को लांघ गया है और मानवता के साथ-साथ समूची पृथ्वी के लिए खतरा बन गया है।
- अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि हमारे प्लेनेट पर प्रदूषण ने निर्धारित सीमा-रेखा को पार कर लिया है। इसका कारण यह है कि उद्योगों द्वारा प्रदूषण पैदा करने वाले नए तत्वों का उत्सर्जन हमारी सरकारों द्वारा उसकी जोखिम का आकलन करने या उसके प्रभावों की निगरानी करने की क्षमता की अपेक्षा ज्यादा तेजी से हो रहा है।
- अभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 3,50,000 कृत्रिम रसायन मौजूद हैं। इनके अलवा अभी जिन सिंथैटिक रसायनों का उत्पादन हो रहा है उनको मिलाकर देखें तो आने वाले दशकों में इन रसायनों में काफी वृद्धि होने वाली है।
- हालांकि इनमें से कई पदार्थ प्रकृति तथा मानव-स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालते दिखाई देते हैं जिनमें से अधिकांश का आकलन नहीं किया जा सका है और उनके अंतरक्रियाओं को बहुत कम समझा गया है या कहें तो हम उनसे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।
पूरी दुनिया में उत्पादन के क्षेत्रों में मानव-निर्मित रसायन और सिंथैटिक प्रदूषक तत्वों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। जबकि हमारे प्लेनेट पर पहले से ही ऐसे हजारों रसायन इस्तेमाल में हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इनके बहुतायत की वजह से फैले प्रदूषण से वस्तुतः हम इनकी निर्धारित नाजुक सीमा-रेखा को पार कर गए हैं जिसके चलते पृथ्वी के ऑपरेटिंग सिस्टम के अस्थिर हो जाने का खतरा बहुत बढ़ गया है और मानवता के लिए भी एक स्पष्ट खतरा सामने आ गया है।
अभी वैश्विक बाजार में प्लास्टिक से लेकर कीटनाशकों तथा फ्लेम रिटार्डेंट्स और इंसुलेटर के रूप में इस्तेमाल होने वाले औद्योगिक रसायनों समेत विभिन्न किस्म के तकरीबन 3,50,000 कृत्रिम रसायन उपलब्ध हैं। अनुसंधानों में बताया गया है कि इनमें से बहुत सारे रसायन प्रकृति तथा मानव-स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इनमें से अधिकांश पदार्थों का मूल्यांकन नहीं किया गया है कि वे कैसे रियेक्ट करते हैं या उनका क्या-क्या इम्पैक्ट हो सकता है। सही मायने में कहें तो इनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं।
स्वीडन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के इकोटॉक्सिकोलॉजिस्ट और माइक्रोप्लास्टिक्स शोधकर्ता बेथानी कार्नी अल्मरोथ ने मोंगाबे के साथ अपने एक इंटरव्यू में बताया, “नॉलेज गैप बड़े पैमाने पर है और क्या उत्पादित या उत्सर्जित हो रहा है और उसके प्रभाव क्या हैं, इन तमाम चीजों को जानने-समझने का कोई उपकरण हमारे पास नहीं है। सही बात तो यह है कि चूंकि हम कुछ जानते नहीं हैं, इसलिए हम जो कुछ भी जानते हैं उन्हीं छोटी-छोटी जानकारियों को एक साथ मिलाकर एक बड़ी तस्वीर सामने लाने का प्रयास करते हैं।”
