- ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में पर्वतीय हिममंडल से पर्माफ्रॉस्ट (हिमखंडों) का पिघलाना घाटी में अपूरणीय क्षति का कारण बन रहा है।
- एक अनुमान के मुताबिक, वर्तमान में पर्माफ्रॉस्ट करीब 1600 बिलियन टन कार्बन का भंडार है, जो कि दुनिया की मिट्टी के भंडार से अधिक है। इसे पृथ्वी पर सबसे बड़ा स्थलीय कार्बन सिंक माना जाता है।
- वैज्ञानिकों को डर है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की आईपीसीसी की सिफारिश हिमखंडों को पिघलने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है।
अप्रैल 2022 के अंत तक नेपाल के एवरेस्ट क्षेत्र में समुद्र तल से 3555 मीटर की ऊँचाई पर बेस शहर – नामचे बाज़ार – में जीवन और व्यवसाय पहले जैसा नहीं रहा। कोविड-19 के प्रकोप ने एवरेस्ट के साउथ बेस कैंप के रास्ते में पड़ने वाले इस चहल-पहल भरे बाजार में लोगों की संख्या को काफी काम कर दिया।
हालांकि पिछले दो साल महामारी की वजह से बदतर रहे लेकिन नामचे बाजार के निवासियों के लिए इस तरह के झटके कोई नई बात नहीं है। सोलुखुम्बु जिले के सोलू क्षेत्र में एक छोटा नेपाली और चीनी भोजनालय चलाने वाली दिलकुमारी राय ने बताया, “व्यापार में अब कोई फ़ायदा नहीं है। महामारी ने लगातार बदलते मौसम के प्रभावों में इजाफा किया है जिससे स्थानीय समुदायों के लोग चिंतित हैं। हिमस्खलन, भूस्खलन और बेमौसम बारिश लगातार भयानक होती जा रही है।”
स्थानीय लोग हल्के भूरे रंग के पहाड़ों को दिखाते हैं। ‘सागरमाथा प्रदूषण नियंत्रण समिति’, एक गैर-लाभकारी संस्था जो एवरेस्ट क्षेत्र में कचरे का प्रबंधन करती है, के प्रोग्राम ऑफिसर कपिंद्र राय ने बताया, “ये पहाड़ इस समय बर्फ से सफेद हुआ करते थे, लेकिन फिलहाल उनपर केवल बर्फ की कुछ ही धारियाँ हैं। पिछले वर्ष सर्दियों में अस्वाभाविक रूप से भारी हिमपात हुआ था। गर्मी के मौसम में अब बहुत गर्मी होती है।”
हिमालय क्षेत्र में गर्म सर्दियाँ, गर्मियां, भूस्खलन, हिमस्खलन और ग्लैसिअल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) यानिकि ग्लेसिअर से आने वाली बाढ़ के जरिए तेजी से ग्लोबल वार्मिंग की अनियमितताओं को देखा जा सकता है। सबसे कम अनियमितता बारिश बर्फबारी, या सर्दियों में गर्मीं आदि के रूप में होती है, लेकिन घाटी के निवासी किसी भी प्रकार की अनियमितता से डरते हैं।
वर्ष 2013 में हिमालय के भारतीय हिस्से में विनाशकारी केदारनाथ की बाढ़ देखी गई, इसके बाद 2014 और 2015 में माउंट एवरेस्ट पर एक के बाद एक हिमस्खलन हुआ। साल 2021 में, उत्तराखंड के जिले चमोली में अचानक आई बाढ़ में 72 लोग मारे गए और 200 से अधिक लापता हो गए। उसी वर्ष नेपाल के सिंधुपाल चौक जिले में मेल्मची नदी में बाढ़ की तेज धार ने 20 से अधिक लोगों की जान ले ली। सौ से अधिक घर बह गए और 400 घर विस्थापित हो गए। छह हाईवे ब्रिज और 12 सस्पेंशन फुटब्रिज बह गए।
