- भारत में कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों में ही पहाड़ का रूप धारण करते कचरे का समाधान ढूंढा जा रहा है।
- भारत में जैसा कचरा इन संयंत्रों में जाता है वह सही नहीं होता। गीले कचरे को जलाने के लिए अतिरिक्त ईंधन खर्च करना पड़ता है।
- दुनिया में कचरे से ऊर्जा बनाने के संयंत्रों की सीमा समझ में आने लगी है और कई सारे देश इससे दूरी बनाने की कोशिश में है।
बीते 13 जून को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने हरियाणा सरकार को एक नोटिस जारी किया था। यह नोटिस बंधवारी लैंडफिल के पास भूजल को दूषित करने वाले खतरनाक कचरे को लेकर जारी किया गया था। बंधवारी का लैंडफिल बीते कई सालों से चर्चा में है। सामान्यतः गलत कारणों की वजह से। यहां की सारी चुनौतियों से निपटने के लिए राज्य सरकार ने बस एक रास्ता चुना है: कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र की स्थापना। वह चाहें स्वास्थ्य संबंधी चिंता हो, पर्यावरण से जुड़ी या कचरा प्रबंधन से जुड़ी चिंता हो। वर्ष 2018 में, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 15 मेगावाट क्षमता के संयंत्र की आधारशिला रखी थी। बाद में इसकी क्षमता बढ़ाकर 25 मेगावाट का प्रस्ताव रखा गया जिसका जमकर विरोध हुआ।
“पिछले साल 31 अगस्त (2021) को इस संयंत्र की क्षमता बढ़ाने के संबंध में एक जन सुनवाई का आयोजन किया गया था। वहां करीब 300 लोग मौजूद थे और सभी ने इसका पुरजोर विरोध किया,” अरावली बचाओ सिटीजन ग्रुप से जुड़ी नीलम अहलूवालिया बताती हैं। इस समूह ने प्रस्तावित डब्ल्यूटीई (वेस्ट टू एनर्जी) संयंत्र के खिलाफ एक ऑनलाइन अभियान भी चलाया है जिसे अब तक 34,000 से अधिक लोगों का समर्थन मिल चुका है।
अपनी याचिका में, इस समूह ने तर्क दिया है, “यह जानने के बावजूद भी कि भारत में कचरा जलाकर निपटान का तरीका कई बार फेल हो चुका है, हरियाणा सरकार अरावली वन क्षेत्र में कचरा से ऊर्जा बनाने वाला संयंत्र स्थापित कर रही है। यह न केवल पूंजी की बरबादी है बल्कि पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक है।” इस संयंत्र को बनाने में करीब 617 करोड़ रुपये का खर्च आने वाला है।
भारत में डब्ल्यूटीई संयंत्रों का इतिहास देखने पर इनका डर सही लगता है। देश का पहला डब्ल्यूटीई संयंत्र 1987 में दिल्ली के तिमारपुर में स्थापित किया गया था। डेनमार्क की एक कंपनी ने इसका निर्माण किया जिसमें रोजाना 300 टन कचरा जलाकर 3.75 मेगावाट बिजली पैदा की जानी थी। 20 करोड़ रुपये की लागत से स्थापित यह संयंत्र बमुश्किल 20 दिनों तक चला, धर्मेश शाह बताते हैं। शाह, गैर-सरकारी संगठन लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट (LIFE) के तकनीकी सलाहकार हैं। इनके अनुसार सही कचरा नहीं मिलने की वजह से ही यह प्लांट बंद हुआ।
यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। तब से, भारत में 14 डब्ल्यूटीई संयंत्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें से सात संयंत्र बंद हो गए, स्वाति सिंह सम्ब्याल बताती हैं। स्वाति एक स्वतंत्र वेस्ट मैनेजमेंट विशेषज्ञ हैं जो पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के साथ काम कर चुकी हैं।
पहाड़ का रूप धारण करता कचरा
कम से कम शहरी भारत में कचरे का पहाड़ एक सामान्य दृश्य बनता जा रहा है। शहर-दर-शहर ऐसे पहाड़ों के खड़ा होने में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगीकरण की बड़ी भूमिका है। वर्ष 2018 में आई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ने आर्थिक विकास के साथ बढ़ते कचरे के संबंध को रेखांकित किया था।
