- पश्चिमी हिमालय के द्रास क्षेत्र में ब्लैक कार्बन और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
- ऐसा पाया गया है कि 2000 से 2020 के बीच द्रास क्षेत्र के ग्लेशियर 1.27 मीटर पतले हुए हैं।
- ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन की मात्रा या हिमालय के सूक्ष्मजीवों से ग्लेशियरों पर पड़ने वाले असर के बारे में जानकारी सीमित है।
पश्चिमी हिमालय के ग्लेशियर, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लिए पानी के स्रोत हैं। शोधकर्ताओं ने विभिन्न अध्ययनों में पाया है कि, ब्लैक कार्बन और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने के कारण ये जल-स्रोत तेजी से पिघल रहे हैं, जिसकी वजह से बर्फ से ढके इस इलाके की सफेदी कम हो रही है।
हाल के एक अध्ययन में, उपग्रह से मिले डेटा का उपयोग करके लद्दाख क्षेत्र के द्रास बेसिन में लगभग 77 ग्लेशियरों का मूल्यांकन किया गया। अध्ययन में 2000 से 2020 के बीच इन ग्लेशियरों के सिकुड़ने, मुहाने के पीछे हटने, बर्फ की मोटाई में बदलाव, और पिघले बर्फ के वेग में बदलाव की जांच के आधार पर मूल्यांकन किया गया।
अध्ययन के नतीजों से पता चला कि 2000 से 2020 के बीच द्रास क्षेत्र के ग्लेशियर 1.27 मीटर पतले हो गए हैं। इस इलाके में बढ़ते तापमान के अलावा, ब्लैक कार्बन 330 नैनोग्राम से बढ़कर 680 नैनोग्राम हो गया है।
अर्थ साइंटिस्ट (भू-वैज्ञानिक) और ग्लेशियोलॉजिस्ट शकील अहमद रोमशू, इस अध्ययन के सह-लेखक हैं, उन्होंने बताया कि ब्लैक कार्बन और ग्लेशियरों के पिघलने के बीच सीधा संबंध है।
उन्होंने कहा, “जलवायु परिवर्तन दो तरह की परिस्थितियों की वजह से होता है। एक प्राकृतिक और दूसरा मानवजनित। बड़े पैमाने पर मानवजनित जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैसों और प्रदूषकों के बढ़ने के कारण होता है। इस अध्ययन के माध्यम से, हमने हिमालय में ग्रीनहाउस गैसों, ब्लैक कार्बन और ग्लेशियरों के पिघलने के बीच एक कड़ी जोड़ने की कोशिश की है।”
रोमशू ने बताया, “वातावरण में ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ती है तो ये ग्लेशियर की सतह पर जम जाते हैं। ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन जमने की वजह से बर्फ की सौर किरणों को परावर्तित करने की क्षमता कम हो जाती है, और ग्लेशियरों की सतह पर जमे ब्लैक कार्बन सौर विकिरण को अवशोषित करते हैं, जिसकी वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं। इस तरह ब्लैक कार्बन पहाडी की बर्फीली चादर यानी ग्लेशियर को तेजी से पिघलाने में अहम भूमिका अदा करते हैं।”
रोमशू ने जोर देते हुए कहा कि हिमालय में लद्दाख के द्रास क्षेत्र में ग्लेशियरों के पास राष्ट्रीय राजमार्ग का होना, उनके पिघलने का एक और कारण है, क्योंकि वाहनों के उत्सर्जन से ब्लैक कार्बन की सांद्रता (द्रव या गैस में घुले तत्व की मात्रा) बढ़ती है।
उन्होंने बताया, “कश्मीर में ब्लैक कार्बन बढ़ने की एक अहम् वजह शरद-ऋतु (सर्दी की शुरुआत का महीना) में बगानों के पेड़ों के छटाई के बाद लकड़ियों को जलाना और सर्दियों में गर्मी के लिए लकड़ी का उपयोग बायोमास (स्वच्छ-ईंधन) के तौर पर करना है। आर्थिक वजहों से लकड़ी का उपयोग बायोमास (स्वच्छ-ईंधन) के लिए होता है, क्योंकि धान की खेती की तुलना में, बागवानी से इलाके के किसानों को 5-6 गुना अधिक लाभ होता है।
बागवानी का रकबा बढ़ा
जम्मू और कश्मीर के आंकड़ों के अनुसार, 1974 के बाद से घाटी में 400% से अधिक बागवानी बढ़ी है। मिले आंकड़ों के अनुसार, 1974-75 में बागवानी का क्षेत्र 82,486 हेक्टेयर था। साल 2001 में यह बढ़कर 2,19,039 हेक्टेयर हो गया। साल 2020 में, बागवानी के तहत आने वाला इलाका 3,30,956 हेक्टेयर हो गया।
