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[वीडियो] मौसम की मार से फसल बर्बाद होने के बावजूद मुआवजे से वंचित भूमिहीन किसान

उत्तर प्रदेश के कई किसानों की भारी बारिश के चलते फसल बर्बाद हो गई, लेकिन खेत पर मालिकाना हक न होने की वजह से फसल के नुकसान के बाद उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

उत्तर प्रदेश के कई किसानों की भारी बारिश के चलते फसल बर्बाद हो गई, लेकिन खेत पर मालिकाना हक न होने की वजह से फसल के नुकसान के बाद उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

  • पिछले कुछ सालों से पूरे भारत में बेमौसम या भारी बारिश लगातार फसलों को नुकसान पहुंचा रही है।
  • आमतौर पर किसानों को उनके नुकसान के लिए कुछ मुआवजा दिया जाता है। लेकिन भूमिहीन किसान और बटाई पर जमीन लेकर काम करने वाले किसान सरकार से मुआवजे के पात्र नहीं होते हैं। सरकार सिर्फ उन्हीं लोगों के नुकसान की भरपाई करती है जिनके पास जमीन का मालिकाना हक होता है।
  • भारत के कई राज्यों में कृषि भूमि को पट्टे पर देना गैर-कानूनी है। ऐसे में साझा लाभों के साथ अनौपचारिक या मौखिक अनुबंधों के जरिए दूसरे व्यक्ति की जमीन पर खेती की जाती है।

उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले के तुरकौली गांव में रहने वाले 64 वर्षीय किसान राम सागर की अक्टूबर 2022 में भारी और बेमौसम बारिश के कारण साढ़े तीन एकड़ धान की फसल बर्बाद हो गई थी। इसी गांव में रहने वाले 42 साल के जाबिर अली का हाल भी कुछ ऐसा ही था। उनके एक एकड़ जमीन पर लगा धान बारिश की वजह से पूरी तरह खराब हो गया। राज्य सरकार के वादे के मुताबिक, सागर को जल्द ही मुआवजा मिल जाएगा, लेकिन दूसरे की जमीन पर खेती करने वाले किसान अली को कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।

तुरकौली से करीब 15 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के इसी जिले के ठेकुआ गांव के छन्नू लाल राजपूत भी अली की तरह परेशान हैं। उन्होंने 2.5 एकड़ जमीन ठेके पर ली थी, लेकिन तेज बारिश से फसल को भारी नुकसान हुआ। कई अन्य बटाईदार किसानों की तरह राजपूत को भी अपने नुकसान के लिए कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।

करीब घुटने भर पानी में खड़े 50 साल के राजपूत ने उस दिन को कोसा जब उन्होंने ठेके पर धान की खेती शुरू की थी। अक्टूबर में भारी बारिश ने उनकी तैयार फसल को चौपट कर दिया। 2022 में ज्यादा बारिश के कारण उनकी गेहूं और मेंथा (पुदीना) की फसल भी खराब हो गई।

उन्होंने कहा, मेरे पास एक इंच ज़मीन भी नहीं है। मुझे खेत के मालिक को उसकी जमीन पर खेती करने के बदले में 12 क्विंटल (1,200 किलोग्राम) धान देना था। यह जमीन मालिक के साथ हुए आपसी बातचीत के जरिए हुए समझौते का हिस्सा है। मैं धान पर अब तक लगभग 30,000 रुपये खर्च कर चुका हूं, पर मुझे नहीं लगता कि मैं इसकी लागत भी वसूल कर पाऊंगा।राजपूत ने जुलाई-अगस्त 2022 में एक साहूकार से 5% ब्याज पर 30,000 रुपये उधार लिए थे। उन्होंने हिसाब लगाया था कि अगर उनके खेत में 50-55 क्विंटल चावल हो गया, तो उनके पास खेत के मालिक को देने के लिए पर्याप्त अनाज होगा और उनकी जरूरतें भी पूरी हो जाएंगी। लेकिन अब राजपूत और उनके जैसे बहुत से लोग गहरे संकट में हैं।

पिछले कुछ सालों से बाढ़, सूखा, भारी और बेमौसम बारिश जैसी मौसमी घटनाओं ने कृषि क्षेत्र को प्रभावित किया है। इससे किसानों को नुकसान झेलना पड़ रहा है।