2022 में बजट सत्र के दौरान, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि 2019-20 में देश में प्रति दिन करीब 1,50,761 टन प्रति (TPD) ठोस कचरा उत्पन्न हुआ। विश्व बैंक की वही रिपोर्ट बताती है कि भारत का प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन, रोजाना के हिसाब 0.57 किलोग्राम है। यही दक्षिण एशिया में 0.52 किलोग्राम और वैश्विक स्तर पर 0.74 किलोग्राम है। इस मुद्दे पर किसी भी विशेषज्ञ से बात कीजिए सभी का यही मानना है कि देश के तमाम शहरों में विकराल रूप धारण करते इन कचरे के पहाड़ से निपटने के लिए एक स्थायी तरीके पर काम करने की जरूरत है।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए, इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) के संस्थापक और सीईओ, चंद्र भूषण कहते हैं, “कचरे के प्रबंधन की हमारी क्षमता उस गति से नहीं बढ़ पाई जैसे कचरा उत्पादन की क्षमता बढ़ी। यही नहीं, हम जो कचरा पैदा कर रहे हैं उसकी मात्रा और गुणवत्ता और उस कचरे के प्रबंधन के लिए नगर पालिकाओं की क्षमता भी काफी कम है।” आईफॉरेस्ट दिल्ली स्थित एक थिंक-टैंक है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकारें डब्ल्यूटीई संयंत्रों पर काफी भरोसा जता रही हैं। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की वेबसाइट का कहना है कि भारत में शहरी और औद्योगिक जैविक कचरे से कुल अनुमानित ऊर्जा उत्पादन क्षमता लगभग 5690 मेगावाट है। 2019 में प्रकाशित सीएसई का एक अध्ययन ‘टू बर्न ओर नॉट टू बर्न’ में बताया गया है कि देश में 382.7 मेगावाट की संयुक्त क्षमता के संयंत्र प्रस्तावित हैं। इसके अनुसार, 69.2 मेगावाट की क्षमता वाले संयंत्र चालू हैं, 84.3 मेगावाट निर्माणाधीन हैं और 66.35 मेगावाट सक्रिय नहीं हैं। स्वाति सिंह सम्ब्याल ही इस रिपोर्ट की लेखिका हैं।
बंधवारी डब्ल्यूटीई संयंत्र भी इनमें से एक है। पर यहां के लोग सीपीसीबी की रिपोर्ट के साथ-साथ अन्य वजहों से भी इस संयंत्र का विरोध कर रहे हैं। सीपीसीबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि बंधवारी का कचरा ऊर्जा के लिए जलाने के योग्य नहीं है।
जलाने के योग्य नहीं है कचरा
यह बात सिर्फ बंधवारी के कचरे और प्लांट पर लेकर लागू नहीं होती। लगभग सभी डब्ल्यूटीई संयंत्रों का यही सच है, सम्ब्याल कहती हैं। डब्ल्यूटीई संयंत्रों को भेजे जाने वाले अधिकांश कचरे को अलग नहीं किया जाता है। इसमें अधिकतर ऐसा कचरा होता है जो डब्ल्यूटीई संयंत्रों में जलाने के लिए उपयुक्त नहीं होता। ऐसे में इस कचरे को जलाने के लिए अतिरिक्त ईंधन की आवश्यकता होती है। इससे संयंत्र चलाने की लागत बढ़ जाती है। यही कारण है कि कई शहरों में डब्ल्यूटीई संयंत्र ठीक से काम नहीं कर रहे हैं या बंद हो गए हैं।
डब्ल्यूटीई संयंत्र के लिए कचरा उपयुक्त है कि नहीं यह उसके संरचना, कैलोरी मान और नमी की मात्रा के आधार पर तय होता है। वर्तमान में डब्ल्यूटीई संयंत्रों में जाने वाले कचरे में जैविक कचरे की मात्रा काफी अधिक होती है। उपर्युक्त सीएसई अध्ययन में कहा गया है कि जैविक कचरा, कुल कचरे का लगभग 40-70% होता है, कागज और कार्डबोर्ड 6 से 7% होता है। इसमें रिसाइकिल योग्य प्लास्टिक (6 से 10%), और अन्य प्लास्टिक (5-10%) होता है। इसके अलावा, धातु, कांच और घरेलू खतरनाक कचरे की मात्रा लगभग 1% से 3% होती है।