आज वैज्ञानिक उन रासायनिक और अन्य कृत्रिम पदार्थों को चिन्हित करने और उनके प्रभावों को समझने का प्रयास कर रहे हैं जो उद्योगों द्वारा आश्चर्यजनक तेजी से पैदा की जा रही हैं। इन्हें आम तौर पर नावेल एंटिटी के रूप में जाना जाता है। यूरोपियन एनवायरनमेंट एजेंसी द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 1950 से दुनिया भर में रसायनों के उत्पादन में 50 गुना वृद्धि हुई है और ऐसी उम्मीद की जाती है कि 2050 तक यह तीन गुनी और बढ़ जाएगी। हालांकि कि कुछ नावेल एंटिटी हैं जिनपर सरकारी संस्थाओं और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों द्वारा नियंत्रण किया जाता है। कई ऐसी भी हैं जिनके उत्पादन पर कोई पाबंदी या नियंत्रण नहीं है।
साइंस और टेक्नोलॉजी में प्रकाशित एक नए पेपर में कार्नी अल्मरोथ और उनके सहकर्मियों ने काफी जोर देते हुए बताया है कि जितनी तेजी से नावेल एंटिटी उत्पादित की जा रही हैं उसकी तुलना में सरकारों द्वारा इनकी जोखिमों का आकलन और कुप्रभावों की निगरानी का काम काफी धीमी गति से हो रहा है। इसके चलते रासायनिक खतरों के बारे में समाज में बड़े पैमाने पर अनभिज्ञता बनी हुई है। और सही बात तो यह है कि हम नावेल एंटिटी उत्पादन के मामले में ‘अपने ग्रह की निर्धारित सीमा’ को पार कर गए हैं और इस तरह हमने उस गृह के स्थायित्व को खतरे में डाल दिया, जिसे हम अपना घर कहते हैं।
नावेल एंटिटी की सीमा-रेखा का निर्धारण
अपने ग्रह की सीमा रेखाओं का निर्धारण करने की अवधारणा सबसे पहले 2009 में वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इसका उद्देश्य उन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का सुस्पष्ट रूप से पता लगाना था जिन्हें संतुलित बनाए रखा जाए तो जैवविविधता को बनाए रखना संभव है और यदि उनमें छेड़छाड़ की जाए या निर्धारित सीमा-रेखा को वे पार कर जाएं तो वे जीवन को बनाए रखने और उसे जारी रखने की पृथ्वी की क्षमता को अस्थिर या बर्बाद कर सकती हैं। उसके बाद जिन नौ सीमा-रेखाओं को चिन्हित किया गया है वे हैं जलवायु परिवर्तन, बायोस्फियर इंटीग्रिटी, समुद्र का अम्लीकरण, ओजोन परत का क्षरण, वायुमंडलीय एरोसोल प्रदूषण, मीठे पानी का उपयोग, नाइट्रोज और फास्फोरस का जैव-भू-रासायनिक प्रवाह, भूमि-प्रणाली में परिवर्तन और उनके साथ-साथ निश्चित रूप से नावेल रसायनों का उत्सर्जन।
इनमें से बहुत सारी सीमा रेखाओं का निर्धारण स्पष्ट रूप से किया गया है। उदाहरण के लिए वैज्ञानिकों ने बताया है कि यदि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 350 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से पार कर जाती है तो समझो कि मानव जाति जलवायु परिवर्तन के लिए सुरक्षित ऑपरेटिंग स्पेस की सीमा को पार कर गई। ऐसा 1988 में हो चुका है पर नावेल एंटिटी के लिए अभी भी सीमा-रेखा का निर्धारण नहीं किया जा सका है वह इसलिए कि इन पदार्थों को लेकर एक तरह का नॉलेज गैप बना हुआ है।
स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी के स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के प्लास्टिक प्रदूषण पर शोध कर रहीं पेट्रीसिया विलारुबिया-गोमेज ने, जो इस नए अध्ययन की सहलेखिका भी हैं, बताया कि इन क्षेत्रों में नॉलेज गैप के मौजूद रहने का कारण यह नहीं है कि रसायन और अन्य प्रदूषणकारी पदार्थ खतरा नहीं पैदा करते, बल्कि यह है कि वैज्ञानिक अभी भी इन नावेल एंटिटी और असंख्य तरीकों से उनके द्वारा प्रकृति पर डाले गए प्रभावों को जानने-समझने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं।
