- जी-7 देशों ने हाल ही में इंडोनेशिया के साथ जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन साझेदारी की घोषणा की है। ऐसी साझेदारी भारत के साथ भी होनी है। ये साझेदारी सामाजिक हालात और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए उचित तरीके से जीवाश्म ईंधन से नवीन ऊर्जा में बदलाव को गति देती है।
- मिस्र में 2022 की जलवायु वार्ता में लॉस एंड डैमेज फंड बनाने पर सहमति बनी है। इसके बाद कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर लाखों लोगों के लिए जस्ट ट्रांजिशन पर पूरा ध्यान लगाया जा सकता है।
- खदानों के बंद होने से बड़ी तादाद में दिहाड़ी श्रमिक प्रभावित होते हैं, इसलिए भारत में जस्ट ट्रांजिशन के लिए सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर खास ध्यान देने की जरूरत है। इन श्रमिकों के कौशल विकास और अर्थव्यवस्था में विविधता लाकर इनकी मदद करने की आवश्यकता है।
हाल ही में जी-7 देशों ने इंडोनेशिया के साथ एक साझेदारी की घोषणा की है। इसका मकसद जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन (just energy transition) में तेजी लाते हुए जीवाश्म ईंधनों से दूर होना और नवीन ऊर्जा की तरफ बढ़ना है। माना जा रहा है कि इसके बाद वियतनाम और सेनेगल के साथ भारत भी उन चार देशो में शामिल होगा, जिसके साथ इस तरह का समझौता होना है। जी-7 देश ऊर्जा के क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने और इसकी कुशलता बढ़ाने के लिए यह पहल कर रहे हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन, जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने 15 नवंबर को बाली में जी-20 के नेताओं के शिखर सम्मेलन में इंडोनेशिया के लिए जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटीपी) की घोषणा की। उन्होंने तीन से पांच सालों के दरम्यान सार्वजनिक और निजी वित्त के माध्यम से शुरुआत में 20,000 करोड़ डॉलर देने का भरोसा दिया ताकि इंडोनेशिया को कोयले के इस्तेमाल से दूर कर स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ाने की प्रक्रिया में तेजी लाई जा सके। इसे अब तक का किसी एक देश में किया गया सबसे बड़ा जलवायु निवेश (क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट) कहा जा रहा है।
विकसित और विकासशील देशों के बीच जेईटीपी दूसरी ऊर्जा ट्रांजिशन साझेदारी है। ग्लासगो में पिछले साल संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका से इसी तरह का 850 करोड़ डॉलर का समझौता हुआ था। मिस्र में इस साल हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर दक्षिण अफ्रीका के लिए निवेश योजना और सार्वजनिक वित्त पोषण की संरचना को पेश किया गया।
कोयला से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर कई रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले गैर लाभकारी संगठन इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंटल, सस्टेनिबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी के सीईओ चंद्र भूषण के अनुसार, दक्षिण अफ्रीका का जस्ट ट्रांजिशन मॉडल भारत के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है। वहां 95% से ज़्यादा फंडिंग कम ब्याज वाले कर्ज के रूप में है। उन्होंने कहा, “भारत पर इसी तरह की योजना को अपनाने के लिए काफी अंतरराष्ट्रीय दबाव रहा है, लेकिन देश ने इसे नहीं मान कर अच्छा ही किया है।”
इसके अतिरिक्त, दक्षिण अफ्रीका की तुलना में भारत में कोयला क्षेत्र की जरूरत और चुनौतियां अलग हैं। दक्षिण अफ्रीका में प्रसीडेंशियल जलवायु आयोग के कार्यकारी निदेशक क्रिस्पियन ऑल्वर ने कहा, दक्षिण अफ्रीका में कोयला क्षेत्र बहुत ज्यादा संगठित है। वहां के कोयला क्षेत्र में करीब एक लाख श्रमिक काम करते हैं। इस आधार पर भारत की तुलना में यह बहुत छोटा है। अकेले कोल इंडिया में सवा करोड़ से ज्यादा लोग काम करते हैं। दस लाख के आसपास लोग सीधे या परोक्ष रूप से इससे जुड़े हुए हैं। इनमें वाशरी, परिवहन और सहायक सेवाएं शामिल हैं।
सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक और इंटरनेशनल स्टडीज के सीनियर रिसर्च लीड संदीप पाई ने कहा कि भारत सरकार को जेईटीपी का अपना मसौदा तैयार कर उस पर बातचीत करनी चाहिए। यह देश के हित में हो और कोयले के पूरे इको-सिस्टम के आकार और कोयले पर देश की पर्याप्त निर्भरता को देखते हुए जलवायु से जुड़ी समस्या को हल करने में अहम हो।
पाई ने जरूरत के व्यापक आकलन का सुझाव देते हुए कहा कि अभी तक इस बात का कोई अनुमान उपलब्ध नहीं है कि भारत में कोयला के बुनियादी ढांचे को बंद करने के लिए कितनी रकम की जरूरत होगी। साथ ही उद्योग पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका को बचाने के लिए कितने पैसे चाहिए होंगे।
हाल के महीनों में, वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर जस्ट ट्रांजिशन से जुड़ी कई हलचल हुई है। सरकार की एक ताजा प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, भारत खेती और खाने-पीने से जुड़ी चीजों की सुरक्षा में जलवायु कार्रवाई पर एक “वर्क प्रोग्राम” स्थापित करने की योजना बना रहा है। इस बीच, झारखंड ने कोयला खदानों के बंद होने से अपने लोगों पर पड़ने वाले असर का पता लगाने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया है। ऐसा करने वाला वह पहला राज्य है। इसके अलावा, मिस्र में हाल ही में संपन्न हुए कॉप-27 जलवायु सम्मेलन में जस्ट ट्रांजिशन पर भी चर्चा हुई थी। यहां इस पर सहमति बनी थी कि जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन को सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारी और विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के आधार पर सभी सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर गौर करना चाहिए।
कोयला खदानों से जुड़ी जीविका
अट्ठाईस साल के सूरज प्रसाद को अब अपनी नौकरी जाने का डर सता रहा है। वो मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में कोरबा के पास एक खदान में ट्रकों में कोयला लादने वाले एक अकुशल मजदूर हैं। सूरज चिरिमिरी कोयला खदान में काम करते थे। इसका एक हिस्सा बंद हो चुका है। जिस ठेकेदार के लिए वह काम करते थे, उसने अधिकांश दिहाड़ी मजदूरों को निकाल दिया। बाकी बचे लोगों को अन्य खदानों में ट्रक भरने के काम में लगा दिया गया। सूरज उन भाग्यशाली लोगों में से हैं, जिनकी नौकरी अभी तक बची हुई है।
कोयला खदान के आसपास तैयार होने वाली अर्थव्यवस्था उसके बंद होने पर बेजार हो जाती है। इसके चलते हजारों सीधी और परोक्ष नौकरियां चली जाती हैं। नतीजा बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के रूप में सामने आता है।
कोरबा भारत का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक जिला है। देश के कुल कोयला उत्पादन का 16% यहीं से आता है। सभी तरह की नौकरियों का पांचवां हिस्सा कोयले पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे भारत बिजली के लिए ऊर्जा के नवीन स्रोतों में तेजी से बदलाव कर रहा है। वैसे-वैसे इस क्षेत्र में खनन में लगातार गिरावट आने की आशंका है। खदानें बंद होने में भी तेजी आ रही है।
इस जिले में कोयला खदानों के बंद होने की कुछ और वजहें भी हैं। इनमें धीरे-धीरे इस गरीब जिले में घटता भंडार, घाटे में चल रही खदानें और पुराने थर्मल पावर प्लांट मुख्य हैं। ये सब चीजें कोयला खत्म होने का आभास देती हैं। इसके चलते पक्की नौकरी वाले रिटायर हो जाएंगे जबकि कच्ची नौकरी वाले श्रमिकों को अनिश्चितता और आर्थिक झटके का सामना करना पड़ेगा।
ऐसे ही हालात करीब-करीब भारत के सभी कोयला खनन वाले जिलों में हैं। अधिकांश कोयला खदानें मध्य और पूर्वी हिस्सों में हैं। हालांकि कोयले ने भारत के आर्थिक विकास को ताकत दी है। लेकिन जिन इलाकों में इसका खनन किया जाता है और जलाया जाता है, वे आम तौर पर गरीब हैं। इनमें आदिवासी और हाशिए पर पड़े समुदायों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शामिल है।
ऐसे में, इस संदर्भ में जस्ट ट्रांजिशन बातचीत में प्रासंगिक हो जाता है। अब तक की बातचीत में टेक्नोलॉजी में सुधार और लागत के हिसाब से प्रतिस्पर्धी नवीन ऊर्जा में निवेश हावी रहे हैं। इस बातचीत में इंसानी श्रम पूरी तरह उपेक्षित है। इस ट्रांजिशन से लाखों लोगों की जीविका पर असर पड़ेगा। इसलिए इस सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल से निपटने के तरीके खोजने होंगे।
