- अक्टूबर 2022 में बिहार के वाल्मीकि टाइगर रिज़र्व में एक तीन साल के बाघ को ‘आदमखोर’ घोषित करके वन विभाग की टीम द्वारा मार दिया गया।
- टाइगर रिज़र्व के बाहर बसे गावों में बाघ की उपस्थिति कई बार देखी गयी है जिससे गांववालों में मानव-वन्य जीव संघर्ष की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं।
- विशेषज्ञों और टाइगर रिज़र्व के अधिकारियों का कहना है कि इस संघर्ष को कम करने के लिए लोगों और प्रशासन को सहअस्तित्व के रास्ते खोजने होंगे।
वाल्मीकि टाइगर रिज़र्व (वीटीआर) बिहार का इकलौता टाइगर रिजर्व है। करीब 900 वर्ग किलोमीटर में फैला वीटीआर बाघ संरक्षण में एक सफल हस्तक्षेप साबित हुआ है। साल 2010 में यहाँ सिर्फ आठ बाघ बचे थे लेकिन 2018 की नेशनल नेशनल टाइगर कंजर्वेशन ऑथोरिटी (एनटीसीए) की बाघों की गणना के अनुसार यह संख्या बढ़कर करीब 36 से 42 के बीच हो गई है।
इस साल 8 अक्टूबर को वीटीआर के आस पास के इलाकों में एक बाघ के बढ़ते हमलों और इस युवा बाघ के ‘आदमखोर’ घोषित किये जाने के बाद एनटीसीए की अनुमति इसे मार दिया गया। वीटीआर ने इस बाघ की पहचान टी-104 के रूप में की जिसकी उम्र करीब तीन साल थी। वीटीआर प्रशासन के मुताबिक इस बाघ ने 12 सितंबर से 8 अक्टूबर के बीच छः लोगों को मार डाला। बाघ के हमले की पहली घटना 12 सितंबर और दूसरी 21 सितंबर की थी। इसके बाद करीब दो हफ्ते तक इस बाघ के हमले से मानव आबादी सुरक्षित रही लेकिन फिर तीन दिनों के अंदर ही इसने चार और लोगों को मार डाला।
60 घंटे में चार ‘शिकार’
पांच और 6 अक्टूबर की दरमियानी रात सिंगाही गांव की 11 साल की बगड़ी कुमारी को इस बाघ ने अपना तीसरा शिकार बनाया। बगड़ी की नानी लालसा देवी ने मोंगाबे को बताया, “मेरी नातिन बगड़ी और नाती मेरे साथ ही सोए थे। बाघ मच्छरदानी फाड़ कर मेरी नातिन को खींच कर ले गया। बाघ देखकर जब सामने बंधे जानवर हड़बड़ा कर खड़े हो गए तो मैं भी जग कर बैठ गई और देखा कि मेरी नातिन मेरे पास नहीं है। इसके बाद ‘बाघ है, बाघ है’ का हल्ला शुरू हुआ।”
बाघ के इस हमले में चौंकाने वाली बात यह देखी गई कि जिस रास्ते से होकर वह झोपड़ी तक पंहुचा उस रास्ते के आस-पास और यहाँ तक कि झोपड़ी के बाहर भी भैंस और दूसरे पालतू जानवर बंधे थे मगर बाघ ने उन पर हमला नहीं किया।
प्रभात गुप्ता, अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक सह मुख्य वन्य प्राणी प्रतिपालक, ने इस बारे में मोंगाबे हिंदी को बताया, “इस टाइगर ने शिकार करने का अपना प्राकृतिक तरीका लगभग छोड़ दिया था। शुरूआती मामलों में यह डेड बॉडी को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ। बाद में यह इंसान को मारने के बाद उसे घसीटकर कर ले जाने लगा। बाघ ऐसा तभी करता है जब वह किसी को अपना शिकार समझता है। जिस मामले में यह एक सोती हुई बच्ची को उसके घर के अन्दर से शिकार कर ले गया उसमें इसने बच्ची को खाना शुरू कर दिया था। इस तरह समय के साथ यह पूरी तरह साफ़ हो गया था कि यह बाघ आदमखोर बन गया था।”