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उत्तर प्रदेश राहत आयुक्त कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 6 दिसंबर, 2022 को मोंगाबे-इंडिया को बताया था कि इस साल अक्टूबर में भारी बारिश और बाढ़ के कारण 51 जिलों के 11 लाख किसानों की फसलें बर्बाद हो गईं। इससे लगभग 80,000 हेक्टेयर भूमि प्रभावित हुई है। राज्य सरकार ने 42,000 हेक्टेयर प्रभावित भूमि के लिए 200 करोड़ रुपये जारी किए है। बाकी की जमीन पर मुआवजा दिए जाने को लेकर काम चल रहा है।

लेकिन इससे ठेका किसानों को कोई राहत नहीं मिली। सीतापुर जिले में घाघरा नदी के पास के एक गांव में रहने वाले लेखपाल (स्थानीय राजस्व सहायक) नृपेंद्र यादव ने मोंगाबे-इंडिया को बताया “फसल का नुकसान होने पर उन्हीं लोगों को मुआवजा मिलता है, जिनके पास खुद की जमीन होती है। सरकार के पोर्टल पर गाटा संख्या या खसरा संख्या (एक विशिष्ट संख्या, जो गांवो में स्थित जमीन के लिए निर्धारित की जाती है) दर्ज करने पर सिर्फ पंजीकृत नाम को लाभार्थी माना जाता है। बटाई पर खेती करने वाले किसानों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।

मोंगाबे-इंडिया ने उत्तर प्रदेश में राहत आयुक्त कार्यालय से इसकी पुष्टि की। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “हम केंद्र सरकार की आपदा प्रबंधन नीति के दिशा-निर्देशों के तहत काम करते हैं, जिसमें भूमिहीन या काश्तकार किसानों के लिए कोई विस्तृत जानकारी नहीं हैं।”

दस लोगों के अपने परिवार को पालने के लिए गोवर्धन ने खेती करने के लिए पांच एकड़ जमीन बंटाई पर ली हुई है। जलवायु परिवर्तन के चलते पिछले दो-तीन सालों में उन्हें कई बार फसल के नुकसान का सामना करना पड़ा है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला 
दस लोगों के अपने परिवार को पालने के लिए गोवर्धन ने खेती करने के लिए पांच एकड़ जमीन बटाई पर ली हुई है। जलवायु परिवर्तन के चलते पिछले दो-तीन सालों में उन्हें कई बार फसल के नुकसान का सामना करना पड़ा है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

इन दिशानिर्देशों का मतलब है कि राजपूत और अली जैसे कई किसानों को मौसमी घटनाओं की वजह से फसल को हुए नुकसान का मुआवजा नहीं मिलेगा। ये किसान खेती करने के लिए दूसरों की जमीन ठेके पर लेते हैं और बदले में मालिकों को फसल का हिस्सा या एक निश्चित धनराशि देते हैं। दूसरे की जमीन पर खेती करने का फैसला ज्यादातर अनौपचारिक और आपसी बातचीत के अनुबंध के आधार पर होता है। इसे कानूनी रूप से मान्यता नहीं दी जाती है। इस व्यवस्था में सारा जोखिम किसान का होता है।

बटाई पर खेती करने वाले इन किसानों का दर्द सिर्फ मुआवजा ही नहीं है। इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए, काश्तकार किसान न तो प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि से हर साल दिए जाने वाले 6,000 रुपये के हकदार होते हैं और न ही उन्हें किसानों को 4% पर मिलने वाले एग्रीकल्चर लोन (केसीसी) का फायदा मिलता है। वे फसल बीमा योजनाओं के भी पात्र नहीं होते हैं, क्योंकि योजना का उद्देश्य देश में खेती योग्य भूमि रखने वाले सभी भूमिधारी किसानों के परिवारों को सहायता प्रदान करना है।”

आंकड़ों का अभाव

देश भर में ऐसे लाखों किसान हैं. लेकिन सरकार के पास इन भूमिहीन और प्रवासी किसानों पर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है।

भूमिहीन किसानों या सरकारी योजनाओं के साथ ऐसे किसानों को नामांकित करने की योजना के बारे में एक सवाल जवाब देते हुए केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 26 जुलाई, 2022 को संसद में कहा था,”देश में भूमिहीन किसानों और प्रवासी किसानों का कोई विशेष सर्वेक्षण या गणना नहीं की गई है।”

“इसलिए इनकी वास्तविक संख्या उपलब्ध नहीं है। लेकिन कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार देश में पूरी तरह से पट्टे पर दी गई जोत की संख्या 531,285 थी। यानी सिर्फ इन्हीं जोत (खेत) का आधिकारिक तौर पर लिखित अनुबंध किया गया है।” 

