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महाराष्ट्र के गन्ना किसानों तक कितना पहुंच रहा गन्ने से ईंधन बनाने की योजना का लाभ

महाराष्ट्र के बारामती में गन्ने की फसल में पानी लगाता एक किसान। इस फसल की सिंचाई के लिए आवश्यक बिजली के कारण इथेनॉल उत्पादन में वृद्धि से कार्बन फुटप्रिंट भी बढ़ेगा। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

महाराष्ट्र के बारामती में गन्ने की फसल में पानी लगाता एक किसान। इस फसल की सिंचाई के लिए आवश्यक बिजली के कारण इथेनॉल उत्पादन में वृद्धि से कार्बन फुटप्रिंट भी बढ़ेगा। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

  • भारत के इथेनॉल मिश्रण कार्यक्रम के तहत पेट्रोल में अतिरिक्त इथेनॉल मिलाया जाता है। केंद्र सरकार गन्ने से इथेनॉल बनाने पर ज़ोर दे रही है। इसके कारण चीनी के कारखानों के काम करने के तरीके में अंतर आ रहा है।
  • महाराष्ट्र में चीनी के लगभग 200 कारखाने हैं, जिनमें से 76 कारखानों के भीतर गन्ने से इथेनॉल बनाने के प्लांट लगा हुआ है।
  • राज्य के गन्ना किसानों का कहना है कि गन्ने से इथेनॉल के बढ़ते उत्पादन के बावजूद इनकी आय में कुछ ज्यादा अंतर नहीं आया है।

साहू थोरत महाराष्ट्र के सतारा जिले  कलावडे गांव में रहने वाले 47 वर्ष के एक गन्ना किसान हैं। थोरत पिछले 25 वर्षों से गन्ने की खेती अपने चार एकड़ के जमीन पर करते आ रहें हैं। नवम्बर 2022 में वह अपने ताज़ा काटे हुए गन्ने के ढेर को अपनी बैलगाड़ी में लादते दिखे। इस गन्ने को 12 किलोमीटर दूर कराड शहर के रथारे के चीनी के कारखाने पर बेचने गए। 

कराड पश्चिमी महाराष्ट्र में बसा एक शहर है जो कोयना और कृष्णा नदी के संगम क्षेत्र से सटा है। सतारा जिले में चल रहे 9 चीनी के कारखानों में से छह कराड के आस-पास ही हैं। यह जगह गन्ने के अत्याधिक खेती के लिए जाना जाता रहा है। 

हर साल नवम्बर के महीने में गन्ने के किसान बैलगाड़ी या ट्रैक्टर से गन्नो के बड़े-बड़े ढेरों को अक्सर खेतों से कारखानों की ओर ले जाते हुये दिखते हैं। यह कारखाने इन गन्नों का रस निकालकर चीनी बनाते हैं। इन कारखानों में गन्ने के रस एवं इनके बाइप्रॉडक्ट जैसे खांड़ (मोलासेस) से इथेनॉल का भी उत्पादन होता है। 

महाराष्ट्र के बहुत से चीनी कारखानों के लिए इथेनॉल का उत्पादन आम है।  लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसमे तेज़ी आई है। इसकी वजह है भारत सरकार का इथेनॉल मिश्रण योजना के तहत गन्ने से इथेनॉल के उत्पादन पर ज़ोर देना। इथेनॉल का प्रयोग जैव ईंधन (बायो-फ्यूल) के रूप में किया जा रहा है, जिसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। योजना का उद्देश्य देश में कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता को कम करना और स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देना है। 

“महाराष्ट्र के चीनी के कारखानों में इथेनॉल का उत्पादन कोई नई बात नहीं है। पहले इथेनॉल का इस्तेमाल  कारखाने देसी शराब बनाने में करते थे। बहुत से ऐसे कारखानों की अपनी खुद की स्थानीय ब्रांड की देसी शराब रही है। इन कारखानों में बने इथेनॉल का दूसरा प्रयोग अस्पतालों में स्पिरिट के तौर पर भी किया जाता रहा है। लेकिन पिछले तीन सालों से बहुत से कारखानों में अब इथेनॉल का प्रयोग जैव ईंधन रूप मे बढ़ा है। अब बहुत से कारखाने अपने यहां बने इथेनॉल को इथेनॉल मिश्रण योजना के लिए भेज रहें हैं,” कराड कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक भरत खांडेकर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। अध्ययनों के अनुसार इथेनॉल बायोमास पर आधारित ऊर्जा का एक स्रोत है और नवीकरणीय ऊर्जा है। इसे जब पेट्रोल के साथ मिलाया जाता है तो एक अच्छा ईंधन साबित होता है। 