बाघ ने अपना चौथा शिकार सिंगाही गाँव से थोड़ी दूर स्थित डुमरी गाँव के संजय महतो को 7 अक्टूबर को बनाया। संजय सुबह के उजाले में बाघ का शिकार तब बने जब वे शौच के लिए गए खुले में गए थे। डुमरी गाँव में वन विभाग का चेक नाका भी है। जिस जगह ग्रामीणों को संजय महतो की लाश मिली थी, मोंगाबे जब वहां पहुंचा तो संजय महतो का गमछा तब भी वहीं पड़ा था। आठ अक्टूबर को बाघ के मारे जाने के पहले उसने इसी सुबह बलुआ गांव में 28 साल की बबीता देवी और उसके चार साल के बेटे शिवम कुमार को अपना शिकार बनाया था। बबीता अपने दो बच्चों, बेटी श्रुति और बेटे शिवम को साथ लेकर चारा लाने अपने घर के पास के खेत में गई थी।
बलुआ की घटना से पहले ही इस बाघ को आदमखोर घोषित कर इसे मार डालने के लिए वन और पुलिस विभाग की टीम बनाई जा चुकी थी। ऐसे में इस टीम को जब बाघ के बलुआ में होने की खबर मिली तो इसने गाँव पहुंचकर इसे मार गिराया।
क्या बाघ को जिन्दा पकड़ा जा सकता था?
वीटीआर की एक बड़ी टीम ने लगभग महीने तक रेस्क्यू अभियान चलाया लेकिन इस दौरान टी-104 को बेहोश कर पकड़ा नहीं जा सका। पर्यावरण एवं वन विभाग के मुताबिक इस दौरान टाइगर रिज़र्व का लगभग पूरा स्टाफ बाघ को पकड़ने में लगा था। लेकिन एनटीसीए द्वारा गोली मारने का आदेश जारी किए जाने के दो दिनों के अन्दर ही बाघ को ढूंढ कर मार डाला गया। ऐसे में समय रहते बाघ को पकड़ नहीं पाने के लिए वन विभाग की कार्यप्रणाली, रणनीति और कुशलता पर सवाल उठने लगे।
इन सवालों के जवाब में प्रभात गुप्ता ने विस्तार से बताते हुए कहा, “यह बाघ समय के साथ चालाक और मानव आबादी से निडर हो गया था। जैसे कि जहाँ हमने ट्रेप-केज लगाया, अगले दिन उसके किनारे हमें बाघ के निशान मिले लेकिन वो उस ट्रेप-केज में नहीं गया। दो बार ऐसा हुआ कि हमारे वेटरिनेरीअन की डार्ट उसे लगी लेकिन उसे पकड़ा नहीं जा सका। डार्ट लगने के पहले मामले में जब तक हम उसे सर्च करते तब तक अँधेरा हो गया गया और समय के साथ वह होश में आकर निकल गया। दूसरे मामले में दिन में डार्ट लगा था लेकिन ग्रामीणों, जो खुद उसे मारना चाहते थे, द्वारा बाधा डालने की वजह से हमारी टीम तुरंत उसका पीछा नहीं कर पाई और वह बच कर निकल गया। साथ ही हिमालय के तराई के पास के इस इलाके के खास टोपोग्राफी और सितम्बर महीने के आखिर में हुई बारिश ने उसका रेस्क्यू और मुश्किल बना दिया।”
समीर कुमार सिन्हा वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के जॉइंट डायरेक्टर हैं और इन्होंने वीटीआर में भी अपनी सेवाएं दी हैं। समय रहते बाघ को पकड़ नहीं पाने के सवाल पर वो कहते हैं, “अब बाघ को सुरक्षित पकड़ने की संभावनाओं पर बात नहीं की जा सकती है। जब तक इस कारवाई को नजदीक से नहीं देखा गया हो इसमें कमी का आकलन भी नहीं किया जा सकता है। हाँ, इन परिस्थितियों में बाघ को पकड़ना ऐसा नहीं है कि नामुमकिन हो। देश के विभिन्न भागों में ऐसे ऑपरेशन सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं।”
वीटीआर जैसे क्षेत्रों में बाघों के मानव आबादी में घुसने की बढ़ती घटनों के बारे में वह कहते हैं, “ऐसी परिस्थितियों में सबसे पहले कोशिश यह होनी चाहिए कि बाघ के द्वारा किसी व्यक्ति की जान न जाए और प्रशासन के द्वारा दृढ एवं कारगर उपाय किए जाएं जिससे लोग ऐसी जगहों पर न जाएं जहाँ बाघ के होने की संभावना हो। हमें यह समझना जरुरी है कि बाघ आदतन हिंसक प्राणी है और ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को अपने व्यवहार में बदलाव लाने की जरूरत होती है।”
क्या छोटा पड़ रहा है वीटीआर?
