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[वीडियो] क्लाइमेट स्मार्ट विलेज: जलवायु परिवर्तन से जूझने के लिए कैसे तैयार हो रहे हैं मध्य प्रदेश के ये गांव

मध्य प्रदेश के सतना जिले के धतूरा गांव में टमाटर की तुड़ाई करता एक किसान। इस गांव में किसानो ने खेती के तरीकों में बदलाव किया है। पानी की खपत कम करने के लिए मंचिंग पॉलीथिन का प्रयोग किया गया जिससे पानी की बचत हुई। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

मध्य प्रदेश के सतना जिले के धतूरा गांव में टमाटर की तुड़ाई करता एक किसान। इस गांव में किसानो ने खेती के तरीकों में बदलाव किया है। पानी की खपत कम करने के लिए मंचिंग पॉलीथिन का प्रयोग किया गया जिससे पानी की बचत हुई। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था और विशेष तौर से खेती पर पड़ता है। इससे निपटने के लिए मध्य प्रदेश के तीन जिलों के 60 गांवों को तैयार किया जा रहा है।
  • जलवायु परिवर्तन आकलन (INCCA) के लिए भारतीय नेटवर्क के मुताबिक देश में खेती और पशुपालन से 18 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। इस कार्यक्रम के तहत इसे कम करने की कोशिश हो रही है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए किसानों ने प्रकृति आधारित खेती और अधिक गर्मी सहने वाली फसलों का रुख किया।
  • इन प्रयासों से, विपरीत मौसम में फसल की उपज स्थिर रखने के साथ-साथ मिट्टी की गुणवत्ता सुधारकर वातावरण से कार्बन सोखने की प्रक्रिया भी तेज करने की कोशिश हो रही है। खेती का नया तरीका कुछ किसानों को भा रहा है, लेकिन कुछ किसान उपज कम होने की बात कह रहे हैं।

मध्यप्रदेश के सतना जिले में धतूरा गांव के किसान देवशरण पटेल (53) कंधे पर बैट्री से चलने वाली कीटनाशक छिड़कने की मशीन लादे खेतों की ओर जा रहे हैं। कुछ दूरी मोटरसाइकिल से तय करने के बाद उन्होंने पगडंडियों पर पैदल चलना शुरु किया। वह पहले खेत जाकर कीटनाशक बनाने का इंतजाम करेंगे फिर इसका छिड़काव करेंगे।

आमतौर पर किसान बाजार से कीटनाशक खरीदकर लाते हैं लेकिन पटेल ने इसे प्राकृतिक तरीके से बिना किसी लागत के बनाना सीखा है। उन्होंने रास्ते में नीम, कनेर, बेशर्म (बेहया या थेथर), अकवन (आक) सहित कई पत्तियां इकट्ठा की और खेत तक पहुंचे। 

अब अगला काम है इन पत्तियों को कूटकर पानी में मिलाना। पत्तियां कूटते हुए देवशरण बताते हैं, “इसे बनाने में बिल्कुल खर्चा नहीं आता है, बस मेहनत होती है। छोटी इल्लियों के लिए यह कीटनाशक रामबाण है। मैं अपने खेत में रासायनिक खाद भी नहीं डालता, बल्कि ‘जीवामृत’ नामक प्राकृतिक खाद खुद बनाता हूं।”

कीटनाशक के मामले में ही नहीं बल्कि देवशरण पटेल की खेती कई मामलो में सामान्य खेती से अलग दिखती है। दो एकड़ के खेत के बीचोबीच एक 20 फ़ीट का तालाब बना हुआ है जिसमें बरसात के दौरान खेतों से निकला पानी इकट्ठा होता है। आसपास टमाटर, गेहूं, चना, पपीता जैसी कई फसलें लगी हुई हैं। 

“मेरा खेत मौसम की मार सहने के लिए पूरी तरह से तैयार है। बारिश हो या सूखा पड़े, मैंने खेत को हर तरह से तैयार रखा है,” पटेल कहते हैं। 

धतूरा गांव के कई किसान देवशरण की तरह अलग तरीके से खेती कर रहे हैं। उनके खेती के तरीके में यह बदलाव तब आया जब उनका गांव पांच साल पहले आई क्लाइमेट स्मार्ट विलेज परियोजना के लिए चुना गया। इस कार्यक्रम के तहत किसानों को मौसम की मार सह सकने वाली खेती का तरीका सिखाया गया। 

