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बायोचार में बिगड़ते मौसम को बचाने की ताकत, लेकिन लागत बड़ी बाधा

बायोचार बनाने की प्रक्रिया। बायोचार को पेड़ों और फसलों से जुड़े अपशिष्ट पदार्थों (पराली, भूसा, डंठल सूखे पत्तों आदि) से बनाया जाता है और लंबे वक्त तक जमीन में दबाकर रखा जाता है। तस्वीर- लोरेन इशाक/पर्माकल्चर एसोसिएशन/फ्लिकर

बायोचार बनाने की प्रक्रिया। बायोचार को पेड़ों और फसलों से जुड़े अपशिष्ट पदार्थों (पराली, भूसा, डंठल सूखे पत्तों आदि) से बनाया जाता है और लंबे वक्त तक जमीन में दबाकर रखा जाता है। तस्वीर- लोरेन इशाक/पर्माकल्चर एसोसिएशन/फ्लिकर

  • बायोमास के थर्मोकेमिकल रूपांतरण से हासिल होने वाले बायोचार में कार्बन को अलग करने की क्षमता है।
  • बायोचार मिट्टी की सेहत सुधारने में मदद करता है और कृत्रिम उर्वरकों के उपयोग को घटाता है।
  • इस तकनीक को लोकप्रिय बनाने के लिए लागत और अन्य बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता है।
  • बायोचार में जलवायु परिवर्तन की समस्या को कम करने की क्षमता है।

मौसम में हो रहे बदलावों से निपटने के लिए आजकल बायोचार की खूब चर्चा हो रही है। एक नए रिव्यू के मुताबिक इससे टिकाऊ विकास के लक्ष्यों को भी हासिल करने में मदद मिल सकती है। दरअसल, बायोचार को पेड़ों और फसलों से जुड़े अपशिष्ट पदार्थों (पराली, भूसा, डंठल सूखे पत्तों आदि) से बनाया जाता है और लंबे वक्त तक जमीन में दबाकर रखा जाता है। वातावरण में हो रहे बदलावों से पार पाने में इसे प्रकृति आधारित समाधान के तौर पर देखा जा रहा है। 

ये समीक्षा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली (आईआईटी दिल्ली) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने की है। इसमें कई दिलचस्प अनुमान लगाए गए हैं। अनुमान है कि बायोचार मिट्टी में औसतन 376.11 मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन को अलग कर सकता है। यही नहीं, भारत को खेती और उससे संबंधित गतिविधियों में 41.41-63.26% उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकता है।

इस समीक्षा को आईआईटी के ग्रामीण विकास और प्रौद्योगिकी केंद्र में सहायक प्रोफेसर प्रियंका कौशल के नेतृत्व में पूरा किया गया है। इसमें बायोचर के कई फायदे बताए गए हैं। मसलन, मिट्टी में सुधार के लिए बायोचार कुदरती समाधान हो सकता है, क्योंकि यह मिट्टी की उर्वरता और उसमें सूक्ष्म जीवों की गतिविधियां बढ़ाता है। इसे कंपोस्ट के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। यह पानी को साफ करने में भी काम आ सकता है। इससे अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण, स्वच्छ पानी और स्वच्छता पर ध्यान देते हुए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने में मदद मिलेगी। 

इसके अलावा, सीसा, पारा, कैडमियम और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं को सोखने के लिए बायोचार का संभावित उपयोग एक अतिरिक्त लाभ है। इन भारी धातुओं से बने उत्पादों का कृषि और उद्योगों जैसे पिग्मनटेशन (रंजकता), निर्माण सामग्री और जल परिवहन पाइपों में अत्यधिक उपयोग किया जाता है।

फसलों के अलग-अलग अवशेषों से बायोचार बनाने की संभावित क्षमता के आधार पर आईआईटी टीम की रिपोर्ट कहती है इससे कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों और नाइट्रोजन और सल्फर के ऑक्साइड का उत्सर्जन घट सकता है। साथ ही हवा को दूषित करने वाले घातक कणों में भी कमी आ सकती है।

रिन्यूऐबल एण्ड सस्टैनबल एनर्जी समीक्षा में उनकी रिपोर्ट कहती है कि बायोचार ने कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर और स्टोरेज को लेकर जबरदस्त क्षमता भी दिखी है। उच्च सतह क्षेत्र और निम्न सक्रियण ऊर्जा कार्बन डाइऑक्साइड के सोखने में अहम भूमिका निभाते हैं।