कश्मीर विश्वविद्यालय के जिओइन्फोर्मेटिक (भू-सूचना विज्ञान) विभाग के समन्वयक (कोआर्डिनेटर) इरफान राशिद का विचार भी प्रोफेसर रोमशू के विचारों से मिलता है। उन्होंने कहा, “विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और पर्यावरण वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय सहित साइंस फंडर्स को बड़े पैमाने पर सम्मिलित रूप कार्यक्रम शुरू करने चाहिए, जिसका उद्देश्य भारत के पूरे हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पास विविध जलवायु और अलग-अलग मानवजनित गतिविधियों के बीच परिवेश का अवलोकन करने के लिए ब्लैक कार्बन वेधशालाओं (Observatories) की स्थापना करना हो।”
उन्होंने कहा, “हिमालयी ग्लेशियरों में बदलाव के पर्यावरणीय कारणों के बारे में हमारी समझ बनने के बावजूद, ग्लेशियर के बर्फ में ब्लैक कार्बन के सांद्रता (मात्रा) या शुक्ष्मजीवों की गतिविधियों से ग्लेशियरों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमारी जानकारी सीमित है।”
साल 2021 के एक शोध-पत्र में श्रीनगर के पांच साल (2001 से 2017) के पार्टिकुलेट मैटर (हवा में शुक्ष्म प्रदूषित कण) डेटा का अनुमान लगाया गया। इसके तहत अनेक श्रोतों से हवा में विलीन हुए ठोस और तरल पदार्थों के मिश्रण की जांच की गई। इसमें इनहेलेबल (सांस लेने लायक) पार्टिकुलेट मैटर (PM10,) शामिल है, जिसका व्यास आमतौर पर 10 माइक्रोन और उससे छोटा होता है, और PM2.5 पतला होता है।
अध्ययन में इस बात पर जोर दिया गया कि अन्य हिमालयी राज्यों की तुलना में श्रीनगर में पार्टिकुलेट मैटर की सांद्रता अधिक है (हवा में प्रदूषित शुक्ष्म कण की मात्रा अधिक हैं)। अध्ययन के अनुसार, शरद ऋतु और सर्दी के दौरान भारत के वार्षिक राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता मानक (PM10 = 60 μg / m3 और PM2.5 = 40 μg / m3) की तुलना में यहाँ वार्षिक PM10 और PM2.5 की सांद्रता दो से तीन गुना अधिक थी।
रोमशू ने कहा, “कश्मीर में घाटी चारों तरफ से पहाड़ों से घिरी है। यहाँ घाटी के निचले हिस्से में, शरद ऋतु और सर्दियों में धुंध होती है, जो प्रदूषकों को फैलाने का काम करती हैं। बगानों में पेड़ों की छटाई के तहत काटी गई लकड़ियों को बायोमास के तौर पर जलना इस समय में होता है। इससे धुंध ग्लेशियरों पर जम सकती है और ग्लेशियर के पिघलन को बढ़ा सकती है।”
उन्होंने कहा कि बगीचों के पेड़ों की काटी गई शाखाओं की लकड़ियों को लकड़ी की बल्लियों में परिवर्तित किया जा सकता है। इससे कपकपाती सर्दियों के दौरान, जब घाटी में तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे गिर जाता है, उस वक्त गर्म करने के लिए लकड़ी की मांग को पूरा करने में मदद मिल सकती है।
लकड़ी की बल्लियाँ जलने से ब्लैक कार्बन का प्रभाव कम होता है, और हमाम (नहाने के लिए गर्म पानी) में भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। यह कश्मीरी घरों के भीतर रहने की जगह को गर्म करने की पारंपरिक व्यवस्था है। रोमशू ने बताया, बल्लियों का ताप वैल्यू अधिक है और यह वनों की कटाई और ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन को कम करने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है।”
रोमशू ने कहा कि सिकुड़ते ग्लेशियरों के दीर्घकालिक परिणाम, सिंधु बेसिन में रहने वाले समुदायों को प्रभावित करेगा, जिसमें जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान, हरियाणा और चंडीगढ़ का एक हिस्सा शामिल है। यह क्षेत्र 3,21,289 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैला यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 9.8% है। सिंधु, भारत उपमहाद्वीप की सबसे पश्चिमी नदी प्रणाली है। झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलुज इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।
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रोमशू ने कहा, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र में 12,000 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो ऊपरी सिंधु बेसिन का निर्माण करते हैं। इन ग्लेशियरों से निकलने वाला पानी पड़ोसी देश पाकिस्तान की लगभग 80% पानी की मांग को पूरा करता है। इसलिए, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारणों को सही मायने में नहीं समझा गया तो सीमा पार की नदियों की प्रकृति के कारण दक्षिण एशिया में सुरक्षा स्थिति प्रभावित हो सकती है।”
