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जैव-विविधता को सहेजने के लिए सामुदायिक भागीदारी से बढ़ेगा संरक्षित क्षेत्र

देश का 30% भौगोलिक क्षेत्र संरक्षित करने के लिए अब निजी प्रयासों से जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र चिन्हित किए जा रहे हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह

देश का 30% भौगोलिक क्षेत्र संरक्षित करने के लिए अब निजी प्रयासों से जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र चिन्हित किए जा रहे हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह

  • साल 2030 तक धरती के 30 प्रतिशत हिस्से को संरक्षित दायरे में लाने का प्रयास किया जा रहा है। इसका उद्देश्य धरती से तेजी से लुप्त हो रही प्रजातियों की रक्षा करना और इसके महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को बचाना है। इसी वैश्विक लक्ष्य को आमतौर पर 30×30 के नाम से जाना जाता है।
  • मुहिम के तहत भारत को 22% स्थलीय संरक्षित क्षेत्र को बढ़ाकर 30% करना है। इसके लिए संरक्षित क्षेत्र से बाहर जैव-विविधता से समृद्ध गैर-सरकारी भूमि को चिन्हित करने का कार्य चल रहा है। संरक्षण के इस तरीके को अन्य प्रभावी क्षेत्र आधारित संरक्षण उपाय यानी ओईसीएम कहा गया है।
  • राष्ट्रीय जैव-विविधता प्राधिकरण की कोशिश 2022 के आखिर तक ओईसीएम दर्जा पाने की संभावना वाले कम से कम 50 क्षेत्र चिन्हित करने की है। बिना किसी कानून को लागू किए आपसी सहमति के आधार पर संरक्षित क्षेत्रों को ओईसीएम का दर्जा दिया जाएगा।

जैव-विविधता पर गहराते संकट को हल करने के लिए दुनिया भर में कई तरह की कोशिशें चल रही हैं। इन्हीं में से एक है  साल 2030 तक धरती के 30 प्रतिशत हिस्से को संरक्षित दायरे में लाने का प्रयास। इसका उद्देश्य धरती से तेजी से लुप्त हो रही प्रजातियों की रक्षा करना और इसके महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को बचाना है। इसी वैश्विक लक्ष्य को आमतौर पर 30×30 के नाम से जाना जाता है। 

इसे प्रकृति और लोगों के लिए उच्च महत्वाकांक्षा गठबंधन (30×30 High Ambition Coalition for Nature and People) मुहिम के नाम से जाना जाता है। आसान शब्दों में कहें तो इस मुहिम में शामिल देश वर्ष 2030 तक अपने भौगोलिक क्षेत्र का 30 प्रतिशत हिस्सा संरक्षित करेंगे। पिछले साल अक्टूबर में भारत भी इस मुहिम से जुड़ा। अब तक 100 से अधिक देश इसका हिस्सा बन चुके हैं। 

भारत के नजरिए से देखें तो 22 प्रतिशत स्थलीय और 5 प्रतिशत तटीय और समुद्री क्षेत्र ऐसे हैं जिनका संरक्षण सरकार के जिम्मे है। इनमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव विहार, कंजर्वेशन रिजर्व, सामुदायिक रिजर्व, टाइगर रिजर्व जैसे क्षेत्र शामिल हैं। 

इस मुहिम के तहत भारत को 22 प्रतिशत स्थलीय संरक्षित क्षेत्र को बढ़ाकर 30 प्रतिशत करना है। फिलहाल इसके लिए संरक्षित क्षेत्र से बाहर जैव-विविधता से भरपूर गैर-सरकारी भूमि को खोजने का काम चल रहा है। संरक्षण के इस तरीके को अन्य प्रभावी क्षेत्र आधारित संरक्षण उपाय यानी ओईसीएम (Other Effective Area-based Conservation Measures) कहा गया है। ओईसीएम की कुछ श्रेणियां और मानक तय किए गए हैं। इस आधार पर ही किसी क्षेत्र को ओईसीएम का दर्जा दिया जा सकता है।  