सोसाइटी फॉर फार्मर्स डेवलपमेंट, नगवैन, कुल्लू जिला, हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित पाइन सुई ब्रिकेट्स। तस्वीर- चिंचू.सी/विकिमीडिया कॉमन्स
सोसाइटी फॉर फार्मर्स डेवलपमेंट, नगवैन, कुल्लू जिला, हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित पाइन सुई ब्रिकेट्स। तस्वीर– चिंचू.सी/विकिमीडिया कॉमन्स

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारत में  517.82 मेगाटन (एमटी) फसल अवशेषों को बायोचार में बदलने और 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी के प्रयोग से फसल की पैदावार में वृद्धि के चलते औसत 21 एमटी कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन बाहर निकाला जा सकता है।

इसी तरह, मिट्टी में कार्बनिक कार्बन के कम खनिजकरण के चलते मिट्टी के ऊपरी हिस्से के एक मीटर में 311 एमटी कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन को बाहर किया जा सकता है और हर साल लगभग एक एमटी नाइट्रोजन और लगभग आधा एमटी फास्फोरस बचाया जा सकता है।

कौशल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि आईआईटी टीम बायोचार उत्पादन का ज्यादा सटीक अनुमान लगाने, इसके उत्पादन में खपत होने वाली ऊर्जा को घटाने और अन्य पक्ष काम करने वाली पहली टीम है। उदाहरण के लिए,इसके परिवहन में खपत होने वाली ऊर्जा और रूपांतरण में लगने वाली सामग्री के साथ ही इसके प्रसंस्करण को ध्यान में रखना होगा। “हमने पूरे फ्लो प्रोसेस डायग्राम को समझाया है और इसके लिए जरूरी चीजों का अनुमान भी लगाया है।”

कौशल का कहना है कि इस रिसर्च का महत्व बायोचार उत्पादन के वास्तविक पर्यावरणीय फुटप्रिंट का अनुमान लगाने की कोशिशों में निहित है। फसल अवशेषों को काटने और सुखाने, परिवहन, भंडारण, हैंडलिंग व बायोचार उत्पादन जैसे पूर्व-प्रसंस्करण के लिए गर्मी और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जैसे धूप में या सौर ऊर्जा से सुखाने और प्रीहीट ट्रीटमेंट के  जरिए फसल के ताजा अवशेषों में नमी को 30% तक कम किया जा सकता है। ।

इसके अलावा, आईआईटी लेखकों की रिपोर्ट के मुताबिक कई कारक बायोचार उत्पादन को प्रभावित करते हैं। इनमें प्रसंस्करण का तापमान, ताप (हीटिंग) की दर, रिएक्टर का दबाव और बायोमास प्रकार जैसे लिग्निन, सेल्युलोज, हेमिकेलुलोज, अकार्बनिक पदार्थ और नमी की मौजूदगी शामिल हैं। 

ये निष्कर्ष विभिन्न फीडस्टॉक से प्राप्त बायोचार की क्षमता पर ब्रातिस्लावा स्थित स्लोवाक एकेडमी ऑफ साइंसेज से जुड़े प्लांट साइंस एंड बायोडायवर्सिटी सेंटर के वनस्पति विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक राजपाल शेट्टी और उनके सहयोगियों द्वारा पूर्व में निकाले गए निष्कर्षों को आगे ले जाते हैं। शेट्टी की टीम ने मिट्टी की अम्लता, विशेष रूप से अत्यधिक अम्लीय मिट्टी में एल्यूमीनियम विषाक्तता को कम करने पर  यूकेलिप्टस, चावल की भूसी और बांस जैसे फीडस्टॉक से प्राप्त बायोचार की क्षमता पर काम किया था। शेट्टी बताते हैं कि अम्लीय मिट्टी भारत में एक बड़ी समस्या है। आमतौर पर ये मिट्टी कम उर्वर होती है और फसल की वृद्धि को कम करती है, जिसके लिए उपचार की जरूरत होती है।

यूकेलिप्टस की प्रतीकात्मक तस्वीर। जयराम रमेश कहते हैं, "मैंने कहा था कि कैंपा फंड का इस्तेमाल जंगल को पुनर्जीवित करने में होना चाहिए। वृक्षारोपण में पौधों के बचने की संभावना काफी कम होती है। हमने यह भी पाया कि पौधा लगाने के नाम पर बबूल और यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। भारतीय जंगल खोकर हम न सिर्फ पेड़ बल्कि जमीन भी खराब कर रहे हैं।" तस्वीर- आनंद उरुस/विकिमीडिया कॉमन्स
यूकेलिप्टस के पेड़। तस्वीर– आनंद उरुस/विकिमीडिया कॉमन्स