क्या बाघों की बढ़ती आबादी के कारण वीटीआर इस शानदार शिकारी पशु के लिए छोटा पड़ता जा रहा है और इस वजह से बाघ मानव आबादी की ओर भटक रहे हैं?
प्रभात गुप्ता के मुताबिक वीटीआर अभी अपने बाघों के लिए छोड़ा नहीं पड़ा है। वे कहते हैं, “अभी भी हमारे हर बाघ के पास कम-से-कम औसतन 20 वर्ग किलोमीटर का इलाका है। इसके अलावा हमारे बाघ के पास वीटीआर से सटे देश के अन्य नेशनल पार्क और नेपाल के चितवन नेशनल पार्क में अपना इलाका (पार्शियल टेरेटरी) बनाने का भी विकल्प है। साथ ही एक नर बाघ का इलाका तीन से चार मादा बाघ का भी इलाका होता है। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि वीटीआर अपने बाघों के लिए छोटा पड़ रहा है। हमने बीते 10 सालों में वाइल्ड लाइफ और वाटरहोल मैनेजमेंट एवं हैबिटैट इम्प्रूवमेंट पर काफी ध्यान दिया है। इस कारण पिछले 10 से 12 सालों में शाकाहारी जानवरों और उनके शिकारियों की संख्या भी बढ़ी है। वीटीआर के जानवरों का मानव आबादी में चले जाने के अन्य कारण है।”
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वहीं इस संबंध में समीर सिन्हा कहते हैं, “बेहतर प्रबंधन के कारण वन्यजीवों की संख्या बढ़ना लाज़मी है और इसके लिए प्रयास भी किए जाते हैं। कुछ जीवों, जैसे – बाघ, के टेरिटोरियल स्वभाव के कारण इनकी आबादी बढ़ने के कारण युवा बाघों को अपना नया साम्राज्य बनाना होता है जिसके लिए वे अन्य जगहों पर जाते हैं। गन्ने के खेत को बाघ अपने अधिवास के रूप में अपनाने की कोशिश करता है, जो मनुष्यों द्वारा रेखांकित जंगल की सीमा के बाहर तो होता है लेकिन वन्य जीव के अधिवास भी होते हैं। लोगों की जंगल में गतिविधियों – जैसे, मवेशी चराई, जलावन इकठ्ठा करने तथा अतिक्रमण के कारण जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं, जिससे वन्य जीवों के लिए अधिवास में कमी स्वाभाविक है।”
कैसे थमेगा मानव-वन्य जीव संघर्ष
बाघ द्वारा लोगों के मारे जाने के बाद वीटीआर के आस-पास के लोगों की एक प्रमुख मांग ये है कि जानवरों का जंगल से बाहर निकलना हर हाल में रोका जाए। इलाके के लोग अपने अंदाज़ में कहते हैं, “सरकार अपना जानवर बाउन्ड्री घेर के अपने जंगल में रखे।”
लगभग सभी लोग कंटीले तार की घेराबंदी कर जानवरों को जंगल तक सिमित रखने का सुझाव देते हैं। इसके अलावा रात में उजाले का पर्याप्त इंतजाम करने का सुझाव भी दिया जाता है।
इस मांग पर अपनी प्रतिक्रिया में वीटीआर के फील्ड डायरेक्टर नेशामणि के. कहते हैं, “वीटीआर के पूरे इलाके की घेराबंदी करने में तो हम सक्षम नहीं हो पाएंगे क्योंकि इसमें बहुत ज्यादा खर्च आयेगा और यह कोई स्थाई समाधान भी नहीं है। साथ ही वीटीआर से सटे गाँव भी घेराबंदी का विरोध करते हैं क्योंकि वे अपनी अलग-अलग जरूरतों के लिए जंगल के अन्दर जाते हैं। इस सबके बावजूद ज्यादा संघर्ष (कंफ्लिक्ट) वाले क्षेत्रों की घेराबंदी करने की हम कोशिश कर सकते हैं।”