“यह अध्ययन एक बहुत हीनया क्षेत्र है।” मोंगाबे से एक वीडियो इंटरव्यू में बात करते हुए विलारुबिया-गोमेज बताती हैं, “अन्य प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं की तुलना में यह अध्ययन अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है… इस क्षेत्र में अधिकांश शोध पिछले सात सालों में ही किए गए हैं।”
कार्नी अल्मरोथ ने कहा कि शोधकर्ताओं ने मात्र दस हजार साल पहले जो होलोसीन नामक वर्तमान भूवैज्ञानिक युग शुरू हुआ उसे ही हमारे प्लेनेट की अन्य सीमा-रेखाओं का निर्धारण करने के लिए मानदंड बनाया लेकिन यह मानदंड नावेल एंटिटियों के लिए उपयुक्त नहीं था।
कार्नी अल्मरोथ आगे कहती हैं, “यह सीमा-रेखा दूसरों से अलग है क्योंकि दूसरी सीमा-रेखाओं का निर्धारण उस होलोसीन की परिस्थितियों के आधार पर हुआ है, जो कि दस हजार वर्ष पहले से चला आ रहा है, जब धरती की प्रणाली और आबोहवा बिल्कुल स्थायी हुआ करती थी।” वे कहती हैं वैज्ञानिक “पीछे मुड़कर देख सकते हैं और पता लगा सकते हैं कि ‘उस समय कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर कितना था तथा नाइट्रोजन और फास्फोरस तब किस स्थिति में थे?’ और फिर उसे एक बेस लाइन मान सकते हैं। पर हम नावेल एंटिटियों के मामले में ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उस समय उनका अस्तित्व ही नहीं था। ऐसे में उनमें से अधिकांश के लिए बेस लाइन जीरो हो जाएगी।”
इसकी जगह शोधकर्ता इन कृत्रिम रसायनों और अन्य प्रदूषणकारी पदार्थों के बारे में तथा उनके प्रभावों, उनके स्रोतों, उनके उत्पादन और उत्सर्जन से लेकर एक मलबे के रूप में उनके निस्तारण से संबंधित तमाम सूचनाएं हासिल कर सकते हैं। फिर वे साक्ष्य आधारित रूख के सहारे इसका निर्धारण कर सकते हैं कि नावेल एंटिटियां वस्तुतः पृथ्वी के स्थायित्व को किस हद तक तहस-नहस कर सकती हैं।
कार्नी अल्मरोथ कहती हैं कि “साक्ष्य इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि अब हम उस निर्धारित सीमा-रेखा को लांघ रहे हैं। इस संदर्भ में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।”
इंटरनेशनल पॉल्यूटेंट्स एलिमिनेशन नेटवर्क (IPEN) के अंतर्राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर व्योर्न बीलर, जो इस शोध में शामिल नहीं थे, ने इस रिपोर्ट को एक ‘बहुत ही बेहतरीन अकादमिक रिपोर्ट’ कहा जो इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता को प्रदर्शित करता है। बीलर ने मोंगाबे से एक फोनिक इंटरव्यू के दौरान बताया, “हमलोग बहुत ही तेज गति से विकास के दौर में प्रवेश करने वाले हैं। यदि आप जहरीले पदार्थों से संपर्क में आने को लेकर चिंतित हैं तो यह जान लीजिए कि आने वाले दशकों में प्लास्टिक प्रदूषणकारी पदार्थों समेत ये जहरीले पदार्थ तीन से चार गुना बढ़ने वाले हैं। यदि आप इसको लेकर अभी ही चिंतित हैं तो सोचिए आगे क्या स्थिति होने वाली है।”
चूंकि विज्ञान अभी इस जोखिम का आकलन करने में बहुत पीछे है और सरकारें इन रसायनों को नियंत्रित करने में बड़े पैमाने पर विफल रही हैं इसलिए इन प्रदूषणकारी रासायनिक पदार्थों का क्या दुष्परिणाम होगा और यह कितना विनाशकारी होगा इसके बारे में मानव जाति में अनभिज्ञता की स्थति बनी हुई है।
