- नदी का बढ़ता तापमान बाहर से आई मछलियों के लिए संजीवनी है और भविष्य में तापमान बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। क्षेत्रीय क्लाइमेट मॉडल के आधार पर हुए अध्ययनों से अंदाजा लगाया गया है कि 2010 से 2050 के बीच गंगा नदी घाटी क्षेत्र का तापमान एक से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा।
- तापमान में इस तरह बढ़ोतरी की वजह से गंगा नदी में बाहरी मूल के जलीय जीवों की संख्या बढ़ सकती है। इन प्रजातियों में कॉमन कार्प, तिलापिया और अफ्रीकी कैटफ़िश शामिल हैं।
- ये प्रजातियां मीठे पानी में घुसपैठिया मानी जाती है। बावजूद इसके इन मछलियों का पालन किया जा रहा है। इसकी वजह है इन प्रजातियों का जल्दी बढ़ना और मछली पालक किसानों को अच्छा लाभ मिलना।
- तत्काल तो अच्छे लाभ की वजह से इन मछलियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन वैज्ञानिकों को, भविष्य में इससे जैव-विविधता को नुकसान होता दिख रहा है।
गंगा नदी घाटी में 25 किलोमीटर के दायरे में क्षेत्रीय जलवायु मॉडल (रीजनल क्लाइमेट मॉडल) के जरिए अध्ययन किया गया। अध्ययन के नतीजों के आधार पर भविष्यवाणी की गई कि 2010 से 2050 के बीच पानी के तापमान में एक से चार डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी होने वाली है। पानी के गर्म होने से नदी में जीवों की गैर स्थानीय या गैर-देसी प्रजातियां घुसपैठ कर जाएंगी। वैसी प्रजातियों के जीव यहां पहले कभी नहीं देखे गए। नए शोध के अनुसार, बढ़ते तापमान का फायदा कॉमन कार्प या यूरेशियन कार्प (साइप्रिनस कार्पियो), नाइल तिलापिया (ओरियोक्रोमिस निलोटिकस) और अफ्रीकी कैटफ़िश (क्लारियस गैरीपिनस) जैसे आक्रामक प्रजातियों को होगा।
साफ पानी में रहने वाले आक्रामक विदेशी जीवों की एक विशेषता होती है, वे नए आवासों और कठोर परिस्थितियों में फैलने की क्षमता रखते हैं। “अधिकांश आक्रामक प्रजातियां बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल होने में सक्षम हैं क्योंकि वे प्रकृति में प्लास्टिक की तरह हैं,” यह कहना है ए.के. सिंह का जो कि आईसीएआर-नेशनल ब्यूरो ऑफ फिश जेनेटिक रिसोर्सेज, लखनऊ में एमेरिटस साइंटिस्ट हैं। उन्होंने अपने शोध में संरचनात्मक लक्षणों को बदलकर नए वातावरण के अनुकूल होने वाले गुणों की वजह से आक्रामक प्रजातियों की रूपात्मक प्लास्टिसिटी का जिक्र किया। सिंह जनवरी 2022 में प्रकाशित अध्ययन के सह-लेखक थे।
देसी मछलियों पर मंडराता संकट
भारत के राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) ने नील तिलापिया, अफ्रीकी कैटफ़िश और कॉमन कार्प को देश की मीठे पानी की जैव विविधता के लिए एक बड़े खतरे के रूप में सूचीबद्ध किया है। ये प्रजातियां बहुतायत में मौजूद हैं। गंगा के किनारे मछली पालक इसे पालना पसंद करते हैं। इसकी वजह है इन मछलियों से मिलने वाला फायदा। एनबीए के अनुसार, इन मछलियों की शुरूआत ने गंगा सहित प्रमुख नदी प्रणालियों में कई देशी प्रजातियों, विशेष रूप से भारतीय कार्प्स को गंभीर रूप से समाप्त कर दिया है।
जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा प्रभाव बढ़ता तापमान है। पानी का बढ़ता तापमान गैर-देसी या आक्रामक प्रजाति के लिए संजीवनी की तरह काम करेगा और इनका फैलाव बढ़ता जाएगा।