मध्य प्रदेश के तीन जिलों ‒सीहोर, सतना और राजगढ़‒ में पांच साल के लिए क्लाइमेट स्मार्ट विलेज परियोजना शुरू की गई। वर्ष 2017 में शुरू हुए कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य कृषि कार्यों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने और जोखिम को कम करने के लिए मिट्टी-जल संरक्षण और सूखा-बाढ़ सहनशील किस्म के बीजों से खेती करना है। 

धतूरा गांव के किसान देवशरण पटेल कई तरह की पत्तियों से कीटनाशक बनाते हैं। इससे उनकी खेत में रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग बंद हो गया है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
धतूरा गांव के किसान देवशरण पटेल कई तरह की पत्तियों से कीटनाशक बनाते हैं। इससे उनकी खेत में रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग बंद हो गया है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के ये तीन जिले क्लाइमेट वल्नरेबलिटी की जद में आते हैं। यानी आने वाले समय में इन जिलों पर जलवायु परिवर्तन का अधिक प्रभाव पड़ने वाला है। मध्य प्रदेश को जलवायु परिवर्तन के संबंध में संवेदनशील माना जाता है क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था और बड़ी जनसंख्या के लिए आजीविका का साधन कृषि और वन है। राज्य के लिए अनुमानित जलवायु जोखिमों में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में वृद्धि, मानसून का अनियमित होना,वर्षा की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि, बारिश के दिनों की संख्या में कमी, गर्मियां लंबी होना, सूखे और बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि शामिल हैं। 

पारंपरिक और वैज्ञानिक खेती के मेल से बेहतर हुई मिट्टी

परियोजना से जुड़े सतना जिले के सीनियर रिसर्च फेलो शमित श्रीवास्तव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि योजना के तहत किसानों को विपरीत मौसम में भी उपज देने वाले बीज के अलावा सूक्ष्म खाद दिए गए। पानी की खपत कम करने के लिए मंचिंग पॉलीथिन भी बांटे गए जिसका प्रयोग पौधों के जड़ों को ढकने में होता है। इससे पानी का वाष्पीकरण कम होता है। 

“खेत में तालाब की खुदाई, धानों की सीधी बुआई, बेड बनाकर दलहन और सोयाबीन की खेती, पराली को जलाने के बजाए खाद बनाना आदि कई गतिविधियों से किसानों को मौसम की मार सहने के लिए सक्षम किया गया,” वह कहते हैं।

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खेती के पारंपरिक तरीकों जैसे गोबर खाद और गोमूत्र का इस्तेमाल आदि का भी बढ़ावा दिया गया। 

दावा है कि खेती के इन प्राकृतिक तौर-तरीकों से न सिर्फ लागत कम लगती है बल्कि मिट्टी और फसल की गुणवत्ता भी बढ़ती है।  इस बात को देवशरण पटेल एक उदाहरण से समझाते हैं। 

उनके बगल का खेत अमृतलाल पटेल का है। अमृतलाल रासायनिक खाद और कीटनाशक का प्रयोग करते हैं। देवशरण खेत की मेढ़ पर खड़े होकर दोनों हाथ में अलग-अलग खेतों की मिट्टी उठाते हैं और उसके बीच अंतर बताते हैं। रासायनिक खेती वाली मिट्टी अधिक कठोर है। देवशरण के खेत की मिट्टी भुरभुरी है। 

“तीन साल के दौरान ही मेरे खेत की मिट्टी अधिक पानी सोखने की क्षमता रखती है इसलिए कम बारिश में भी उपज ली जा सकती है,” उन्होंने कहा। 

पटेल की बात का वैज्ञानिक प्रमाण भी मौजूद है। इस परियोजना में मिट्टी की जांच भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अंतर्गत स्थापित किया गया भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान (IISS) की वरिष्ठ वैज्ञानिक संगीता लेंका ने की। उन्होंने बताया कि जिन किसानों ने इस परियोजना के तहत खेती की है उनके खेतों में मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आया है। भारतीय मृदा संस्थान ने जुलाई 2019 में सतना के 20 गांवों में कई किसानों के खेत से मिट्टी के सैंपल लिए थे।

मध्य प्रदेश के तीन जिलों ‒सीहोर, सतना और राजगढ़‒ में पांच साल के लिए क्लाइमेट स्मार्ट विलेज परियोजना शुरू की गई। वर्ष 2017 में शुरू हुए कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य कृषि कार्यों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्य प्रदेश के तीन जिलों ‒सीहोर, सतना और राजगढ़‒ में पांच साल के लिए क्लाइमेट स्मार्ट विलेज परियोजना शुरू की गई। वर्ष 2017 में शुरू हुए कार्यक्रम का मुख्य लक्ष्य कृषि कार्यों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

