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भारत में कैसे कम हुई हिलसा मछली, इस दुर्लभ प्रजाति को बचाने में क्या हैं चुनौतियां?

फरक्का बैराज के पास गंगा नदी। गंगा के लोअर स्ट्रेच या लोअर स्ट्रीम में फरक्का से फ्रेजरगंज तक मछुआरों के सामाजिक-आर्थिक आकलन में पता चला है कि हिलसा जैसी मछलियां मछुआरों की आय में 38.84% का योगदान करती हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

फरक्का बैराज के पास गंगा नदी। गंगा के लोअर स्ट्रेच या लोअर स्ट्रीम में फरक्का से फ्रेजरगंज तक मछुआरों के सामाजिक-आर्थिक आकलन में पता चला है कि हिलसा जैसी मछलियां मछुआरों की आय में 38.84% का योगदान करती हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

  • भारत में फरक्का सहित अन्य नदियों पर बैराज और डैम बनने से हिलसा मछली के आने-जाने का रास्ता बाधित हो गया है। हिलसा माइग्रेट करने वाली मछली है। वह समुद्र से नदी और नदी से समुद्र तक की लंबी यात्रा करती है। इसलिए प्राकृतिक आवागमन में दिक्कत ने इसके अस्तित्व को नुकसान पहुंचाया है।
  • स्वच्छ गंगा मिशन के तहत पिछले चार सालों से हिलसा के संरक्षण और इसकी संख्या बढ़ाने के गंभीर प्रयास शुरू हुए हैं। इसके तहत हैचरी में तैयार किशोर हिलसा व उनके अंडे को गंगा के अपस्ट्रीम में छोड़ने जैसे प्रयोग किए जा रहे हैं। हिलसा की टैगिंग और इसके बारे में जानकारी देने वाले को प्रोत्साहन राशि भी दी जा रही है।
  • बांग्लादेश अकेले दुनिया का 80% से अधिक हिलसा मछली का उत्पादन करता है। इसके बाद भारत का नंबर है। लेकिन, भारत में बांग्लादेश की तुलना में महज 10% हिलसा होती है। भारत को अपनी जरूरतों के लिए बांग्लादेश पर निर्भर रहना पड़ता है। विशेषज्ञों का मानना है कि हिलसा संरक्षण के लिए भारत-बांग्लादेश-म्यांमार को साझा प्रयास करना होगा।

पश्चिम बंगाल में फरक्का के प्रसनजीत मंडल (30) का पुश्तैनी काम मछली पकड़ना है। लेकिन इन दिनों वह रिक्शा चला कर भी गुजारा करते हैं। साथ ही अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी में मछली पकड़ने भी जाते हैं। प्रसनजीत और उनके दोस्तों की कोशिश हिलसा मछली पकड़ने की होती है। आम मछलियों में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। मानसून के बाद एक दोपहर को प्रसनजीत ने मोंगाबे हिंदी को बताया कि वह एक दिन पहले अपने तीन दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए थे। उनके जाल में दो हिलसा फंसी। इससे उन्हें 2500 रुपये मिले। इस तरह एक के हिस्से 600 रुपये से कुछ अधिक आए। लेकिन, प्रसनजीत और उनके दोस्त हर दिन इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उनके जाल में हिलसा आ जाए।

फरक्का में हिलसा मछली के संरक्षण से जुड़े फारूक शेख ने कहा, “बड़ी हिलसा मछली यानी एक किलो वजन वाली की कीमत 2700-2800 रुपये तक हो सकती है। अगर मछली 400-500 ग्राम की है तो वह 700 से 800 रुपये किलो बिक सकती है। बड़ी हिलसा मिलने को चमत्कार से कम नहीं माना जाता है।”

हिलसा की कीमत मांग और उपलब्धता से तय होती है। आसमानी कीमतों के बाद भी इसके गुणों के चलते इसे खरीदने की होड़ रहती है। फरक्का के मृणाल एस.के. कहते हैं, “हर बंगाली परिवार में हिलसा मछली पसंदीदा भोजन है।” 

