- विशेषज्ञों का मानना है कि झीलों, तालाबों और नालों पर अतिक्रमण, जल निकासी की खराब योजना और बाढ़ के मैदानों के नियमन की कमी के कारण बेंगलुरु में शहरी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।
- वर्ष 2017 के एक अध्ययन में कहा गया है कि 45 वर्षों के दौरान बेंगलुरु की 88% वनस्पतियाँ और 79% जल निकाय समाप्त हो गए हैं।
- सरकारी आंकड़ों का दावा है कि शहर में पहले 1940 के दशक में कुल 260 झीलें थीं जो अब 65 ही रह गई हैं।
भारत की सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) का गढ़ बेंगलुरु, हाल ही में शहरी बाढ़ की वजह से सुर्खियों में बना हुआ था। इस साल अगस्त के अंतिम सप्ताह और सितंबर के पहले सप्ताह में लगातार बारिश होने की वजह से बेंगलुरु शहरी-बाढ़ से निपटने के लिए संघर्ष कर रहा था।
पिछले 34 वर्षों के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए, इस साल बेंगलुरु में सितम्बर महीने के दौरान 131.6 मिलीमीटर बारिश हुई। इस बारिश की वजह से आउटर रिंग रोड, बेलंदूर, मारथहल्ली, सरजापुर और महादेवपुरा समेत कई आवासीय इलाके और इको स्पेस जैसे कई आईटी-पार्क, कई दिनों तक भारी बारिश की वजह से शहरी बाढ़ की चपेट में रहे।
लेकिन भारत के आबादी के अनुसार पांचवें शहर के कुछ हिस्सों में बाढ़ के पानी का इतने बड़े पैमाने पर ठहराव का क्या कारण था? शहरी मुद्दों, झीलों और बाढ़ प्रबंधन पर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि शहरीकरण, बड़े पैमाने पर हरित आवरण का नुकसान, झीलों, तालाबों और नालों पर अतिक्रमण और बाढ़ के मैदानों के संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिए जाने की वजह से शहरी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। शहर के आपदा मानचित्र के अनुसार, बेंगलुरु में शहर के विभिन्न हिस्सों में कुल 134 बाढ़ बहुल पॉइंट (फ्लड प्रोन पॉइंट) हैं।
तेजी से बढ़ते आईटी और स्टार्टअप के कारण, अब इस शहर को भारत के ‘सिलिकॉन वैली’ के रूप में जाना जाता है, लेकिन कभी बेंगलुरु को ‘झीलों का शहर’ के रूप में भी जाना जाता था। इस शहर का यह उपनाम यहाँ उन झीलों और तालाबों की वजह से पड़ा था जो पहले के शासकों और अंग्रेजों के शासन काल के दौरान बनाए गए थे। ये झीलें बेंगलुरु की स्थानीय आबादी की कृषि और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई थीं।
हालांकि, बढ़ते शहरीकरण ने शहर के स्थानीय परिदृश्य को बदल दिया है। उपग्रह चित्रों के माध्यम से सार्वजनिक रूप से भी स्पष्ट है। बंगलौर विकास प्राधिकरण (बीडीए) द्वारा तैयार 2015 के मास्टर प्लान में दावा किया गया था कि शहर में कभी 400 झीलें थीं, लेकिन समय बीतने के साथ सरकारी आंकड़ों ने दावा किया कि 1940 के दशक तक ये घटाकर 260 हो गई और अब 65 ही रह गई हैं।
पानी वाले भू-भाग पर बसे होने कारण इस शहर में झीलों की अधिकता थी। ये झीलें नहरों/नालियों के साथ व्यस्थित रूप से जुड़ी हुई थीं, जिसकी वजह से एक झील का अतिरिक्त पानी दूसरे झील में सहज रूप से चला जाता था। हालांकि शहर में एक सर्वकालिक या बारह मास बहने वाली नदी का अभाव है, लेकिन कावेरी नदी की सहायक नदियां जैसे अर्कावती, पिनाकिनी/पेन्नार और शिमशा शहर की झीलों और जल निकासी व्यवस्था से अतिरिक्त पानी को कावेरी नदी में ले जाती हैं। कई विशेषज्ञों और उनके अध्ययनों ने झीलों और जल निकासी व्यवस्था के अतिक्रमण की ओर ध्यान दिलाया है, जिससे शहर की जल-निकासी व्यवस्था प्रभावित हुई है।