गन्ना किसान महाराष्ट्र के सतारा में एक चीनी मिल के पास तुलाई और बिक्री के लिए इंतजार कर रहे हैं। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे
गन्ना किसान महाराष्ट्र के सतारा में एक चीनी मिल के पास तुलाई और बिक्री के लिए इंतजार कर रहे हैं। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुये महाराष्ट्र के चीनी के कारखानों के प्रबंधकों ने बताया कि सरकार के इथेनॉल मिश्रण के परियोजना से इन कारखानों में इथेनॉल उत्पादन को बढ़ावा मिला है। 

अजित चौगुले, पश्चिम भारत चीनी कारख़ाना संगठन (विसमा) के कार्यकारी निदेशक हैं। चौगुले कहते हैं कि चीनी के कारखानों के बहुत से दायित्व होते जो उन्हे अनिवार्य रूप से निभाना होता है जैसे – गन्ने के किसानों के लिए उचित और लाभकारी मूल्य (एफ़आरपी) जो सरकार द्वारा तय किए जाते है, सरकार द्वारा तय किए गए प्रति माह चीनी बेचने का कोटा आदि। चौगुले बताते हैं कि बहुत से चीनी के कारखाने गन्ने के कमी के कारण, कम उत्पादन और वित्तीय समस्या के कारण हानि सहते है। चौगुले का कहना है कि भारत सरकार के गन्ने से इथेनॉल बनाने की परियोजना के कारण चीनी के कारखानों में इथेनॉल के बढ़ते उत्पादन के कारण यह कारखानें वित्तीय समस्या एवं अन्य समस्यायों से निजात पा सकतें हैं। 

“इथेनॉल मिश्रण योजना का एक सबसे बड़ा लाभ यह है कि चीनी के कारखानों में बने  इथेनॉल को बेचने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का एक संगठित बाज़ार बना है जिसे सरकारी तेल की मार्केटिंग कंपनियों (ओएमसी) को बेचा जा सकता है। चीनी के कारखाने इन ओएमसी से लंबे समय के कांट्रैक्ट कर पाने में सक्षम हो पा रहें हैं। इसके कारण इन कारखानों को ओएमसी के माध्यम से एक गारंटेड खरीद का विकल्प, समय पर भुगतान और यातायात की सुविधा भी दी जाती है। यह कारखानों को अधिक आय करने में मदद कर सकती है जबकि इसका फायदा किसानों को राजस्व साझोदारी फार्मूले से भी हो सकता है। भारतीय कैबिनेट द्वारा इथेनॉल के बढ़े दरों से भी कारखानों को फायदा पहुँचने की उम्मीद है,” चौगुले ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

लोकसभा में हाल ही में भारत सरकार ने यह बताया गया कि कैसे इथेनॉल का उत्पादन चीनी के कारखानों को वित्तीय संकट से लड़ने में मदद कर सकता है। “चीनी के विक्रय की तुलना में कारखानों में इथेनॉल का उत्पादन कर विक्रय करने में कारखानों को तीन हफ्तों के अंदर भुगतान कर दिया जाता है जबकि चीनी के विक्रय में कारखानों को पूरा पैसा मिलने में तीन से 15 महीने तक लग जाते हैं। इसके कारण कारखानों के पास पैसे की मौजूदगी अच्छी होती है जिससे गन्ने के किसानों को समय से पैसा देना संभव हो पाता है,” भारत सरकार के लोक सभा में दिये गए एक बयान में बताया गया। 

चीनी के कारखाने और गन्ना किसान 

किसानों का कहना है कि गन्ने के उचित और लाभकारी मूल्य (एफ़आरपी) एक अच्छी बात  है जो एक न्यूनतम निर्धारित मूल्य किसानों को दिलाती है लेकिन बढ़ती महंगाई और कारखानों के बढ़ते लाभ के साधनों के मद्देनजर, किसानो को अपने गन्ने के लिए एक अच्छा दाम मिलना चाहिए। 

किसानों को कहना हैं कि इथेनॉल के कारण कारखानों के बढ़ते लाभ के बावजूद किसानों को इस पूरे परियोजना से ज्यादा फायदा नहीं मिला है। विश्वास जादव कराड में रहने वाले 40 वर्षीय किसान है जो बलीरजा शेतकारी संगठन मे एक सक्रिय सदस्य है। यह किसानों का एक संगठन है। 

महाराष्ट्र के बारामती में एक चीनी मिल के सामने गन्ने के ट्रैक्टर। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे
महाराष्ट्र के बारामती में एक चीनी मिल के सामने गन्ने के ट्रैक्टर। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