उनकी टीम के नतीजे बताते हैं कि क्षारीय और सोखने की अच्छी क्षमता से लैस बायोचार में मिट्टी की अम्लता और एल्यूमीनियम विषाक्तता को दूर करने की ताकत है। यूकेलिप्टस या नीलगिरी की लकड़ी से बायोचार मिट्टी में एल्यूमीनियम के घुलनशील अंश लगातार कम होते गए। चावल की भूसी बायोचार एल्यूमीनियम के बिना केवल अम्लीय मिट्टी में फसल की उपज में सुधार करती है। “तो, बायोचार को लागू करने से पहले साइट की जरूरत का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है।” 

शेट्टी का कहना है कि मिट्टी में बायोचार के इस्तेमाल से रासायनिक खाद की खपत को अच्छा-खासा कम किया जा सकता है। “सिंथेटिक उर्वरकों का कम इस्तेमाल भारत के कृषि उत्पादन में दीर्घकालिक रूप से स्थिरता प्राप्त करने के लिए जरूरी है।”

बिगड़ रहे मौसम से बचाने में संभावना

कौशल और शेट्टी जलवायु परिवर्तन (ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या रोकने के प्रयास) को रोकने में बायोचार की भूमिका के बारे में आश्वस्त हैं। शेट्टी का कहना है कि बायोचार कार्बन में समृद्ध है और इसे बेकार मिट्टी और वन भूमि में जोड़ा जा सकता है ताकि अधिक से अधिक कार्बन सोखा जा सके। शेट्टी कहते हैं, बायोचार में मिट्टी से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को ठीक करने की क्षमता है। उदाहरण के लिए, नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन। यह ऊर्जा की हद से ज्यादा खपत वाले कृत्रिम उर्वरक उद्योग पर निर्भरता को भी कम करेगा।

इसके अलावा एक फायदा यह है कि फसल अपशिष्ट और अन्य कृषि अवशेषों को बायोचार में बदलना। यह,भारत में पराली जलाने के मुद्दों का एक वैकल्पिक समाधान हो सकता है। इससे होने वाला वायु-प्रदूषण भी कम होगा। 

वहीं पिछले साल भी एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। इसमें नगरपालिका क्षेत्र के एक टन कचरे के चार-अलग तरीकों से निपटान को समझने की कोशिश की गई थी। इनमें अधिकृत लैंडफिल में निपटान, अनौपचारिक लैंडफिल में निपटान, खाद और एक बायोचार रिएक्टर में निपटान शामिल था। इसमें बायोचार निपटान में बहुत स्पष्ट संभावना दिखी थी खासकर जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में। यह इसलिए भी अहम है कि विकासशील दुनिया में सस्ती तकनीक और सुलभ प्रौद्योगिकी से ऐसा करना संभव है। अध्ययन के मुताबिक “बायोचार के उत्पादन में कार्बन फुटप्रिंट, कंपोस्टिंग की तुलना में कम था और बायोचार और कम्पोस्ट दोनों में कार्बन फुटप्रिंट्स लैंडफिलिंग की तुलना में काफी कम थे।”

हालांकि इसे लेकर चिंताएं भी हैं। पुणे में बायोचार भट्टों और इसके उपयोग में प्रशिक्षण पर काम करने वाली कंपनी समुचित इन्वायरो टेक की संस्थापक प्रियदर्शिनी कर्वे का कहना है कि कृषि अपशिष्ट प्रसंस्करण के साथ ज्यादा सतर्क रहने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, “मिटिगेशन (शमन) का तात्पर्य अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड (और अन्य GHGs) को वातावरण में जाने से रोकना। इसे हासिल करने का एकमात्र तरीका है कि जीवाश्म ऊर्जा के उपयोग को कम किया जाए।”

कर्वे कहती हैं कि एक चिंता यह है कि “कोई ऊर्जा के बहुत ज्यादा उपयोग में लिप्त हो सकता है और फिर बायोचारिंग के माध्यम से कार्बन पृथक्करण द्वारा उत्सर्जन की भरपाई कर सकता है। इससे लंबे समय में जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान नहीं होगा। हमें पहले ऊर्जा और भौतिक वस्तुओं की खपत को कम करके ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना चाहिए।”

लागत और दूसरी अड़चनें

इसके अलावा लागत को लेकर भी चिंताएं हैं। कर्वे कहते हैं कि बायोचारिंग में शामिल श्रम लागत अधिक है और इसलिए चार को बिक्री योग्य उत्पादों में परिवर्तित करना ही एकमात्र तरीका हो सकता है। तभी किसान इस प्रक्रिया का उपयोग करने के लिए सहमत होंगे। ऐसे में, सीक्वेस्ट्रेशन  कम से कम सीधे उस खेत में नहीं हो सकता जहां से बायोमास आया था। दूसरी ओर गैर-ईंधन अनुप्रयोगों में आखिरकार चार कहीं न कहीं मिट्टी में मिलकर खत्म हो जाएगा।”