“बेसलाइन मृदा सर्वेक्षण से पता चला है कि मिट्टी में नाइट्रोजन और जस्ता (जिंक) की स्थिति कम थी। हालांकि, कुछ गांवों में फास्फोरस, सल्फर, आयरन और मैंगनीज की भी कमी पाई गई थी।” लेंका ने लैब के नतीजों में पाया।

तीन साल बाद मिट्टी की जांच के नतीजे सकारात्मक आए हैं। 

सतना के अलावा राजगढ़ और सीहोर जिलों के गांवों से भी मिट्टी की जांच की गई। रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए लेंका बताती हैं, “राजगढ़ जिले में मिट्टी में जैविक क्रियाओं में 34 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई।”

मिट्टी की जांच में सामने आया कि मिट्टी की सतह परत (0-15 सेमी) पर खेती के प्राकृतिक तरीकों ने अच्छा प्रभाव डाला और एंजाइम गतिविधियों में वृद्धि हुई। यहां पहले की तुलना में डिहाइड्रोजनेज (14%) और क्षारीय फॉस्फेट (18.2%) पाया गया। इसके अलावा बेसल मिट्टी श्वसन (24%) देखा गया, जिसका अर्थ हुआ मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ी। 

पहले उत्पादन कम हुआ, अब बढ़ने लगा

पटेल का परिवार 10 एकड़ जमीन पर खेती करता है। उन्होंने दो एकड़ में प्राकृतिक तरीके से खेती करने का फैसला लिया। वह कहते हैं कि सामान्य तरीके से खेती करने में खाद, बीज और कीटनाशक मिलाकर गेहूं का एक एकड़ का खेत तैयार करने में 10 से 12 हजार रुपये का खर्च आता है। जबकि प्राकृतिक तरीके से एक एकड़ में पांच से सात हजार रुपये का खर्च आता है। देवशरण पटेल ने अनुभव किया कि फसलों की गुणवत्ता बढ़ी है। हालांकि, एक रासायनिक खेत के मुकाबले उनके खेत में उत्पादन में 10 से 20 प्रतिशत की कमी आई है।

“हमारी फसलें गुणवत्ता में अच्छी होती हैं, अगर इसकी कीमत अधिक मिले तो कम उत्पादन के बावजूद लाभ लिया जा सकता है। लेकिन बाजार में हर फसल को एक ही तरह का दाम मिलता है,” पटेल कहते हैं। 

धतूरा गांव से तकरीबन 35 किलोमीटर दूर पकरिया के किसान रामशरण यादव (58) ने तीन साल पहले अपना खेती का तरीका बदला। उन्होंने बताया कि पहले दो साल उपज में कमी आई लेकिन अब धीर-धीरे यह समस्या भी ठीक हो रही है। 

“किसान के लिए लागत बड़ी समस्या है। अगर इन तकनीकों से लागत में कमी आ रही है तो मौसम की वजह से अगर फसल खराब हुई तो नुकसान भी कम होगा,” यादव कहते हैं। 

“मैंने पिछले साल परियोजना के तहत मिले गर्मी सह सकने वाले बीज का इस्तेमाल किया था। कम बारिश में भी मेरी फसल खराब नहीं हुई। मैं दो साल से बिना खाद और कीटनाशक के हल्दी की अच्छी फसल ले रहा हूं। अब तक इस तकनीक ने फायदा ही दिया है,” उन्होंने आगे कहा। 

क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के ये तीन जिले क्लाइमेट वल्नरेबलिटी की जद में आते हैं। यानी आने वाले समय में इन जिलों पर जलवायु परिवर्तन का अधिक प्रभाव पड़ने वाला है। तस्वीर साभार- क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी रिपोर्ट
क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के ये तीन जिले क्लाइमेट वल्नरेबलिटी की जद में आते हैं। यानी आने वाले समय में इन जिलों पर जलवायु परिवर्तन का अधिक प्रभाव पड़ने वाला है। मैप साभार- क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी रिपोर्ट

वैज्ञानिक लेंका ने उत्पादन के आंकड़ों का विश्लेषण कर पाया कि इन जिलों में उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। विश्लेषण के मुताबिक राजगढ़ जिले की मिट्टी में क्लाइमेट स्मार्ट खेती का सबसे अधिक फायदा दिखा है। यहां किसानों को औसतन 30 प्रतिशत तक उपज में बढ़ोतरी का लाभ मिला है, कहीं-कहीं आंकड़ा 43 फीसदी से भी ऊपर गया है। 