भले ही इस तरह के आंकड़ों की कमी हो, लेकिन देश में लीज होल्डिंग्स की हिस्सेदारी बढ़ रही है, इसका संकेत देने वाले कई सर्वेक्षण मौजूद हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) की 2018-19 में सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, देश की कुल 101.98 मिलियन हेक्टेयर परिचालन भूमि जोत (कृषि उत्पादन के लिए भूमि) की 17.3% भूमि पट्टे पर है। यह देश की कुल कृषि योग्य भूमि का 13% है। NSO डेटा के अनुसार, 2002-03 में 9.9% जमीन को पट्टे पर दिया गया था। 2012-13 में यह बढ़कर 13.7% और 2018-19 में 17.3% हो गई।

महाराष्ट्र के सतारा जिले की एक महिला किसान। भारत की खेती का दो-तिहाई क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसलिए कम या ज्यादा बारिश होने की स्थिति में कृषि पर सीधा असर पड़ता है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला 
महाराष्ट्र के सतारा जिले की एक महिला किसान। भारत की खेती का दो-तिहाई क्षेत्र वर्षा आधारित है। इसलिए कम या ज्यादा बारिश होने की स्थिति में कृषि पर सीधा असर पड़ता है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

भारत में भूमि को पट्टे पर देने के दो प्रचलित तरीके हैं, जिसमें कोई परिवार स्थायी या पैतृक कब्जे के किसी अधिकार के बिना किराए पर या मुफ्त में जमीन लेता है। बटाईदारी एक पारंपरिक व्यवस्था है जहां जमीन के मालिक और किसान दोनों की संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी होती है और खेती की लागत व उपज उनके बीच बंट जाती हैं। दूसरी व्यवस्था में, एक काश्तकार किसान दूसरे की जमीन पर खेती करता है, बदले में किराया, फसल की उपज का हिस्सा, या कर का भुगतान करता है।

मौसम की मार किसान बेहाल

खरीफ (मानसून फसल) 2022 सीजन पहला ऐसा सीजन नहीं है जब किसानों की फसल खराब हुई है। साल की शुरुआत में बेमौसम बारिश ने भारत में आलू और सरसों की फसल को भी प्रभावित किया था। मार्च में भी किसानों को राहत नहीं मिली। इस समय देश ने पिछले 122 वर्षों का सबसे गर्म महीना देखा था। लू के थपेड़ों ने गेहूं पर असर डाला और उसका उत्पादन काफी घट गया। 

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के मुदा कला गांव के एक बुजुर्ग किसान गोवर्धन ने बताया, “अगर फसल खराब हो गई, तो हमें कुछ भी (मुआवजा या बीमा) नहीं मिलता है। मेरी तो धान की पूरी फसल बर्बाद हो गई है। 2022 में  भारी बारिश के चलते अपनी मूंगफली और तिल की फसल को भी नहीं बचा पाया था। ज्यादा पानी बरसने की वजह से वो सड़ गई। हमें न तो फसल बीमा मिलता है और न ही मुआवजा।”

गोवर्धन के परिवार में कुल दस लोग हैं। अपने परिवार को पालने के लिए गोवर्धन बटाई पर पांच एकड़ जमीन लेकर खेती करते हैं। प्रतिकूल मौसम के कारण पिछले दो-तीन सालों में उन्हें कई बार फसल के नुकसान का सामना करना पड़ा है। 

भारत की खेती का दो-तिहाई क्षेत्र वर्षा आधारित है। ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि बारिश कम या ज्यादा होने की स्थिति में इसका सीधा असर कृषि पर पड़ता है।

उत्तर प्रदेश धान उत्पादन में दूसरा सबसे बड़ा राज्य है और कुल गेहूं उत्पादन में उसका एक तिहाई हिस्सा है। लेकिन इस बार दोनों ही फसलें मौसमी उतार-चढ़ाव की चपेट में आ गई। 2022 में धान की बुआई के दौरान जरूरत के मुताबिक बारिश नहीं हुई। वहीं जब फसल पकने के लिए तैयार खड़ी थी तो सितंबर-अक्टूबर की बारिश ने उसे बर्बाद कर दिया।

क्लाइमेट ट्रांसपेरेंसी की जलवायु परिवर्तन पर 2022 की रिपोर्ट में बढ़ते नुकसान पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच भारत में बाढ़, सूखा, चक्रवात, बेमौसम बारिश और भूस्खलन जैसी चरम मौसम की घटनाओं के कारण 36 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फसलों को नुकसान पहुंचा था। देश में इसकी कीमत 3.75 बिलियन डॉलर आकी गई थी।

2019 में, जलवायु परिवर्तन और भूमि पर आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट के अनुसार, 1.5 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग की सूरत में भारत का धान, गेहूं, दालों और मोटे अनाज का उत्पादन 2050 तक लगभग 9 प्रतिशत तक गिर सकता है।

