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ग्रीन बॉन्ड के लिए फ्रेमवर्क सही दिशा में कदम लेकिन आगे है लंबा रास्ता

तेलंगाना के करीमनगर जिलें में परगी में लगा एक पवन ऊर्जा का मिल। तस्वीर-मनीष कुमार/मोंगाबे

तेलंगाना के करीमनगर जिलें में परगी में लगा एक पवन ऊर्जा का मिल। तस्वीर-मनीष कुमार/मोंगाबे

  • भारत के क्लाइमेट एक्शन के लिए मोटे तौर पर घरेलू संसाधनों से पैसा जुटाया जाता है। सरकार अब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों का भी दोहन करने की कोशिश कर रही है।
  • सरकार ने भारत में जलवायु मिटिगेशन और एडेप्टेशन गतिविधियों में निवेश बढ़ाने के लिए सोवरीन ग्रीन बॉन्ड का फ्रेमवर्क पेश किया है। इसका मकसद वैश्विक निवेशकों के भरोसे को मजबूत करना है।
  • एक स्वतंत्र, तीसरे पक्ष के विश्लेषण ने फ्रेमवर्क को क्लाइमेट एक्शन के दीर्घकालिक नजरिए के हिसाब से अहम कदम के रूप में मान्यता दी है। लेकिन जोड़ा कि यह काफी नहीं है। इसने परियोजना चयन मानदंडों में अनिश्चितताओं और व्यापक जलवायु जोखिम वाली परियोजनाओं को मंजूरी देने की संभावना से संबंधित मुद्दों पर रोशनी डाली है।

जलवायु परिवर्तन को रोकने से जुड़े कदमों (क्लाइमेट एक्शन) के लिए फंड मुहैया कराने में निवेशकों का भरोसा बढ़ाने के लिए सरकार ने एक कदम और बढ़ाया है। भारत सरकार ने सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड या संप्रभु ग्रीन बॉन्ड के लिए एक फ्रेमवर्क तैयार किया है। इसमें ‘ग्रीन’ क्षेत्र को परिभाषित किया गया है। साथ ही वह प्रक्रिया भी बताई गई है जिससे पक्का होगा कि निवेश को क्लाइमेट एक्शन के काम में किस तरह लगाया जाएगा। सरकार ने अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए इस फ्रेमवर्क पर दूसरे पक्ष की स्वतंत्र राय (SPO/एसपीओ) भी ली थी। लेकिन, एसपीओ ने फ्रेमवर्क में कुछ खामियों की तरफ इशारा किया है।

दरअसल, जलवायु मिटीगेशन और एडेप्टेशन गतिविधियों के फंड की जरूरत बढ़ती जा रही है। दुनिया भर में कई सरकारों ने संप्रभु ग्रीन बॉन्ड जारी किए हैं। संप्रभु ग्रीन बॉन्ड केंद्र या राज्य सरकार द्वारा कर्ज लेने के लिए काम आने वाला एक डेट इंस्ट्रूमेंट (debt instrument) है। इसमें यह प्रतिबद्धता रहती है कि जुटाया गया धन जलवायु या इको-सिस्टम से जुड़ी गतिविधियों में लगाया जाएगा।

यह व्यवस्था साल 2016 में सबसे पहले पोलैंड सरकार ने शुरू की। अब तक ग्रीन बॉन्ड जारी करने वाली 38 देशों की सरकारों ने सितंबर 2022 तक ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क प्रकाशित किया है। बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट्स (बीआईएस) के अनुसार अगर कोई सरकार खासकर पहली बार ग्रीन बॉन्ड जारी करती है, तो यह देश भर में इस तरह के बॉन्ड जारी करने के पूरे मानक में सुधार करता है। अन्य कंपनियां भी शुरुआती ग्रीन बॉन्ड द्वारा तय मानक का पालन करना शुरू कर देती हैं।

झारखंड में एक खनन क्षेत्र। राज्य ने हाल ही में लोगों पर कोयला खदानों के बंद होने के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया है। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे
झारखंड में एक खनन क्षेत्र। सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड पर अपने फ्रेमवर्क में, सरकार उन क्षेत्रों का उल्लेख करती है जहां धन का उपयोग नहीं किया जाएगा। जीवाश्म ईंधन एक ऐसा क्षेत्र है। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

