- जलवायु परिवर्तन से होने वाली मौसमी आपदाओं ने महिलाओं को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है। वैश्विक साक्ष्यों के बावजूद हमारे देश की जलवायु नीतियां इनके प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
- जलवायु परिवर्तन से पलायन बढ़ता है। ऐसे में महिलाओं पर घर और खेती की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उनके काम का बोझ कई गुना बढ़ जाता है। ऐसे क्षेत्र, जो बाढ़ जैसी आपदा का सामना करते हैं, उन क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों की खरीद-फ़रोख्त का खतरा बना रहता है।
- विशेषज्ञों की सलाह है कि जलवायु नीतियों को महिला-पुरुष के नजरिए से फिर से देखने की आवश्यकता है। इस तरह वे हाशिये पर रहने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखने की बात करते हैं।
साक्ष्यों से पता चलता है कि जैसे-जैसे तेजी के साथ जलवायु से संबंधित समस्याएं बढ़ रही है, वैसे-वैसे महिलाओं और बच्चों पर इसका बोझ भी जाहिर होता जा रहा है। हालांकि अभी भी ऐसी नीतियों का अभाव है जो महिलाओं और बच्चों के प्रति संवेदनशीलता दिखाती हो। खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने की नीति की बात करें तो।
इस विषय पर मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए वीमेन इंडियन एसोसिएशन (महिलाओं के कल्याण से जुड़ा एक संगठन) की अध्यक्ष पद्मा वेंकटरमण कहतीं हैं कि जलवायु नीतियों का जेंडर के प्रति संवेदनशील न होने का मूल कारण “समझदारी की कमी” है। विमेंस इंडियन एसोसिएशन, जेंडर-सीसी के साथ मिलकर जीयूसीसीआई (जेंडर इन टू अर्बन क्लाइमेट चेंज इनिशिएटिव) के अंतर्गत वीमेन फॉर क्लाइमेट जस्टिस प्रोजेक्ट को चला रहा है। ताकि जलवायु नीतियों को और ज्यादा जेंडर के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके। “नीति निर्माता और सरकारी अधिकारियों के साथ जेंडर और सामाजिक पहलुओं की पड़ताल के लिए की गयी एक कार्यशालाओं के दौरान कई अधिकारी ने इस बात पर सहमति जताई कि उन्होंने कभी भी इस पहलू से नहीं सोचा कि कैसे मौसमी आपदाएं महिलाओं को और भी ज़्यादा प्रभावित करती हैं।”
वेंकटरमण ने बताया कि वे वर्तमान की नीतियों का विश्लेषण कर रही हैं जो कि इस प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है। इसको पूरा करने के लिए इससे जुड़े लोगों के साथ बैठकें की जा रही हैं और कार्यशाला आयोजित की जा रही है। जेंडर के लेंस से जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन और शमन के प्रभावों का आकलन किया जा रहा है। इस आधार पर सरकार को नीतिगत सिफारिशें सौंपी जाएंगी।
वे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताती हैं कि इस प्रकार की पहल विमेंस इंडियन एसोसिएशन की मुंबई, कोलकाता और दिल्ली शाखा के द्वारा ली गयी है। “चेन्नई में हम मछुआरा समुदाय की महिलाओं में नई स्किल पैदा कर रहे हैं। जिसमें उन्हें तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जाए, तथा रसायन और प्लास्टिक किस तरह से समुद्र और उनके स्वयं के लिए हानिकारक है इन चीजों के बारे में बताया जाता है।
