- लगातार बढ़ती गर्मी लोगों की सेहत के लिए एक चुनौती बन सकती है। बुजुर्ग, मजदूर, कमजोर स्वास्थ्य और कम आय वाले लोग इससे ख़ास तौर पर प्रभावित होंगे।
- एक अध्ययन के मुताबिक़ सन 2100 तक भारत और उप-सहारा अफ्रीका जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (गर्म क्षेत्र) में रहने वाले कई लोग, साल के अधिकतर दिनों में खतरनाक गर्मी की चपेट में रहेंगे।
- गर्मी को नियंत्रित करने के लिए अल्पकालिक समाधानों के अलावा, शहरों में हरियाली को बचाना, हरियाली बढ़ाना, शहरवार योजनाएं बनाना और शहरी जलवायु के हिसाब से रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
“गर्मी में पंखा चलाने पर, कमरे के अंदर की हवा आग की तरह उठती है,” भारत में कोलकाता महानगर के उत्तरी भाग में प्लास्टिक के तिरपाल, बांस और टिन से बने अपने घर की ओर इशारा करते हुए 50-वर्षीय डोलेना खातून कहती हैं। यह कहते हुए वह बंगाली भाषा में “आगुन” शब्द पर जोर देती हैं, जिसका अर्थ है आग।
सितंबर महीने में उनके घर के बाहर हमारी बात-चीत हो रही थी। शाम ने दस्तक दी तो टिन-टप्पर और प्लास्टिक से बनी माचिस की डिब्बियों जैसी सैकड़ों घनी झुग्गियां एक लाइन में दिख रही थीं।
डोलेना की पड़ोसन, एफ. खातून ने कहा, “जब हमें ताजी हवा लेने की जरूरत महसूस होती है तो हम यहां से बाहर निकल कर एक पेड़ की छाया में बैठने की कोशिश करते हैं, क्योंकि शाम को भी पंखे का स्विच ऑन करते ही घर के अंदर गर्मी का उबाल होने लगता है।”
एफ. खातून का 12 लोगों का परिवार है। उनके दो मंजिला घर में चार पंखे हैं, दो पंखे छत से जुड़े हुए हैं और दो पोर्टेबल पंखे हैं। उन्हें घर के अंदर की गर्म हवा और भारी उमस में रहना पड़ता है। पचपन वर्षीया खातून कहती हैं, “हमें कुछ साल पहले ही बिजली कनेक्शन मिला, उससे पहले पंखा चलाना सपना था।”
“कोलकाता के शहरी झोपड़पट्टी और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बुजुर्गों पर गर्मी का असर” विषय पर प्रकाशित शोध की एक कड़ी में, गर्मी से बेहाल खातून के इस अनुभव को देखा जा सकता है। अमेरिकी मानव-विज्ञानी और अध्ययन के सह-लेखक चार्ल्स वेइट्ज़ का कहना है, “मेरे हिसाब से ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कम ऊंचाई वाली घनी झुग्गियों में रहने वाले लोग लगभग दिन-रात तपते रहते हैं।”
कोलकाता की झुग्गी और महानगर से 75 किमी दूर एक गांव पर किए अपने अध्ययन में, वेइट्ज़ और सह-लेखक बरुन मुखोपाध्याय ने पाया कि कंस्ट्रक्शन मटेरियल और शहरी गर्मी दोनों के कारण दिन में और ख़ास तौर से रात में घरों के अंदर और बहार की गर्मी को बढ़ाती है।
बुजुर्गों की सेहत के लिए चुनौती
शोधकर्ताओं ने उम्र बढ़ने के साथ इंसानों की गर्मीं सहने की क्षमता में गिरावट, और जलवायु में बदलाव के कारण लगातार बढ़ती गर्मी के प्रति आगाह किया है। उनका मानना है कि यह इंसानी सेहत के लिए चुनौती है। साल 2021 की लैंसेट रिपोर्ट के अनुसार, साल 1986 से 2005 तक के वार्षिक औसत की तुलना में 2020 में अधिक तापमान के कारण 65 वर्ष से अधिक उम्र के 3.1 बिलियन और एक वर्ष से कम उम्र के 626 मिलियन बच्चे प्रभावित हुए।
चार्ल्स वीट्ज़ का कहना है, “उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन वास्तव में काफी असरदार होते हैं। बुजुर्ग लोगों में गर्मी या सर्दी सहने की क्षमता कम होती है। हमने हाल ही में गर्मी का अध्ययन किया है और यह हकीकत में स्वास्थ्य के लिए समस्याएं पैदा करती है। गर्मी से ख़ास तौर से किसी बीमारी से ग्रस्त लोगों को काफी समस्या होती है। मधुमेह (डायबटीज) और दिल की बीमारी वाले लोगों को बढ़ती उम्र के साथ गर्म वातावरण का सामना करना मुश्किल होता है। गर्मी से राहत के लिए बाहर कदम रखना आने वाले दशकों में और भी मुश्किल हो सकता है।”
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती क्यों जरूरी है?
