- जलवायु परिवर्तन के कारण लू की तीव्रता बढ़ती है, जिससे मजदूरी का नुकसान होता है और उत्पादकता में गिरावट आती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा जैसी नौकरी की गारंटी देने वाली योजनाओं को अगर जलवायु के हिसाब से बनाया जाए तो सबसे कमजोर लोगों को गरीबी के दलदल में गिरने से बचाया जा सकता है। लेकिन इसका समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है।
- भारत के विविध पारिस्थितिक क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के अलग-अलग प्रभावों को ध्यान में रखते हुए जलवायु के नजरिए से कार्यक्रमों का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
राजस्थान के उदयपुर जिले के केरपुरा गांव के लोग भावना देवी या भूरी का नाम अच्छी तरह से जानते हैं। जो खुशी-खुशी अपने घर में जंग लगे लोहे के दरवाजे खोलती हैं, जिससे सूरज की रोशनी अंदर आती है तो उनके घर में रोशनी होती है। छत पर टूटे टिन शीट के साथ एक सीमेंट और ईंट की छोटी सी खोली है।
भूरी 30 साल की हैं, दो बच्चों की सिंगल मदर हैं, जो अब उदयपुर स्थित गैर-लाभकारी संस्था आजीविका ब्यूरो के प्रयास से एक आवासीय स्कूल में हैं। भूरी के लिए घर के काम, दिहाड़ी मजदूरी और बच्चों की देखभाल का बोझ अकेले उठाना असंभव था।
भूरी ने इस अर्ध-शुष्क रेगिस्तान में नौकरी खोजने के लिए संघर्ष किया लेकिन इस साल यहां स्थिति और खराब हो गई।
इस साल लंबे समय से चल रही लू (गर्म हवा) के दौरान भूरी ने दिहाड़ी मजदूरी का काम तब शुरू किया जब औसत तापमान 43-45 डिग्री सेल्सियस और राजस्थान के कई हिस्सों में 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था।
इस एक साल की अवधि में मार्च तक भूरी की आय का एक बड़ा हिस्सा भारत के सबसे बड़े कार्यक्रम, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) से आया। भूरी ने वित्तीय वर्ष अप्रैल 2021 से मार्च 2022 तक, 100 में से 95 दिनों तक काम किया, जिसकी गारंटी इस योजना का एक अनिवार्य हिस्सा है।
लेकिन अप्रैल 2022 के बाद स्थिति बदल गई। कार्यक्रम का नया वित्तीय वर्ष देरी से शुरू हुआ और तब तक लू चलनी शुरू हो गई थी। भूरी ने मोंगाबे को बताया, “कई बार आवेदन करने के बावजूद मुझे काम के लिए नहीं बुलाया गया। मुझे एक दिन का भी काम नहीं मिला।”
वैज्ञानिकों के अनुसार इंसानी गतिविधियों की वजह से होने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण लू की संभावना 30 गुना अधिक बढ़ गई है। चूंकि भूरी जैसी महिलाएं अपने क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के इन प्रभावों के अनुकूल होती हैं, इसलिए वे मनरेगा और दैनिक मजदूरी पर सुरक्षित तरीके से काम करती हैं। लेकिन इस साल इस योजना ने उन्हें निराश किया है।
जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में मनरेगा कारगर, लेकिन उपयोग कम हो रहा
इस साल की शुरुआत में जारी आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि इस साल तेज लू चलेगी और लू चलने की घटनाएं अधिक बार होंगी।
भारत की अर्थव्यवस्था गर्मी से प्रभावित श्रम पर काफी हद तक निर्भर है, जिसमें 75% श्रम शक्ति, करीब 38 करोड़ लोग, सूरज की गर्मी में मेहनत करते हैं। ये देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 50% हिस्सा हैं।