स्वाति कहती हैं कि देश में कचरे में कैलोरी मान कम और नमी की मात्रा अधिक होती है। उनके अनुसार, भारत में कचरे का कैलोरी मान 1,411 से 2,150 किलो कैलोरी/किलोग्राम के बीच है। यदि इसकी तुलना स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका में कचरे के कैलोरी मान से की जाए तो यह 1,900-3800 किलो कैलोरी/किलोग्राम के बीच है। इसलिए भारत में कचरा जलाने में मुश्किल पेश आती है। फिर इसके लिए अलग से ईंधन जैसे पेट्रोल-डीजल इत्यादि का इस्तेमाल करना होता है।
डब्ल्यूटीई संयंत्रों से निकलने वाला प्रदूषण सबके लिए एक चुनौती है। खराब क्वालिटी का कचरा इनके लिए और मुश्किल खड़ा कर रहा है। आईफॉरेस्ट के भूषण का कहना है कि इनमें से ज्यादातर प्लांट नीलामी के आधार पर स्थापित किए गए हैं। इसका मतलब है कि उन्हें 5 या 7 रुपये प्रति यूनिट की दर से ऊर्जा उपलब्ध करानी होगी। यदि बाहर से ईंधन खर्च करना पड़ रहा है तो यह इनके लिए घाटे का सौदा साबित होगा। यही वजह है कि अधिकतर प्लांट बंद हो जाते हैं। डब्ल्यूटीई के 50% से अधिक संयंत्र आज बंद हो गए हैं। इससे साबित होता है कि जैसी तकनीकी आज मौजूद है उस हिसाब से कचरा इनको नहीं मिल पा रहा है।
हालांकि, शाह की राय इसपर एकदम अलग है। उनका कहना है कि ऐसे संयंत्र के प्लानिंग में ऊर्जा की भूमिका लगभग नगण्य है। डब्ल्यूटीई सिर्फ कचरा प्रबंधन का एक उपाय है। कचरे से ऊर्जा का विचार इसलिए लाया गया क्योंकि लोग कचरा जलाने का विरोध करने लगे थे। खासकर विकसित देशों में। वजह यह थी कि इससे बहुत अधिक प्रदूषण होता था। इससे निपटने के लिए उद्योग जगत ने कचरे से ऊर्जा बनाने का शिगूफ़ा छोड़ा। ऐसे संयंत्र से ऊर्जा कभी भी अन्य स्रोतों के मुकाबले महंगी ही होगी।
विवाद के घेरे में कचरे से ऊर्जा बनाने के प्लांट
बंधवारी अकेली ऐसी जगह नहीं है जहां लोग डब्ल्यूटीई प्लांट का विरोध कर रहे हैं। दिल्ली में ओखला डब्ल्यूटीई संयंत्रों के लिए, मुंबई, बेंगलुरु में प्रस्तावित संयंत्रों का विरोध हुआ है। इन संयंत्रों के आस-पास रहने वाले लोग अपने स्वास्थ्य इत्यादि को लेकर चिंतित रहते हैं।
दिल्ली के सुखदेव विहार के एक निवासी ने कहा कि यह डर अकारण नहीं है। हम अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं। इससे पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूषण नियमों के उल्लंघन के लिए ओखला डब्ल्यूटीई प्लांट पर जुर्माना लगाया था। उनका दावा है कि संयंत्र सुखदेव विहार से 40 मीटर की दूरी पर, सभी मानदंडों का उल्लंघन करते हुए, स्थापित किया गया है। इसी तरह का डर अन्य शहरों के नागरिकों में भी व्याप्त है।
नागरिकों की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से संबंधित एक सवाल के जवाब में, शाह का दावा है कि विश्व स्तर पर ऐसे पर्याप्त सबूत हैं जो डब्ल्यूटीई संयंत्रों के स्वास्थ्य प्रभाव के बारे में बात करते हैं। उन्होंने बताया कि यूरोपियन यूनियन द्वारा वित्त पोषित ज़ीरो वेस्ट यूरोप की एक रिपोर्ट में कचरा जलाने और मानव स्वास्थ्य पर उसके प्रभावों के अध्ययन का एक बेहतरीन संकलन है।
शाह कहते हैं, ”जहां पश्चिम यूरोप और अमेरिका में डब्ल्यूटीई संयंत्र चल रहे हैं, वहां निवेश काफी अधिक है। हम बमुश्किल उसका एक अंश ही खर्च करते हैं। “मैंने ओखला इंसीनरेटर की तुलना की है जिसकी कीमत 200 करोड़ रुपये है, जो पश्चिमी यूरोप में चल रहे किसी भी इंसीनरेटर से कम से कम 10 गुना कम है। यह अपने आप में एक बड़ी चिंता की बात है। क्योंकि अधिकांश संयंत्र प्रदूषण नियंत्रण विभाग के अधीन हैं। वे स्वाभाविक रूप से प्रदूषण कर रहे हैं। इसलिए, विकसित देशों में प्रदूषण नियंत्रण पर काफी खर्च किया जाता है। भारत में लागत में कटौती की जाती है इसलिए प्रदूषण नियंत्रण की स्थिति काफी खराब है। शहरी क्षेत्रों में कूड़ा जलाना वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। अब आप खुद कचरा जलाकर इसे वैध साबित कर रहे हैं।”