भारत में ग्रीन बॉन्ड से जुड़ा फ्रेमवर्क 9 नवंबर को पेश किया गया। इन बॉन्ड के माध्यम से पैसा जुटाने के डेढ़ महीने बाद सरकार ने इसकी घोषणा की। इस फ्रेमवर्क को लाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि सरकार अब क्लाइमेट एक्शन के लिए विदेशों से भी संसाधन जुटाना चाहती है। अब तक ये संसाधन मोटे तौर पर घरेलू स्तर पर जुटाए जा रहे थे। फ्रेमवर्क के तहत बॉन्ड जारी करने से सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए संभावित निवेशकों से फंड जुटाने में मदद मिलेगी। इससे कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता कम करने में मदद मिलेगी। इस पैमाने के आधार पर ही यह मापा जाता है कि प्रति यूनिट बिजली उत्पादन में कितनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। 

फ्रेमवर्क इस बात पर जोर देता है कि सरकार इस धन का इस्तेमाल किस तरह करने की योजना बना रही है। इसमें कहा गया है कि सभी योग्य हरित खर्च (green expenditures) में निवेश, सब्सिडी, अनुदान सहायता या टैक्स माफी के रूप में सार्वजनिक खर्च, सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं में रिसर्च और विकास से जुड़े खर्च में शामिल होंगे। इनसे अर्थव्यवस्था में कार्बन पैदा होने की तीव्रता कम करने में मदद मिलती है।

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाउंडेशन में कार्यक्रम की प्रमुख कोयल मंडल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि यह स्वागत करने लायक कदम है कि सरकार ने संप्रभु बॉन्ड (सॉवरेन बॉन्ड) जारी किया है क्योंकि देश में अब तक ऐसे बॉन्ड नहीं थे। वो कहते हैं, “यह पहला संप्रभु बॉन्ड होगा। इसलिए मुझे लगता है कि शुरुआत करना अहम है। सेक्टर में बहुत ज़्यादा संदेह और ग्रीन-वॉशिंग है। इसलिए, भरोसा पैदा करने वाले मानकों को रखना और ग्रीन बॉन्ड के लिए एक फ्रेमवर्क तैयार करना अच्छा है।”

ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क और एसपीओ के बारे में पूछे जाने पर क्लाइमेट बॉन्ड इनिशिएटिव के इंडिया प्रोग्राम की प्रमुख नेहा कुमार ने इसकी तारीफ की। उन्होंने इसे सरल और समझने में आसान बताते हुए कहा कि इसमें लंबी अवधि का दृष्टिकोण है। यह संस्था क्लाइमेट एक्शन के लिए दुनिया भर से पूंजी जुटाने का काम करती है।

उन्होंने कहा कि यह भी बहुत अच्छा है कि ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क में एडेप्टेशन भी शामिल है और सिर्फ मिटिगेशन से जुड़ी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है। उन्होंने बताया कि राज्य को एडेप्टेशन के लिए धन जुटाने में बड़ी भूमिका निभानी है, जिसमें निजी क्षेत्र के आने की गति सुस्त है।

फ्रेमवर्क का खाका

हरित क्षेत्र (ग्रीन सेक्टर) में निवेश के लिए फ्रेमवर्क तैयार करता है, जिसमें हरित परियोजनाओं को चुनने में पारदर्शिता पक्का करना शामिल है। इसमें यह भी बताया गया है कि सरकार निवेश की निगरानी किस तरह करेगी।

फ्रेमवर्क के अनुसार, हरित परियोजनाओं में अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा कुशलता, स्वच्छ परिवहन, जलवायु परिवर्तन एडेप्टेशन, ग्रीन बिल्डिंग, जीवंत प्राकृतिक संसाधनों का स्थायी प्रबंधन और भूमि उपयोग, जैव विविधता संरक्षण परियोजनाएं, जल और कचरा प्रबंधन की टिकाऊ व्यवस्था, प्रदूषण में कमी और नियंत्रण और स्थलीय व जलीय जीव शामिल हैं।

फ्रेमवर्क में हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग व्यवस्था है। इसमें उन गतिविधियों को भी शामिल किया गया है जिन पर ग्रीन बॉन्ड के बड़े उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, फ्रेमवर्क में नवीन ऊर्जा श्रेणी में सौर, पवन, बायोमास और जल विद्युत ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश जैसी गतिविधियों को शामिल किया गया है। इसमें ऊर्जा उत्पादन और उसके भंडारण के एकीकरण भी शामिल है। इसमें नवीन ऊर्जा अपनाने को प्रोत्साहन देना भी शामिल है। इसी तरह, ऊर्जा कुशलता श्रेणी में फ्रेमवर्क में अन्य गतिविधियों के साथ-साथ कम कार्बन वाली इमारतें बनाने और मौजूदा इमारतों में ऊर्जा-कुशलता रेट्रोफिट को शामिल किया गया है।