कर्वे का कहना है कि इस प्रक्रिया में काफी लागत आएगी। हालांकि उनकी कंपनी द्वारा विकसित पोर्टेबल भट्टों के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मुख्य अड़चन श्रम लागत होगी।

शेट्टी भी कहते हैं कि बायोचार तकनीक “शुरुआती चरण में हमेशा महंगी होती है।” हालांकि, समय के साथ कीमत घटती जाती है क्योंकि मांग बढ़ती है, जो बदले में इनोवेशन और प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती है। 

 भारत को खेती और उससे संबंधित गतिविधियों में 41.41-63.26% उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकता है। तस्वीर- gambition786/Pixabay
भारत को खेती और उससे संबंधित गतिविधियों में 41.41-63.26% उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकता है। तस्वीर– gambition786/Pixabay

शेट्टी कहते हैं, “भारत कृषि प्रधान देश है, जहां बायोचार का उत्पादन करने के लिए बहुत सारे फसल अवशेष और कृषि अपशिष्ट मौजूद हैं। “इसलिए, एक बार व्यावसायिक उत्पाद उपलब्ध होने के बाद, समय के साथ यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए सस्ती हो सकती है।”

कर्वे कहते हैं कि एक बड़ी समस्या यह है कि भारत में मानसून की बारिश के चार महीनों के दौरान बायोचारिंग काम नहीं करेगा। इसके अलावा, केवल कटाई के मौसम के दौरान कृषि कचरे के निपटान की आवश्यकता है और साल के अन्य महीनों में भट्टों को पूरी क्षमता से चालू रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में बायोमास अपशिष्ट उपलब्ध नहीं हो सकता है।

कर्वे कहती हैं, “इन सभी अड़चनों ने इस प्रक्रिया को एक व्यावसायिक गतिविधि के रूप में शुरू होने से रोक दिया है। हालांकि यह छोटे और हाशिए के किसानों के लिए एक साइड बिजनेस साबित हो सकता है।” उदाहरण के लिए, उनकी कंपनी के पोर्टेबल बायोचार भट्ठा की कीमत 10,000 रुपए है। वह कहती हैं, “अगर किसान कृषि कचरे का उपयोग बायोचार बनाने और बायोचार-आधारित उत्पादों के निर्माण और बेचने की रणनीति अपनाते हैं, तो यह उनके लिए एक अतिरिक्त आय का साधन भी बना सकता है।” 


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अन्य अड़चनें भी हैं। शेट्टी बताते हैं कि भारत में अलग-अलग तरह की मिट्टी है, ठीक उसी तरह जैसे बायोचार के गुण और प्रभाव। “तो, सभी प्रकार के बायोचार हर प्रकार की समस्या और साइट (भारत में) के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते हैं।”

वो कहते हैं, “तो, बायोचार के वांछनीय गुणों को नियंत्रित करने और बायोचार उत्पादन में शामिल प्रक्रियाओं को आसान बनाने के लिए और अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है।” 

शेट्टी कहते हैं कि  बायोचार की गुणवत्ता के प्रमाणन की भी आवश्यकता है। वो यूरोप की कुछ कंपनियों का उदाहरण देते हैं जिनमें नोवो कार्बो जीएमबीएच, स्विस बायोचार जीएमबीएच, सोनेनेर्डे और कार्बोनेक्स जैसे वाणिज्यिक बायोचार के उत्पादन के लिए यूरोपीय प्रमाणन होने का दावा करती हैं।

भारतीय कृषि में बायोचार का प्रयोग शुरुआती अवस्था में है। मिट्टी के स्वास्थ्य और फसल की पैदावार को बढ़ाने के लिए पर्यावरण-उर्वरक के रूप में बायोचार को व्यापक रूप से अपनाने की आवश्यकता होगी।

 

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बैनर तस्वीर: बायोचार बनाने की प्रक्रिया। बायोचार को पेड़ों और फसलों से जुड़े अपशिष्ट पदार्थों (पराली, भूसा, डंठल सूखे पत्तों आदि) से बनाया जाता है और लंबे वक्त तक जमीन में दबाकर रखा जाता है। तस्वीर– लोरेन इशाक/पर्माकल्चर एसोसिएशन/फ्लिकर

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