एक नए अध्ययन के अनुसार साल 2100 तक भारत और अफ्रीका जैसे उष्णकटिबंधीय (पृथ्वी का सबसे गर्म भू-भाग) क्षेत्र रहने वाले अधिकतर लोगों को साल के अधिकतर दिनों में उच्च स्तर की खतरनाक गर्मी का सामना करना पड़ेगा। भले ही पेरिस समझौते के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग 2˚C तक सीमित हो लेकिन किए गए शोध के परिणामों से पता चलता हैं कि मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड आने वाले दशकों में वैश्विक रूप से तापमान को बढ़ा सकती है।
अध्ययन के सह-लेखक लुकास वर्गास ज़ेपेटेलो ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम उत्सर्जन का उपयोग किस काम के लिए करते हैं, हमने तापमान को पहले ही इतना बढ़ा दिया है कि हम गर्मी से होने वाले तनाव के अधिकतम स्तर तक पहुंचने वाले हैं। यह मायने नहीं रखता कि आप दुनिया में कहां पर हैं, चाहें आप सबसे ऊंचे अक्षांश पर की क्यों न हों।”
अध्ययनकर्ता इस बात पर जोर देते हैं कि सार्थक उपायों के बिना गर्मी से संबंधित बीमारियां, ख़ास तौर से बुजुर्गों, बाहरी श्रमिकों और कम आय वाले लोगों में बढ़ सकती हैं।
ज़ेपेटेलो और उनके सहयोगियों ने अमेरिका के हीट इंडेक्स का उपयोग करके गर्मी और नमी के खतरनाक स्तर और उसके संभावित नुकसान का अनुमान लगाया। 103° F (39.4 डिग्री सेल्सियस) से ऊपर के हीट इंडेक्स को अमेरिका की नेशनल वेदर सर्विस द्वारा ‘खतरनाक’ होने का दर्जा दिया गया है, क्योंकि इस स्तर पर गर्मी की वजह से ऐंठन और थकावट हो सकती है। 124° F (51.1 डिग्री सेल्सियस) से ऊपर के हीट इंडेक्स को ‘बेहद खतरनाक’ होने का दर्जा दिया गया है। इस तापमान पर हीट-स्ट्रोक हो सकता है, जिसके कारण कुछ ही घंटों में मौत हो सकती है।
अफ्रीका, भारत, और अरब जैसे बेहद गर्म भू-भाग में 1979 से 1998 की अवधि के दौरान खतरनाक हीट इंडेक्स थ्रेशोल्ड (39.4 डिग्री सेल्सियस) हर साल लगभग 5% बढ़ा है और 10-15% साल के हर दिन बढ़ता है।
ज़ेपेटेलो कहते हैं, “दिल्ली में इस 20 साल की अवधि में तीन दिन ऐसे थे जब हीट-इंडेक्स बेहद खतरनाक स्तर से ऊपर चला गया। उन दिनों में बाहर जाना बेहद खतरनाक था।” ऐसी स्थिति नीति निर्माताओं के लिए ध्यान देने योग्य हैं।
क्या होगा यदि भारतीय शहर 1.5˚C वार्मिंग को पार कर जाए?