मानव जाति ने केवल इन नावेल एंटिटियों के उत्सर्जन की ही निर्धारित सीमा-रेखा को पार किया हो ऐसी बात नहीं है। जलवायु परिवर्तन, बायोस्फेयर इंटीग्रिटी, भूमि-प्रणालियों में बदलाव तथा नाइट्रोजन और फास्फोरस के जैव-भू-रासायनिक प्रवाह ने भी उस सुरक्षित ऑपरेटिंग सीमा को जो पृथ्वी को रहने लायक बनाए रखने का काम करती है, पार कर लिया है।
मानव जाति के ‘अस्तित्व’ पर एक खतरा
रशेल कार्सन और साइलेंट स्प्रिंग, जिसने आधुनिक पर्यावरण आंदोलन को शुरू करने में सहायक भूमिका निभाई थी, के प्रकाशन के समय से ही रासायनिक पदार्थों और अन्य प्रदूषणकारी तत्वों के बारे में जो जानकारी मिली उसने विशेषज्ञों को काफी चिंतित किया। कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायन मिट्टी की सेहत को नुकसान पहुंचा सकते हैं, पीने के पानी को दूषित कर सकते हैं, हवा में फैल सकते हैं, बड़े पैमाने पर पर्यावरण को प्रभावित कर सकते हैं और यहां तक कि पक्षियों, स्तनधारियों एवं मछलियों को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं। हमारे द्वारा ग्रहण किए गए रसायन, जैसे फार्मास्यूटिक्ल्स, शौचालयों में बहाए जाने के बाद भी बने रहते हैं और उनका अपशिष्ट पानी नदी, समुद्र के साथ-साथ जमीन को भी प्रदूषित करता है क्योंकि उस जमीन में फसलों के खाद के लिए इस दूषित ठोस शिवेज वाला कीचड़ का इस्तेमाल होता है।
पर्यावरण में रसायनों की स्थायी मौजदूगी एक बहुत ही विकट समस्या है। शोधों से पता चलता है कि अभी भी उस पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफिनाइल्स (PCBs) का निर्माण जारी है, जो काफी जहरीला और कैंसरस पदार्थ है और जिसे 1977 में ही अमरीका द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था तथा कूलैंट्स और आयल पेंटों में जिसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता था। यह जहरीला पदार्थ अभी भी जानलेवा व्हेल (ऑरसिनस ओर्का) की चर्बी में मिलकर उनके लिए और उन अन्यान्य प्रजातियों के लिए भी, जो दुनिया के विभिन्न भागों में विलुप्त होने के कगार पर हैं, खतरनाक साबित हो रहा है। अभी डिस्पोजेबल फूड पैकेजिंग, कुकवेयर, कॉस्मेटिक्स और यहां तक कि डेंटल फ्लॉस में भी ‘फॉरएवर केमिकल्स’ के रूप में जाने जाने वाले परफ्लूओरोअल्काइल और पॉलीफ्लूओरोअल्काइल (PFSASs) जैसे पदार्थों का, जो कि अत्याधिक जहरीले, कैंसरस और हार्मोनल सिस्टम को नुकसान पहुंचाने वाले (एंडोक्राइन डिसरपटर्स) हैं, का आम रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है। एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया है कि अमरीका में उपलब्ध अधिकांश पेय जल में ये आम रूप से पाए जाते हैं। इन्हें टूटने में सैकड़ो या हजारों साल लगते हैं पर पानी में इन ‘फॉरएवर केमिकल्स’ की मात्रा की कोई सीमा-रेखा अभी तक भी अमरीका में निर्धारित नहीं की गई है।
कार्नी अल्मरोथ ने बताया, “यदि हम बहुत सारे नावेल एंटिटियों का इस्तेमाल करना बंद कर दें तब भी वे दशकों या शताब्दियों तक हम जिन पदार्थों के बारे में बात कर रहे हैं उनके जरिए बनी रहेंगी।” वे आगे बताती हैं कि इनके अवशिष्ट प्रभावों के खतरों को देखते हुए इनके उत्सर्जन को रोकना या कम-से-कम धीमा करना अनिवार्य हो गया है।