एक अनुमान के मुताबिक 75% भारतीय जिलों में 6.38 करोड़ से अधिक लोगों के घर चक्रवात, बाढ़, सूखे और गर्मी जैसी जलवायु से जुड़ी घटनाओं के दायरे में हैं। दशकों से ग्रामीण इलाके में कृषि की घटती संभावनाओं ने आदमियों को नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर किया। पर इसमें भी महिलाएं अक्सर पीछे छूट जाती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने ध्यान दिलाया कि जलवायु परिवर्तन महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले भेदभाव को और बढ़ाता है।
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (IIED) की प्रमुख शोधकर्ता रितु भारद्वाज का कहना है कि मनरेगा जैसे कार्यक्रम सबसे कमजोर लोगों को गरीबी के दलदल में गिरने से बचाने के लिए जलवायु के हिसाब से चलाया जा सकता है। लेकिन फिलहाल इसका समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। इसके संचालन में अन्य प्रशासनिक कमियां हैं जिसकी वजह से इन कार्यक्रमों तक सबसे कमजोर लोगों की पहुंच नहीं बन पाती है।
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भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस, हैदराबाद के अनुसंधान निदेशक अंजल प्रकाश ने बताया, “अर्थव्यवस्था और जलवायु परिवर्तन का असर सबसे पहले महिलाओं पर पड़ता हैं। वे असुरक्षित हैं। यह केवल लिंगभेद का मसला नहीं है, बल्कि जाति और वर्ग में अंतर का भी मामला है।”
एक सर्वे के अनुसार इस कार्यक्रम ने गरीबी को 32% तक कम किया। इस योजना ने 2004-05 और 2011-12 के बीच 1.4 करोड़ लोगों को गरीबी के दलदल में गिरने से बचाया। भारत में वर्तमान गरीबी रेखा 1.90 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। मनरेगा के तहत काम करने वाली महिलाओं को प्रतिदिन लगभग 2 से 2.60 डॉलर दिया जा सकता है। यह 100 दिनों के काम के लिए प्रति वर्ष 200-250 डॉलर (लगभग 17,000 रुपये से 22,000 रुपये) है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, 2021-22 में 7.1 करोड़ से अधिक घरों ने मनरेगा के तहत काम किया, लेकिन केवल 49 लाख या 3.29% घरों ने ही 100 दिन पूरे किए।
नौकरियों की अधिक मांग के बावजूद, इस साल मनरेगा बजट में 25% से अधिक की कटौती की गई। शोधकर्ताओं ने ध्यान दिया है कि मनरेगा की शुरुआत से अब तक इस कार्यक्रम ने महिलाओं को सशक्त बनाया है, और प्राकृतिक आपदाओं या यहां तक कि कोविड-19 महामारी से प्रभावित लोगों के लिए यह सुरक्षा का आधार बना है। 2020-2021 में महिलाओं को वार्षिक प्रति व्यक्ति-दिवस का लगभग 59.74% भुगतान किया गया।
भारद्वाज ने बताया कि बाढ़ या चक्रवात जैसी जल-आधारित घटनाओं के बाद सरकार तुरंत अतिरिक्त मनरेगा कार्य दिवस और अन्य राहत सहायता प्रदान करती है। सूखे जैसी धीमी शुरुआत वाली घटनाओं के दौरान ऐसी कोई घोषणा नहीं की जाती है। ज़्यादातर ऐसे मामलों में यह बात रिपोर्ट नहीं की जाती है।
एक दशक से अधिक समय से चली आ रही राजस्थान की लू (गर्मी की लहर) में, सरकार ने कभी भी बकाया वेतन या काम के लिए मुआवजे की देने की बात नहीं की। राजस्थान स्थित सामाजिक संगठन, मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के मुकेश गोस्वामी ने राष्ट्रीय स्तर पर मनरेगा की मांग पैदा करने में मदद की।