गैर-बायोडिग्रेडेबल कचरे को परिवर्तित करने वाले डब्ल्यूटीई संयंत्रों की व्यापक आलोचना होती रही है। विश्व स्तर पर, डब्ल्यूटीई के खिलाफ माहौल बन रहा है, शाह कहते हैं। “यूरोप में कुछ सबसे उन्नत संयंत्र लगे हैं फिर भी वहां चरणबद्ध तरीके से इससे निजात पाने की कोशिश हो रही है। 1997 के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने लोगों के प्रतिरोध, स्वास्थ्य संबंधी जोखिम और उच्च लागत के कारण एक भी नया संयंत्र नहीं लगाया है। यूरोपियन यूनियन एक और चुनौती का सामना कर रहा है। यहां बेहतर कचरा प्रबंधन की वजह से संयंत्रों को उचित मात्रा में कचरा मिल ही नहीं पा रहा है। ये देश बाहर से कचरा आयात करने के लिए मजबूर हैं। यूरोप भर में सैकड़ों नगर पालिकाओं ने अब ज़ीरो वेस्ट को अपना नया लक्ष्य निर्धारित किया है। फिलीपींस ने आधिकारिक तौर पर ऐसे संयंत्र पर प्रतिबंध लगा दिया है और कुछ अन्य देशों ने इसे चरणबद्ध करने की इच्छा व्यक्त की है, ” उन्होंने आगे कहा।
कैसा हो आगे का रास्ता
इन सभी तथ्यों के बावजूद, भारतीय नीति निर्माता, कचरे से ऊर्जा बनाने वाले प्लांट को ही कचरा प्रबंधन का सबसे बेहतर उपाय मानते दिख रहे हैं।
जब पूछा क्यों? चंद्र भूषण का जवाब था कि यह कचरा प्रबंधन का सबसे आलसी तरीका है। अन्य तरीकों में कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। उसमें लोगों को गीले और सूखे कचरे को अलग करने के लिए प्रोत्साहित करना होता है, उन्हें कचरा प्रबंधन की मुहिम में शामिल करना होता है। साथ ही इस पूरी प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण करना भी शामिल है।
और पढ़ेंः देश में कचरा प्रबंधन की तीन सफल मिसाल
सम्ब्याल का कहना है कि मौजूदा नीतियों के क्रियान्वयन में खामियां हैं। “हमें कचरे की संरचना को समझना होगा। कुल कचरे का केवल 10 से 15 प्रतिशत ही जलाने योग्य होता है। इसे समझे बिना लोग डब्ल्यूटीई संयंत्रों को कचरा प्रबंधन का सबसे बेहतर समाधान मान रहे हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में, लगभग 80 प्रतिशत कचरे को जलाया जा रहा है जो टिकाऊ नहीं है, ”वह आगे कहती हैं।
“कुल अपशिष्ट उत्पादन के आधार पर, हमें प्रत्येक शहर में डब्ल्यूटीई संयंत्रों की आवश्यकता नहीं है। हमें इसकी क्षेत्रीय या राज्यवार आवश्यकता हो सकती है,” वह आगे कहती हैं।
इस सवाल के जवाब में, शाह वैश्विक रुझानों पर प्रकाश डालते हैं और कहते हैं कि सबसे अच्छी तकनीकी से भी प्रदूषण होता है। बहुत सारे विकसित देश कचरे को कम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। “आपके पास कचरा प्रबंधन नियम हैं जो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कचरे को स्रोत पर अलग किया जाना चाहिए। आपको अपशिष्ट प्रबंधन का विकेंद्रीकरण करना होगा। यही वजह है कि बेंगलुरू में दिल्ली से कहीं बेहतर कचरा प्रबंधन हो रहा है। बेंगलुरु में, उन्होंने प्रत्येक वार्ड में एक कचरा प्रबंधन केंद्र स्थापित किया गया है जिसे हम सूखा कचरा संग्रह केंद्र और कचरा संग्रह केंद्र कहते हैं। इसलिए कचरे को घर पर ही अलग किया जाता है और उसके बाद ही उसे इकट्ठा किया जाता है और कचरे को उसके चरित्र के हिसाब से अलग अलग केंद्रों पर ले जाया जाता है।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीरः दिल्ली का वेस्ट टू एनर्जी संयंत्र। देश का पहला डब्ल्यूटीई संयंत्र 1987 में दिल्ली के तिमारपुर में स्थापित किया गया था। डेनमार्क की एक कंपनी ने इसका निर्माण किया जिसमें रोजाना 300 टन कचरा जलाकर 3.75 मेगावाट बिजली पैदा की जानी थी। तस्वीर- कुंदन पांडेय