ओईसीएम ऐसे क्षेत्र हो सकते हैं जो आईयूसीएन रेड लिस्ट में दर्ज दुर्लभ, संकटग्रस्त प्रजातियों और उनके हैबिटेट को संरक्षित करते हों। स्थानीय प्रजाति के पेड़-पौधों और जीवों की मौजूदगी हो। वहीं ओईसीएम की श्रेणियों में स्थलीय संरक्षण के लिए जैव विविधता पार्क, पक्षियों और उनकी विविधता से जुड़े अहम क्षेत्र, शहरी पेड़ और वन, शहरी बगीचे, अनूठी कृषि व्यवस्था, व्यक्तिगत हरित क्षेत्र जैसी जगहें शामिल हैं। 

पहाड़ी पर बना पानी का कुंड। गर्मियों के समय गांव की महिलाएं नजदीकी जल स्रोत से पानी लाकर इनमें भरती हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह
पहाड़ी पर बना पानी का कुंड। गर्मियों के समय गांव की महिलाएं नजदीकी जल स्रोत से पानी लाकर इनमें भरती हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह

जलाशयों में झील, तालाब, नदी से जुड़े जल स्रोत, कृषि से जुड़े जल निकाय और नहरें शामिल हैं।

इसी के तहत उत्तराखंड में भी जैव-विविधता से समृद्ध दो क्षेत्रों में ओईसीएम की संभावना तलाशी जा रही है। इनमें पहला मसूरी का जबरखेत नेचर रिजर्व (जेएनआर) है। यह क्षेत्र 44 हेक्टेयर में फैला है। दूसरा है पौड़ी का 450 हेक्टेयर में फैला गदोली और मंडा खल फी सिंपल एस्टेट।  

सामुदायिक संरक्षण का उदाहरण जबरखेत नेचर रिजर्व

जबरखेत नेचर रिजर्व समुद्र तल से तकरीबन 2,200 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। मसूरी वन प्रभाग से सटा यह क्षेत्र सामुदायिक संरक्षण का बेहतरीन उदाहरण है। बांज, बुरांश, देवदार जैसे पेड़ों से अटा ये जंगल कभी बेहद खऱाब स्थिति में था। आसपास के गांवों के लोगों के चारा-पत्ती लेने, लकड़ी की कटाई और बहुत ज़्यादा चरान के दबाव के चलते ये जंगल इस हालत में पहुंच गया था। 

मसूरी निवासी और वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) इंडिया से जुड़ी डॉ सेजल वोरा बताती हैं, “जबरखेत गांव से लगे इस निजी वन को वर्ष 2015 में हमने जबरखेत नेचर रिजर्व के तौर पर स्थापित किया। आसपास के ग्रामीणों की भागीदारी से संरक्षण के प्रयास शुरू किए। इसमें लकड़ी की बेधड़क कटाई पर रोक लगाना, चारे के लिए जंगल की सूखी पत्तियों का संतुलित इस्तेमाल और पशुओं के चरान को नियंत्रित करने जैसे उपाय शामिल थे। जेएनआर में बेरोकटोक आवाजाही पर अंकुश लगाकर इको-टूरिज्म से जुड़ी गतिविधियां शुरू की गईं। यहां पर्यटकों के नेचर वॉक के लिए लैपर्ड ट्रेल, वाइल्ड फ्लावर ट्रेल, मशरूम ट्रेल, बुरांश ट्रेल, रॉक फॉल जैसे छोटे-छोटे ट्रेल बनाए गए।” 

रिजर्व में पिछले सात सालों से बतौर नेचर गाइड जुड़े वीरेंद्र सिंह बताते हैं, “इको-टूरिज्म जैसे रोजगार मॉडल से ही लोगों को वनों के संरक्षण से जोड़ा जा सकता है। आमदनी होने पर जलावन की लकड़ी जैसी चीजों के लिए जंगलों पर निर्भरता कम होती है। पर्यटक आने से होमस्टे और रेस्तरां जैसे रोजगार के अवसर भी बढते हैं।”

ओईसीएम में देशभर के जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्रों को चिन्हित करने का कार्य किया जा रहा है। जबरखेत नेचर रिजर्व में मशरूम की 100 प्रजातियां रिकॉर्ड की जा चुकी हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह
ओईसीएम में देशभर के जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्रों को चिन्हित करने का कार्य किया जा रहा है। जबरखेत नेचर रिजर्व में मशरूम की 100 प्रजातियां रिकॉर्ड की जा चुकी हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह

वीरेंद्र बताते हैं, “हमने जबरखेत नेचर रिजर्व में संरक्षण, भोजन और पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की। बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश और पेड़ों की कटाई-छंटाई रोकी तो बांज के पेड़ों पर अकॉर्न या बलूत फल उगने लगे। यह फल काले भालू को आकर्षित करते हैं। ब्लैक बेरी, रसभरी समेत जंगली फलों और फूलों के बढ़ने से चिड़ियां की आबादी बढ़ी। शांति होने और रास्ता साफ होने से हिरनों के झुंड आने लगे। उनके पीछे तेंदुए भी दिखाई देने लगे।”

उन्होंने कहा, “पहाड़ की चोटी पर स्थित जबरखेत में पानी के इंतजाम के लिए 30-40 लीटर क्षमता वाले तीन कुंड बनाए गए। गर्मियों के समय गांव की महिलाएं नजदीकी जल स्रोत से पानी लाकर इनमें भरती हैं। कैमरा ट्रैप्स में हमने देखा कि रात को गुलदार, भालू जैसे वन्यजीव अपने बच्चों के साथ पानी पीने यहां आ रहे हैं।” 

संरक्षण के बाद यहां फूलों की 300 प्रजातियां, 40 किस्म के फर्न, मशरूम की 100 से ज्यादा प्रजातियां, घास की 40 प्रजातियां रिकॉर्ड की जा चुकी हैं।

ओईसीएम का उद्देश्य इसी तर्ज पर सामुदायिक भागीदारी से संरक्षित क्षेत्रों को तैयार करना है।

ओईसीएम की संभावना

पिछले महीने राष्ट्रीय जैव-विविधता प्राधिकरण (एनबीए) के चेयरमैन पद से सेवानिवृत्त होने वाले डॉ वीबी माथुर कहते हैं, “हम अभी ओईसीएम की शुरुआती अवस्था में हैं। इसका उद्देश्य 2022 के आखिर तक देश में ओईसीएम दर्जा पाने की संभावना वाले कम से कम 50 क्षेत्र चिन्हित करना है। बिना किसी कानून को लागू किए आपसी सहमति के आधार पर संरक्षित क्षेत्रों को ओईसीएम का दर्जा दिया जाएगा।”

माथुर बताते हैं कि यूएनडीपी इंडिया के एक प्रोजेक्ट के तहत देशभर में एनबीए की टीमें ओईसीएम संभावना वाले क्षेत्रों का निरीक्षण कर रही हैं। ओईसीएम दर्जा हासिल करने के लिए भौगोलिक तौर पर निर्धारित क्षेत्र का राजस्व रिकॉर्ड होना चाहिए। क्षेत्र का प्रबंधन समुदाय या स्थानीय निकाय के तहत होना चाहिए। इसके लिए 14 श्रेणियां बनाई गई हैं। जिनमें शहरी जैव विविधता उद्यान, शहरी वन, संरक्षण उद्देश्यों के लिए औद्योगिक संपदा, गांव की ज़मीन, बाढ़ क्षेत्र, जैव-विविधता से भरपूर खेत, व्यक्ति विशेष की हरित भूमि, जलाशय आदि शामिल हैं।

वह कश्मीर के केसर की खेती का उदाहरण देते हैं। “जरूरी नहीं कि जैव-विविधता के लिए वहां वन्यजीव की मौजूदगी अनिवार्य हो। केसर के खेतों में मिट्टी और नमी का संरक्षण होता है। केसर के पौधे कार्बन का संचय करते हैं। एनबीए की टीम केसर उत्पादकों से ओईसीएम दर्जे को लेकर बातचीत कर रही है।” फुड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (FAO) ने 2011 में केसर की खेती को वैश्विक तौर पर महत्वपूर्ण कृषि विरासत प्रणाली का दर्जा दिया था।

वीबी माथुर बताते हैं कि ओईसीएम में आपसी सहमति बहुत अहम है। इसके लिए सामान्य शर्तें भी तय की गई हैं। एक बार ओईसीएम का दर्जा मिलने के बाद वह क्षेत्र विश्व के नक्शे पर आ जाएगा। इसके बाद वहां ऐसी कारोबारी गतिविधियां नहीं की जा सकेंगी जिससे जैव-विविधता प्रभावित हो। लेकिन भूमि का स्वामित्व व्यक्ति के पास ही रहेगा।  

