- भारत ने ताजे पानी के कछुओं की दो प्रजातियों को संरक्षित रखने का जो प्रस्ताव CITES कॉन्फ्रेंस में रखा था उसे स्वीकार कर लिया गया है।
- रेड क्राउन रूफ्ड कछुए और लीथ सॉफ्टशेल कछुए काफी अहम माने जाते हैं। ये कछुए समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के प्राकृतिक सफाईकर्मी भी कहे जाते हैं। ये समुद्र में जलीय पौधों के बीज फैलाते हैं और कार्बनिक पदार्थों की रीसाइकलिंग करते हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि अवैध तस्करी तेजी से बढ़ रही है, ऐसे में कछुओं की इन दो प्रजातियों को बचाने के लिए तस्करी पर लगाम लगाना जरूरी है।
भारत ने विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके ताजे पाने के कछुओं की अपनी दो प्रजातियों के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है। हालांकि, इस नीति को कार्रवाई में बदलने के लिए अभी लंबा काम बाकी है ताकि पारिस्थितिकी तंत्र के इन अहम सदस्यों को खत्म होने से बचाया जा सके।
हाल ही में पनामा सिटी में वन्य जीवों और पशुओं के बारे में कॉन्फेरेंस ऑफ पार्टीज (CoP19) कन्वेशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इन्डेन्जर्ड स्पिशीज (CITES) का 19वां सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में भारत ने लीथ सॉफ्टशेल कछुए (Nilssonia Leithi) के व्यापार को विनियमित करने का प्रस्ताव रखा। साथ ही, यह भी कहा कि इसको सबसे ऊंची श्रेणी- “विलुप्त होने का खतरा और व्यापार को विनियमित करने की ज़रूरत” में रखा जाए। भारत का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है।
सीआईटीईएस एक वैश्विक समझौता है जो वन्य जीवों और पौधों की लगभग 40,000 प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार को विनियमित करता है। इसमें लकड़ी और समुद्री जीवों की प्रजातियां भी शामिल हैं और इन्हें CITES के तीसरे परिशिष्ट में रखा गया है। पहले परिशिष्ट में ऐसी प्रजातियों को रखा गया है जो विलुप्त होने की कगार पर हैं और कुछ बेहद खास मामलों में ही उनके व्यापार की अनुमति दी जाती है। उदाहरण के लिए- वैज्ञानिक शोध के लिए। दूसरे परिशिष्ट में ऐसी प्रजातियां हैं जो विलुप्त होने की कगार पर तो नहीं हैं लेकिन उनके व्यापार पर लगाम कसने की जरूरत है, ताकि उनकी प्रजाति पर खतरा न पैदा हो और वे संरक्षित रहें। वहीं, तीसरे परिशिष्ट में ऐसी प्रजातियों को रखा गया है जिन्हें कम से कम एक ऐसे देश के राष्ट्रीय कानून के ज़रिए सरक्षित किया गया हो जिसने CITES देशों से उसके व्यापार पर अंकुश लगाने की मांग की हो।
पनामा सम्मेलन में भारत ने प्रस्ताव रखा कि लीथ सॉफ्टशेल कछुओं (Nilssonia Leithi) को परिशिष्ट दो से हटाकर परिशिष्ट एक में रखा जाए। यह मांग स्वीकार कर ली गई। भारत ने ताजे पानी के रेड-क्राउन्ड रूफ्ड कछुओं (Batagur Kachuga) को भी शामिल करने का प्रस्ताव रखा और सदस्य देशों की ओर से इस प्रस्ताव को भी समर्थन मिला। भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने कहा कि इन प्रस्तावों की जमकर सराहना की गई और इन्हें व्यापक स्तर पर स्वीकार किया गया।
