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कार्बन सिंक क्या हैं?

भारत में रणथंभौर के शुष्क पर्णपाती वन। 2001 से 2010 के बीच वनों ने वैश्विक CO2 उत्सर्जन का लगभग 20-30% अवशोषित कर लिया है। 2001 और 2019 के बीच वनों ने प्रति वर्ष लगभग 7.6 गीगाटन CO2 को अवशोषित किया। तस्वीर- पाहुल महाजन/विकिमीडिया कॉमन्स।

भारत में रणथंभौर के शुष्क पर्णपाती वन। 2001 से 2010 के बीच वनों ने वैश्विक CO2 उत्सर्जन का लगभग 20-30% अवशोषित कर लिया है। 2001 और 2019 के बीच वनों ने प्रति वर्ष लगभग 7.6 गीगाटन CO2 को अवशोषित किया। तस्वीर- पाहुल महाजन/विकिमीडिया कॉमन्स।

  • कार्बन सिंक ऐसे स्थान या उत्पाद हैं जो कार्बन को अलग करके संग्रहित करते हैं।
  • महासागर अब तक का सबसे बड़ा कार्बन भंडार और सिंक है। इसमें कार्बन अलग-अलग रूपों में पाया जाता है, इसमें सबसे अधिक मात्रा में घुलनशील इनऑर्गेनिक कार्बन है।
  • वर्तमान में पेरिस समझौते के तहत भारत का लक्ष्य 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने के लिए अतिरिक्त जंगल के आवरण को तैयार करना है।

कार्बन सिंक ऐसे स्थान या उत्पाद हैं जो कार्बन को ऑर्गेनिक या इनऑर्गेनिक यौगिकों के रूप में अलग-अलग समय के लिए संग्रहित करते हैं। प्राकृतिक या कृत्रिम प्रक्रियाओं के माध्यम से वातावरण में उत्सर्जित होने वाले अधिक कार्बन को अवशोषित करने वाले स्थान या उत्पाद को कार्बन सिंक कहा जा सकता है।

औद्योगीकरण से पहले, कार्बन सिंक के रूप में महासागर में संचित होने के कारण वायुमंडल में उत्सर्जित कार्बन आमतौर पर वैश्विक स्तर पर संतुलित था।

लेकिन 1960 के दशक में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए जब मानव समाज ने जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) का उपयोग करना शुरू किया, तब से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का स्तर लगभग 100 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) बढ़ गया है। तेजी से बढ़ते कार्बन उत्सर्जन के कारण यह 400 पीपीएम के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया है। कार्बन उत्सर्जन के स्रोत वे स्थान और प्रक्रियाएं हैं जो कार्बन को वायुमंडल में छोड़ते हैं (ज़्यादातर कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन और मीथेन के रूप में है)। इनमें जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) जलाना, कृषि और पशुओं की बढ़ोत्तरी आदि शामिल हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग और मौसम में बदलाव की घटनाओं सहित बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहे हैं।

प्राकृतिक और कृत्रिम कार्बन सिंक क्या हैं

प्राकृतिक कार्बन सिंक मिट्टी, जंगल और घास के मैदान जैसे स्थलीय हो सकते हैं, या महासागर जैसे जलीय। वर्तमान में महासागर दुनिया के सबसे बड़े कार्बन जलाशय हैं।

इस बीच, वातावरण में कार्बन के बढ़ते स्तर से निपटने के लिए कृत्रिम कार्बन सिंक बनाना प्रस्तावित किया गया है। ऐसा ही एक विचार सीमेंट, स्टील और ऐसी अन्य सामग्रियों के बजाय लकड़ी का उपयोग करके तेजी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों को कार्बन सिंक में परिवर्तित करने का है। इसका उद्देश्य न केवल नए कार्बन सिंक बनाना है, बल्कि सीमेंट की मांग को कम करके कार्बन उत्सर्जन को भी कम करना है, क्योंकि सीमेंट निर्माण से वर्तमान में वैश्विक स्तर पर 8% कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होता है।