“महाराष्ट्र में बहुत से चीनी के कारखानेंगन्ने से इथेनॉल बना रहे हैं और अवशेष से  बिजली भी इन कारखानों में बनाई जा रही है। लेकिन अगर गन्ना उगाने वाले किसानों की बात करें तो उनकी आय में बहुत ज्यादा अंतर पिछले कुछ वर्षोंमें नहीं आया है। हमें गन्ने के उत्पाद से केवल एफ़आरपी मिलता आ रहा है जो बढ़ते महंगाई के अनुपात में नहीं है,” जादव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

कराड के बहुत से किसानों ने भी बताया कि पिछले कुछ वर्षों में गन्ने से होने वाले आय पर पर कुछ ज्यादा अंतर नहीं आया है। महाराष्ट्र के गन्ना के किसानों को जहां एफ़आरपी की दर से गन्ने के उत्पाद का भुगतान किया जाता है वही दूसरे कुछ प्रदेशों में जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और तमिल नाडु में गन्ने के किसानों को राज्य सलाहकार मूल्य (एसएपी) दिया जाता है। गन्ने के लिए एफ़आरपी केंद्र सरकार तय करती है। 2022-23 के  चीनी वर्ष (अक्तूबर से सितम्बर) के लिए केंद्र सरकार ने एफ़आरपी के दरें 305 रुपये प्रति क्विंटल तय की है। वही उत्तर प्रदेश में जहां एसएपी के दरों से गन्ने के किसानों का भुगतान किया जाता है, राज्य सरकार ने 340 रुपये प्रति क्विंटल दर तय किया है। 

अक्सर यह देखा गया है कि राज्यों में मिलने वाले एसएपी की दरें एफ़आरपी दरों से अक्सर 10-15 प्रतिशत अधिक होती हैं। 

महाराष्ट्र के शक्कर आयुक्त शेखर गायकवाड का मानना है कि इथेनॉल मिश्रण की योजना से किसानों को आने वाले दिनों में मुनाफा राजस्व साझोदारी फॉर्मूला (आरएसपी) के अंतर्गत कारखाने दे सकते हैं। इस फॉर्मुले के अंतर्गत कारखानों को अधिक फायदा होने पर उन्हें यह राजस्व किसानों में बांटना होगा। आरएसएफ़ की सिफ़ारिश भारत सरकार द्वारा गठित रंगारंजन कमेटी की 2013 की रिपोर्ट में की गई थी जिसे चीनी क्षेत्र के संचालन का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था। 

गायकवाड़ ने यह भी कहा कि अभी महाराष्ट्र में एक भी चीनी के कारखाने इस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं जहां अतिरिक्त फायदा होना संभव हो और यह तब ही संभव है जब चीनी का बाज़ार में विक्रय दर 370 रुपये प्रति क्विंटल तक हो। विक्रय दर वह दर है जिसपर कारखाने चीनी को बाज़ार में बेचती हैं जो किसानो को मिलने वाले गन्ने के एफ़आरपी से कम होता है। 

हालांकि महराष्ट्र के किसानों के लिए एफ़आरपी के दरें एक अहम मुद्दा है, लेकिन चीनी के कारखानों से गन्ने के किसानों को अपनी जीविका के लिए एक परस्पर संबंध बना रहता है। महाराष्ट्र में बहुत से ऐसे कारखाने सहकारी है। 

अनिल भोसले सतारा जिले के खोदसी गांव में रहने वाले एक गन्ना किसान है। यह बताते हैं  कि दूसरे फसलों की तुलना में गन्ना इकलौता ऐसा फसल है जिसपर एक दर तय है जो किसानों को मिलता है। यह कारखाने किसानों के उत्पाद के यातायात और कटाई में भी सहयोग देते आए हैं। इसलिए बहुत से किसान गन्ने की खेती करते हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहते। “अभी हाल के कटाई के समय मेरे पास वाले कारखाने ने गन्ने की कटाई के लिए 5 मजदूर भेजे। मेरे उत्पाद के लिए मुझे परेशान होने के जरूरत नहीं है, उसका भी भोज यह कारखानें खुद उठाते है,” भोसले ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

सतारा जिले के कलावाडे गांव के एक खेत से गन्ने की कटाई करते मजदूर। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे
सतारा जिले के कलावाडे गांव के एक खेत से गन्ने की कटाई करते मजदूर। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में पिछले तीन सालों में गन्ने के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। 2020-21 में इस राज्य में 10,14,94,920 टन गन्ने का उत्पादन हुआ जबकि 113.30 टन चीनी का निर्यात केवल महाराष्ट्र से हुआ है जो दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा रहा। भारतीय चीनी कारख़ाना संगठन (आईएसएमए) के आंकड़े कहते हैं कि 2021-22 में भारत से कुल चीनी निर्यात में महाराष्ट्र के योगदान 61 प्रतिशत रहा। 