मंत्रालय ने कहा कि CITES ने वयस्क कछुओं और ताजे पानी के कछुओं के संरक्षण, वन्य जीव अपराधों और कछुओं के अवैध व्यापार के खिलाफ भारत के प्रयासों की तारीफ की और उन्हें दर्ज भी किया। साथ ही, CITES के दस्तावेजों में भारत के वाइल्डलाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो की सफलता को खास तौर पर दर्ज किया गया। इस ब्यूरो ने ताजे पानी के कछुओं की तस्करी, उनके शिकार और अवैध व्यापार से जुड़े कई अपराधियों को पकड़ा और बड़ी मात्रा में बरामदगी की।
25 नवंबर, 2022 को खत्म हुए CITES CoP19 सम्मेलन में भारत ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे तमाम कछुए जो ‘अति संकटग्रस्त’, ‘संकटग्रस्त’, ‘संवेदनशील’ या ‘संकट के नजदीक’ श्रेणी में हैं उन्हें पहले ही भारत के वन्य जीव संरक्षण कानून, 1972 के तहत संरक्षित किया गया है। इस कानून को भारत की संसद द्वारा पारित और संशोधित करके इन जीवों को उच्च श्रेणी का संरक्षण दिया गया है। भारत ने CITES से आग्रह किया है कि ऐसी तमाम प्रजाजियों को CITES की परिशिष्ट दो में भी रखा जाए ताकि उनका संरक्षण बढ़ाया जा सके और उनकी अंतरराष्ट्रीय तस्करी पर रोक लगाई जा सके।
भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज में प्रोफेसर और संरक्षण के लिए काम करने वाली गैर-लाभकारी दक्षिण फाउंडेशन के संस्थापक कार्तिक शंकर कहते हैं कि प्रजातियों को सिर्फ़ एक सूची से दूसरी सूची या उन पर खतरे के स्तर को बदलने से कोई गारंटी नहीं है कि उनका संरक्षण हो सकेगा।
भारत में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों का भी यही कहना है कि WLPA में कई बार कुछ प्रजातियों को भारत में उपलब्ध वैज्ञानिक डाटा या अच्छे से तय प्रक्रिया के तहत सूचीबद्ध नहीं किया जाता है। इसका नतीजा होता है कि WLPA की कई अनुसूचियों में पशुओं के अजीबोगरीब गुट बना दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए- भारत के ग्रेट इंडियन बस्टर्ड यानी गोदावन को मोर के साथ रखा गया है जबकि किसान इसे खेती के लिए मुसीबत के तौर पर देखते हैं।
इससे संरक्षण से जुड़े वैज्ञानिकों को भी समस्या होती है। वे संकटग्रस्त प्रजातियों के प्राकृतिक आवास को नहीं खोज पाते ताकि उन पर शोध करके उनके संरक्षण के उपाय खोजे जा सकें।
प्राकृतिक सफाईकर्मी, जलवायु परिवर्तन के सूचक
लखनऊ स्थित टर्टल सर्वाइवल अलायंस के निदेशक शैलेंद्र सिंह बताते हैं कि रेड-क्राउन्ड रूफ्ड और लीथ सॉफ्टशेल कछुओं को समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का प्राकृतिक सफाईकर्मी भी कहा जाता है। ये जलीय पौधों के बीजों को फैलाते हैं और कार्बनिक पदार्थों को रीसाइकल करते हैं। शैलेंद्र कहते हैं कि आमतौर पर कछुओं का लिंग वातावरण और उसके विकसित होने के दौरान मौजूद तापमान पर निभर करता है, इस वजह से कछुओं को जलवायु परिवर्तन और किसी जलीय तंत्र की सेहत का सूचक भी माना जाता है।
वह आगे कहते हैं कि 50 साल पहले भारत में गंगा के मैदानों में रेड-क्राउन्ड रूफ्ड कछुआ बहुत आसानी से मिलता था। अब यह सिर्फ़ चंबल नदी तक सीमित हो गया है। शैलेंद्र कहते हैं, “हमें डर है कि अब सिर्फ़ 500 वयस्क कछुए ही बचे हैं और अब हम इस प्रजाति के और कछुओं को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए नहीं खो सकते। इन कछुओं में से नर के रंग बेहद जीवंत होते हैं।”