एक कृत्रिम कार्बन सिंक के लिए हवा या प्रमुख स्रोतों (जैसे कारखानों/औद्योगिक क्षेत्रों) से सीधे कार्बन डाइऑक्साइड लेकर इसका उपयोग प्राकृतिक कार्बन ईंधन के उत्पादन या विभिन्न तरीकों से कार्बन पृथक्करण करने का आइडिया और विचार है। कार्बन पृथक्करण की विधियों में कार्बन डाइऑक्साइड को समुद्र में या भूगर्भिक संरचनाओं में इंजेक्ट करना भी शामिल हो सकता है।

वर्ष 1996 के बाद से नॉर्वे में स्लैपनेर प्राकृतिक गैस क्षेत्र में खारे पानी के जलभृत (aquifer) का उपयोग नॉर्वेजियन तेल कंपनी इक्विनोर द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के भंडारण क्षेत्रों के रूप में किया गया है। इस कंपनी ने कार्बन करों के भुगतान से बचने के लिए ये परियोजना शुरू की थी। हालाँकि, समुद्र में कार्बन डाइऑक्साइड को पंप करने में कई समस्याएँ हैं और स्लैपनेर स्टोरेज साइटों में लीक की हालिया जाँच से संकेत मिलता है कि कार्बन डाइऑक्साइड के लिए भूगर्भिक भंडारण समाधान भी काफी समस्या वाला है।

कार्बन डाइऑक्साइड का खनिज पृथक्करण एक अन्य कार्बन कैप्चर (कार्बन को एकत्रित करने) विधि है जिसे कार्बन सिंक बनाने के लिए खोजा जा रहा है। इसमें बलुआ पत्थर और बेसाल्ट में कार्बन ठोस कार्बोनेट यौगिकों के रूप में फंस जाता है। नई अनुसंधान परियोजनाएं भी कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने के लिए खनन कचरे के उपयोग की क्षमता की जांच कर रही हैं।

महासागर कार्बन सिंक के रूप में कैसे काम करते हैं

महासागर, जो अब तक का सबसे बड़ा कार्बन भंडार और सिंक है, कार्बन को कई अलग-अलग रूपों में संग्रहित करता है।

सबसे अधिक मात्रा में घुलनशील अकार्बनिक कार्बन (डीआईसी) है। यह समुद्र के पानी के माध्यम से तलछट, भूमि अपक्षय, पृथ्वी के आंतरिक भाग से बाहर निकलने (उदाहरण के लिए, ज्वालामुखी के माध्यम से) और वातावरण के साथ गैस के आदान-प्रदान के माध्यम से समुद्र में प्रवेश करता है। कार्बन डाइऑक्साइड आमतौर पर समुद्री जल में घुल जाता है, जहां यह कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), बाइकार्बोनेट आयन (HCO3–), और कार्बोनेट आयन (CO3–) के रूप में मौजूद होता है।

मध्यम और गहरे महासागरों में पाँच कार्बन जलाशयों का सबसे बड़े सिंक के रूप में होने का अनुमान है, अन्य चार सतही महासागर, समुद्री बायोटा, घुलित ऑर्गेनिक कार्बन (डीओसी) और समुद्री सतह तलछट हैं।

जैविक कार्बन पंप की क्रिया के कारण महासागर कार्बन सिंक के रूप में भी कार्य करते हैं, जो मुख्य रूप से समुद्र की सतह की परतों में होते हैं। फाइटोप्लांकटन हवा से कार्बन डाइऑक्साइड को परिवर्तित करता है और प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड को बायोमास (जैव-भार) से समुद्री जल में घोलता है। इसमें से लगभग 25% पार्टिकुलेट ऑर्गेनिक कार्बन (POC) हैं जो पानी के माध्यम से सिंक होता है। अधिकांश सिंक होते पार्टिकुलेट ऑर्गेनिक कार्बन का पुनर्खनिज सूक्ष्मजीवों द्वारा किया जाता है और पार्टिकुलेट ऑर्गेनिक कार्बन  का 1% से भी कम भाग अवसादन द्वारा समुद्र तल तक पहुँचता है और समुद्र तल के कार्बन सिंक में योगदान देता है।