हालांकि, उत्पादन को सही बाजार न मिलना अभी भी किसानों की समस्या बना हुई है। 

देवशरण पटेल कहते हैं, “हमारी फसल की गुणवत्ता रासायनिक खेती की तुलना में अच्छी है लेकिन हमें फसल का उतना ही दाम मिलता है। स्थानीय बाजार में फिलहाल जैविक उत्पाद की कोई खास कीमत नहीं है।”

जलवायु परिवर्तन से जूझने के लिए प्रकृति अनुकूल खेती 

भोपाल स्थित सरकारी संस्था पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन (एप्को) ने इस परियोजना को धरातल पर उतारने में अहम भूमिका निभाई। एप्को के समन्वयक और वरिष्ठ वैज्ञानिक लोकेंद्र ठक्कर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जलवायु परिवर्तन का प्रभाव शहरों के साथ-साथ गांवों पर भी पड़ता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खेती का बड़ा योगदान होता है। इस कार्यक्रम के तहत खेती में कार्बन उत्सर्जन कम करने और खेती के तरीकों में बदलाव कर जलवायु अनुकूल बनाया जा रहा है।”

“देखा जाता है कि किसान खेतों में नाइट्रोजन खाद (यूरिया) का प्रयोग अधिक करते हैं। उससे वातावरण में नाइट्र्स आक्साइड का उत्सर्जन होता है जो कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बन के मुकाबले 300 गुना अधिक जिम्मेदार है। इस परियोजना के तहत किसानों को रासायनिक खाद के बजाए कुदरती तरीके से खेती करने को प्रेरित किया गया है,” ठक्कर ने बताया। 


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वह आगे कहते हैं, “मध्यप्रदेश में 16 से 17 प्रतिशत उत्सर्जन (ग्रीन हाउस गैस) एग्रीकल्चर सेक्टर से हो रहा है। इस परियोजना के तहत हम प्रयास कर रहे हैं कि किसानों को ग्रीन हाउस गैस के प्रति जागरूक करें।” 

“इस कार्यक्रम के तहत फसल अवशेष प्रबंधन के जरिए पराली जलाने जैसी समस्या का भी समाधान खोजा गया है। किसान फसल अवशेष को खाद की तरह खेत में इस्तेमाल कर रहे हैं।” उन्होंने कहा।

जलवायु परिवर्तन आकलन (INCCA) के लिए भारतीय नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में खेती और पशुपालन को मिलाकर 18 प्रतिशत तक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। 

मिट्टी में कार्बन अवशोषण

इस कार्यक्रम के तहत कृषि कार्यों से होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के अलावा, मिट्टी में कार्बन सोखने की योजना भी है। 

मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार से वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड के सोखने की प्रक्रिया तेज होती है। इस प्रक्रिया को कार्बन सिक्विस्ट्रेशन या कार्बन अवशोषण कहते हैं। 

मिट्टी में कार्बन अवशोषण की प्रक्रिया को समझाते हुए लेंका ने कहा, “मिट्टी हवा से कार्बन सोखती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। अगर मिट्टी में ऑर्गेनिक मैटर की मात्रा अधिक हो या कहें कि मिट्टी की गुणवत्ता ठीक हो तो यह कार्बन अधिक समय तक मिट्टी में जमा रहता है। लंबी अवधि में इस प्रक्रिया का पर्यावरण पर अच्छा प्रभाव होता है,” उन्होंने कहा।  

सतना जिले के मैहर तहसील स्थित खेतों के बीच से जलावन लेकर गुजरती महिलाएं। जलवायु परिवर्तन आकलन (INCCA) के लिए भारतीय नेटवर्क के मुताबिक देश में खेती और पशुपालन से 18 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
सतना जिले के मैहर तहसील स्थित खेतों के बीच से जलावन लेकर गुजरती महिलाएं। जलवायु परिवर्तन आकलन (INCCA) के लिए भारतीय नेटवर्क के मुताबिक देश में खेती और पशुपालन से 18 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

लेंका ने लैब में मिट्टी की जांच के बाद पाया कि जिन खेतों में प्राकृतिक तरीके से खेती हो रही है वहां की मिट्टी में अधिक ऑर्गेनिक कार्बन मौजूद है। 

