- सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर)की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत के सिंधु-गंगा मैदानी इलाकों के प्रदेशों में अधिकांश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं।
- इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ में से सात बोर्ड में 40% से अधिक तकनीकी कर्मचारियों के पद खाली है।
- बिहार, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों में तकनीकी कर्मचारियों की सबसे अधिक कमी है। झारखंड में यह रिक्तियां सबसे ज्यादा 84% तक दर्ज की गई।
- विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी स्थिति में देश में प्रदूषण नियंत्रण के कार्यक्रमों के लक्ष्यों को पाना मुश्किल हो सकता है।
इस साल एक नवम्बर को देश की राजधानी नई दिल्ली पूरी तरह से प्रदूषित जहरीली हवा के चंगुल में दिखी। इस दिन इस साल के वायु प्रदूषण के सारे रिकॉर्ड टूट गए जब शहर में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 424 (बहुत खराब) तक जा पहुंचा। यह दिल्ली या उत्तर भारत के कई राज्यों के लिए सर्दियों में आम बात है। सर्दियों में इस तरह के वायु प्रदूषण से जूझने वाले अधिकांश राज्य देश के सिंधु-गंगा के मैदानों के इलाकों में आने वाले राज्यों में से हैं।
सर्दी के मौसम में जब प्रदूषण की मात्रा बढ़ जाती है तब कई राज्य कुछ त्वरित कदम उठाते दिखते हैं। इसका एक उदाहरण इस वक्त दिल्ली में देखने को मिल रहा है। इस महीने दिल्ली सरकार ने निर्माण कार्यों को प्रदूषण के मद्देनजर बंद करा दिया। साथ ही दिल्ली के सभी प्राथमिक स्कूल भी प्रदूषण के कारण बंद कर दिये गए हैं।
गुलाबी सर्दी की शुरुआत के साथ देशभर में प्रदूषण की समस्या गंभीर हो रही है। ऐसी स्थिति में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। राज्यों में स्थित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) का काम प्रदूषण पर लगाम लगाने के साथ उसे रोकने के लिए दीर्घकालिक उपाय करने का भी। लेकिन उत्तर भारत के कई राज्यों के बोर्ड खस्ताहाल हैं। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) ने अक्टूबर 2022 में एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि देश के बहुत से ऐसे राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण संस्थान कर्मचारियों की किल्लत झेल रहे हैं।
इस रिपोर्ट में देश के सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों के नौ प्रदेशों और एक केंद्र शासित प्रदेश (दिल्ली) का अध्ययन किया गया है। इन राज्यों में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल हैं। इस पूरे सिंधु-गंगा के मैदानी इलाके में अक्सर भारी प्रदूषण दर्ज किया जाता है।
पर्यावरण और वन मंत्रालय के दस्तावेजों के अनुसार भारत के सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों के शहरों में वायु प्रदूषण के प्रमुख प्रदूषक-पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) की सघनता देश के दक्षिण भारत या दूसरी जगहों से अधिक है।
सीपीआर की रिपोर्ट कहती है कि देश के इन 10 प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (एसपीसीबी) में कर्मचारियों, मुख्यतः तकनीकी विशेषज्ञों, की कमी; सरकारी पृष्ठभूमि के अफसरों का उच्च पदों पर वर्चस्व और वायु गुणवत्ता के प्रबंधन के लिए विशेषज्ञों की कमी इन सभी बोर्ड के पूर्ण क्षमता पर काम करने में बाधा डाल रहे हैं।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का गठन जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974 के अंतर्गत हुआ था लेकिन धीरे-धीरे इसके उद्देश्यों में वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण, प्लास्टिक कचरे का निपटान, शहरी कचरा का निपटान और इलेक्ट्रॉनिक कचरे का नियंत्रण जैसे कार्यों को भी जोड़ दिया गया। एसपीसीबी राज्यों की एक स्वायत्त संस्था है। इन्हें उद्योगों को प्रदूषण के मानकों पर आकलन करने, उद्योगों के लिए सही उत्सर्जन और कचरे के प्रवाह के लिए मानक तय करने का अधिकार है।