साइंस एंड टेक्नोलॉजी में आया एक नया पेपर, प्लास्टिक पर, जिसका इस्तेमाल फूड पैकैजिंग, बर्तनों तथा किचन के उपकरणों के रूप में हमारे रोजमर्रे के जीवन में आम हो गया है, विशेष रूप से केंद्रित है। हाल के वर्षों में उन अरबों-खरबों माइक्रोप्लास्टिक्स पर, जिनके टुकड़े 5 MM या 1 इंच के तकरीबन पांचवें हिस्से से भी सूक्ष्म है, जो दुनिया के तमाम महासागरों को प्रदूषित कर रहे हैं और जिनमें और भी बड़े टुकड़ों के रूप में परिवर्तित होकर वन्य प्राणियों के जीवन को भी खतरे में डालने की क्षमता है, अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा ध्यान दिया गया है। यह नया शोध बताता है कि समुद्री हवाएं इन माइक्रोप्लास्टिक्स को वायुमंडल में ले जा सकती हैं जिसके चलते जिस हवा में हम सांस लेते हैं वह भी दूषित हो जाएगी और जलवायु परिवर्तन पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा।
प्लास्टिक से बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं क्योंकि वह उन रसायनों के कॉकटेल से बनता है जो गर्म होने, ठंडा होने या विघटित होने से खतरनाक पदार्थ उत्सर्जित करते हैं। विस्फेनल ए (BPA) के नाम से जाने जाने वाला एक केमिकल कंपाउंड के बारे में बताया गया है कि यह एक एंडोक्राइन डिसरपटर के रूप में काम करता है जो हॉर्मोन्स को प्रभावित कर इम्यून सिस्टम पर असर डालता है और यहां तक कि इससे कुछ खास किस्म के कैंसर के फैलने का भी खतरा होता है। विलारुबिया-गोमेज बताती हैं, “हमें कई दशकों से यह बताया गया है कि ये प्लास्टिक्स एक जड़ पदार्थ होते हैं और अपने इर्द-गिर्द कोई रसायन नहीं छोड़ते। पर जैसे-जैसे रिसर्च आगे बढ़ रहा है हमें पता चल रहा है कि यह सही नहीं है। प्लास्टिक से अन्य रसायनों का स्राव होता है… और हम सारे दिन इस प्लास्टिक के संसर्ग में रहते हैं।”
प्लास्टिक अपनी अंतिम अवस्था में ही केवल समस्या नहीं है। इसके निर्माण में पेट्रोलियम एक बेस के रूप में इस्तेमाल होता है तथा धरती की परतों को तोड़कर इथेन और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों को बाहर निकालकर उन्हें नए कम्पाउंडों के रूप में ढालकर प्लास्टिक का रूप दिया जाता है। ये अद्योगिक प्रक्रियाएं तरह-तरह के ग्रीन हाउस गैसों के साथ-साथ जहरीले रसायन भी मुक्त करती हैं। इस प्लास्टिक का उत्पादन जीवाश्म ईंधन उद्योग से मजबूती से जुड़ा हुआ है और जैसे-जैसे तेल की मांग घट रही है वैसे-वैसे पेट्रोकैमिकल उद्योग प्लास्टिक के उत्पादन में तेजी ला रहे हैं।
कार्नी अल्मरोथ ने बताया, “वे प्लास्टिक को अपने गुल्लक के रूप में देखते हैं। इसके साथ ही साथ प्लास्टिक के उत्पादन, इसके इस्तेमाल और इसकी बिक्री में हाल के दिनों में काफी तेजी आई है।”
बीलर ने कहा कि पर्यावरण में नावेल एंटिटियों का उत्सर्जन ठीक जलवायु परिवर्तन जैसा खतरा ही पैदा कर रहा है। “ये दोनों मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा हैं।” वे आगे कहते हैं जलवायु परिवर्तन से यह तय होगा कि आप कहाँ रह सकते हैं और आपकी आजीविका कैसी हो सकती है। ये रसायन आपकी सेहत को बर्बाद करते हैं और यह बहुत प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत तौर पर होता है इसलिए मैं उनके द्वारा पैदा किए जा रहे संकट को भी कम नहीं मानता बात केवल इतनी सी है कि हममें जलवायु के प्रति जितनी सामाजिक जागरूकता है उतनी रसायनों या रासायनिक सुरक्षा के प्रति नहीं।