जबकि आदिवासी उरांव महासभा के पूर्व अध्यक्ष राजेश उरांव कहते हैं, “जंगल और आदिवासी एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसे में घेराबंदी करते हुए जंगल के बाहर और अन्दर बसे आदिवासियों का जंगल में प्रवेश प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए। वे रोजमर्रा, शादी-विवाह से लेकर धार्मिक जरूरतों के लिए जंगल पर आश्रित हैं और वन अधिकार कानून के तहत अब ये उनका अधिकार भी है जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए।”
सह-अस्तित्व के रास्ते
वीटीआर के आस-पास के इलाके में हुई हाल के महीनों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बावज़ूद एक बात साफ़ है कि जंगली जानवरों और मानव आबादी को अपने-अपने इलाकों में रहते हुए सह-अस्तित्व बनाए रखना है जैसा कि इस इलाके में सदियों से है। ऐसे में सवाल यह कि इसके रास्ते क्या हों?
वीटीआर के आस-पास मानव और जंगली जीवों के बीच रह-रह कर होने वाले संघर्ष को ख़त्म या न्यूनतम करने के क्या उपाय हैं?
इस बारे में समीर सिन्हा कहते हैं, “वीटीआर में जंगल और मानवीय आबादी आस-पास हैं और यहाँ गन्ने की खेती प्रमुखता से होती है। गन्ने के खेत बाघ और अन्य जानवरों का ठिकाना भी होते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों के कारण संघर्ष होने की संभावना ज्यादा होती है। लोग शौच के लिए घर के बाहर अँधेरे एवं एकांत जगह पर जाते हैं और जंगली जानवर भी ऐसे जगह पर रहते हैं। ऐसे में खुले में शौच हिंसक जीवों के संपर्क में आने का एक बड़ा कारण है। इसे कम करने के लिए जरुरी है कि लोग अपने व्यवहार में बदलाव लाएं जिसके लिए सरकारी मशीनरियों (विभागों और संस्थाओं) को एक साथ काम करना होगा। यह काम सिर्फ वन विभाग के बूते का नहीं है।
समीर सिन्हा गाँवों में आधारभूत सुविधाओं जैसे बिजली की कमी को दूर करके भी मानव-वन्य जीव संघर्ष को कम करने का सुझाव देते हैं। “गावों में लोगों के आने-जाने वाले स्थानों, सड़कों पर उजाले की व्यवस्था जरुरी है। इससे दो फायदे होते हैं – जंगली जानवर इससे आबादी के तरफ नहीं आते हैं और लोगों को भी अँधेरे में ऐसे जानवरों की उपस्थिति का पता चल जाता है। लोगों को अपने व्यवहारों में बदलाव लाकर जंगली जीवों, खासकर बाघों के साथ सह-अस्तित्व बनाए रखने की जरूरत है।”
जबकि इस संबंध में प्रभात गुप्ता कहते हैं, “मानव और वन्यजीव संघर्ष कम से कम हो इसके लिए हम लगातार काम कर रहे हैं। हमारे पास ट्रेंकुलाइज करने वालों और वेटरिनेरीअन्स की प्रशिक्षित टीम है। और हमारे हर डिवीज़न में क्विक रिस्पांस टीम्स हैं जो कंफ्लिक्ट वाले इलाके में जाकर कैंप करती हैं और इसका निपटारा करती हैं। ऐसे मामलों में हम मुआवजा भी तुरंत उपलब्ध कराते हैं। साथ ही हम नेपाल के साथ भी इस संघर्ष को कम से कम करने के लिए ट्रांस-बाउंड्री मीटिंग्स करते हैं।”
बैनर तस्वीरः वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के पास डुमरी गांव में ग्रामीण खेतों में काम करते हुए। तस्वीर- मनीष शांडिल्य