भारत में कैसे कम होती गई हिलसा

कोलकाता के बैरकपुर स्थित सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिफरी/CIFRI) के सीनियर साइंटिस्ट डॉ ए.के. साहू ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “हिलसा प्रवासी प्रजाति है। जब यह माइग्रेट (पलायन) नहीं कर सकी तो भारत में इसकी संख्या कम हो गई।” साहू कहते हैं कि पहले यह प्रजाति इलाहाबाद तक जाती थी, लेकिन 1975 में जब फरक्का बैराज बन गया तो हिलसा का माइग्रेशन मुश्किल हो गया।” 

हिलसा मछली काफी गतिशील होती है। वैश्विक स्तर पर भी हिलसा का दायरा सिकुड़ते हुए सिर्फ बांग्लादेश-भारत-म्यांमार तक रह गया है। 

हिलसा मछली। अगर मछली 400-500 ग्राम की है तो वह 700 से 800 रुपये किलो बिक सकती है। तस्वीर- राहुल सिंह
हिलसा मछली। अगर मछली 400-500 ग्राम की है तो वह 700 से 800 रुपये किलो बिक सकती है। तस्वीर- राहुल सिंह

सिफरी के डायरेक्टर डॉ बी.के. दास ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “भारत सरकार की ओर से इसकी तादाद बढाने के लिए नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (नमामी गंगे मिशन) के तहत 2018 से गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं और मछुआरे इसमें एक अहम हिस्सा (स्टेकहोल्डर) हैं।”

सिफरी ने मोंगाबे हिंदी के सवालों के आधिकारिक जवाब में बताया कि गंगा 190 प्रकार की मछलियों का घर है। गंगा के लोअर स्ट्रेच या लोअर स्ट्रीम में फरक्का से फ्रेजरगंज तक मछुआरों के सामाजिक-आर्थिक आकलन में पता चला है कि हिलसा जैसी मछलियां मछुआरों की आय में 38.84% का योगदान करती हैं। हालांकि अपस्ट्रीम में फरक्का से प्रयागराज और कानपुर तक मछुआरे इस महत्वपूर्ण प्रवासी मछली से वंचित हैं। एक समय था जब यह मछली दिल्ली और आगरा में भी उपलब्ध होती थी। 

सिफरी ने बताया, “फरक्का बैराज गंगा नदी में हिलसा के प्रवास में बाधा डालने वाला प्रमुख अवरोध है। इसलिए हिलसा को डाउनस्ट्रीम में पकड़ना और उसे अपस्ट्रीम में छोड़ना उनके प्रवासन को सुविधाजनक बनाएगा।”

सिफरी ने फरक्का बैराज से अपस्ट्रीम में 74,962 जुवेनाइल हिलसा मछली को छोडा है। सिफरी के जवाब के अनुसार राजमहल, भागलपुर और बलिया के मछुआरों ने अपने यहां फरक्का में डाली गई हिलसा के आने की पुष्टि की है। गंगा में 10 लाख 82 हजार निषेचित अंडों को भी छोड़ा गया है। फरक्का में फरक्का ऑथोरिटी से दो तालाब लेकर अपस्ट्रीम में हैचरी बनाई गई है।  

हालांकि विशेषज्ञ ऐसे प्रयोगों से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। मोंगाबे हिंदी से एक विशेषज्ञ ने कहा, “अंडे के जीवित रहने की दर दो प्रतिशत से कम होती है। हिलसा की टैग रिकवरी दर भी वर्तमान में कम है। पानी में परभक्षी द्वारा ज्यादातर अंडे खा लिए जाते हैंं। हिलसा की संख्या तापमान, प्रवाह और वेग जैसे पर्यावरणीय और भूभौतिकीय संकेतों निर्भर करती है।”

हिलसा की ब्रीडिंग व उसके लिए अनुकूल परिस्थितियां

मीठे पानी की नदियों में 23 डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान पर 23 से 26 घंटे में अंडे से बच्चे निकलते हैं। पानी का तापमान उनके जीवित रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए सर्दियों में प्रजनन और आवागमन सबसे उपयुक्त पाया जाता है।  