अरब सागर में सर्दियों के वक़्त फाइटोप्लांकटन के दिखने का उपग्रहीय दृश्य, जिसमें जमीन से धूल उड़ती दिख रही है। फोटो: नासा/विकिमीडिया कॉमन्स। 
अरब सागर में सर्दियों के वक़्त फाइटोप्लांकटन के दिखने का उपग्रहीय दृश्य, जिसमें जमीन से धूल उड़ती दिख रही है। फोटो: नासा/विकिमीडिया कॉमन्स।

समुद्री बायोटा (किसी खास जगह में रहने वाले जन्तु एवं पेड़-पौधे समेत सभी जीवित प्राणी) भी डीओसी या विघटित ऑर्गेनिक कार्बन का उत्पादन करता है। डीओसी कण पीओसी कणों से काफी छोटे होते हैं। अपने छोटे आकार के कारण डीओसी कण डूबते नहीं हैं, लेकिन वे सतह के जल में रहते हैं, जहाँ वे सूक्ष्म जीवों के लिए पोषक तत्व का काम करते हैं। डीओसी और पीओसी के अलावा, कैल्साइट या अर्गोनाइट के रूप में समुद्री जीवों का निर्माण करने वाले सेल/कंकाल द्वारा निर्मित कैल्शियम कार्बोनेट एक महत्वपूर्ण ऑर्गेनिक कार्बन सिंक है।

वर्ष 2019 में यह अनुमान लगाया गया था कि महासागरों ने 1994 से 2007 के बीच मानव गतिविधि के कारण वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 30% अवशोषित किया। 2020 के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि महासागर मानव जनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के 25% के लिए एक सिंक के रूप में काम करते हैं।

हालाँकि महासागर बढ़े हुए कार्बन डाइऑक्साइड को लंबे समय तक अवशोषित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे अनंत कार्बन के लिए सिंक का काम नहीं कर सकते हैं। जैसे ही अधिक कार्बन डाइऑक्साइड समुद्र में प्रवेश करती है, वे CO2, HCO3–, और CO3– आयनों के अनुपात में विघटित होकर परिवर्तन समुद्री जल की बफरिंग क्षमता को प्रभावित करती है। इसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे समुद्र में डीआईसी का स्तर बढ़ेगा, मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को अवशोषित करने के लिए समुद्री जल की क्षमता कम होती जाएगी। इसके अलावा, दशकीय विविधताओं और जलवायु परिवर्तन के कारण महासागरीय कार्बन सिंक की क्षमता में भी बदलाव आ सकता है।

यद्यपि प्लवक वृद्धि (लोहा, नाइट्रेट्स और फॉस्फेट जैसे पोषक तत्वों के साथ) को प्रोत्साहित करके ऑर्गेनिक कार्बन पंप के माध्यम से महासागरों में कार्बन-पृथक्करण (अलगाव) को बढ़ाने के विचार प्रस्तावित किए गए हैं, इस नजरिये के अनपेक्षित नकारात्मक प्रभावों के बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। अब तक महासागरों में बढ़े हुए CO2 के स्तर ने पहले ही समुद्री जल के pH को कम कर दिया है, जिससे ‘महासागर का अम्लीकरण’ हो गया है। इस प्रवृत्ति की भविष्यवाणियों से संकेत मिलता है कि 2050 तक समुद्री जल का पीएच 0.4-0.5 यूनिट गिरकर 7.7-7.8 तक कम हो सकता है। यह अम्लीकरण, ग्लोबल वार्मिंग के साथ, समुद्री जल में कैल्शियम कार्बोनेट की घुलनशीलता को बढ़ाता है, जो कोरल (मूंगा), शेल्ड मोलस्क और मछली के अस्तित्व को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।