“जलवायु स्मार्ट कृषि पद्धतियों का संयुक्त प्रभाव दिखा और मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन और डिहाइड्रोजनेज गतिविधि में औसत 10.7% से लेकर 11.55% तक सुधार देखा गया है,” लेंका ने बताया। 

उन्होंने आगे कहा, “राजगढ़ की मिट्टी में सबसे अधिक 20 प्रतिशत तक ऑर्गेनिक कार्बन की बढ़ोतरी दिखी। साथ ही, उपज में 30 फीसदी बढ़ोतरी, मिट्टी के पोषक तत्वों में 15.7 प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गई,” 

जांच के आंकड़ों से पता चलता है कि सीहोर जिले की मिट्टी में 15 सेंटीमीटर मिट्टी में सॉयल ऑर्गेनिक कार्बन (SOC) की मात्रा में 7 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। 

लगभग 2.6 गीगाटन प्रति वर्ष (gtpa) के अनुमानित वार्षिक उत्सर्जन के साथ, भारत चीन और अमेरिका के बाद दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। भारत सरकार 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को 50% तक कम करने और 2070 तक शुद्ध शून्य तक पहुंचने के लिए प्रतिबद्ध है। 

कार्बन सिंक से जलवायु परिवर्तन का समाधान

नीति आयोग की वर्ष 2022 में जारी रिपोर्ट कहती है कि भारत के कुल कार्बन उत्सर्जन का 20 फीसदी हिस्सा कृषि कार्यों से आता है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में मध्य प्रदेश का स्थान 97 मिट्रिक टन प्रति वर्ष (mtpa) के साथ देश में चौथा है। 

भारत सरकार बड़े पैमाने पर कार्बन अवशोषित कर कार्बन सिंक बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

कार्बन सिंक का मलतब कार्बन को ऑर्गेनिक या इनऑर्गेनिक यौगिकों के रूप में अलग-अलग समय के लिए संग्रहित करना। इसे प्राकृतिक या कृत्रिम प्रक्रियाओं के माध्यम से वातावरण में उत्सर्जित होने वाले अधिक कार्बन को अवशोषित किया जाता है। 


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पेरिस समझौते के तहत नेशनल डिटरमाइनिंग कॉन्ट्रीब्यूशन (NDC) के तहत भारत ने 2030 तक 

अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने की प्रतिबद्धता जाहिर की है।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 में कहा कि देश के जंगल में कुल कार्बन स्टॉक 79.4 मिलियन टन की बढ़ोतरी के साथ 7,204 मिलियन टन होने का अनुमान है। 

क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर के तहत खेती के तौर-तरीके बदलकर जो अतिरिक्त कार्बन मिट्टी में जमा होता है वह भी एक तरह का कार्बन सिंक हुआ। लेंका के मुताबिक मिट्टी में कार्बन कितने समय तक टिका रहता है यह महत्वपूर्ण है। वह कहती हैं, “लंबी अवधि तक कार्बन का मिट्टी में रहना जरूरी है। अगर किसान बीच में ही प्राकृतिक खेती छोड़ते हैं और रासायनिक खेती का तरीका अपनाते हैं तो कार्बन मिट्टी से रिलीज होकर वातावरण में पहुंच जाएगा।”

मध्य प्रदेश में क्लाइमेट स्मार्ट विलेज परियोजना पांच साल में खत्म हो गई हैं। किसानों को लगता है कि यह परियोजना को आगे भी चलाने की जरूरत है ताकि उन्हें खेती के नए तौर-तरीकों के बारे में आगे भी पता चल सके। 

“हमें इस तरह की खेती से लाभ मिलना शुरू ही हुआ था कि परियोजना खत्म हो गई। इसे और कुछ साल चलना चाहिए था,” देवशरण ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

ठक्कर के मुताबिक क्लाइमेट स्मार्ट विलेज पाइलेट परियोजना थी जिसे अभी बंद किया गया है। इससे जो सीख और सफलताएं मिली हैं उसके आधार पर पूरे मध्य प्रदेश को लेकर इस तरह की बड़ी परियोजना बनाई जा सकती है।

 

बैनर तस्वीरः मध्य प्रदेश के सतना जिले के धतूरा गांव में टमाटर की तुड़ाई करता एक किसान। इस गांव में किसानो ने खेती के तरीकों में बदलाव किया है। पानी की खपत कम करने के लिए मंचिंग पॉलीथिन का प्रयोग किया गया जिससे पानी की बचत हुई। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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