दरअसल रासायनिक जोखिमों का निर्धारण करने में अक्सर कई वर्षों तक एक व्यवस्थित अनुसंधान की जरूरत होती है। वैज्ञानिक इस दौरान सिंथैटिक पदार्थों और उनका पर्यावरण व स्वास्थ्य पर प्रभावों के बीच के संबंधों की खोजबीन करते हैं। इसमें समय लगता है। तबतक वे पदार्थ पूरे समाज के विभिन्न उत्पादों में इस्तेमाल होने लगते हैं और इस तरह ये आम हो जाते हैं।
‘जागरूकता में वृद्धि’
हालांकि नावेल एंटिटी के प्रभावों को कम करने के लिए कुछ बदलाव करना तत्काल जरूरी हैं, यह बताते हुए कार्नी अल्मरोथ ने कहा कि “प्रणालीगत सामाजिक संरचनाओं में बड़े पैमाने पर फेर-बदल” करने के लिए औधोगिक क्षेत्र में एक आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत होगी।
उन्होंने बताया कि उद्योगों द्वारा नावेल एंटिटियों का जो उत्पादन होता है “वह इस तर्क पर आधारित है कि निरंतर आर्थिक वृद्धि के लिए यह जरूरी है।” वे आगे कहती हैं, “इसी तर्क के सहारे, इनके द्वारा जहर फैलाने के इतने आंकड़ों के बावजूद, वे रसायनों का उत्पादन और उनका इस्तेमाल जारी रखते हैं क्योंकि वे यह दिखा देते हैं कि इसी तरह अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो सकती है, नौकरियां मिल सकती हैं और आने वाले दिनों में चीजों की उपलब्धता बनी रह सकती है।”
समस्या की विकरालता के बावजूद नजदीक भविष्य में बदलाव के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। उदहारण के लिए जैवविविधता और जलावायु पर काम करने वाली IUCM या यू.एन. इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) जैसी संस्थाओं की तरह ही कैमिकल पॉल्यूशन पर इंटरनेशनल पैनल गठित करने की अपीलें सामने आ रहीं हैं।
बीलर ने कहा कि हालांकि बातचीत केवल प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने जैसे मुद्दे पर ही होनी है। पर ऐसी मांग भी उठ रही है कि प्लास्टिक के उत्पादन से लेकर उसके मलबे तक से पर्यावरण में जो रसायन और प्रदूषक पदार्थ उत्सर्जित हो रहे हैं, उनका आकलन करते हुए प्लास्टिक के पूरे लाइफ साइकिल पर चर्चा की जाए।
उन्होंने यह भी कहा कि प्लास्टिक प्रदूषण में लोगों की जिस तरह रूचि बढ़ रही है उससे सिंथैटिक रसायनिक दूषित पदार्थों से उत्पन्न और भी बड़ी समस्या के प्रति भी लोगों में जागरूकता पैदा होने में मदद मिली है। इससे निश्चित रूप से एक उम्मीद जगती दिख रही है।
उन्होंने आगे कहा, “प्लास्टिक से संबद्ध होने के चलते रसायनों से हो रहे नुकसान के प्रति भी जागरूकता थोड़ी बढ़ी है पर प्लास्टिक्स से पहले इस संबंध में रत्तीभर भी जागरूकता नहीं थी। इतना तो है कि प्लास्टिक्स के आने के बाद यह बढ़ती हुई चेतना अंधेरे में एक रौशनी की किरण दिखा रही है।”
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बैनर तस्वीरः प्लास्टिक का उत्पादन जीवाश्म ईंधन उद्योग से मजबूती से जुड़ा हुआ है और जैसे-जैसे तेल की मांग घट रही है वैसे-वैसे पेट्रोकैमिकल उद्योग प्लास्टिक के उत्पादन में तेजी ला रहे हैं। तस्वीर– लुई वेस्ट / फ़्लिकर।