चमोली और मेलम्ची जैसी आपदाएं प्रमुख खतरे हैं, प्राथमिक तौर पर भारी वर्षा, भूकंप या अप्रत्याशित रूप से बर्फ पिघलने जैसी घटनाओं के परिणाम ही खतरों का कारण बनते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि एशिया के ऊँचे पर्वत इन व्यापक खतरों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। वे अब चमोली और मेलम्ची जैसी आपदाओं के प्रति सतर्क रहने के लिए ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव में पर्माफ्रॉस्ट और इसके धीमी गति से पिघलने की भूमिका को देख रहे हैं।
पर्माफ्रॉस्ट स्थायी रूप से जमी हुई ऐसी जमीन (बर्फ और कार्बनिक पदार्थ समेत मिट्टी या चट्टान) के रूप में परिभाषित किया जाता है जो लगातार कम से कम दो वर्षों तक शून्य डिग्री सेल्सियस या उससे नीचे रहता है।
हिमालय में पर्माफ्रॉस्ट समुद्र तल से 4,000 मीटर की ऊंचाई पर हैं, और गर्म स्थानों में यह समुद्र तल से 6,000 मीटर की ऊंचाई पर होता है। नेपाल में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के पर्माफ्रॉस्ट रिसर्च कंसल्टेंट प्रशांत बराल ने कहा, “भारत में चमोली और 2021 के नेपाल में मेलम्ची जैसी भीषण आपदाएं संभावित रूप से पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से हो सकती हैं।”
पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट (हिमखंड) का अध्ययन करने वाले एक शोधकर्ता जॉन मोहम्मद वानी ने कहा कि चमोली आपदा की प्रारंभिक जांच में इस क्षेत्र में 2012 और 2016 के बीच तापमान में वृद्धि देखी गई, जो चार वर्षों में 40 मीटर नीचे की जमीन के बराबर गर्म हो गई।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जे.एन.यु.) के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंटल साइंसेज के वानी ने कहा, “इस क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट (हिमखंड) पिघलने की अधिक संभावना है, जिसके कारण वर्षा में वृद्धि जैसी अन्य घटनाएं हुईं। चमोली आपदा स्थानीय भूविज्ञान, बर्फ, ग्लेशियर, पर्माफ्रॉस्ट प्रक्रियाओं और स्थानीय जलवायु के हालिया वार्मिंग से जुड़ी जटिल प्रक्रियाओं का एक मिलाजुला असर है।”
हिमखंडों के पिघलने के कारण भूस्खलन का अप्रत्याशित रूप से वनस्पतियों में और पानी की गुणवत्ता में बदलाव जैसे अन्य प्रभाव होते हैं।
हिमखंड, पृथ्वी की मिट्टी से बड़ा कार्बन सिंक
पर्माफ्रॉस्ट मौसमी रूप से जमी हुई और पिघलती हुई जमीन की एक परत से ढका होता है जिसे ‘सक्रिय परत’ के रूप में जाना जाता है। सक्रिय परत के नीचे, पर्माफ्रॉस्ट तीन फीट से लेकर 4,900 फीट तक मोटा हो सकता है। यह ऐसे पौधों और जानवरों के कार्बन-आधारित अवशेषों को संग्रहीत करता है, जो सड़ने से पहले ही जम जाते हैं। उदाहरण के लिए, नेचर की रिपोर्ट थिक डिपॉजिट्स ऑफ़ पर्माफ्रॉस्ट फ्रॉम द लास्ट आइस एज के अनुसार, साइबेरिया, कनाडा और अलास्का के दस लाख वर्ग किलोमीटर में येडोमा हैं।