वार्मिंग 2˚C पहुंचने के परिस्थिति में दिल्ली में हर साल तकरीबन आठ दिन बेहद खतरनाक गर्मी, जब हीट इंडेक्स 51.1 डिग्री सेल्सियस (124 डिग्री फ़ारेनहाइट) से ऊपर चला जाता है, देखी जा सकती है। बेहद खराब स्थिति में, जिसमें साल 2100 तक उत्सर्जन अनियंत्रित (लगभग 3˚C वार्मिंग के बराबर) रहे, दिल्ली में हर साल 30 दिन ऐसे हो सकते हैं, जब बाहर रहना बेहद खतरनाक हो सकता है।
इसी अवधि (1979-1998) में कोलकाता में हर दो साल में लगभग एक दिन ऐसा हुआ जब हीट इंडेक्स बिलकुल खतरनाक स्तर (51.1 डिग्री सेल्सियस से ऊपर) से ऊपर चला गया। 2˚C वार्मिंग की स्थिति में हर साल नौ दिन ऐसे हो सकते हैं जब बाहर रहना बेहद खतरनाक होता है, जबकि 3˚C वार्मिंग में बेहद खतरनाक गर्मी वाले 33 दिन तक हो सकते हैं।
ज़ेपेटेलो का कहना है कि दो और तीन डिग्री वार्मिंग के बीच के अंतर का मतलब है ‘बिल्कुल खतरनाक गर्मी की लू से तीन गुना अधिक’ जो भारत में अभी भी असामान्य है (कोलकाता को छोड़कर, जहां ये घटनाएं हर दो साल में एक बार होती हैं)।
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मानव-विज्ञानी बरुन मुखोपाध्याय का कहना है कि नीति निर्माताओं के लिए साक्ष्य के आधार पर कार्यवाही के लिए इंसानी स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गर्मी के प्रभावों पर शोध जरुरी है।
चार शहरों, कोलकाता, दिल्ली, मुंबई और चेन्नई के 1990 से 2019 तक के दैनिक तापमान और उमस के एक अन्य डाटा एनलिसिस से पता चलता है कि गर्म हवा (लू) चलने या नहीं चलने की अवधि में अन्य शहरों की तुलना में कोलकाता और चेन्नई में अधिक परेशानी थी। जबकि इस अवधि के दौरान दिल्ली में गर्मी की लहरें (लू) चलने की घटनाओं की संख्या कोलकाता, चेन्नई और मुंबई की तुलना में अधिक थी। उच्च तापमान और अधिक उमस होने के कारण कोलकाता और चेन्नई में गर्मी से होने वाले तनाव का जोखिम अधिक है।
चक्रवर्ती और आईआईटी-खड़गपुर ने समुद्र, नदी, वायुमंडल और भू-विज्ञान केंद्र के सहयोगियों ने परेशानी के स्तर का मूल्यांकन करने के लिए आर्द्रता सूचकांक का उपयोग किया। उन्होंने गर्मी के तनाव का दर्जा देने के लिए यूनिवर्सल थर्मल क्लाइमेट इंडेक्स (यूटीसीआई) का उपयोग किया।
चक्रवर्ती का कहना है, “दिल्ली में हीट वेव (लू) की घटनाओं की संख्या कोलकाता, चेन्नई और मुंबई की तुलना में बहुत अधिक है, लेकिन चेन्नई में बेहद गर्म और खतरनाक-हीट स्ट्रोक की होने की आशंका, हीट वेव और नॉन-हीटवेव दोनों अवधि में, अन्य महानगरों की तुलना में अधिक है।
जलवायु परिवर्तन अनुकूलन विशेषज्ञ और आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल) की प्रमुख लेखिका चांदनी सिंह का कहना है, “ज़ेपेटेलो के अध्ययन में निष्कर्ष का आईपीसीसी के छठी आकलन रिपोर्ट द्वारा भी पुष्टि की गई है। हम पहले से ही वैश्विक स्तर पर 1.1 डिग्री सेल्सियस और भारत में लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस तक औसत गर्मी बढ़ा चुके हैं। हम जानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में 1.5˚C ग्लोबल वार्मिंग से भी अधिक गर्म रातें और उमस गंभीर रूप से बढ़ जाएगी, जिससे गरीब और कमजोर आबादी सबसे ज़्यादा प्रभावित होगी।”