बुनियादी ढांचे को ज्यादा लचीला बनाने से जुड़ी परियोजनाएं एडेप्टेशन श्रेणी का हिस्सा हैं, जिसमें जानकारी हासिल करने में मदद करने वाली प्रणालियों में निवेश शामिल हैं, जैसे कि जलवायु ऑब्जर्वेशन और शुरुआती चेतावनी सिस्टम।

जलवायु कार्रवाई में कोई भी प्रगति अंततः अमीर देशों द्वारा जलवायु वित्तपोषण पर निर्भर करती है। धनी राष्ट्रों द्वारा जलवायु वित्त के मामले पर पीछे हट जाने को लेकर चिंताएं हैं। तस्वीर- इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी/फ़्लिकर
ग्रीन बॉन्ड के जरिए जुटाया गया धन जलवायु या इको-सिस्टम से जुड़ी गतिविधियों में लगाया जाएगा।  तस्वीर– इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी/फ़्लिकर

जीवित प्राकृतिक संसाधनों और भूमि उपयोग के टिकाऊ प्रबंधन के तहत मछली पालन और पानी में होने वाली खेती, पशुपालन, टिकाऊ वानिकी प्रबंधन और प्रमाणित ऑर्गैनिक खेती जैसी गतिविधियों का उल्लेख किया गया है।

तटीय और समुद्री पर्यावरण और जैव विविधता संरक्षण से संबंधित परियोजनाएं, जैसे खत्म होने की  कगार पर खड़ी प्रजातियां, आवासान और इको-सिस्टम के संरक्षण को स्थलीय और जलीय जैव विविधता संरक्षण श्रेणी के तहत रखा गया है। इसी तरह, मिट्टी को ठीक करना, ग्रीनहाउस गैस नियंत्रण, कचरा प्रबंधन, कचरा रोकथाम, कचरे को रिसायकल करना और कचरे की मात्रा को कम से कम करना उन गतिविधियों में आते हैं जहां इस फंड का निवेश किया जा सकता है।

ग्रीन बॉन्ड की मदद से इन क्षेत्रों में निवेश में बढ़ोतरी के साथ, सरकार जलवायु परिवर्तन मिटिगेशन, नेट-जीरो, जलवायु परिवर्तन एडेप्टेशन, पर्यावरण को बचाना और प्राकृतिक संसाधनों को बचाना जैसे कई उद्देश्यों को प्राप्त करने का दावा करती है।

फ्रेमवर्क उन क्षेत्रों को भी शामिल करता है जहां ग्रीन बॉन्ड से मिली रकम निवेश नहीं की जा सकती है।

जीवाश्म ईंधन के साथ-साथ, सरकार परमाणु ऊर्जा का उत्पादन, कचरे को खुले में जलाना, शराब, हथियार, तम्बाकू, गेमिंग या ताड़ के तेल से जुड़े उद्योग वगैरह पर रोक लगाती है। साथ ही 25 मेगावाट से बड़े कारखानों को ग्रीन बॉन्ड फंड से निवेश नहीं मिलेगा।

किसी खास परियोजना के मूल्यांकन और चयन के लिए, फ्रेमवर्क में एक हरित वित्त कार्य समिति (ग्रीन फाइनेंस वर्किंग कमेटी) के बारे में बात करती है। संबंधित मंत्रालय जानकारों से सलाह-मशविरा कर परियोजना का शुरुआती मूल्यांकन करेगा। इसके बाद प्रस्ताव कार्य समिति के पास जाएगा। कार्य समिति में मुख्य आर्थिक सलाहकार (अध्यक्ष), इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस सचिवालय के अतिरिक्त सचिव,  पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नवीन ऊर्जा मंत्रालय, नीति आयोग से जलवायु विशेषज्ञ, वित्त मंत्रालय और समय-समय पर किसी अन्य मंत्रालय से इसमें सदस्य शामिल होंगे।

पारदर्शिता के लिए, फ्रेमवर्क में आवंटन रिपोर्ट पर भी बात है। इसे सालाना अपडेट किया जाएगा। ग्रीन बॉन्ड का आवंटन और इस्तेमाल भी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के दायरे में होगा। 

आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार, ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क के ओस्लो स्थित एसओपी CICERO ने भारत के ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क की समीक्षा की है। उसने ICMA ग्रीन बॉन्ड सिद्धांतों के हिसाब से इसके मिलान को मंजूरी दी है। अगर कानूनी ढांचे नहीं है तो, विश्व समुदाय ग्रीन बॉन्ड मानकों का मूल्यांकन करने के लिए ICMA के सिद्धांतों का पालन करता है। 