स्थलीय प्रणालियां कार्बन सिंक के रूप में कैसे कार्य करती हैं

स्थलीय प्रणालियाँ – वनस्पति, मिट्टी, पर्माफ्रॉस्ट और जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) महत्वपूर्ण कार्बन भंडार हैं, हालांकि उनके कार्बन स्टॉक महासागरों की तुलना में कम हैं। पौधे प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वातावरण से CO2 को ठीक करते हैं और कार्बन को ऑर्गेनिक अणुओं से जोड़ते हैं जो फिर इन कार्बन भण्डार में जमा हो जाते हैं।

साल 2001 और 2010 के बीच वनों ने वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग 20-30% अवशोषित किया  है। साल 2001 और 2019 के बीच, वनों ने प्रति वर्ष लगभग 7.6 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित किया है। इस दौरान अमेज़ॅन और कांगो नदी घाटियों के जंगल सबसे मजबूत कार्बन सिंक रहे हैं। हालांकि, कार्बन डाइऑक्साइड के उच्च स्तर के कारण वनों की वृद्धि हुई, इसके कारण पेड़ तेजी से बढ़ते हैं जिससे उनका जीवनकाल छोटा हो सकता है। इसका मतलब यह है कि वन कार्बन स्टॉक अपेक्षा से अधिक क्षणिक हो सकता है, क्योंकि पेड़ पहले मरना शुरू कर देंगे, जिससे अलग हुआ कार्बन वायुमंडल में वापस आ जाएगा।

कोलकाता के साल्ट लेक शहर में नलबन जल निकाय के ऊपर प्रदूषण की धुंध देखी गई। फोटो: बिस्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स
कोलकाता के साल्ट लेक शहर में नलबन जल निकाय के ऊपर प्रदूषण की धुंध देखी गई। तस्वीर– बिस्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स

जंगलों के अलावा घास के मैदान और पिटलैंड को भी महत्वपूर्ण स्थलीय कार्बन सिंक माना जाता है। जीवित वनस्पति बायोमास और मिट्टी कार्बनिक पदार्थ के रूप में दोनों क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में कार्बन को अवशोषित और संग्रहित करने की क्षमता है। एक समय में, प्रबंधित घास के मैदानों को स्थायी कार्बन सिंक माना जाता था।  हालांकि, डेटा की बारीकी से जांच करने पर संकेत मिलता है कि ऐसा नहीं हो सकता है। इसके अलावा 2021 में एक अध्ययन से पता चलता है कि प्रबंधित घास के मैदानों के गर्म जलवायु प्रभाव वास्तव में कार्बन सिंक के रूप में काम करने वाले प्राकृतिक घास के मैदानों के शीतलपन के प्रभाव को समाप्त कर सकते हैं। 

पिटलैंड को सबसे अधिक अंतरिक्ष-कुशल स्थलीय कार्बन भंडारण प्रणाली माना जाता है। क्योंकि पिटलैंड में जितना बायोमास बाहर जाता है उससे अधिक बायोमास का उत्पादन हो जाता है।  क्योंकि उसकी मिट्टी में अवयवों का अपघटन कम है। हालाँकि पिटलैंड पृथ्वी की भूमि की सतह का केवल 3% है, उनका कुल कार्बन पूल दुनिया के जंगलों से दोगुना है। इसके बावजूद, भविष्य के जलवायु परिवर्तन की भविष्यवाणी करने वाले अर्थ सिस्टम मॉडल में पिटलैंड को ध्यान में नहीं रखा जाता है। हालांकि, ग्लोबल वार्मिंग, पिट जंगल की आग, और पिटलैंड से पिट की निकासी (पिट का उपयोग ईंधन और बागवानी में किया जाता है) और वृक्षारोपण के कारण पिटलैंड कार्बन सिंक से कार्बन स्रोत बनने की तरफ अग्रसर हैं।

भारत कार्बन उत्सर्जन को समायोजित (ऑफसेट) करने के लिए कार्बन सिंक का उपयोग करने की योजना कैसे बना रहा है

या तो नए कार्बन सिंक (इमारतों, भूवैज्ञानिक संरचनाओं का उपयोग करके, या प्रत्यक्ष CO2 कैप्चर तकनीकों, आदि के माध्यम से) बनाने और मौजूदा सिंक के कार्बन पृथक्करण को बढ़ाने के लिए कई रणनीतियाँ हैं। वन पुनर्विकास और मृदा कार्बन पृथक्करण, इन तकनीकों की प्रभावशीलता अभी भी स्पष्ट नहीं है।