एनर्जी एंड वाटरलैंड रिसर्च ग्रुप (ऊर्जा और आर्द्रभूमि अनुसंधान समूह) और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बेंगलुरु के एनवायर्नमेंटल इन्फॉरमेंशन सिस्टम (पर्यावरण सूचना प्रणाली) के संयोजक, टी. वी. रामचंद्र उन शोधकर्ताओं में से एक हैं, जिन्होंने शहर में बाढ़ के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर काम किया है। “बंगलौर में बार-बार बाढ़ आने का कारण और उसका उपचारात्मक समाधान’ नाम से उनका शोध पत्र, अगस्त 2017 में प्रकाशित हुआ था। इस शोध के सह-लेखक आईआईटी-खड़गपुर के भरत ऐथल और एसआर विश्वविद्यालय, वारंगल के विनय शिवमूर्ति द्वारा शहर के जल निकायों की बर्बादी और और इसके प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है।
उनके अध्ययन में दावा किया गया है कि 1973 से 2017 के बीच, ग्रेटर बैंगलोर के शहरी क्षेत्रों में 1028% की बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बढ़ते शहरीकरण के कारण इस अवधि के दौरान वनस्पति के आवरण में 88% और जल निकायों में 79% कमी हुई है। ग्रेटर बैंगलोर के अंतर्गत बृहत बेंगलुरु महानगर पलिके और बेंगलुरु के आठ शहरी स्थानीय निकाय और 111 गांवों सहित आसपास के इलाके आते हैं। इसे 2006 में अधिसूचित किया गया था।
उन्होंने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “हमें ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की हकीकत को स्वीकार करना चाहिए। हमें उच्च तीव्रता वाली बारिश देखने को मिल रही है। इसके अलावा अनियोजित और गैर-जिम्मेदाराना शहरी नियोजन ने शहर को कंक्रीट से पाट दिया है। अधिक मात्रा में पानी होने के बावजूद कंकरीट वाले भू-भाग के कारण बेहद कम मात्रा में, लगभग 40% से 45% पानी ही जमीन में अवशोषित होता है।
उन्होंने यह भी कहा कि 1800 के दशक में शहर में 1452 जल निकाय थे। अब 193 ही जल निकाय हैं। उन्होंने राज्य सरकार के शहरी नालों के रीमॉडेलिंग मॉडल को समस्याग्रस्त होने का आरोप लगाते हुए कहा, “हर बार नालों को फिर से तैयार करने के लिए बजट की घोषणा की जाती है, जो कि नालों को कंक्रीट में तब्दील करने के अलावा कुछ नहीं है। प्राकृतिक नालियां हाइड्रोलॉजिकल प्रक्रिया के माध्यम से भूजल को रिचार्ज करने मदद करती हैं। इसलिए हम सरकारी पैसे की कीमत पर नालियों को पक्का करके शहर के भू-जल स्तर को कम करने का भी काम करते हैं। नालों के पुनर्विकास से नालों की चौड़ाई कम होती जा रही है। इसलिए वे बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं।”