इथेनॉल के मद्देनजर चीनी कारखानों की बदलती भूमिका 

भारत सरकार ने 2013 में इथेनॉल मिश्रण की योजना बनाई थी लेकिन यह बड़े पैमाने पर कारगर सिद्ध नहीं हो पाया। 2019 में केंद्र सरकार ने नवम्बर 2022 तक पूरे देश में पेट्रोल में 10 प्रतिशत इथेनॉल मिलने का लक्ष्य रखा। यह लक्ष्य समय से पहले ही पूरा कर लिया गया। 2018 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति भी प्रकाशित की जिसमें इथेनॉल बनाने के लिए दूसरे अन्य साधन जैसे गन्ने का रस, मक्का, टूटी हुई चावल, गेहूं आदि के प्रयोग को भी इजाजत दी गई। अभी के समय में भारत में इथेनॉल का मुख्य स्रोत गन्ना है। अब भारत सरकार ने 2025 तक पेट्रोल में 20 प्रतिशत तक इथेनॉल मिश्रण का नया लक्ष्य भी रखा है। 

पुणे में शक्कर आयुक्त के कार्यालय का कहना है की महाराष्ट्र में अभी चीनी के लगभग 200 कारखाने हैं जिसमें से 76 ऐसे कारखानें है जिनके पास गन्ने से इथेनॉल बनाने के खुद की मशीने हैं। जबकि 46 ऐसे स्वतंत्र इथेनॉल बनाने के कारखाने भी हैं जो इन चीनी के कारखानों से गन्ने या खांड लेके अपने प्लांट में इथेनॉल बनाते है। लेकिन इथेनॉल के बढ़ते मांग के मद्देनजर इन चीनी के कारखानों के डांचे में एक बदलाव धीरे धीरे आता दिख रहा है। 

शक्कर आयुक्त गायकवाड़ ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “अभी के समय में यह चीनी के कारखानें गन्ने का 80 प्रतिशत प्रयोग चीनी बनाने में करते है जबकि 20 प्रतिशत भाग  इथेनॉल के उत्पादन में जाता है। विश्व में ब्राज़ील जैसे देश है जहां ज़्यादातर गन्ने का प्रयोग  इथेनॉल बनाने में प्रयोग होता है। धीरे धीरे महाराष्ट्र के चीनी के कारखानों में भी यह संरचना बदल सकता है,” 


और पढ़ेंः 20% इथेनॉल मिश्रण का लक्ष्य खेतों और भूजल के लिए बन सकता है संकट


उन्होंने बताया, “अभी जितने भी चीनी के कारखाने हैं जिनके पास इथेनॉल बनाने के प्लांट नहीं है उन सभी ने केंद्र सरकार से इसके लिए आवेदन किया है। अब आने वाले दिनों में गन्ने से इथेनॉल बनाने का अनुपात बदलने वाले है। आने वाले दिनों में कारखाने यह तय करेंगे की गन्ने का कितना प्रतिशत भाग वो इथेनॉल बनाने में लगाना चाहते हैं। मेरे अनुमान से अगले कुछ वर्षों तक प्रति वर्ष 5-6 प्रतिशत अधिक गन्ने का प्रयोग इथेनॉल के उत्पादन में हो सकता है। अभी के समय में चीनी का महाराष्ट्र में उत्पादन जरूरत से अधिक है,”

महाराष्ट्र इस समयभारत में इथेनॉल के उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा राज्य है जिसके पास 247.2 करोड़ लीटर प्रति वर्ष तक की क्षमता है। शक्कर आयुक्त शेखर गायकवाड़ के अनुसार 2021-22 में महाराष्ट्र में 118 करोड़ लीटर इथेनॉल का उत्पादन किया गया जबकि अगले साल तक यह 140 करोड़ लीटर तक पहुँच सकता है। महाराष्ट्र अभी के समय में देश के 30 प्रतिशत इथेनॉल की मांग को पूरा करता है। 

चुनौतियां और समाधान 

गन्ना महाराष्ट्र में 36 जिलों में से 26 जिलों में किया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार गन्ने की खेती राज्य में केवल 6 प्रतिशत भाग में होती है लेकिन इसमें सिंचाई का 70 प्रतिशत पानी लग जाता है। एक दूसरे अध्ययन के अनुसार गन्ने की खेती महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश की तुलना में लगभग दुगनी है क्योंकि यहा ज्यादा अवधि तक गन्ने खेतों में उगाये जाते हैं। इसके कारण यहां खाद, मजदूरी, पानी और मशीनों की जरूरत ज्यादा होती है।