अलग-अलग जेंडर के लोगों ने जलवायु परिवर्तन की बढ़ती घटनाओं पर अलग-अलग तरह से अपनी बात रखी है। एक्शन ऐड की देबब्रत पात्रा ने बताया कि जब 2019 में साइक्लोन फेनी (चक्रवाती तूफान) ने ओडिशा को तबाह किया तो उस समय पाया गया कि “चक्रवात के दौरान महिलाओं शेल्टर्स में सबसे बाद में पहुंची और सबसे पहले निकल गईं”। जबकि प्रोटोकॉल के अनुसार बच्चे और महिलाओं को सबसे पहले सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना होता है। पद्मा वेंकटरमण ने बताया कि जब 2004 में सुनामी ने भयंकर तबाही मचाई, तब उस समय अधिकांश पुरुष सुरक्षित स्थानों पर भाग गए। महिलाओं ने वापस लौटकर अपने बच्चों और जरूरी क़ीमती सामानों को लाने का साहस किया और अपने जीवन को खतरे में डाला था।
विशेषज्ञ विशेष रूप से रेखांकित करते हुए बताते हैं कि आपदाओं के बारे में महिलाओं की प्रतिक्रिया पुरुषों से अलग हैं। अनुकूलन नीतियों को बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए।
जलवायु आपदा से हुआ पलायन महिलाओं का बोझ बढ़ाता है
ओडिशा में समुद्री तट के आसपास के गांव में मुख्यतः महिलाएं ही घर-गृहस्थी को चलाती हैं क्योंकि 20 से 45 साल के ज़्यादातर पुरुष काम के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। मिट्टी में बढ़ता खारापन, लगातार आने वाले चक्रवात और बाढ़ ने, वहां के लोगों के लिए खेती करना चुनौतीपूर्ण बना दिया है। जैसा कि ऊपर कहा गया कि जब पुरुष काम करने के लिए कहीं और चले जाते हैं, तब महिलाओं पर ही घर का सारा बोझ आ जाता है। ऐसे में वे बच्चों, बूढ़े-बुजुर्ग और अपने खेतों की देखभाल के लिए कोई भी काम कर लेती हैं ताकि आमदनी का स्रोत चलता रहे।
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया (CANSA) की भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापन और पलायन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक देश में साढ़े चार करोड़ लोगों को जबरन पलायन करना पड़ेगा। इसका कारण जलवायु से जुड़ी आपदाएं होंगी।यह आंकड़ा वर्तमान के आंकड़े से तीन गुना अधिक होगा।
“निश्चित रूप से, जलवायु परिवर्तन तबाही और विस्थापन को अंजाम देता है। इस तरह के पलायन से महिलाओं पर बहुत ही ज्यादा बोझ बढ़ जाता है,” रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को 12 से 14 घंटे अतिरिक्त काम करना पड़ता है। जिसमें कृषि कार्य और घर के काम शामिल हैं। रिपोर्ट आगे कहती है, ‘कृषि का महिलाकरण’ (फेमिनाइज़ेशन) सभी शोधकर्ताओं के अध्ययन में पाया गया है।”
जनसंख्या के अनुरूप नीतियां
इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंट (IRADe) के निदेशक ज्योति पारीख ने अपने एक शोध पेपर- इज क्लाइमेट चेंज अ जेंडर इश्यू (क्या जलवायु परिवर्तन जेंडर का मसला है) में असंगत जलवायु परिवर्तन के चलते महिलाओं पर पड़ने वाले बोझ पर प्रकाश डाला है। उन्होंने सुझाया है कि सरकार को एक ऐसी रणनीति विकसित करनी चाहिये, जिससे कि प्राकृतिक संसाधनों पर महिलाओं की पहुंच और नियंत्रण बढ़े।
उन्होंने कहा, “आपदा की स्थिति में सम्पूर्ण समुदाय के अस्तित्व में महिलाओं की समझ और भागीदारी दोनों ही काफी महत्वपूर्ण रही है, इसलिए सरकार को शमन और अनुकूलन उपायों में आजीविका के प्रबंधन में उनके विशेष कौशल को पहचानना चाहिए।”
पापुलेशन काउंसिल के बिधुभूषण महापात्रा ने बताया कि जलवायु नीतियों को केवल स्वयं के समाधान केन्द्रित दृष्टिकोण तक ही सीमित नहीं रखना चाहिये बल्कि इसमें जनसंख्या केन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। उन्होंने बताया, “इस प्रकार का समाधान केन्द्रित नजरिया किसी भी समुदाय से जुड़ी उसकी जनसंख्या संरचना, गतिशीलता, सामाजिक मुद्दों या उन जोखिमों का ख्याल नहीं रखता है जिसका सामना समाज का सबसे ज्यादा जरूरतमंद तबका करता है।” “अभी यह सही मौका है कि शोधकर्ता सामाजिक नतीजों की जांच-पड़ताल करें, और हमारे नीति निर्माता उनको रणनीति की योजना बनाते वक़्त ध्यान में रखें और उन पर विचार करें।”