बेंगलुरू के भौगोलिक मानचित्र के अनुसार यह शहर एक घाटी में स्थित है। घाटियों के साथ तीन प्रमुख वाटरशेड क्षेत्र हैं जिनकी ओर मानसून के दौरान अधिक वर्षा होती है। इनमें वृषभावती, कोरमंगला-चल्लाघट्टा (केसी) और हेब्बाल शामिल हैं। केसी घाटी शहर के पूर्वी भाग में स्थित है। यहाँ कई आवासीय क्षेत्रों है और बेलंदूर जैसी सबसे बड़ी झीलें और इको स्पेस जैसे आईटी हब भी हैं। यह तमिलनाडु सीमा और कावेरी नदी के भी करीब है। हाल ही में आई बाढ़ के दौरान केसी घाटी और महादेवपुरा के पास के इलाके बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए थे।
बेंगलुरु के एक पर्यावरणविद् और एक पर्यावरण समूह, फ्रेंड्स ऑफ लेक्स के मुख्य सदस्य नागेश अरास ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि बेंगलुरु की बाढ़ हाइड्रोलॉजिकल प्लानिंग की कमी के कारण होती है। उन्होंने समझाया कि एक सदी पहले, शहर छोटा था और किसी भी भू-जल या कावेरी नदी के पानी का उपयोग नहीं किया जाता था क्योंकि वर्षा जल स्थानीय रूप से उपयोग के लिए जमा कर लिया जाता था। लेकिन पिछले तीन दशकों में, जैसे-जैसे शहर का विकास हुआ है, पानी की बढ़ती मांग को कावेरी नदी का पानी और भू-जल को निकालकर भी पूरा किया गया है। नतीजतन सतही जल प्रवाह (वर्षा जल और सीवेज) में बढ़ोतरी हुई है। अरास ने दावा किया कि जल निकासी की पुरानी व्यवस्था अब इस प्रवाह को संभालने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त है।
उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “बेंगलुरु के पुराने सीवरेज नेटवर्क को ट्रीटेड सीवेज के हिसाब से बिल्कुल भी डिज़ाइन नहीं किया गया था। नेटवर्क की क्षमता 1400 एमएलडी (मिलियन लीटर पर डे) कम हो जाती है, जो बाढ़ के कारणों में से एक है। पिछले चार दशकों में शहर के लगभग 90% पेड़ समाप्त हो गए, और मिट्टी को कंक्रीट की सतहों और सड़कों में तब्दील कर दिया गया, जो पानी को अवशोषित नहीं कर सकती है। नतीजतन बड़े पैमाने पर जल जमाव होता है। इसके अलावा, यह पानी मिट्टी की तुलना में कंक्रीट और डामर पर बहुत तेज बहता है। ढालाव पर बहुत तेजी से पानी नीचे बहता है, जो अचानक बाढ़ का कारण बनता है।”
उन्होंने यह भी बताया, “यदि हम बाढ़ को कम करने के लिए झीलों को बफर टैंक के रूप में उपयोग करना चाहते हैं, तो उन झीलों के पानी को नियंत्रित करने के लिए पानी के निकास का रास्ता होना चाहिए। लेकिन अधिकांश झीलें गाद से भरी हुई हैं, और उनमें जल निकासी का रास्ता नहीं है। इसके अलावा, कई झीलों को वैसे ही छोड़ दिया जाता है, इससे सपष्ट है कि झीलें बफर टैंक की भूमिका बिल्कुल भी नहीं निभा सकती हैं। बाढ़ का पानी झील के चारों तरफ नीचे की ओर बहता है। आउटर रिंग रोड (ओआरआर) केसी घाटी में स्थित है, इसलिए बारिश का पानी कुछ जगहों पर ओआरआर से होकर बहता है। लेकिन पुलिया नहीं होने के कारण ओआरआर इस पानी को रोक देता है। इससे स्थानीय बाढ़ आती है।”
न्यायिक हस्तक्षेप का इतिहास
बेंगलुरू की झीलें बाढ़ समाप्त करने में अहम भूमिका निभाती हैं। सबसे बड़ी झीलों में से एक बेलंदूर झील है जिससे अन्य तीन झीलों से पानी आता है और इस झील का अतिरिक्त पानी वरथुर झील में बह जाता है, वहां से शहर का अतिरिक्त पानी तमिलनाडु की ओर पिनाकिनी नदी बेसिन में बह जाता है।
साल 1985 में कर्नाटक सरकार द्वारा झीलों की रक्षा के उपायों का सुझाव देने के लिए गठित लक्ष्मण राव समिति ने पारंपरिक तालाबों के संरक्षण, झीलों से गाद निकालने और अतिक्रमण हटाने की सिफारिश की थी।