करीब 250 ग्राम की हिलसा तैयार होने में एक साल और एक किलो की तैयार होने में तीन से चार साल लगते हैं। संरक्षण उपायों में जागरूकता पैदा करना, प्रजनन के मौसम में मछली पकड़ने पर प्रतिबंध, मछली पकड़ने के लिए मच्छरदानी के उपयोग की मनाही, मछली पकड़ने के लिए नदियों में जहर देने पर प्रतिबंध महत्वपूर्ण उपाय हैं। सिफरी का कहना है कि उसने वर्ष 2020-22 की अवधि के दौरान फरक्का से प्रयागराज तक 440 जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए, जिसमें कुल 18,326 मछुआरे शामिल हुए।

फरक्का स्थित हिलसा प्रजनन केंद्र (हैचरी)। फरक्का में फरक्का ऑथोरिटी से दो तालाब लेकर अपस्ट्रीम में हैचरी बनाई गई है। तस्वीर- राहुल सिंह
फरक्का स्थित हिलसा प्रजनन केंद्र (हैचरी)। फरक्का में फरक्का ऑथोरिटी से दो तालाब लेकर अपस्ट्रीम में हैचरी बनाई गई है। तस्वीर- राहुल सिंह

पश्चिम बंगाल सरकार के प्रयास और उन पर सवाल

पश्चिम बंगाल सरकार अपने स्तर पर हिलसा के संरक्षण का प्रयास कर रही है। उसने संरक्षण प्रयासों के तहत कुछ नदी खंडों को सेंचुरी भी घोषित किया है। हालांकि राज्य सरकार के प्रयासों से पश्चिम बंगाल का प्रमुख मछुआरा संगठन दक्षिण बंग मत्स्य जीवी फोरम खुश नहीं है।

दक्षिण बंग मत्स्य जीवी फोरम के महासचिव मिलन दास ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “पश्चिम बंगाल सरकार हिलसा संरक्षण के लिए गंभीर पहल नहीं कर रही है। इस पूरी प्रक्रिया में मछुआरों को विलेन बना दिया गया है। राज्य सरकार ने सिर्फ आइयूसीएन के फंड को लेकर पांच हिलसा सेंचुरी घोषित की है और संरक्षित इलाके में मछुआरों के जाने पर कार्रवाई करने की बात कही जाती है।  

हिलसा पर प्रदूषण का असर

क्या नदी का प्रदूषण भी हिलसा मछली के फलने-फूलने पर असर डालता है? इस पर सिफरी ने कहा, “हां, कुछ हद तक। प्रदूषण से मछली जैसे जलीय जीवों को तनाव होता है। हालांकि प्रदूषण एक व्यापक शब्द है, जिसमें औद्योगिक और कृषि प्रदूषण शामिल है। मछली प्रजनन पर सभी प्रदूषणों के साझा प्रभाव का पता लगाना मुश्किल है। लेकिन, निश्चित रूप से रिपोर्ट कहती है कि प्रदूषण के चलते होने वाले तनाव से प्रजनन पर नकारात्मक असर होता है।”

बांग्लादेश फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर (एडमिन एंड फिनांस) एवं हिलसा विशेषज्ञ डॉ मोहम्मद अनिसुर रहमान ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “हिलसा का उत्पादन कई कारणों से घट रहा है (हालांकि बांग्लादेश में स्थिति सुधर रही है)। गाद जमना, प्रदूषण, अत्यधिक दोहन और छोटी हिलसा का शिकार आदि इसकी वजहें हैं। अन्य कारणों के साथ जलवायु परिवर्तन भी हिलसा की संख्या में गिरावट की वजह है।” डॉ रहमान के अनुसार, मछली पकड़ने के लिए खतरनाक उपकरणों का उपयोग न सिर्फ हिलसा बल्कि कई अन्य मछलियों की संख्या में गिरावट की वजह है।

सिफरी ने भी जवाब में हिलसा के लिए पांच बड़े खतरों को चिन्हित किया है। इनमें अत्यधिक मछली पकड़ना, बांधों और बराजों द्वारा बाधा उत्पन्न होना, नदी में गाद, प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन शामिल हैं। 

फरक्का बराज से कैसे कम होती गई हिलसा?