बेंगलुरू में स्थित इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस के दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के विशिष्ट अतिथि वैज्ञानिक अनिल वी. कुलकर्णी ने बताया कि सौर विकिरण को परावर्तित करने की बर्फ की क्षमता बहुत अधिक होती है। “जब प्रदूषक बर्फ पर गिरते हैं, तो यह क्षमता काफी कम हो जाती है। इसका मतलब है कि बर्फ बहुत तेजी से पिघलनी शुरू होगी।”
कुलकर्णी ने कहा, “सबसे बड़ी बात यह है कि ख़ास तौर से जलवायु परिवर्तन के कारण सर्दियों का तापमान तेजी बढ़ता है, इस वजह से और पार्टिकुले मैटर की अधिकता के कारण बर्फ जल्दी पिघलती हैं।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इसके जल्दी से पिघलने का इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और समुदाय पर असर पड़ता है।
उन्होंने पहाड़ के झरने के जल्दी सूखने का कारण बताते हुए कहा, “हिमालय में पूरी तहर संतुलन है, जहां सर्दियों में हिमपात होता है और वसंत ऋतु में यह पिघल जाता है, और पानी जमीन में रिसता है। इसके बाद मानसून आता है। इसलिए बर्फ के पिघलने और मानसून के आने के बीच एक अंतर होता। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण दो चीजें होती हैं, पहाड़ के झरने जल्दी सूख जाते हैं जिससे पहाड़ों में रहने वाले समुदायों के लिए संकट पैदा हो जाता हैं। दूसरी बात, यह पहाड़ के जंगलों को भी सुखा देता है नतीजतन जंगल में आग का मौसम जल्दी आ जाता है।”
उन्होंने कहा कि जल्दी हिमपात का ख़ास तौर से सिंधु घाटी के पहाड़ों में रहने वाले समुदायों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। कुलकर्णी ने कहा, “इस प्रभाव के कई पहलू हैं। मौसम और पानी की उपलब्धता में बदलाव होगा, और यह खेती के तरीकों को कैसे प्रभावित करेगा, यह देखने की जरूरत है।”
हाइड्रोलॉजिस्ट शरद जैन का कहना है कि पश्चिमी हिमालय में बढ़ते वायु प्रदूषण और एरोसोल (धुंध) से बारिश प्रभावित होने की आशंका है और इससे नदी का प्रवाह, जल विद्युत विकास, कृषि और अन्य क्षेत्र प्रभावित होंगे।
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुड़की के पूर्व निदेशक और वर्तमान में आईआईटी रुड़की में अतिथि प्रोफेसर जैन ने कहा, “ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तेजी से ग्लेशियर की बर्फ पिघलने के कारण, हम निकट भविष्य में इसका तेज प्रवाह देख सकते हैं। जब तक इसका ठीक से उपयोग नहीं किया जाता है, यह बाढ़ से नुकसान का कारण बन सकता है।”
उन्होंने कहा, “लेकिन, जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, कुछ समय बाद नदी का प्रवाह कम हो सकता है, जिससे जलविद्युत उत्पादन, फसल उत्पादन आदि में कमी आ सकती है। बारिश की तीव्रता बढ़ने से नदियों में तलछट की आवाजाही बढ़ेगी। यह जलविद्युत संयंत्रों को नुकसान पहुंचा सकता है। बहुत अधिक तलछट जमाव से नदी का तल प्रभावित होंगा।”
कुलकर्णी ने कहा कि वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माताओं के बीच संवाद बहुत सीमित है। “हमें अनुसंधान लक्ष्यों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है, जहां सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों को लिया जा सकता है और उस दिशा में शोध करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा, बर्फ और ग्लेशियरों के अध्ययन को पूरी तरह से संस्थागत बना के उनकी फंडिंग बढ़ाने की जरुरत है।”
जैन ने जोर देते हुए कहा कि नीतियों का विकास और समय पर क्रियान्वयन (एक्शन लेना) एक चुनौती है। नीति और जमीनी कामों के बीच बहुत मजबूत संबंध नहीं है। जम्मू-कश्मीर की विभिन्न नदियों पर छोटी पन-बिजली परियोजनाओं से बिजली पैदा करने के कई अवसर हैं। यह हितधारकों को जोड़ने में सहायक होगा। साथ ही, जम्मू-कश्मीर में ग्लेशियरों और नदियों की निगरानी और उनके जलविद्युत व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है।”
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बैनर तस्वीर: द्रास क्षेत्र में ग्लेशियर। तस्वीर- शकील ए रोमशू।