हालांकि, जमीनी हकीकत राव कमेटी की सिफारिश से कोसों दूर है। आईआईएससी की 2017 की एक रिपोर्ट में बेंगलुरु के ऐसे कई इलाकों के बारे में बताया गया है जहां अपार्टमेंट, खेल के मैदान, बाजारों, टैंकों, झीलों और बड़े नालों पर गैर कानूनी और अवैध अतिक्रमण है।
साल 2008 के बाद से, पर्यावरण सहायता समूह (ईएसजी) के संयोजक लियो सल्दान्हा ने कर्नाटक उच्च न्यायालय (एचसी) के समक्ष कई याचिकाएं दायर कर के बेंगलुरु में झीलों को बचाने के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। हाई कोर्ट ने अंततः इस मामले की जांच करने और समाधान के उपायों की सिफारिश करने के लिए न्यायमूर्ति एन.के. पाटिल की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया।
पाटिल आयोग ने 2011 में ‘बैंगलोर शहर में झीलों का संरक्षण’ शीर्षक के अपनी 64-पृष्ठ की रिपोर्ट में दावा किया था कि बेंगलुरु में खेतों को निर्माण क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया, कई झीलों को आवासीय क्षेत्रों और खेल के मैदानों में तब्दील कर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर 2022 में बाढ़ का सामना करने वाले अगरा, इब्बलूर, महादेवपुरा और नागवारा जैसे बाहरी रिंग रोड के क्षेत्रों को झील क्षेत्रों पर बनाया गया था। यह भी ध्यान दिलाया गया है कि बीडीए ने कई झील स्थलों को अगारा, सनेगुरुवनहल्ली, चिक्कमरेनहल्ली, कचरकनहल्ली, गेड्डलहल्ली और चेल्केरे जैसे आवासीय क्षेत्रों में तब्दील कर दिया। रिपोर्ट में उन झीलों के लिए 30 मीटर बफर जोन की बात की गई है जहां कोई निर्माण नहीं होना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और 2012 में राज्य सरकार को सभी झीलों का सर्वेक्षण करने, 30 मीटर के बफर जोन को सुनिश्चित करने, झीलों पर अनधिकृत अतिक्रमण हटाने, झीलों की नियमित रूप से सफाई करने, उनका कायाकल्प करने और झीलों में सीवेज के प्रवाह को रोकने का आदेश दिया था। हालाँकि, 2015 में, बेलंदूर झील की सतह पर झाग देखा गया था, जो सीवेज कचरे के कारण प्रदूषण का एक संकेत है। जिसने आग भी पकड़ ली थी।
सलदान्हा ने कहा कि उनके और अन्य लोगों के अदालतों में जाने के बावजूद, झीलों के संरक्षण के प्रति सरकार की कथित लापरवाही की वजह से जमीन पर कोई उचित काम नहीं हुआ है। सलदान्हा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “जब आर्द्रभूमि (नम जमीन) नष्ट हो जाती है तो बाढ़ का खतरा बना रहता है। अदालत के कई आदेशों और सरकार को याद दिलाने के बावजूद जमीनी हकीकत में कोई खास बदलाव नहीं आया है। हम 1995 से झील संरक्षण के लिए लड़ रहे हैं। हमने इन सभी मुद्दों (शहरी बाढ़) के बारे में बहुत पहले चेतावनी दी थी, इसके लिए लड़ाई लड़ी लेकिन नौकरशाही के कारण जमीन पर कुछ भी नहीं बदला। यहां के मौजूदा हालात के लिए कॉरपोरेट भी जिम्मेदार हैं। देश भर से और दुनिया भर के बहुत से कार्पोराट्स ने निवेश के माध्यम से बेंगलुरू आर्द्रभूमि में घुसपैठ किया और वर्तमान परिस्थितियों के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं।”
और पढ़ेंः बाढ़ क्यों आती है?