इंपेक्ट ऑफ फरक्का बराज ऑन हिलसा फिशरीज: एन ओवरव्यू नाम की एक स्टडी में कहा गया है कि 1975 में फरक्का बराज बन जाने के बाद गंगा के मिडिल स्ट्रेच यानी फरक्का से प्रयागराज तक हिलसा की लैंडिंग 83.1% से 98.6% तक कम हो गई। वहीं, डाउनस्ट्रीम में लैंडिंग बढ गई। इलाहाबाद में 1961-70 के दशक में प्रति हेक्टेयर की दर से 4.86 किलोग्राम हिलसा मिलती थी। लेकिन बराज बनने के बाद 1980 के दशक में उत्पादकता गिर कर 0.23 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर आ गई। इसी तरह भागलपुर में यह 1.63 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से गिर कर 0.48 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई। इस वजह से उत्तर प्रदेश व बिहार के हजारों मछुआरों की आजीविका प्रभावित हुई।


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मोंगाबे हिंदी को मिली जानकारी के अनुसार, शुरुआत से ही फरक्का बराज के दो गेट मछलियों के आवागमन के रास्ते के रूप में चिह्नित किए गए हैं। गेट नंबर 25 और 25ए 1975 से फिश लॉक के रूप में स्थापित हैं। लेकिन इसका कभी उचित ढंग से उपयोग नहीं किया गया। जब यह खुलता था तो उसके माध्यम से हिलसा प्रयागराज से आगरा तक पहुंच जाती थीं। पिछले 30 सालों से यह बंद है और इसको लेकर सरकारी महकमे में विभिन्न स्तरों पर पत्राचार भी किया गया, ताकि हिलसा संरक्षण के रास्ते निकल सकें।

इस संबंध में इस संवाददाता द्वारा लगाए गए एक सूचना के अधिकार (आरटीआइ) आवेदन के जवाब में केंदीय जल आयोग ने बताया, “फरक्का बराज में फिश लेंडर नहीं फिश लॉक गेट है और इसकी संख्या दो है। ये फिश लॉक गेट वर्तमान में परिचालन/बंद की स्थिति में हैं।” आयोग ने अपने जवाब में कहा है, “कार्यालय में उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार, यह गेट 1998 से काम कर रहा है।” आयोग ने जवाब में बताया कि वर्तमान में इस गेट का नए गेट से रिप्लेसमेंट का काम चल रहा है। इस सवाल के जवाब में कि क्या फिश लॉक गेट की वजह से हिलसा का मूवमेंट या आवागमन प्रभावित हुआ है, आयोग ने बताया, “हमारे कार्यालय में इस संबंध में कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है कि फिश लैंडर गेट ने हिलसा के मूवमेंट को प्रभावित किया है।”

कोलकाता के बैरकपुर स्थित सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिफरी/CIFRI)। तस्वीर- राहुल सिंह
फरक्का के बैरकपुर स्थित सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिफरी/CIFRI)। तस्वीर- राहुल सिंह

वाइल्डलाइफ कंर्जेवेशन ट्रस्ट, मुंबई के रिवेरियन इकोसिस्टम एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम के हेड नचिकेत केलकर ने मोंगाबे हिंदी को ई-मेल इंटरव्यू में बताया, “बांधों और बराजों का फिर से संचालन हिलसा के नदी के अपस्ट्रीम में माइग्रेट करने का एकमात्र रास्ता है। वैसे क्षेत्र जहां हिलसा हैं, वहां पहले ही उनका जरूरत से ज्यादा शिकार हो चुका है। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि हिलसा के माध्यम से मछुआरों की आय बढ़ाई जा सकती है।” उन्होंने कहा, “हिलसा संरक्षण के लिए लगातार प्रबंधन एवं नियमन जरूरी है, क्योंकि वे अपनी ऐतिहासिक सीमा और घनत्व से काफी कम या सीमित हैं।”