सस्टेनेबल खेती को बढ़ावा देने वाले हैदराबाद के किसान संगठन रायथु स्वराज्य वेदिका (आरएसवी) के सह-संस्थापक किरण कुमार विस्सा कहते हैं कि मुसीबतों का सामना कर रहे किसानों को बचाने की जरूरत है। “खेती एक प्राकृतिक घटना है, जो पूरी तरह से मौसम पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा परेशान बटाईदार किसान हैं क्योंकि उन्हें कहीं से भी सहयोग नहीं मिल पाता है। अगर बटाईदारों को सपोर्ट सिस्टम नहीं मिला तो देश में कृषि बर्बाद हो जाएगी, कंपनियों के हाथ में चली जाएगी और जलवायु से निपटने के अभियान को भी नुकसान पंहुचेगा।

2016-2021 के बीच, भारत में बाढ़, सूखा, चक्रवात, बेमौसम बारिश और भूस्खलन जैसी चरम मौसम की घटनाओं के कारण 36 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र की फसल बर्बाद हो गई। तस्वीर- अरविंद शुक्ला 
2016-2021 के बीच, भारत में बाढ़, सूखा, चक्रवात, बेमौसम बारिश और भूस्खलन जैसी चरम मौसम की घटनाओं के कारण 36 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र की फसल बर्बाद हो गई। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण नीति विशेषज्ञ अरविंद कुमार सिंह ने कहा कि गंगा और यमुना जैसी उत्तरी भारतीय नदियों के मैदानी इलाकों को देखने पर आप जान पाएंगे कि “शिक्षित और कम जमीन रखने वाले परिवारों ने गांवों को छोड़ दिया है।”

सिंह ने कहा, “खेती आम बटाईदारों और काश्तकारों पर निर्भर है। सरकार ने भले ही सूखा और बाढ़ का मुआवजा दिया हो, लेकिन वे इसका लाभ नहीं उठा पाते हैं। क्योंकि सरकार की तरफ से मिलने वाली मदद सीधे खेत मालिक के बैंक खाते में जाती है। भले ही भूमि धारक किसानों को खेती में नुकसान का सामना करना पड़ रहा हो, फिर भी उनके पास खड़े होने की जगह है क्योंकि वे सरकार की नीतियों के लाभार्थी हैं। लेकिन बटाईदारों के पास वह पहुंच नहीं है।

क्या भारतीय कानून में जमीन को पट्टे पर देने की अनुमति है?

उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में खेती के लिए पट्टे पर जमीन देना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। लेकिन इसमें शारीरिक रूप से अक्षम लोगों, विधवा या तलाकशुदा महिलाओं और सशस्त्र बलों के कर्मियों को छूट दी गई है। केरल में लीज अवैध है, हालांकि कुछ स्वयं सहायता समूहों को बंटाई पर खेती करने की छूट है। लेकिन यह पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा और असम जैसे राज्यों में अवैध नहीं है। आंध्र प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में भी लीज-शेयरिंग के संबंध में सरल कानून हैं।

ऐसे किसानों के कल्याण के लिए, पट्टे पर जमीन लेना और उन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़ना आसान बनाने के लिए सरकार ने कदम उठाए थे। 2015 में योजना आयोग (नीति आयोग) ने कृषि अर्थशास्त्री स्वर्गीय डॉ. टी. हक की अध्यक्षता में कृषि भूमि पट्टे के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। अक्टूबर 2016 में विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट और कृषि भूमि पट्टे पर मॉडल कानून में समिति ने कहा था, “क्योंकि मालिक और बटाईदार या भूमि के पट्टेदार के बीच कोई लिखित समझौता नहीं होता है, इसलिए बटाईदार किसी भी योजना का लाभ लेने में असमर्थ होते हैं।

समिति ने कहा कि मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट के लागू होने के बाद साझा या पट्टे की जमीन पर खेती करना आसान होगा। इससे कृषि उत्पादकता और भूमिहीन किसानों की आय बढ़ेगी और देश की जीडीपी को भी सपोर्ट मिलेगा।


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2016 में जब नीति आयोग की रिपोर्ट आई तो देश के 10 राज्यों में मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट को लागू करने की चर्चा चल रही थी। कई दौर की बैठकें भी हुईं। 2020 में आए भूमि सुधार नाम के तीन कृषि कानूनों में से एक मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर फार्मर्स (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश, 2020 में भी यही था। हालांकि, सरकार को किसानों का लंबा विरोध के बाद इन कानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। 

पूर्व केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री हुकुम देव नारायण ने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए इस कानून को रद्द करने को बड़ी गलती करार दिया। उन्होंने कहा, “सरकार ऐसे किसानों के लिए कृषि कानून लाई थी जो दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं। लेकिन तब किसानों ने इसका विरोध किया। जिन लोगों को इन कानूनों से नुकसान होने का अंदेशा था, वे उनका विरोध कर रहे थे और जिन्हें फायदा होना था, वे उनका समर्थन कर रहे थे। ऐसे में कोई पहल कैसे होगी?”