इसी तरह के मामले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में दायर किए गए हैं। एनजीटी ने अपने 2015 के आदेश में सरकार से झीलों के लिए बफर जोन के लिए मौजूदा 30 मीटर के मानक के बजाय 75 मीटर बफर जोन सुनिश्चित करने के लिए भी कहा था। लेकिन बाद में इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (डब्ल्यूआरआई) इंडिया के साथ काम करने वाले एक भू-विश्लेषक राज भगत ने इस साल बेंगलुरू में बाढ़ के दौरान, समय के साथ शहर के बदलते शहरी परिदृश्य की तुलना करने के लिए उपग्रह चित्रों का उपयोग किया, जिसमें खराब नालियों, बढ़ते अतिक्रमण और नम जमीनों के नुकसान को दिखाया गया है।
उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि नगर प्रशासन ने मौजूदा झीलों के बाढ़ वाले मैदानों को महत्व नहीं दिया है, जैसा कि इन मैदानों में निर्माण कार्य रोकने के लिए इन्हें संवेदनशील क्षेत्र के रूप में चिन्हित नहीं किया गया है। झीलों और नदियों जैसे जल निकायों के बाढ़ के मैदान मानसून के दौरान अतिरिक्त पानी को अवशोषित करने और बाढ़ को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। “बीडीए द्वारा तैयार मास्टर प्लान 2015 में कोई बाढ़ क्षेत्र चिन्हित नहीं किया गया है। हमारे पास एक छोटा बफर जोन है लेकिन बाढ़ क्षेत्रों का कोई वैज्ञानिक सीमांकन नहीं है। यदि सरकार द्वारा कोई सीमांकन नहीं किया गया है तो हम बाढ़ के मैदानों पर इस तरह के ढांचे को अवैध भी नहीं कह सकते। ऐसा लगता है कि सरकार ने इस मुद्दे पर और शहर में घाटियों की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। और यह अकेले बेंगलुरु की समस्या नहीं है। अन्य बड़े शहरों में भी शहरी बाढ़ होने का यही कारण है। पूरा मामला शहरी नियोजन और शासन से जुड़ा हुआ है।
प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान (एटीआई), मैसूर, एक राज्य के स्वामित्व वाली संस्था है, जो सरकारी अधिकारियों को प्रशिक्षण प्रदान करती है और राज्य आपदा प्रबंधन योजनाओं में तकनीकी सहायता प्रदान करती है, इस संस्थान ने अपने एक हालिया रिपोर्ट में बेंगलुरू के बाढ़-क्षेत्र का मानचित्रण और सीमांकन किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन बाढ़ के मैदानों पर बिना किसी नियम के कुछ शहरी संरचनाएं बना दी गयी हैं, उन्हें हटाना मुश्किल होगा, लेकिन इसके लिए नियमों को बनाने और झीलों के बाढ़ वाले मैदानों को संवेदनशील क्षेत्र के रूप में चिन्हित करके भविष्य के उनपर निर्माण कार्य को हतोत्साहित करने का समय आ गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जल निकायों के आसपास का कोई भी क्षेत्र जिसकी 10 वर्षों में बाढ़ से प्रभावित होने की संभावना है, उसे केवल उद्यानों, पार्कों और खेल के मैदानों के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में किसी भी भवन का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। पच्चीस वर्षों में बाढ़ की संभावना वाले क्षेत्रों में कुछ शर्तों के साथ प्रतिबंधित इमारतों की अनुमति दी जानी चाहिए जैसे कि स्टिल्ट्स की संख्या, न्यूनतम प्लिंथ लेवल, बेसमेंट के निर्माण पर रोक आदि।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: बेंगलुरु शहर के दक्षिण पूर्व में बेलंदूर झील शहर की सबसे बड़ी झील है। तस्वीर– अश्विन कुमार/विकिमीडिया कॉमन्स