उन्होंने बताया कि सूखा प्रभावित क्षेत्र योजना के तहत 50 अतिरिक्त दिनों के काम का हकदार हैं। लेकिन इस पर अमल नहीं हो रहा है। सूखा घोषित करने और बजट में कटौती करने में भी साल भर की देरी हुई है।
मोंगाबे-इंडिया ने इस मसले पर मनरेगा के लिए जवाबदेह ग्रामीण मंत्रालय से संपर्क किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
सामाजिक कल्याण के साथ जलवायु को जोड़ना की आवश्यकता
राजस्थान के उदयपुर, जयपुर और अजमेर जिलों में कई महिलाओं ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि मनरेगा से मिली मजदूरी से उन्हें किराने का सामान और दवाएं जैसी आवश्यक चीजें खरीदने में बहुत सहायता मिली। लेकिन उन्हें न तो पूरी मजदूरी मिली और न ही 100 दिन का काम मिला।
उदयपुर जिले के पटिया में रहने वाली मोहिनी बाई अपनी उम्र के चालीसवें बरस में हैं। अनका पति काम के सिलसिले में पास के शहरों में चला गया। मोहिनी के साथ उसके चार बच्चे, पारिवारिक छोटा खेत और पशुधन है। वह 500 मीटर दूर एक धारा से पानी लाने के लिए कई चक्कर लगाती हैं।
मनरेगा के साथ उनका अनुभव कड़वा रहा है। उन्होंने पिछले साल कुछ दिन काम किया लेकिन उन्हें बकाया भुगतान नहीं किया गया। वह भी मस्टर रोल में अपना नाम दर्ज कराने के लिए संघर्ष करती हैं। काफी पूछ-ताछ करने पर उन्होंने बताया कि जो लोग नौकरी दे रहे हैं वे अलग जाति समूह से हैं। उनका अनुभव भी भूरी जैसा है, जो एक अनुसूचित जनजाति से है। कई अन्य महिलाओं का भी ऐसा ही अनुभव रहा है।
इसके अलावा भारद्वाज ने कहा कि मनरेगा में भुगतान के वर्तमान तरीके के कारण महिलाओं के लिए संकट के समय में मजदूरी का पैसा पाना मुश्किल हो जाता है। अगर घर के पास एटीएम या बैंक नहीं है तो महिलाओं के लिए अपने खातों तक पहुंचने में मुश्किल होती है। अक्सर, जो महिलाएं आर्थिक रूप से साक्षर नहीं होती हैं, उन्हें धोखा दिया जाता है, जिससे भेदभाव की एक और परत जुड़ जाती है।
प्रकाश ने कहा कि जलवायु प्रभावों के पुख्ता सबूतों के बावजूद, राज्य और केंद्र सरकारें इन मुद्दों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे लड़ने के लिए संस्थागत बदलाव की जरूरत है।
गोस्वामी ने कहा, “ऐसा लगता है जैसे लोग गर्मी के अभ्यस्त हो रहे हैं। भारत में शायद ही कोई राज्य मनरेगा श्रमिकों को कार्यस्थल की सुविधा प्रदान करता है। गर्मियों के दौरान, मजदूर सुबह होने से पहले काम शुरू करके गर्मी में काम करने से बचते हैं।”
जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों को ध्यान रख कर जिला स्तर के सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की वकालत करते हुए प्रकाश ने बताया, “हमें एक मनरेगा प्लस की जरुरत है। हमें इस तरह के घुटने के बल रेंगने वाले समाधान से आगे बढना चाहिए, क्योंकि यह कार्यक्रम सालों तक नहीं चल सकता। लोगों को कुशल बनाने की जरूरत है, हमें कमजोर क्षेत्रों में कृषि आधारित या अन्य उद्योगों की स्थापना करने की जरुरत है ताकि लोगों के पास वैकल्पिक रोजगार हो।”
गोस्वामी ने यह भी कहा कि लू के दौरान काम की प्रकृति बदलनी पड़ती है। “हमें वह काम देने की ज़रूरत है जो छाए में किया जा सके। फिलहाल काम करने की स्थिति अमानवीय है। 49-50 डिग्री सेल्सियस में कोई कैसे काम कर सकता है,” गोस्वामी पूछते हैं।
भारद्वाज ने कहा कि सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को भारतीय जलवायु के अनुकूल बनाने के लक्ष्यों का अभाव है।