महापात्रा ने आगे कहा कि जनसंख्या केन्द्रित शोध महिलाओं और बच्चों पर बढ़ते खतरों की जांच-पड़ताल करता है। उदाहरण के लिए, विशेष रूप से ऐसे जलवायु के क्षेत्र में जहां पर लोग आपदा वाले मौसम का सामना कर रहे हैं, ऐसी जगहें महिलाओं और बच्चों की तस्करी के लिए ऐशगाह साबित हो सकती हैं।
ज़मीन से जुड़े या ग्रासरूट के संगठन बताते हैं कि प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़, महिलाओं और बच्चों के जीवन को गंभीर मुश्किलों में डाल देती है। इससे उनके तस्करी की राह आसान हो जाती है।
बच्चे भी जोखिम के जद में
2021 में प्रकाशित यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट चिल्ड्रेन्स क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (CCRI) का हवाला देती है, जिसका आधार प्राकृतिक शॉक्स जैसे कि चक्रवात, बाढ़ और सूखे के कारण से बच्चों पर पड़ने वाले बुरे असर से संबंधित है। यह रिपोर्ट भारत को 7.4 चिल्ड्रेन्स क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (CCRI) पर दर्शाती है जो कि ऐसे आपदाओं के लिए बेहद खतरनाक है।
यह रिपोर्ट में बताया गया है कि कोई भी आपदा, बच्चों को स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी जरूरी सेवाओं से दूर करता है। मुश्किल समय में ये सब सुविधाएं बच्चों तक देर से पहुंचती हैं या कम पहुंचती हैं। इनके प्रभावित होने से यह बच्चे जो कि पहले से ही असहाय होते हैं, अब वे और अधिक असहाय हो जाते हैं। हालांकि ऐसा कहा जाता है, “अत्यंत जोखिम वाले देशों में से केवल 40 प्रतिशत ही ऐसे देश हैं जिन्होंने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) में बच्चों और युवाओं का उल्लेख किया है।” भारत उन उल्लेख करने वाले देशों में शामिल नहीं है।
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इसके अलावा, सेव द चिल्ड्रेन्स के ताजातरीन शोध के अनुसार, वे बच्चे जिनका जन्म पिछले वर्ष हुआ था, उन्हें अपने दादा-दादी की तुलना में दो से सात गुना अधिक तक तबाही वाले मौसम की घटनाओं का सामना करना पड़ेगा। इसका अर्थ है कि इन्हें अपने दादा-दादी से कहीं अधिक गर्मी की तपन, सूखा, फसल का खात्मा और जंगल में भयानक आग का सामना करना पड़ेगा। यद्यपि इनमें से कई चुनौतियों का समाधान करने का प्रयास किया जा रहा है।
स्ट्रेटेजीज-अर्बन हेल्थ के तहत असम स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (2015-2020), खासतौर से बच्चों पर जलवायु परिवर्तन और कुपोषण के संबंधों का आकलन करने के लिए अध्ययन कर रही है। ताकि इन दोनों के बीच किसी भी प्रकार के जुड़ाव को समझा जा सके। भारत के समस्त हिमालयी क्षेत्रों वाले राज्यों में असम एक ऐसा प्रदेश है जो कि जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील है।
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बैनर तस्वीरः पश्चिम बंगाल में चक्रवात यास के बाद क्षतिग्रस्त सड़क के बगल में खड़ी एक महिला। यह साबित करने के लिए पर्याप्त वैश्विक सबूत हैं कि जलवायु परिवर्तन से महिलाएं अधिक प्रभावित हैं। तस्वीर– सुमिता रॉय दत्ता / विकिमीडिया कॉमन्स