यह प्रदूषण के नियमों और मानकों का उल्लंघन करने वाले उद्योगों को दंडित भी कर सकते हैं। सीपीआर की इस रिपोर्ट में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के गठन, चेयरमैन, मेंबर सेक्रेटरी के चयन, बोर्ड के अलग-अलग विभाग के कर्मचारियों की समीक्षा आदि का अध्ययन किया गया।
तकनीकी विशेषज्ञों की कमी
सीपीआर की यह रिपोर्ट कहती है कि आठ में से सात एसपीसीबी में 40% से ज्यादा तकनीकी कर्मचारियों की रिक्तियां देखी गईं। बिहार, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों में तकनीकी कर्मचारियों की सबसे ज्यादा कमी देखी गई। झारखंड में यह रिक्तियां सबसे ज्यादा 84% तक दर्ज की गईं। तकनीकी कर्मचारियों में एनवायरनमेंट इंजीनियर और वैज्ञानिक होते हैं।
यह रिपोर्ट कहती है कि इन बोर्डों में सरकारी अफसरों और राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का दबदबा होता है जबकि आम नागरिक, शिक्षा और जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञों की भागीदारी अक्सर कम होती है। नियमों के अनुसार वायु गुणवत्ता के प्रबंधन के लिए इन बोर्डों में कम से कम दो विशेषज्ञ होने चाहिए जो बहुत से बोर्ड में नहीं देखा गया।
“इस बोर्डों के सदस्यों में अक्सर उद्योग, नगर निगम जैसे क्षेत्र, जो सक्षम प्रदूषण करने वाले हैं, के लोग होते हैं। जब ऐसे लोग इस बोर्ड में हों, तो हितों के टकराव वाली स्थिति कभी भी खड़ी हो सकती है। वहीं दूसरी तरफ, प्रदूषण के मामलों के तकनीकी जानकार जो इन समस्याओं का समाधान लाने में सक्षम हैं, उनकी भागीदारी इन बोर्डों में अक्सर कम देखने को मिलती है,” सीपीआर में काम कर रही फेलो शिबानी घोष ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
एसपीसीबी के चेयरमैन और मेंबर सेक्रेटरी के चयन को लेकर सीपीआर की रिपोर्ट कहती है कि इन दोनों पदों के लिए अक्सर ऐसे लोगों का चयन किया जाता है जो पहले किसी सरकारी नौकरी में रह चुके हों। इसके अलावा यह दोनों पद कई राज्यों में एक अतिरिक्त नियुक्ति के तौर पर दिए जाते हैं जहां एसपीसीबी के चेयरमैन और मेंबर सेक्रेटरी को एसपीसीबी के अलावा दूसरे विभागों की जिम्मेदारी भी लेनी पड़ती है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कई प्रदेशों में चेयरमैन के कार्यकाल की अवधि भी अलग-अलग होती है। ऐसे में एसपीसीबी के चेयरमैन को बहुत सी नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए समुचित समय नहीं मिल पाता है। कम अवधि के लिए पद पर रहने वाले चेयरमैन को दीर्घकालिक योजनाओं पर काम करने में भी दिक्कत आ सकती है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आंचलिक (रीजनल) प्रदूषण बोर्ड के ऑफिस में भी कर्मचारियों की कमी है। ऐसा पाया गया कि कुछ आंचलिक कार्यालयों में सिर्फ एक या दो एनवायरनमेंट इंजीनियर की ही नियुक्ति है। ऐसी स्थिति में इन अफसरों पर काम का बोझ बढ़ता है।
इन कार्यालयों में प्रति एनवायरनमेंट इंजीनियर सालाना करीब 800 प्रदूषण संबंधी स्वीकृतियां प्रदान की गईं जो इन अफसरों पर बढ़ते बोझ को दर्शाता है। वर्ष 2020-21 में आंचलिक (रीजनल) प्रदूषण बोर्ड के कार्यालयों में प्रति एनवायरनमेंट इंजीनियर औसतन 200 अनुमतियां प्रदान की गईं।
सीपीआर की शिबानी घोष ने बताया कि इस रिपोर्ट के लिए सूचना के अधिकार के माध्यम से अलग अलग राज्यों से कर्मचारियों की क्षमता, बोर्ड के सदस्यों की योग्यता आदि के आंकड़ों का संग्रह किया। साथ ही सार्वजनिक आंकड़ों, साक्षात्कार और इस विषय में संसदीय रिपोर्ट और अन्य रिपोर्ट का भी अध्ययन किया गया।
एसपीसीबी पर ध्यान देने के क्यों है जरूरत?