हालांकि वर्षा और तापमान के पैटर्न में नाटकीय बदलाव से साफ पानी में पाए जाने वाली देसी और आक्रामक जलीय प्रजातियों का तनाव बढ़ा है, लेकिन आक्रामक प्रजातियां इन नई परिस्थितियों को झेलने में सक्षम हैं। यही खास बात उत्तर प्रदेश में आम कार्प, तिलापिया और अफ्रीकी कैटफ़िश को जीवित रहने में मदद करती है। कानपुर में कई क्षेत्र, कन्नौज में मेहंदी घाट, उन्नाव में शुक्लागंज, प्रयागराज में दारागंज, मिर्जापुर में अदलहाट, वाराणसी में सरायमोहना, गाजीपुर में दादरी घाट और बलिया जिले में गंगा घाटों पर ये मछलियां फल-फूल रही हैं।
जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्तमान में कम से कम 10,967 प्रजातियों पर खतरा है। ये प्रजातियां आईयूसीएन (IUCN) की खतरे वाली प्रजातियों की लाल सूची में शामिल हैं और इसलिए इनके विलुप्त होने की आशंका बढ़ जाती है।
सबसे बड़ा रुपैया
व्यापक रूप से आक्रामक के रूप में शामिल होने के बावजूद, इन प्रजातियों को दुनिया भर में तरजीह मिल रही है। उदाहरण के लिए, 2021 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक तिलापिया जलीय कृषि उत्पादन 1990 से 2018 तक 380,000 टन से बढ़कर साठ लाख टन हो गया। इससे वैश्विक जलीय उत्पादन में इस मछली का चौथा सबसे बड़ा योगदान हो गया है। “तिलिपिया और अफ्रीकी कैटफ़िश की खेती, किसानों के लिए लाभप्रद है। इससे वैश्विक आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। तिलापिया कठोर और हर माहौल में ढलने वाले मछली है। इसमें तेजी से प्रजनन की क्षमता होती है और इस तरह इनकी संख्या भी तेजी से बढ़ती है। यह सब खूबी इसे मछली पालन के लिए आदर्श बनाती है,” उत्तर प्रदेश में अमेठी के पास मछली पालन करने वाले विप्लोव कटियार कहते हैं।
हालांकि, यह आक्रामक मछली तालाबों से बचने में माहिर होती हैं। स्थानीय मछलियों को मात देते हुए ये नए क्षेत्र में भी आसानी से अपना विस्तार कर लेती हैं।
सिंह कहते हैं, “हमने कई जागरूकता अभियान शुरू किए। लेकिन हमे यह महसूस हुआ कि अपने तात्कालिक हित के सामने भविष्य की चुनौतियों के प्रति किसान सचेत नहीं हैं। इन मछलियों से जो हानि होगी उसका एहसास भविष्य में दिखेगा। यह बदलाव कई बार मूर्त तो कभी अमूर्त हो सकते हैं।”
एनबीए के अनुसार, आक्रामक प्रजातियों का प्रबंधन एक कठिन कार्य है। अब तक, केवल एक प्रजाति की आबादी को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया गया है। जलीय आक्रमण प्रबंधन के मामले में, रोकथाम ही अब तक का एकमात्र प्रभावी और किफायती उपाय है।
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“यदि किसी संभावित आक्रमणकारी ने एक नदी-तालाब पर अपना वर्चस्व हासिल किया है तो उन्हें नियंत्रित करने और प्रबंधित करने का कोई एक तरीका नहीं है। और अगर ऐसी कोई विधि मौजूद भी है, तो भी यह बहुत महंगी है। दुनिया भर में, आक्रामक जलीय प्रजातियों को खत्म करने के लिए लाखों डॉलर खर्च किए गए हैं, लेकिन कुछ भी हासिल नहीं हुआ है,” सिंह कहते हैं।
सिंह कहते हैं, “भविष्य में स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि इन मछलियों में ऐसी क्षमता है कि वे जैव-विविधता में हस्तक्षेप कर सकें। इन मछलियों के पास खुद के अनुसार माहौल तैयार करने की क्षमता है इसलिए ये भविष्य में स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर सकती हैं।”
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बैनर तस्वीर: अफ्रीकी कैटफ़िश को नए और कठिन माहौल पसंद है और वे यहां आसानी से अपना विकास कर सकती हैं। तस्वीर– सौम्यब्रत रॉय / विकिमीडिया कॉमन्स