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वूली नेक्ड स्टॉर्क और हैरान करती हरियाणा में इनकी बढ़ती तादाद

उत्तर भारत में हाल ही में काटे गए खेत में चार वूली नेक्ड स्टॉर्क का एक परिवार। पारंपरिक कृषि तकनीक, अनुकूल फसलें, और कम शिकार गतिविधि कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के लिए एक स्थायी निवास स्थान बनाती है। तस्वीर- के.एस. गोपी सुंदर।

उत्तर भारत में हाल ही में काटे गए खेत में चार वूली नेक्ड स्टॉर्क का एक परिवार। पारंपरिक कृषि तकनीक, अनुकूल फसलें, और कम शिकार गतिविधि कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के लिए एक स्थायी निवास स्थान बनाती है। तस्वीर- के.एस. गोपी सुंदर।

  • जब दुनिया में चारों तरफ पक्षी और अन्य वन्य जीवों के संरक्षण पर जोर देने की बात हो रही है तो हरियाणा से एक ऐसी खबर आ रही है जो पक्षी-प्रेमियों को काफी पसंद आएगी।
  • पेड़ों पर घोंसले बनाने वाले वूली नेक्ड स्टॉर्क जिसे सितकंठ या हाजी लक लक भी कहा जाता है कि संख्या हरियाणा में बढ़ती दिख रही है।
  • इस पक्षी का खेत के साथ नाजुक रिश्ता होता है, और उनके जिंदा रहने में खेतों के बीच खड़े पेड़ों की अहम भूमिका होती है। इस पक्षी के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, शिकार और खेती के बदलते तरीकों से इस जीव के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था।

भले ही पूरी दुनिया में पक्षियों की आबादी लगातार गिर रही है, लेकिन एक ऐसा भी पक्षी है जिसकी संख्या बढ़ रही है। इसे अंग्रेजी में वूली नेक्ड स्टॉर्क कहते हैं। हिन्दी में इसे सितकंठ या हाजी लक लक के नाम से बुलाया जाता है। इस पक्षी की संख्या हरियाणा में लगातार बढ़ रही है। हाल ही में हुए एक अध्ययन  में इसका खुलासा हुआ है।

इस पक्षी को दिल्ली से सटे राज्य हरियाणा के कुछ इलाकों में घनी आबादी वाले गांवों और कस्बों में आसानी से देखा जा सकता है। हरियाणा मुख्य रूप से खेती-किसानी वाला प्रदेश है। इस नई जानकारी से सितकंठ के अस्तित्व को लेकर चिंतित लोगों को थोड़ी राहत होगी। यह पक्षी आईयूसीएन (IUCN) रेड लिस्ट के ‘असुरक्षित’ वाली श्रेणी में दर्ज है। अब इस नई जानकारी के आने से संभावना बनती है कि इसे पुरानी श्रेणी से बाहर निकालकर ‘खतरे’ वाली श्रेणी में डाल दिया जाए। 

पेड़ पर घोंसला बनाकर रहने वाले सितकंठ (सिसोनिया एपिस्कोपस) का जीवन खेतों पर निर्भर करता है। खेतों के आस-पास लगे पेड़ों पर ये अपना घोंसला बनाते हैं। उत्तरी अमेरिका जैसी जगहों पर, इस पक्षी को इंसानी रहवासों में एक समस्या के रूप में देखा जाता है, जिन्हें ‘हटाने’ की जरूरत होती है। इसके लिए इन पक्षियों का शिकार भी किया जाता है और उन वनों की कटाई और आर्द्रभूमि (वेटलैंड) को हटाया जाता है जहां इनके घोंसला बनाने की संभावना होती है। यही वजह है कि इस पक्षी के रहवास का दायरा सिमट गया है। अब ये सितकंठ, वेटलैंड रिजर्व, संरक्षित जंगलों और दुर्गम द्वीपों तक सीमित होकर रह गए हैं। 

सड़क पार करते दो वूली नेक्ड स्टॉर्क। रिसर्च के अनुसार नहरें, टैंक और जलाशय न्यूनतम खर्च के साथ दीर्घकालिक संरक्षण में मदद कर सकते हैं। तस्वीर- केएस. गोपी सुंदर।
सड़क पार करते दो वूली नेक्ड स्टॉर्क। रिसर्च के अनुसार नहरें, टैंक और जलाशय न्यूनतम खर्च के साथ दीर्घकालिक संरक्षण में मदद कर सकते हैं। तस्वीर- केएस. गोपी सुंदर।

भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों की कहानी अलग है। आईयूसीएन स्टॉर्क, आईबिस और स्पूनबिल विशेषज्ञ समूह और अध्ययन के सह-लेखक केएस. गोपी सुंदर ने कहा, “लंबे वक्त तक यह माना जाता था कि इस विशेष प्रजाति को जीवित रहने के लिए संरक्षित वनों की जरूरत होती है। अब हमें पता चला है कि वे आर्द्रभूमि की बजाए नहरों को पसंद करते हैं। दक्षिण एशिया में यह पक्षी अपने प्रमुख आवास के रूप में कृषि क्षेत्र पसंद करते हैं, जहां अनुकूल फसलें, अपेक्षाकृत पारंपरिक कृषि तकनीक और खाद्य उत्पादन उनके अनुकूल है। इन जगहों पर शिकार जैसी गतिविधियां भी कम होती हैं।”

घोंसलों के लिए मुफीद जगह

पारंपरिक खेती से वूली नेक्ड स्टॉर्क के प्रजनन में किस तरह मदद मिलती है? इस अध्ययन के लिए झज्जर और रोहतक जिलों में 2016 से 2020 तक 166 स्थानों में 298 घोंसले देखे गए। दोनों जिलों में साल भर वूली नेक्ड स्टॉर्क की बड़ी तादाद होती है। इन जिलों में नहरों और समुदाय-प्रबंधित तालाब-पोखर का एक नेटवर्क भी है।  इन  नहरों और तालाबों इत्यादि के पास घोंसले पाए गए। पारंपरिक तरीके से खेती भी होती है और इस क्षेत्र में फसल के बीच पेड़-पौधे भी अच्छी-खासी मात्रा में पाए जाते हैं। 

अध्ययन के अनुसार, स्टॉर्क हर साल मई और अक्टूबर के बीच घोंसले बनाते हैं। हर साल बिजली के ट्रांसमिशन टावर पर भी घोंसले का एक छोटा अनुपात (8.16-15.09%) देखने को मिलता है। गांव-खेड़े में भी जहां इंसानी रहवास होता है, वहां भी इनके घोंसले देखे गए। देखा गया कि 42 सफल घोंसलों के औसत ब्रूड आकार में सामान्यतः तीन चूजों पल जाते हैं। 


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सुंदर कहते हैं, “यह बिल्कुल अलग तरह का यह परिदृश्य है। इस धारणा के एकदम विपरीत कि यह पक्षी खेत और इंसानों के साथ रहने में सक्षम नहीं है। दक्षिण एशियाई कृषि परिदृश्य में रहने वाले इंसान आमतौर पर, कुछ अन्य देशों की तरह, जानवरों का शिकार नहीं करते हैं। इससे व्यापक विविधता बनी रहती है और कई प्रजातियों को कृषि भूमि को अपने प्राथमिक आवास के रूप में इस्तेमाल करने की सुविधा मिलती है।”

इसके अलावा भी कई नई जानकारी मिली। जैसे अब तक यह माना जाता था कि यह पक्षी पेड़ों के सबसे ऊंचे हिस्से में ही घोंसला बनाना पसंद करते हैं, पर यहां देसी शीशम जैसे मध्यम आकार के पेड़ों पर भी उनके कई घोंसले दिखे। सुंदर कहते हैं, “यह पेड़ अपनी कठोर लकड़ी के लिए जाना जाता है, जिसका उपयोग आमतौर पर कई तरह की चीजें बनाने के लिए किया जाता है। ये विशेष प्रजाति के पेड़, कम से कम सैकड़ों वर्षों से इन खेतों का हिस्सा रहे हैं। अपेक्षाकृत छोटा होने के बावजूद, इस पेड़ को वूली नेक्ड स्टॉर्क द्वारा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि किसान इन पक्षियों का शिकार नहीं करते।”

कुछ घोंसले दो ऊंचे पेड़ों पर भी पाए गए – देसी पीपल और विदेशी यूकेलिप्टस पर।

शिकारी पक्षी का मामला

हैरानी की बात यह थी कि वूली नेक्ड स्टॉर्क द्वारा बनाए गए घोंसलों को डस्की ईगल-ओवल द्वारा फिर से इस्तेमाल किया गया। दो प्रजातियों के बीच संबंधों पर एक और अध्ययन के सह-लेखक सुंदर कहते हैं, “उल्लू सहित बड़े शिकारी पक्षी, अक्सर अन्य प्रजातियों के घोंसलों का फिर से उपयोग करते हैं, लेकिन एक ही प्रजाति के घोंसलों पर उनकी निर्भरता असामान्य है।” 