साल 2004 में भारतीय वन सर्वेक्षण के एक अनुमान के हिसाब से, भारत का वन कार्बन स्टॉक तब 6663 मिलियन टन (6.6 पेटाग्राम या 29.2 बिलियन टन CO2 के बराबर) था। वर्तमान में, पेरिस समझौते के तहत भारत के लिए NDC (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) लक्ष्य 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से अतिरिक्त 2.5-3 बिलियन टन CO2e बनाना निर्धारित है। टेरी (द एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट) की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, यह तभी संभव होगा जब भारत 2030 तक अपने वन क्षेत्र को दोगुना कर देगा। रिपोर्ट में एनडीसी का लक्ष्य हासिल करने के लिए ब्लू कार्बन पहल (तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन भंडारण क्षमता), टिकाऊ वन प्रबंधन के लिए एकीकृत नजरिए और कृषि वानिकी उद्योग की खोज के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। 

साल 2021 के दौरान एक अध्ययन में भारत के कृषि वानिकी उद्योग की कार्बन सिंक के रूप में कार्य करने की क्षमता का पता लगाया गया था। अनुमान है कि 2050 तक इस क्षेत्र में 30% कार्बन उत्सर्जन को समायोजित (ऑफसेट) करने की क्षमता है। शोध यह भी बताता है कि एग्रोसिलवोपास्टोरल प्रणाली (फसलों, पेड़ों और पशुधन की वृद्धि के लिए काम करने वाला सिस्टम) में अन्य प्रणालियों जैसे कि कृषि (फसल + पेड़) और सिल्वोपास्टोरल (पेड़ + पशुधन) की तुलना में उच्चतम कार्बन सिंक क्षमता होती है। 


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हालांकि, 2020 के एक पुराने अध्ययन से पता चला है कि प्रजाति-समृद्ध प्राकृतिक वन कार्बन कैप्चर में उन प्रजातियों- कमजोर वृक्षारोपण की तुलना में बेहतर हैं जो कृषि वानिकी में बनाए और प्रबंधित किए जाते हैं। नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के फेलो डीबीटी रामलिंगस्वामी और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक आनंद ओसुरी कहते हैं, “हमारा अध्ययन दो तरीकों को दिखाता है जिसमें जैव विविधता वाले वन मोनोकल्चर वृक्षारोपण की तुलना में बेहतर कार्बन सिंक बनाते हैं – ये वन अपनी वनस्पतियों में अधिक कार्बन जमा करते हैं और वर्षों से इनमें कार्बन कैप्चर की क्षमता अधिक है।”

वे आगे कहते हैं, “हमने पाया कि सागौन और नीलगिरी के बागान, जिन्हें छोड़ दिया गया था और सक्रिय रूप से प्रबंधित नहीं किया गया था, ये न केवल एक गीले सदाबहार जंगल की तुलना में 30-50% कम कार्बन जमा करते हैं, बल्कि सूखा जैसी परिस्थितियों में वातावरण से कार्बन को पकड़ने की क्षमता है। हालाँकि हमने अपने इस अध्ययन में इन भिन्नताओं के कारणों की जांच नहीं की।  पारिस्थितिक सिद्धांत से एक संभावित स्पष्टीकरण यह है कि उच्च प्रजातियों की विविधता पारिस्थितिकी तंत्र उत्पादकता और लचीलापन बढ़ाती है।”

 

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बैनर तस्वीरः भारत में रणथंभौर के शुष्क पर्णपाती वन। 2001 से 2010 के बीच वनों ने वैश्विक CO2 उत्सर्जन का लगभग 20-30% अवशोषित कर लिया है। 2001 और 2019 के बीच वनों ने प्रति वर्ष लगभग 7.6 गीगाटन CO2 को अवशोषित किया। तस्वीर– पाहुल महाजन/विकिमीडिया कॉमन्स। 

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