भूषण ने कहा, “जस्ट ट्रांजिशन को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है या अलग नहीं रखा जा सकता है।” “भारत में नीति बनाने वालों को अब इस पर ज्यादा ध्यान देना होगा और अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में इस पर गंभीर चर्चा करनी होगी।”
सामाजिक-आर्थिक पहलू पर ध्यान देना जरूरी
जानकारों का मानना है कि जस्ट ट्रांजिशन पर किसी भी चर्चा में इसके सामाजिक पहलुओं पर ध्यान देना होगा। थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली ने कहा, “जस्ट ट्रांजिशन को सामाजिक न्याय के पहलू से देखा जाना चाहिए।” “हमें यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या यह सिर्फ खान श्रमिकों और बिजली कारखानों के आसपास काम करने वालों की नौकरियों के ट्रांजिशन तक ही सीमित होगा या व्यापक कोयला नेटवर्क तक भी इसका विस्तार किया जाएगा।”
संदीप पाई के अनुसार, दुनिया भर में इस बात से सबक सीखे जा सकते हैं कि विकसित दुनिया में ट्रांजिशन को किस तरह लागू किया गया है। अमेरिका, कनाडा और जर्मनी जैसे यूरोपीय संघ के देशों ने अपने-अपने क्षेत्राधिकार में कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करते हुए जस्ट ट्रांजिशन को लागू किया है।
खासकर जर्मनी कुछ दशकों से बहुत ज्यादा कल-कारखानों वाले अपने रुहर घाटी में कोयले को चरणबद्ध तरीके से हटा रहा है। इसने कोयला क्षेत्र में श्रमिकों के पुनर्वास पर अरबों यूरो खर्च किए हैं। ये काम सभी हितधारकों के साथ व्यापक और लंबी चर्चा के बाद किया गया है। इसने न सिर्फ कोयला श्रमिकों को फिर से कुशल बनाया है बल्कि रुहर में अर्थव्यवस्था में विविधता लाने के लिए दशकों से काम किया है।
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पाई ने कहा, “अब दक्षिण अफ्रीका और इंडोनेशिया जैसे देशों और अर्थव्यवस्थाओं का एक दूसरा समूह है, जिन्होंने एक दशक से ज्यादा समय से सिर्फ ट्रांजिशन की प्रक्रिया पर चर्चा की है और अब योजनाओं को लागू करने वाले हैं।”
पाई के मुताबिक, “इसके बाद भारत जैसे देशों का तीसरा समूह है, जहां जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन की अवधारणा शुरुआती अवस्था में है। हमारे नीति निर्माता अभी भी इसकी बारीकियां सीख रहे हैं।”
इंडिया जस्ट ट्रांजिशन सेंटर की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी ने कहा कि इस तरह की पहल कई गुना बढ़ जाएगी। लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि जस्ट ट्रांजिशन के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं की उपेक्षा ना की जाए। उन्होंने कहा, “दुनिया के दक्षिण के देशों में जस्ट ट्रांजिशन से अलग तरह की चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।” “हमें यह भी महसूस करना चाहिए कि भारत में कोयला क्षेत्र बहुत ज्यादा असंगठित है और अचानक और बिना किसी तैयारी के बंदी सबसे कमजोर लोगों को प्रभावित करती है।”
बनर्जी ने कहा कि उत्पादक क्षेत्रों में कोयले से दूर जाने के लिए श्रम कानूनों में सुधार के साथ-साथ काम-धंधों में विविधता लाने पर ध्यान देना होगा। उन्होंने कहा, “हमें सामाजिक सुरक्षा कोष को मजबूत करने पर भी ध्यान देना चाहिए।”
इस काम में कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व फंड और सिर्फ ट्रांजिशन फाइनेंसिंग से मदद मिलेगी। लेकिन इसके लिए बहुत बड़ी फंडिंग की जरूरत होगी जिसका इंतजाम करना सिर्फ सरकार के बूते की बात है। विशेषज्ञों ने कहा कि हाल के दिनों में भारत ने प्रत्येक एक टन कोयला खनन पर उपकर लगाया है और इसका एक बड़ा हिस्सा सरकार के कल्याण कोष में शामिल होने के बजाय जस्ट ट्रांजिशन में लगाया जाना चाहिए।
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बैनर तस्वीर: महाराष्ट्र में एक मजदूर पवन चक्की के नजदीक काम करता हुआ। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो हर बदलाव का असर निचले तबके पर सबसे अधिक हुआ है। फॉसिल फ्यूल आधारित अर्थव्यवस्था से क्लीन एनर्जी आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ जाने की इस प्रक्रिया में कई बदलाव आने वाले हैं। कई चुनौतियां पेश आने वाली हैं। तस्वीर– लैंड रोवर ऑवर प्लेनेट/फ्लिकर