भारत में हर साल वायु गुणवत्ता सूचकांक का हानिकारक स्तर पर जाना एक वार्षिक घटना बनता जा रहा है। सर्दियों में बहुत से उत्तर भारतीय शहरों में प्रदूषण का प्रकोप बढ़ जाता है और उसका प्रतिकूल असर जन स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। एक अध्ययन के अनुसार देश में हर साल होने वाली मौतों में से 17.8% मौतें वायु प्रदूषण के कारण होती हैं। प्रदूषण महिलाओं और नवजात बच्चों पर भी बुरा असर डालता है।
इस साल प्रकाशित हुए एक शोध के अनुसार पीएम 2.5 के अधिक सघन होने और इसके संपर्क में आने से नवजात बच्चों की मौतों के मामले अधिक देखने को मिलते हैं। एक और अध्ययन ने बताया है कि सिर्फ दिल्ली में 2020 में वायु प्रदूषण के कारण 54,000 अकाल मृत्यु हुई। एक और अध्ययन में वायु प्रदूषण और किशोरियों में एनीमिया (खून की कमी) के बढ़ते मामलों में भी संबंध पाया।
विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है जब अलग-अलग एसपीसीबी को प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए साथ में आकर आंचलिक प्लान बनाने और एक दूसरे के साथ काम करने के जरूरत पड़ेगी। अनुमिता रॉय चौधरी, सेंटर फॉर साइन्स एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) में एग्जीक्यूटिव निदेशक हैं। उनका कहना है कि सीपीआर की इस रिपोर्ट ने एसपीसीबी में मौजूद कमियों को उजागर किया है। यह इस बात को दर्शाता है कि इन संस्थानों में अब कुछ सुधार की जरूरत है। चौधरी ने प्रदूषण से बेहतर तरीके से निपटने के लिए अलग-अलग राज्यों के बीच परस्पर सहयोग की बात भी कही।
“सामान्यतः राज्य सरकार प्रदूषण को रोकने के लिए शहरों के लिए नीति तैयार करती है लेकिन प्रदूषण राज्यों और शहरों की सीमाएं नहीं समझता है। कई बार ऐसी नीतियों में दूसरे पड़ोसी राज्यों से आने वाले प्रदूषण का सही आकलन नहीं होता है। अतः हमें एक व्यापक रीजनल एक्शन प्लान बनाने की जरूरत है जहां अलग-अलग राज्यों के एसपीसीबी साथ आकर समाधान ढूंढें। इसी तरह का एक प्रयास दिल्ली और आसपास के राज्यों में लगभग एक साल पहले हुआ है जिसके अंतर्गत कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट (सीएक्यूएम) का गठन हुआ,” चौधरी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), बॉम्बे में सहायक प्रोफेसर अजय देशपांडे ने बताया कि इन संस्थानों में बहुत सी समस्याएं हैं जिनमें से एक समस्या मानकों को तय करने को लेकर है। उनका कहना है कि मानक बनाने का अधिकार एसपीसीबी के पास है लेकिन बहुत से एसपीसीबी इस काम को नहीं करते।
सीपीआर की यह रिपोर्ट इकलौती ऐसी रिपोर्ट नहीं है जिसने राज्यों में चल रहे एसपीसीबी के हालातों पर प्रश्न उठाए हैं। एक संसदीय कमेटी की रिपोर्ट ने भी राज्यों में स्थित एसपीसीबी में मौजूद समस्याओं पर प्रकाश डाला था। संसद की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में प्रदूषण की निगरानी के लिए लगाए गए 332 केन्द्रों में से बहुतों ने काम करना बंद कर दिया है जबकि कुछ जगहों पर इनके द्वारा भेजे गए आंकड़ों का संकलन ठीक से नहीं किया जाता है।
और पढ़ेंः कम हो रही जानलेवा सल्फर डाइऑक्साइड के बढ़ने की रफ्तार, प्रदूषण नियमों में और सख्ती की जरूरत
विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी स्थिति में देश में प्रदूषण नियंत्रण के लिए लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के अंतर्गत देश में हानिकारक वायु प्रदूषक – पीएम2.5 और पीएम10 को 2024 तक 20-30% तक कम करने का लक्ष्य रखा है।
जब यह पूछा गया कि क्या ऐसी स्थिति में इस लक्ष्य को पाया जा सकता है तब सीएसई की चौधरी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जब हम सही सुधार चाहते हैं तो हमें अपने संस्थानों को और मजबूत बनाने की जरूरत है। हमें इन संस्थाओं को और मजबूत बनाने के लिए इनकी तकनीकी दक्षता को बढ़ाने की जरूरत है। यह बात सीपीआर की रिपोर्ट के मुख्य सुझाव में भी शामिल है।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीरः दिल्ली में वायु प्रदूषण की एक प्रतीकात्मक तस्वीर। दिल्ली सरकार ने निर्माण कार्यों को प्रदूषण के मद्देनजर बंद करा दिया। तस्वीर– Prami.ap90/विकिमीडिया कॉमन्स