जेएनआर में बेरोकटोक आवाजाही पर अंकुश लगाकर इको-टूरिज्म से जुड़ी गतिविधियां शुरू की गईं। यहां पर्यटकों के नेचर वॉक के लिए लैपर्ड ट्रेल, वाइल्ड फ्लावर ट्रेल, मशरूम ट्रेल, बुरांश ट्रेल, रॉक फॉल जैसे छोटे-छोटे ट्रेल बनाए गए। तस्वीर- वर्षा सिंह
जेएनआर में बेरोकटोक आवाजाही पर अंकुश लगाकर इको-टूरिज्म से जुड़ी गतिविधियां शुरू की गईं। यहां पर्यटकों के नेचर वॉक के लिए लैपर्ड ट्रेल, वाइल्ड फ्लावर ट्रेल, मशरूम ट्रेल, बुरांश ट्रेल, रॉक फॉल जैसे छोटे-छोटे ट्रेल बनाए गए। तस्वीर- वर्षा सिंह

वह कहते हैं, “महाराष्ट्र के घाटकोपर में गोदरेज के पास 1698 हेक्टेयर निजी वन क्षेत्र है। ऐसे ही हीरो होंडा, टाटा कैमिकल्स, विप्रो समेत कई उद्योगों के पास जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र हैं। गुड़गांव में हीरो होंडा समूह के पास अरावली श्रृंखला का महत्वपूर्ण हिस्सा है। एनबीए उनसे इन क्षेत्रों को ओईसीएम दर्जा दिए जाने के लिए बातचीत कर रहा है।”

उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के अध्यक्ष राजीव भरतरी कहते हैं, “राज्य के कुमाऊं मंडल में ओईसीएम की संभावना वाले कई क्षेत्र हैं। इससे पर्यावरण संरक्षण के निजी प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा। सिकुड़ती हरियाली के बीच छोटे-छोटे संरक्षित क्षेत्र वन्यजीवों, पशु-पक्षियों के लिए एक तरह के कॉरिडोर और सुरक्षित ठिकाने का काम करेंगे।” 


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वहीं, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर और इकोलॉजी के प्रोफेसर एसपी सिंह कहते हैं, “ओईसीएम बेहतर प्रयास है लेकिन इसे बहुत देरी से समझा गया। साथ ही हमें शहरी वन विकसित करने और आम जैसे फलदार पेड़ों के बगीचों को बढ़ावा देने पर जोर देना चाहिए। जैव-विविधता संरक्षण और कार्बन संचय बढ़ाने के लिए वन विभाग के खराब गुणवत्ता वाले वनों पर भी काम करने की जरूरत है।”  

राष्ट्रीय और वैश्विक प्रतिबद्धताएं हासिल करने में ओईसीएम की भूमिका

कार्बन सिंक (वातावरण से कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखना) के तौर पर काम करने वाले भारत के वनों (21.54 फीसदी भौगोलिक भाग) की मौजूदा कार्बन स्टॉक क्षमता तकरीबन सात बिलियन टन है। यह देश के 12 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की क्षतिपूर्ति करता है। जलवायु परिवर्तन को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के तहत भारत ने वर्ष 2030 तक वनों का दायरा 30 फीसदी से अधिक बढ़ाने का लक्ष्य तय किया है। इससे 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड  के जितना ही अतिरिक्त कार्बन सिंक तैयार करने का लक्ष्य पूरा करने की कोशिश है।  

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ओईसीएम का सहारा लिया जा रहा है। ओईसीएम जैव-विविधता संरक्षण के जरिये सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में मदद करेगा। साथ ही वर्ष 2020 के बाद वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क के तहत तय किए गए एजेंडा को हासिल करने का ज़रिया होगा। 

जैव-विविधता संरक्षण का मकसद लोगों की आर्थिक सुरक्षा भी है। वैश्विक तौर पर आधी आबादी कृषि, पशुपालन, वानिकी, मछली पालन समेत अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर करती है। जैव-विविधता को सहेजना सीधे तौर पर उनके रोजमर्रा के जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करेगा। 

जैव विविधता संरक्षण के लिए अपनी ज़मीन में निवेश करने के इच्छुक व्यक्ति, समूह, गांव या संस्थाएं इंडिया ओईसीएम वेबसाइट पर आवेदन कर सकती हैं।

 

बैनर तस्वीरः देश का 30% भौगोलिक क्षेत्र संरक्षित करने के लिए अब निजी प्रयासों से जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र चिन्हित किए जा रहे हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह

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