येडोमा में 130 बिलियन टन आर्गेनिक कार्बन होता है, जो वैश्विक मानव ग्रीनहाउस-के एक दशक से अधिक गैस उत्सर्जन के बराबर है। इसमें 90% बर्फ होने के कारण गर्म वाली स्थिति से बेहद कमजोर हो सकते हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया के पर्माफ्रॉस्ट में 1,600 बिलियन टन कार्बन है, जो वर्तमान में वातावरण में मौजूद कार्बन की मात्रा से लगभग दोगुना है। ऐसा माना जाता है कि समुद्रों और मिट्टी में धरती के बड़े कार्बन भंडार हैं। इसमें 40,000 बिलियन टन और 1500 बिलियन टन कार्बन का भंडारण है। इसके बाद वनस्पतियों में 650 बिलियन टन कार्बन जमा है। इस प्रकार पर्माफ्रॉस्ट पृथ्वी पर सबसे बड़े स्थलीय कार्बन सिंक में से एक है। इसलिए, इसका पिघलना दुनिया में किसी भी अन्य उत्सर्जन की तुलना में अधिक ताप का कार्बन उत्सर्जित कर सकता है।
साइबेरिया में 2020 के दौरान एक हीटवेव के बाद, जलवायु वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि गर्म तापमान कार्बन की तुलना में अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस, मीथेन की एक बड़ी मात्रा को छोड़ रहा है।
आईसीआईएमओडी, एकीकृत पर्वतीय विकास के लिए अंतरार्ष्ट्रीय केंद्र (ICIMOD) ने 2019 में अपनी हिंदकुश हिमालय की आकलन रिपोर्ट में कहा कि भले ही जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की सिफारिश के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखा गया है, लेकिन हिंदकुश हिमालय (HKH) क्षेत्र में वार्मिंग कम से कम 0.3 डिग्री सेल्सियस अधिक होगी। इसका मतलब यह है कि दुनिया के बाकी हिस्सों में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान का मतलब पूरे क्षेत्र में तापमान में अनुमानित 1.8 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ों में 2.2 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी है। रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले पांच से छह दशकों में गर्मी बढ़ने की घटनाएं बढ़ रही हैं, जबकि इस क्षेत्र में ठंडी बढ़ने की घटनाओं में कमी आई है।
एचकेएच में पर्माफ्रॉस्ट और ग्लेशियर। इस मानचित्र में (ऊपर) पर्माफ्रॉस्ट प्रोबिबिलिटी मैप (ओबू और अन्य, 2019) का उपयोग पर्माफ्रॉस्ट को दिखाने के लिए किया जाता है और रैंडोल्फ़ ग्लेशियर इन्वेंटरी 6.0 (आरजीआई, 2017) का उपयोग ग्लेशियर को दिखाने के लिए किया जाता है। ग्राफ (नीचे) हिंदकुश में विभिन्न ऊंचाई श्रेणियों में पर्माफ्रॉस्ट और ग्लेशियर के प्रतिशत-वार वितरण को दर्शाया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है, “ठंडी रातों की संख्या प्रति दशक एक रात कम हो गई और ठंडे दिनों की संख्या 0.5 दिन प्रति दशक कम हो गई, जबकि गर्म रातों की संख्या में प्रति दशक 1.7 रातों की वृद्धि हुई और गर्म दिनों की संख्या में प्रति दशक 1.2 दिन की वृद्धि हुई।”
“पर्माफ्रॉस्ट पर ग्लोबल वार्मिंग का सीधा असर पड़ता है, यहाँ तक कि सबसे हल्का बदलाव भी मायने रखता है।” जेनेवा विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक साइमन कीथ एलन ने 2015 में भारतीय हिमालय में पर्माफ्रॉस्ट का अध्ययन किया था। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “यह सतह के नीचे विशाल गहराई तक फैला हुआ है। इसका मतलब यह है कि सतह के पास ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पर्माफ्रॉस्ट बहुत तेज़ी से पिघल रहा है। उदाहरण के तौर पर यही कारण है कि तेज गर्मी के दौरान हम अचानक छोटी चट्टानों को गिरते देख सकते हैं। हालाँकि, जमीन में गहरे पर्माफ्रॉस्ट पर ग्लोबल वार्मिंग का धीरे और अधिक समय (यहाँ तक कि सैकड़ों वर्ष) पर असर होता है।”