उधर विस्सा का कहना हैं, “हम काश्तकार किसानों के हितों की रक्षा के लिए कानूनों की मांग करते रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट्स के हितों की रक्षा के लिए उन अधिनियमों को पेश किया था। इसलिए हमने उनका विरोध किया। ये कानून काश्तकारों को और कमजोर बना सकते थे।”

कुछ कदम तो उठाए गए, मगर परिणाम आना बाकी

कुछ राज्यों ने काश्तकारों की सुरक्षा के लिए पहल की है।

आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा काश्तकार (42.4%) और जमीन पट्टे (36.4%) पर है। राज्य ने 2011 में बटाईदारों को लाभ पहुंचाने के लिए एक कानून बनाया था। 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग हुए तेलंगाना ने भी इस योजना को एक साल के लिए लागू किया था।

टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने वाले हैदराबाद स्थित किसान संगठन रायथु स्वराज्य वेदिका (आरएसवी) के सह-संस्थापक किरण कुमार विस्सा ने बताया कि 2019 में आंध्र प्रदेश सरकार ने 2011 बटाईदार अधिनियम को निरस्त कर दिया था। नीति आयोग की सिफारिश पर इसकी जगह एक नया कानून एपी क्रॉप कल्टीवेटर राईट लॉ 2019 लाया गया। उन्होंने आगे कहा, “उस समय 700,000 बटाईदार-पट्टे वाले किसान थे जो फसल कल्टीवेटर राइट कार्ड (CCRC) के लाभार्थी थे। लेकिन नए कानून में सरकार ने एक क्लॉज जोड़ दिया, जिसके तहत बटाईदार के लिए बने कार्ड पर खेत के मालिक और किसान के हस्ताक्षर होने जरूरी हो गए। खेत का मालिक जमीन का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थे और किसान उससे दूर होते चले गए।”

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के ठेकुआ गांव के छन्नू लाल राजपूत ने 2.5 एकड़ जमीन ठेके पर ली थी, लेकिन भारी बारिश के चलते उनकी फसल बर्बाद हो गई. अन्य काश्तकारों की तरह राजपूत को भी अपनी फसल के नुकसान के लिए कोई मुआवजा नहीं मिला। तस्वीर- अरविंद शुक्ला
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के ठेकुआ गांव के छन्नू लाल राजपूत ने 2.5 एकड़ जमीन ठेके पर ली थी, लेकिन भारी बारिश के चलते उनकी फसल बर्बाद हो गई। अन्य काश्तकारों की तरह राजपूत को भी अपनी फसल के नुकसान के लिए कोई मुआवजा नहीं मिला। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

विस्सा ने बताया, “2022 में हमने आंध्र प्रदेश के नौ जिलों के 31 गांवों में 3,885 किसानों के बीच घर-घर जाकर सर्वे किया। इनमें से सिर्फ 9.6% के पास कार्ड था। कार्ड न होने का सबसे बड़ा कारण ज़मींदार द्वारा हस्ताक्षर नहीं किया जाना था। हमने पाया कि इसमें से भी सिर्फ 6% भूमिहीन बटाईदारों को आंध्र प्रदेश की नकद सहायता योजना रायथु भरोसा के तहत लाभ मिल रहा था। तेलंगाना ने आंध्र प्रदेश (2014) से अलग होने के बाद इस योजना एलएसी (ऋण पात्रता कार्ड) की शुरुआत की लेकिन एक साल बाद इसे बंद कर दिया। यह मामला कोर्ट में भी पहुंचा था।

राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवकुमार कक्का ने कहा, ‘खेती राज्य का विषय है। कई राज्यों ने बटाईदारों के लिए कानून बनाए हैं, लेकिन इन्हें कभी भी जमीन पर लागू नहीं किया गया।”

 

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बैनर तस्वीर: उत्तर प्रदेश के कई किसानों की भारी बारिश के चलते फसल बर्बाद हो गई, लेकिन खेत पर मालिकाना हक न होने की वजह से फसल के नुकसान के बाद उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। तस्वीर- अरविंद शुक्ला

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