विशेषज्ञों का मानना हैं कि इथेनॉल की अधिक मांग के कारण गन्ने की खेती का विस्तार लाज़मी है। इस वजह से वातावरण और दूसरी फसलों पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। 

के.जे.जॉय, सोसाइटी फॉर प्रमोटिंगपार्टिसिपेटिव इकोसिस्टम मैनेजमेंट में काम करने वाले एक वरिष्ठ फेलो है। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “गन्ना एक ऐसा फसल है जो पानी की भारी खपत करता है। अगर ज्यादा से ज्यादा गन्ने की खेती का विस्तार होता है तो इसका सिंचाई के पानी पर बोझ बढ़ सकता है जो स्थानीय भूजल को प्रभावित कर सकता है। चूंकि यह अत्याधिक पानी की खपत वाला फसल है, इसके खेती से कई इलाकों में खेतो में नमक की मात्रा बढ़ी है जो जमीन की उर्वरता को प्रभावित कर सकता है और उन जगहों पर दूसरे फसलों के उगाने में समस्या पैदा कर सकता है। इसके अलावा ऐसे जमीन पर धीरे धीरे गन्ने का उत्पादन भी कम हो सकता है,” 

जॉय का कहना है कि सरकार को गन्ने की खेती कितने भूभाग में करनी है उसकी एक सीमा तय होनी चाहिए ताकि दूसरे फसलों को भी बोया जा सके और सिर्फ एक तरह की फसल का ही विस्तार प्रदेश में न हो ताकि प्रदेश के जमीन और पानी में पर ज्यादा बोझ ना पड़े। 

सतारा के रिठारे में एक चीनी मिल। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे
सतारा के रिठारे में एक चीनी मिल। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे

इथेनॉल के बढ़ते उत्पादन से कार्बन फुटप्रिंट भी बढ़ने के आसार है क्योंकि अधिकतर गन्ने  की सिंचाई कोयले से चलने वाले बिजली से होती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे की एक अध्ययन कहती है कि एक किलो गन्ने के खेती में समान्यतः 0.11 किलो कार्बन डाइ-ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जबकि एक किलो गन्ने के खेती के उत्पादन में 285 लीटर पानी का प्रयोग भी होता है। यह रिपोर्ट कहती हैं कि अगर ज्यादा नवीन ऊर्जा का प्रयोग, पानी का समुचित प्रयोग करने वाले सिंचाई प्रणाली और उच्च उत्पाद वाले बीज के प्रयोग किया जाये तो गन्ने के खेती करने पर इसकी खेती पर आने वाले पानी, ऊर्जा ओर कार्बन के बोझ को लगभग आधा किया जा सकता है। 

महाराष्ट्र में बहुत से किसान अभी सिंचाई के पम्प को सौर ऊर्जा से भी चला रहे हैं लेकिन उनकी संख्या अभी बहुत कम है। प्रकाश थोरत कराड में गन्ने के खेती करते हैं और खेतों में सिंचाई के लिए सौर ऊर्जा का प्रयोग भी करते है। “मैं इस इलाके में उन चुनिन्दा किसानों में से हूँ जिसने सौर ऊर्जा का सिंचाई में प्रयोग करना शुरू किया। मैं अपने सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्प का प्रयोग अपने खेतों में सिंचाई के लिए करता हूँ। मैंने कोयले को जला कर बनने वाले बिजली से छुटकारा पा लिया है,” थोरत ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

“मैंने इस सौर पम्प को मुख्यमंत्री सौर कृषि पम्प योजना के तहत लगाया था जहां मुझे केवल 16,500 रुपये का भुगतान करना पड़ा। मैं गन्ने के खेती अपने दो एकड़ के जमीन पर करता हूँ,” थोरत ने कहा। उनका कहना हैं कि नवीन ऊर्जा पर ज्यादा जागरूकता आने से आने वाले दिनों में ज्यादा से ज्यादा किसान इस ओर मुड़सकते हैं।

 

(यह रिपोर्ट इंटर न्यूज़ अर्थ जर्नलिज़्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार की गई है।)

 

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बैनर तस्वीरः महाराष्ट्र के बारामती में गन्ने की फसल में पानी लगाता एक किसान। इस फसल की सिंचाई के लिए बिजली की जरूरत होती है जिसकी वजह से इथेनॉल उत्पादन में वृद्धि से कार्बन फुटप्रिंट भी बढ़ेगा। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे  

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