उन्होंने कहा, “इसलिए, भले ही हम ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित कर दें, पहाड़ गहरे अंदर से कई सौ वर्षों तक पिघलते रहेंगे। इतने बड़े चट्टानी हिमस्खलन (जैसे चमोली में हुआ) संभावित रूप से पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से हुआ। यह एक दीर्घकालिक समस्या है। इस पर हिमालय में बुनियादी ढांचे की जोखिम का मूल्यांकन करने की रणनीतियों के तहत विचार करने की आवश्यकता है।”
जीवन, आजीविका और आर्थिक नुकसान
पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से हिमालयी क्षेत्र में भारी आर्थिक नुकसान हो सकता है। क्योंकि दक्षिण एशिया में कई नदियों के स्रोत पर क्रायोस्फीयर (हिममंडल) है और लोगों की पानी की जरूरतों का ध्यान रखने के अलावा सिंचाई और मत्स्य पालन से लेकर जल विद्युत तक कई तरह की गतिविधियों को प्रभावित करता है।
प्रशांत बराल ने कहा कि पर्माफ्रॉस्ट डिग्रेडेशन क्षेत्रीय और महाद्वीपीय हाइड्रोलॉजिकल सिस्टम में पर्याप्त बदलाव का कारण है। उन्होंने कहा, “तिब्बती पठार इस बात के प्रमाण हैं कि पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के कारण आर्द्रभूमि, तालाबों, भूजल भंडारण और वनस्पति में परिवर्तन हुआ।”
यह भूस्खलन वाली ढलानों को अस्थिर करता है। जॉन मोहम्मद वानी ने कहा, “लद्दाख क्षेत्र में खारदुंगला दर्रा और चांगला दर्रा जैसी हमारी कुछ सड़कें ऊंचाई वाले पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं। मैं कह सकता हूं कि इस क्षेत्र में, सड़क के नीचे की जमीन में पर्माफ्रॉस्ट की गिरावट इन सड़कों को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण इंजीनियरिंग चुनौती है।”
पर्माफ्रॉस्ट पिघलना जीएलओएफ (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) का कारण बन सकता है, जैसा कि सितंबर 2014 में लद्दाख के गया में हुआ था। क्योंकि इनमें से अधिकांश झीलें ऊंचाई पर हैं जहां पर्माफ्रॉस्ट मौजूद हो सकता है। बराल ने कहा, पाकिस्तान में, वार्मिंग पर्माफ्रॉस्ट वाले क्षेत्रों में स्थित रॉक ग्लेशियरों के अस्थिर होने के कारण पर्वतीय नदियां रुकती हैं या मुडती हैं जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ आती है।
इसके अलावा उन्होंने बताया, “अध्ययन से पता चलता है कि अगर वैश्विक औसत वार्षिक तापमान आज की तुलना में 1.9-3.6 डिग्री सेल्सियस गर्म है, तो लगभग 60% अल्पाइन पर्माफ्रॉस्ट पिघल सकता है, जिससे वातावरण में लगभग 85 पेटाग्राम पिघले हुए कार्बन निकल सकते हैं। यह चीन में यांग्त्ज़ी नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध माने जाने वाले थ्री गोरजेस डैम के पानी से दो गुना अधिक है।”
जैसा कि कुछ अध्ययनों से पता चलता है, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है, क्या आईपीसीसी की ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की सिफारिश पर्याप्त है?