यह देखा गया कि डस्की ईगल-ओवल अन्य पक्षियों के घोंसलों का फिर से उपयोग करती हैं। ऐसा तब होता है जब जब घोंसला बनाने वालों के चूजे अपना घोंसाल छोड़ देते हैं यानी वे उड़ने लायक हो जाते हैं। अध्ययन में उल्लुओं को भारतीय चित्तीदार चील (क्लैंग हस्तता) और लाल-नेप्ड आइबिस (स्यूडिबिस पेपिलोसा) के दो घोंसलों का फिर से इस्तेमाल करते हुए पाया गया। हालांकि, उन्होंने वूली नेक्ड स्टॉर्क के कम से कम 20 घोंसलों का फिर से इस्तेमाल किया किया।

हरियाणा में एक शीशम के पेड़ (डलबर्गिया सिसो) पर वूली नेक्ड स्टॉर्क का घोंसला। तस्वीर- के.एस. गोपी सुंदर।
हरियाणा में एक शीशम के पेड़ (डलबर्गिया सिसो) पर वूली नेक्ड स्टॉर्क का घोंसला। तस्वीर- के.एस. गोपी सुंदर।

वूली नेक्ड स्टॉर्क और डस्की ईगल-ओवल दोनों ने हर साल कुछ घोंसले का फिर से उपयोग किया, लेकिन डस्की ईगल-ओवल द्वारा इन घोंसलों का फिर से इस्तेमाल करने की ज्यादा संभावना थी।

हालांकि, उल्लू घोंसले के लिए पेड़ों की अपनी पसंद में अलग थे। उन्होंने यूकेलिप्टस को प्राथमिकता दी। शीशम और पीपल पर बने घोंसलों का कम ही इस्तेमाल किया। इससे पता चलता है कि इस प्रजाति ने घोंसले के लिए लंबे पेड़ों को पसंद किया। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला गया कि पेड़ों की सुरक्षा जिन पर स्टॉर्क ने घोंसला बनाया है, संभावित रूप से उल्लुओं के प्रजनन के लिए मुफीद हैं।

आगे की राह

एशिया और अफ्रीका में कई जलपक्षी प्रजातियां हैं जिनकी अस्तित्व संकट में है। इनको लेकर चिंता में यह भी शुमार है कि उष्ण कटिबंध में कृषि भूमि क्षेत्र इनके रहने के लिए मुफीद नहीं है। ऐसी धारणा तब है जब ऐसे क्षेत्रों पर अध्ययन या सर्वेक्षण ना के बराबर है।

हालांकि, अब रिसर्च से जो बातें सामने आई हैं वह इस धारणा के विपरीत है।  इस नई समझ के बाद दक्षिण एशियाई क्षेत्र में संरक्षण की नई उम्मीद जगी है। इस क्षेत्र में खेतों में नहर, टैंक और जलाशय जैसे कृत्रिम रूप से बने सुविधाओं में अपार संभावना दिख रही है। इन सुविधाओं का, कम से कम अतिरिक्त खर्च के साथ, पक्षियों के संरक्षण के लिए बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। 

जैसे कि हरियाणा में खेती के तरीके, सिंचाई प्रणाली और फसल पैटर्न, इस पक्षी की आबादी को बढ़ाने में मददगार साबित हुए। यह नेपाल की तराई में हालिया ऑब्जर्वेशन के बराबर है जहां किसान इसी तरह से खेती करते हैं। सुंदर कहते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि कृषि वानिकी, उपयुक्त मौसम (घोंसले के दौरान गीला मानसून), शिकार में मदद करने वाली स्थितियां (उदाहरण के लिए, बाढ़ वाले क्षेत्र उभयचरों, कीड़ों और सरीसृपों को आकर्षित करते हैं), और लंबे समय से चली आ रही कृषि पद्धतियों के संयोजन ने सदियों से स्टॉर्क की आबादी बढ़ाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई हैं।”

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीरः उत्तर भारत में हाल ही में काटे गए खेत में चार वूली नेक्ड स्टॉर्क का एक परिवार। पारंपरिक कृषि तकनीक, अनुकूल फसलें, और कम शिकार की गतिविधि से कृषि क्षेत्र इस पक्षी के निवास के लिए एक मुफीद जगह उपलब्ध कराती है। तस्वीर- के.एस. गोपी सुंदर।

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