प्रकाश ने समझाया, वर्तमान में भारत के किसी भी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम को जलवायु के नजरिए से नहीं देखा गया है। ये सामान्य कार्यक्रम हैं जो लोगों को कई परेशानियों से बचाते हैं। लेकिन भारत के विविध पारिस्थितिक क्षेत्रों में इसके प्रभाव अलग-अलग हैं। सभी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए एक ढांचा फिट नहीं बैठता है। इन कार्यक्रमों का जलवायु के नजरिए से पुनर्मूल्यांकन किए जाने की आवश्यकता है।
भारद्वाज ने कहा कि भारत में बाढ़ और चक्रवात की तरह ही गर्म हवाओं और सूखे की पूर्व चेतावनी देने की व्यवस्था की तत्काल आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हालांकि भारतीय मौसम विभाग ने लू की घोषणा की और लोगों को अपडेट करना जारी रखा, लेकिन यह जानकारी बहुत सटीक और जल्दी नहीं दी गई। लोग इससे अनजान थे और उनकी आजीविका प्रभावित हुई।
एक समाधान सुझाते हुए उन्होंने कहा, “गर्मी और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में मजदूरी के नुकसान की भरपाई के लिए अग्रिम मजदूरी या कम से कम मुआवजा देना चाहिए। सूखा घोषित होने के बाद और महीनों बाद काम दिए जाने का इंतज़ार क्यों करें?”
गरीबी का जाल
उदयपुर में मानसून दस्तक दे रहा था, थोड़ी ठंढक थी। लेकिन भूरी के जेहन में तपती गर्मी की याद ताजा थी।
असहनीय भीषण गर्मी में भूरी के पेट में तेज दर्द होने लगा। वह अपने लिए पानी और राशन का सामान नहीं ला सकती थी। एक निजी क्लिनिक में 4,000 रुपये खर्च करने के बाद, उसे बताया गया कि उसके गुर्दे में पथरी है।
लू से डीहाइड्रेशन बढ़ता है। अध्ययनों से पता चलता है कि इस वजह से गुर्दे की पथरी होने की घटनाएं बढ़ रही हैं, अन्य कारण भी हो सकते हैं। भूरी को किसी ने नहीं बताया कि उसकी इस बीमारी की वजह गर्मी हो सकती है। उसे आम सलाह दी गई और कहा गया, “अधिक पानी पियो।”
एक समय ऐसा आया जब भूरी के स्वास्थ्य ने तीन बकरियों की देख-भाल करने से जवाब दे दिया। जुलाई की शुरुआत में वह हार मानकर बकरियों को अंतिम विदाई देने के लिए किराए के टेंपो में लाद कर अपनी मां के घर चली गई। उसने अपने आय के कुछ स्रोतों को अपने रिश्तेदारों को दे दिया। गर्मियों के दौरान उसके खर्चे बढ़ गए और सामाजिक-आर्थिक स्थिति बिगड़ गई।
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अब भूरी को मनरेगा भी पसंद नहीं आ रहा है। कई असफलताओं के बाद उसे अपने दिन के भोजन के लिए पैसों की ज़रूरत है। मजदूरी के लिए पखवाड़े भर का इंतज़ार उसे भूखा रखेगा। वह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए काम करना पसंद करती है जो दैनिक मजदूरी देता है, भले ही वह थोड़ा कम हो या काम के घंटे अधिक हों।
फिलहाल राजस्थान अगली गर्मियों तक भूरी के साथ अच्छा व्यवहार कर रहा है। उसने कहा, “मेरी हालत ऐसी है कि भले ही शरीर में तकलीफ हो और बाहर भीषण गर्मी हो, मुझे काम करते रहना पड़ता है।”
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बैनर तस्वीर: गर्मियों के महीनों के दौरान मनरेगा मजदूर सुबह होने से पहले काम शुरू करते हैं, और दोपहर से पहले काम खत्म करने की कोशिश करते हैं। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के उपाय टिकाऊ नहीं हैं। तस्वीर- महिमा जैन