साल 2021 के एक शोध-पत्र से पता चलता है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी उत्तरी गोलार्ध के लगभग 18% पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र (भारत के समान आकार का क्षेत्र) को प्रभावित करेगा। इससे 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग 2-3 डिग्री सेल्सियस तक हो जाएगी।
आईपीसीसी के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का मानव व्यवहार में होने वाले असर को देखते हुए आरसीपी भविष्य में जलवायु परिवर्तन का आकलन करता है। शोध-पत्र में कहा गया है कि यदि हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (आरसीपी 8.5) में कटौती के लिए ठोस प्रयास नहीं करते हैं तो उत्तरी गोलार्ध के पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र का अतिरिक्त क्षरण 1.5 डिग्री सेल्सियस के ग्लोबल वार्मिंग के तहत होने की संभावना है।
बराल ने कहा, “इस सबूत के आधार पर यह संभावना नहीं है कि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की आईपीसीसी की सिफारिश पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्रों को बरकरार रखने के लिए पर्याप्त होगी।”
पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से बचाने का उपाय जानना आवश्यक है
हालाँकि पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का प्राथमिक कारण ग्लोबल वार्मिंग है, लेकिन वनस्पति, वर्षा और मिट्टी की नमी में बदलाव, और पर्यावरणीय गड़बड़ी (जैसे जंगल की आग, बुनियादी ढांचे के निर्माण, खेती, आदि जैसी मानवीय गतिविधियाँ) और मिट्टी में थर्मल गुणों के आने के पीछे कार्बनिक परत की मोटाई एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
चूंकि घटनाओं के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, इसलिए सबसे पहले इन्हें समझना जरुरी है। वानी ने कहा, “भारतीय हिमालयी क्षेत्र के क्रायोस्फेरिक सिस्टम अध्ययनों में पर्माफ्रॉस्ट की विशेषताएँ और इसके फैलाव के बारे में जानकारी के बीच अंतर है। इस क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट की इंजीनियरिंग चुनौतियों के बारे में कोई जानकारी या साहित्य नहीं है। इसके अलावा एक विस्तृत पर्माफ्रॉस्ट वितरण मानचित्र और इसकी विशेषताएं इस क्षेत्र से गायब हैं।”
उन्होंने प्रारंभिक पहल के रूप में पर्माफ्रॉस्ट की दीर्घकालिक निगरानी और पर्माफ्रॉस्ट मॉनिटरिंग नेटवर्क (PERMOS) जैसे एकीकृत डेटाबेस की स्थापना का सुझाव दिया।
बराल ने सुझाव दिया कि भू-भौतिकीय जांच और अध्ययन के अलावा, जोखिम वाले क्षेत्रों में मानव बस्तियों और बुनियादी ढांचे की शीघ्र पहचान करना आवश्यक है। उन्होंने कहा, “यदि संभव हो तो इन बस्तियों और बुनियादी ढांचे को सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित करना चाहिए।”
चिंता का एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्रों में बांध हैं। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की स्थिति में इनके क्षतिग्रस्त होने का खतरा है, जिसका इस क्षेत्र पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।
यदि पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना तेज हो जाता है तो इन क्षेत्रों में बांधों और जलविद्युत स्टेशनों के क्षतिग्रस्त होने का खतरा है। एलन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि बांध संरचनाएं पानी को रोकती हैं लेकिन बांध इसके पिघलने और नुकसान के कारण गिर सकते हैं।
उन्होंने कहा, “हमें जलविद्युत के लिए बांधों की आवश्यकता है लेकिन आगे आपदाओं से बचने के लिए व्यापक जोखिम आकलन, शमन रणनीतियों और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों पर अधिक ध्यान दिया जा सकता है।”
हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं से जुड़े देशों की राष्ट्रीय नीतियों को विभिन्न माध्यमों से जीएचजी उत्सर्जन को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जैसे कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सीमित करना, वन आवरण बढ़ाना, हरित प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करना और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का विकास करना।
वानी ने कहा, “इन देशों को वैश्विक मंचों (जैसे COP27) पर साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए एक साथ आने और एक साथ एक मजबूत पहल करने की आवश्यकता है। ताकि विश्व स्तर पर सभी देश इसका उपाय और हल निकालें। पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना इस क्षेत्र के लोगों के जीवन का हकीकत है, जो पहले से ही दिखाई दे रहा है। यदि दस्तावेज़ीकरण और संचार नहीं होगा तो कोई भी इस पर प्रतिक्रिया नहीं देगा।”
यह लेख वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ साइंस जर्नलिस्ट्स के स्पार्क ग्रांट इनिशिएटिव द्वारा फंडेड हिमालयन क्लाइमेट बूटकैंप के 2022 संस्करण के हिस्से के रूप में लिखा गया था।
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बैनर तस्वीर: पैंगोंग हिमनद झील, लद्दाख। पर्माफ्रॉस्ट डिग्रेडेशन हाइड्रोलॉजिकल सिस्टम में पर्याप्त बदलाव के लिए जिम्मेदार है। तस्वीर– वजाहत इकबाल/विकिमीडिया कॉमन्स।