शैलेंद्र का कहना है कि इसी तरह खाने-पीने और चाइनीज दवाओं के अवैध उत्पादन की वजह से पूरी Nilssonia Genus प्रजाति ही खतरे में है। उनका मानना है, “Leithii प्रजाति दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों की स्थानीय प्रजाति है और कछुओं के कवर यानी बाहरी रिम की खूब अवैध तस्करी होती है। ऐसे में हमें इसकी संरक्षण श्रेणी को बढ़ाना होगा ताकि भविष्य में आने वाले खतरों से इसे बचाया जा सके।”
लीथ सॉफ्टशेल कछुए भी दक्षिण भारत की स्थानीय प्रजाति के हैं। पिछले साल इस प्रजाति के सिर्फ़ 10 कछुए देखे गए, वह भी खासकर महाराष्ट्र में। इस बारे में शैलेंद्र सिंह कहते हैं, “TSA की ओर से कराए जाने वाले सर्वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस प्रजाति के कछुओं को कावेरी नदी से अवैध रूप से पकड़ा जाता है। यह प्रजाति इतनी दुर्लभ है कि कछुओं की खोल की तस्करी में इसका हिस्सा 10 प्रतिशत से भी कम है। बाकी का हिस्सा अन्य प्रजातियों के कछुओं का है।” हालांकि, इन प्रजातियों की खोल के बीच जो अंतर है उसे आसानी से नहीं पहचाना जा सकता है।
बढ़ रही है तस्करी
इन दोनों प्रजातियों को हो रहा नुकसान यह दर्शाता है कि भारत में कछुओं की संख्या कम हो रही है। भारत में कछुओं की 29 प्रजातियों में से 17 ऐसी हैं जो खतरे में हैं। इन पर खतरे का सबसे बड़ा कारण कछुओं का शिकार और उनके प्राकृतिक आवास का खराब होना है।
कुछ नई प्रजातियां जिनकी तस्करी अब तक नहीं होती थी, अब वे भी अवैध व्यापार के बाजार में दिखने लगी हैं। शैलेंद्र सिंह कहते हैं कि अगर कोई प्रजाति अवैध तस्करी के बाजार में नहीं दिख रही तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी मांग नहीं है। उनका कहना है कि इसका मतलब यह हो सकता है कि वह प्रजाति बहुत दुर्लभ हो या वह अत्यधिक संरक्षण में रखी गई हो। इसी तरह, बरामदगी भी दिखाती है कि भारत के प्रशासन और विजिलेंस की क्षमता बढ़ी है और कछुओं के तस्करों को पकड़ा जा रहा है।
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आमतौर पर भारत में ताजे पानी के कछुए तस्करी के लिए पश्चिम बंगाल के रास्ते बांग्लादेश जाते हैं। वहां से इन्हें दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में बेच दिया जाता है। कुछ कछुओं जैसे की फ्लैट शेल और सॉफ्ट शेल कछुओं की खपत पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बांग्लादेश में ही हो जाती है। शैलेंद्र सिंह बताते हैं, “मेरी निजी राय है कि भारत में सोशल मीडिया के उभार के बाद जानवरों, पक्षियों और अन्य जंतुओं का पालने का ट्रेंड तेजी से बढ़ा है।”
रेड-क्राउन्ड रूफ्ड कछुओं के नर और कम उम्र के कछुओं को जिंदा ही खरीदा-बेचा जाता है और उन्हें जिंदा रखकर ही उनकी तस्करी की जाती है। वहीं, लीथ सॉफ्टशेल कछुओं की बाहरी खोल या उनकी सूखी हुई खोल की तस्करी होती है।
शैलेंद्र सिंह कहते हैं कि सर्दियों के समय विजिलेंस बढ़ाने, स्थानीय इन्फोर्समेंट एजेंसियों की क्षमता को अहम इलाकों में बढ़ाने के साथ-साथ एंट्री पॉइंट और बॉर्डर सख्त नियम लागू करके कछुओं के अवैध व्यापार को रोका जा सकता है। उनका यह भी कहना है कि कछुओं के अहम प्राकृतिक निवासों और पेट्रोलिंग एरिया का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए।
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बैनर तस्वीरः उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली चंबल नदी किनारे धूप सेंकता इंडियन टेंट टर्टल कछुआ। तस्वीर– शार्प फोटोग्राफी/विकिमीडिया कॉमन्स