अल्पकालिक रणनीतियों के अलावा, कमजोर आजीविका वाले खुले में काम करने वाले श्रमिकों के लिए कूलिंग शेल्टर या अंदर काम करने वाले श्रमिकों के लिए बेहतर वेंटिलेशन, शहरों में हरे व नीले जगहों की सुरक्षा या विस्तार, भवन-निर्माण के लिए शहर की गर्मी के अनुसार कार्य योजनाएं तैयार करना, जलवायु के हिसाब से अर्बन प्लानिंग और मकानों की डिजाइनिंग, हीट मैनेजमेंट के साथ संस्थागत क्षमता का निर्माण करना (जो न केवल गर्मी बल्कि पानी, कृषि, उद्योग जैसे क्षेत्रों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।) इस तरह के उपाय दीर्घकालिक उपाय हो सकते हैं।
सिंह ने कहा, “यह समझना महत्वपूर्ण है कि गर्मी की सहन को कम करने के लिए गर्मी को कम करना बेहतर है, यानी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना, जिसकी वजह से गर्मी बढ़ती है।”
बढ़ती गर्मी के बारे में कम्युनिकेशन का तरीका भी अहम
अमेरिका के एक्सेटर विश्वविद्यालय में जलवायु परिवर्तन के सामाजिक पहलुओं का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि ‘हीटवेव से सम्बंधित संचार भी प्रभावी अनुकूलन का एक अहम हिस्सा है।’
विश्वविद्याय में भूगोल के सहायक प्रोफ़ेसर सेफरन ओ. नील, जलवायु परिवर्तन के विजुअल कम्युनिकेशन (दृश्य संचार) के जानकार हैं, उन्होंने कंटेंट और विजुअल क्रिटिकल एनालिसिस के माध्यम से फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड और यूके में 2019 हीटवेव के विजुअल समाचारों के कवरेज की जांच की। सभी देशों के कवरेज में प्रमुख तस्वीरें पानी में या पानी से मस्ती करते लोगों की थीं।
ओ. नील कहते हैं, “टेक्स्ट (पाठ्य-सामग्री) और विजुअल (दृश्य) के बीच इस तरह की असमानता का होना एक समस्या है, क्योंकि इस तरह का कवरेज गर्मी की चपेट में आने वालों को हाशिए पर रखता है।”
ओ. नील के शोध समूह के सदस्य मंजू बूरा ग्लोबल साऊथ में गूगल की तस्वीरों पर हीट-वेव इमेज का विश्लेषण कर रहे हैं। बूरा कहते हैं, “गूगल की तस्वीरों में भारत और केन्या में गर्मी की लू की तस्वीरें आम हैं, ऐसे देश जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं लेकिन समाधान के लिए कम तत्पर माने जाते हैं। इससे आम तौर पर दैनिक जीवन में और बुनियादी ढांचों पर भी गर्मी का असर होता है।’
ये तस्वीरें सड़कों के पिघलने और पेड़ के नीचे या जल श्रोतों के पास गर्मी का सामना करते लोगों की या सुरक्षा के लिए हेलमेट पहनें मजदूरों की हैं।
ओ. नील अपने निष्कर्ष के बारे में बताते हैं, “हम भारत में हीटवेव (लू) (ख़ास तौर से अप्रैल-मई 2022) के दौरान लोगों को तपती गर्मी में जिन्दगी चलाने की तस्वीर देखते हैं। इसलिए, अन्य प्रकार की तस्वीरों को देखना बेहतर होगा, ताकि संवाद के माध्यम से समाधान के विकल्प तक पहुंचने में मदद मिल सके।”
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बैनर तस्वीर: एक नए अध्ययन में हर साल के अधिकतर दिनों में उच्च स्तर की खतरनाक गर्मी होने का संकेत दिया गया है। इससे गर्मी से होने वाली बीमारियों में काफी इजाफ़ा होगा। ख़ास तौर से बुजुर्गों, आउटडोर काम करने वाले श्रमिकों और कम आय वाले लोगों में। तस्वीर– माइकल कैनन/विकिमीडिया कॉमन्स।