और पढ़ेंः नवीन ऊर्जा का वित्तीय संकट: बढ़ रहा है टैक्स, घटती जा रही है सब्सिडी


फ्रेमवर्क में दिए गए गवर्नेंस से जुड़े विवरण के बारे में पूछे जाने पर और क्या यह पारदर्शिता के उद्देश्य को पूरा करता है? इस सवाल पर नाम न छापने की शर्त पर एक विशेषज्ञ का कहना है कि फ्रेमवर्क में एक समिति बनाना गवर्नेंस के हिसाब से अच्छा फैसला है। हालांकि, बाहरी विचारों के लिए स्थान सीमित है जो अनुमोदन समिति द्वारा परियोजनाओं को मंजूरी देते समय मांगा जा सकता था। विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अनुभव का खजाना मिल सकता था। ऐसा होने पर यह प्रक्रिया बहुत कुशल और प्रभावी हो जाती। उन्होंने फ्रांस और ब्रिटेन का उदाहरण दिया जिन्होंने ग्रीन बॉन्ड जारी करने की प्रक्रिया में बाहरी विशेषज्ञों को शामिल किया है।

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) के एनर्जी फाइनेंस एनालिस्ट शांतनु श्रीवास्तव कुछ चूकों को इंगित करते हैं। प्रमुख चूकों में से एक यह है कि ढांचा सीएनजी के बुनियादी ढांचे के विस्तार के वित्तपोषण पर विचार करता है। “इस तरह के प्रावधान से फ्रेमवर्क की विश्वसनीयता कम होने का खतरा है क्योंकि सीएनजी जीवाश्म ईंधन है जिसे ग्रीन या हरित नहीं माना जा सकता। गंभीर पर्यावरण, सामाजिक और गवर्नेंस (ईएसजी) निवेशक इसे एक अड़ंगा मानेंगे। उन्होंने आईईईएफए के लिए एक विश्लेषण में यह कहते हुए लिखा है कि आवंटित नहीं किए गए धन के इस्तेमाल के बारे में स्पष्टता की कमी है और क्या फंड मौजूदा परियोजनाओं को फिर से धन मुहैया कराएगा।

लंबा सफर है बाकी

अपनी समीक्षा में, सेकंड ओपिनियन देने वाला CICERO फ्रेमवर्क को ‘मीडियम ग्रीन’ के रूप में वर्गीकृत करता है। इससे कई सवाल उठते हैं। इसके शेड्स ऑफ़ ग्रीन मेथडोलॉजी में, ‘मीडियम ग्रीन’ उन परियोजनाओं और समाधानों को आवंटित किया गया है जो दीर्घकालिक दृष्टि की दिशा में एक अहम कदम का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन अभी तक आए नहीं हैं। ‘डार्क ग्रीन’ उन परियोजनाओं को दिया जाता है जो कम कार्बन और बदलते जलवायु से पार पाने वाले भविष्य की दीर्घकालिक दृष्टि के हिसाब से हैं। और ‘लाइट ग्रीन’ उन संक्रमण गतिविधियों का प्रतिनिधित्व करता है जो उत्सर्जन को खत्म नहीं करते हैं।

भारत के फ्रेमवर्क का मूल्यांकन करते समय, CICERO ने नवीन ऊर्जा, ऊर्जा कुशलता, स्वच्छ परिवहन और एडेप्टेशन श्रेणियों के लिए डार्क या मीडियम से डार्क ग्रीन कलर दिया है। लेकिन, जल और कचरा प्रबंधन, प्रदूषण से निजात और नियंत्रण जैसी श्रेणियों और अन्य को लाइट या लाइट से मीडियम ग्रीन कलर मिला है।

एजेंसी फ्रेमवर्क की ताकत को सूचीबद्ध भी करती है। जैसे कि यह अक्षय ऊर्जा उत्पादन को विस्तार देने और अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को कम करने की भारत की महत्वाकांक्षाओं को दिखाता है।

हालांकि एजेंसी ने फ्रेमवर्क से होने वाले कुछ नुकसान को भी बताया है। उसका कहना है कि हरित परियोजनाओं के चयन के सिद्धांत सामान्य रहते हैं। व्यापक रूप से परिभाषित परियोजना श्रेणियां इस बारे में अनिश्चितता पैदा करती हैं कि किस प्रकार के खर्च को वित्तपोषित किया जा सकता है और खर्च से जुड़े व्यापक जलवायु जोखिम हैं। फ्रेमवर्क की परियोजना श्रेणियों में आम तौर पर गणना करने लायक सीमाएं नहीं होती हैं।

आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्रों में प्रवास, शहरी हीट आइलैंड प्रभाव और एयर कंडीशनर के बढ़ते उपयोग की वजह से शहर और घर गर्म होते जाएंगे। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे
आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्रों में प्रवास, शहरी हीट आइलैंड प्रभाव और एयर कंडीशनर के बढ़ते उपयोग की वजह से शहर और घर गर्म होते जाएंगे। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे

एसपीओ ने चिंता जताई है कि फ्रेमवर्क जैव ईंधन, ठोस बायोमास और बायोएनर्जी कारखानों से संबंधित खर्च का समर्थन कर सकता है जिसमें स्वाभाविक रूप से व्यापक जलवायु जोखिम हैं। एजेंसी के मुताबिक अन्य जोखिम भी हैं। जैसे फ्रेमवर्क के तहत योग्य खर्च प्राकृतिक वनों की जगह मोनोकल्चर वृक्षारोपण का समर्थन कर सकता है, जो कम जैव विविधता वाले हैं और जलवायु परिवर्तन के लिए कम लचीले हैं।

मोंगाबे-इंडिया ने फ्रेमवर्क की मूल्यांकन प्रक्रिया को समझने के लिए एजेंसी से संपर्क किया, लेकिन कंपनी के सह-संस्थापक और मैनेजिंग पार्टनर क्रिस्टा क्लैप ने क्लाइंट के साथ गोपनीयता की शर्तों का हवाला दिया। हालांकि, उन्होंने एक स्वतंत्र समीक्षा की सामान्य प्रक्रिया को साझा करते हुए कहा, “यह जारी करने वाले की ओर से प्रदान किए गए दस्तावेजों की समीक्षा करने और हमारे शेड्स ऑफ़ ग्रीन पद्धति के अनुसार विश्लेषण करने के साथ शुरू होता है।” वह दावा करती हैं कि एजेंसी के शेड्स ऑफ ग्रीन ने कई (कम से कम छह) संप्रभु बॉन्ड का मूल्यांकन किया है।

एजेंसी के निष्कर्षों से मिलती-जुलती बात करते हुए क्लाइमेट बॉन्ड पहल के कुमार बताते हैं कि फ्रेमवर्क की कई योग्य परियोजना श्रेणियां सटीक मानदंड तय नहीं करती हैं।

यह देखते हुए कि एजेंसी ने फ्रेमवर्क के मौजूदा स्वरूप पर चिंता जताई है, भारत के अगले कदम क्या होने चाहिए? कुमार जवाब देते हैं, “यह भारत का पहला इश्यू है। हमें अपने सबसे बहेतरीन के साथ निवेशकों के साथ जुड़ना होगा और ऐसा करना संभव है। यह हमारी हरित विकास गाथा में निवेशकों का भरोसा बनाने का अवसर है। इस इश्यू पर उद्योग और कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय हितधारकों की भी नजर रहेगी।

“सबसे पहले और सबसे अहम, हमें इस इश्यू से ज्यादा से ज्यादा फायदा प्राप्त करने की जरूरत है। मुझे उम्मीद है कि यह पहला इश्यू उन परियोजना श्रेणियों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करेगा जो डार्क ग्रीन कलर की हैं, जो निवेशकों द्वारा मान्यता प्राप्त बाजार के सोने के मानक से मेल खाने में सक्षम हैं। सरकार के लिए प्रमाणित करने का विकल्प भी खुला है। यह जुड़ाव का एक बेहतरीन साधन है और निवेशकों का भरोसा बढ़ाता है। संक्षेप में, पहला इश्यू जितना संभव हो उतना मजबूत और साफ-सुथरा होना चाहिए, ताकि निवेशकों की अपेक्षाओं को पूरा किया जा सके, बेहतर शर्तें प्राप्त की जा सकें और वास्तव में, इस व्यवस्था के साथ आगे बढ़ते हुए स्थानीय बाजारों में भरोसा पैदा करते हुए एक मजबूत कार्यक्रम बनाया जा सके।”

 

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बैनर तस्वीर– तेलंगाना के करीमनगर जिलें में परगी में लगा एक पवन ऊर्जा का मिल। तटीय और समुद्री पर्यावरण और जैव विविधता संरक्षण से संबंधित परियोजनाएं संप्रभु ग्रीन बॉन्ड फ्रेमवर्क के तहत आती हैं। तस्वीर-मनीष कुमार/मोंगाबे 

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