हिलसा की उपलब्धता और बांग्लादेश पर निर्भरता 

हिलसा मछली भारत-प्रशांत क्षेत्र में सबसे प्रमुख व्यवासायिक मछलियों में एक रही है। शोध बताता है कि बांग्लादेश, भारत और म्यांमार में पूरी दुनिया में उत्पादित होने वाली कुल हिलसा मछली का 96% से अधिक मिलता है। इसमें भी एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेश में होता है। एक अध्ययन के अनुसार, 2010-15 के बीच बांग्लादेश में पूरी दुनिया का 86.7%, भारत में आठ प्रतिशत व म्यांमार में चार प्रतिशत उत्पादन हुआ। तो क्या ऐसे में यह जरूरी है कि हिलसा संरक्षण को लेकर ये देश साझा प्रयास करें?

डॉ रहमान ने कहा, “निश्चित रूप से यह ट्रासंबाउंड्री इश्यू है और इसके संरक्षण के लिए भारत-बांग्लादेश-म्यांमार को साझा प्रयास करने होंगे।” वे इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, “हिलसा के जीवन व अस्तित्व के लिए मीठा पानी (फ्रेश वाटर), खारा पानी (स्लाइन वाटर) और समुद्री पानी (मैरिन वाटर) तीनों चाहिए।” 

भारत में हिलसा मछली की मांग काफी अधिक है। इसके लिए उसे बांग्लादेश पर निर्भर रहना पड़ता है। दोस्ताना रिश्तों की वजह से बांग्लादेश सिर्फ भारत को इस मछली की आपूर्ति करता है, जिसकी एक सीमा है। मोंगाबे हिंदी को मिली जानकारी के अनुसार, बांग्लादेश सरकार ने इस साल 2450 मीट्रिक टन हिलसा भारत को निर्यात करने की अनुमति दी थी। हालांकि रहमान ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “सामान्यतः इस समय हिलसा मछली का किसी भी देश में निर्यात नहीं किया जा रहा है। उम्मीद है जल्द ही ऐसा होगा।”

बांग्लादेश कैसे करता है हिलसा का संरक्षण?

मोहम्म्द अनिसुर रहमान ने मोंगाबे हिंदी को बताया, बांग्लादेश में हिलसा संरक्षण के लिए चार रणनीतिक उपाय महत्वपूर्ण हैं – 1. हिलसा अभ्यारण्य घोषित कर जुवेनाइल हिलसा का संरक्षण 2. उनके प्रजनन के समय प्रजनन या अंडा देने वाले स्थानों के आसपास परिस्थितियों को सुविधाजनक बनाना और संरक्षण 3. समुद्र में 65 दिन (20 मई से 23 जुलाई) तक हर साल मछली पकड़ने पर प्रतिबंध 4. हिलसा के प्रजनन और नर्सिंग के समय गरीब मछुआरा समुदाय को सब्सिडी देना। 

बांग्लादेश में वर्ष 2008-09 में जहां 2.98 लाख मीट्रिक टन हिलसा उत्पादन होता था। वहीं 2019-20 में यह लगभग दोगुना होकर 5.65 मिट्रिक टन हो गया। 

बहरहाल, यह तय है कि भारत ने नए सिरे से हिलसा संरक्षण की शुरुआत की है और इसे अभी मीलों सफर तय करना है।

 

बैनर तस्वीरः फरक्का बैराज के पास गंगा नदी। गंगा के लोअर स्ट्रेच या लोअर स्ट्रीम में फरक्का से फ्रेजरगंज तक मछुआरों के सामाजिक-आर्थिक आकलन में पता चला है कि हिलसा जैसी मछलियां मछुआरों की आय में 38.84% का योगदान करती हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

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