- भारत के संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में भवन निर्माण सामग्री में पारंपरिक रूप से लगने वाली लकड़ी, पत्थर और अन्य स्थानीय सामग्रियों की जगह ईंट और कंक्रीट का इस्तेमाल बढ़ रहा है।
- विशेषज्ञों का दावा है कि इस क्षेत्र के हिल स्टेशनों में इमारतों के निर्माण पर निगरानी के लिए कोई योजना नहीं है। इनमें से कई इमारतें बिल्डिंग कोड को धत्ता बताकर अस्थिर ढलानों पर बनाई गई हैं। यहां कुदरती आपदा आने की आशंका हमेशा बनी रहती है।
- नाजुक हिमालयी ढलान भूकंप, भूस्खलन और अन्य चरम मौसमी घटनाओं के गवाह रहे हैं।
अड़तालीस साल की बिमला देवी जोशीमठ में रहती हैं। उनका घर इस पहाड़ी शहर तक आने वाली रोड से कुछ दूर ऊबड़-खाबड़ ढलान पर है। बिमला देवी का दो मंजिला घर लगभग 40 साल पहले बना था। तब इस घर को बनाने में स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री, जैसे कि लोहे और लकड़ी के खंबे का इस्तेमाल हुआ था। छत के लिए स्थानीय रूप से पकी हुई मिट्टी, जिसे पत्थल कहा जाता है, का इस्तेमाल किया गया था। घर की दो मंजिलें, ढलान पर अलग-अलग ऊंचाई पर स्थित हैं और अलग-अलग दिशाओं में खुलती हैं। सड़क से लगभग 300 मीटर दूर स्थित यह घर पारंपरिक वास्तुकला वाले शहर की कुछ इमारतों में से एक है।
लगातार बढ़ रही आबादी, शहरीकरण, कमर्शियल निर्माण में बढ़ोतरी और बढ़ी हुई मांग के चलते, पारंपरिक निर्माण सामग्री अब बहुत उपलब्ध नहीं है। नमामि गंगे परियोजना के दस्तावेजों में दावा किया गया है कि 2011 में जोशीमठ की कुल आबादी 36,130 थी। साल 2026 तक इसके 46,730 तक पहुंचने का अनुमान है। इस आंकड़े में सैन्य प्रतिष्ठानों में रहने वाले और कुछ समय के लिए आकर बसने वाले लोगों की संख्या भी शामिल है।
पिछले साल, उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (सीबीआरआई)-रुड़की के विशेषज्ञों की विशेष समिति ने जोशीमठ में भूमि धंसने की समस्या का अध्ययन किया था। सितंबर 2022 में सौंपी गई रिपोर्ट में समिति ने बताया कि जोशीमठ में उन्होंने जो इमारतें देखीं, उनमें से कई ‘खराब गुणवत्ता’ वाली थी।
रिपोर्ट कहती है कि ये इमारतें मामूली डिफरेंशियल ग्राउंड सेटलमेंट (धंसने) को झेलने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे पहाड़ी क्षेत्रों में ये सामान्य बात है। जोशीमठ, उत्तराखंड के चमोली जिले में आता है। यह 2006 के भारत के भूकंपीय क्षेत्र मानचित्र के जोन V (बहुत ज्यादा जोखिम) में शामिल है। इससे यह क्षेत्र भूकंप जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो जाता है।
खड़ी ढलानों पर बने हैं शिमला के घर
हिमालय में बसे अन्य राज्यों और कस्बों में भी, तेजी से हो रहे शहरीकरण से पर्यावरण को लेकर संवेदनशील क्षेत्रों पर दबाव बढ़ रहा है।
उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला को लेते हैं। यह शहर पर्यटकों को खूब भाता है। शिमला के विकास से जुड़े योजना मसौदे में कहा गया है कि 70 के दशक में जब योजना बनाई गई थी, तब शहर की कल्पना 25,000 लोगों की आबादी के लिए की गई थी। पर्यटकों की अतिरिक्त अस्थायी आबादी के अलावा वर्तमान में जनसंख्या 2.40 लाख है। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 97.42 प्रतिशत जमीन धंसने के प्रति संवेदनशील है।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के सामने प्रस्तुत विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि शिमला में 83 प्रतिशत लाइफलाइन बिल्डिंग असुरक्षित हैं। लाइफलाइन इमारतों का मतलब पुलिस स्टेशनों, अग्निशमन केंद्रों, अस्पतालों, बिजली घरों और अन्य ऐसे अहम बुनियादी ढांचे वाली इमारतों से है, जिनका इस्तेमाल आपदाओं के दौरान आपातकालीन मदद पहुंचाने के लिए किया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि शिमला की अंतरिम विकास योजना के अनुसार, 45 डिग्री के कोण वाली ढलानों पर इमारतें बनाने की अनुमति है। हालांकि, इनमें से कई इमारतें 45 डिग्री से ज्यादा की ढलान पर 70 डिग्री के कोण तक बनाई गई हैं। इस दस्तावेज़ के अनुसार, शिमला में ढलान ‘मेटा-स्टेबल’ प्रकृति की हैं। इसका मतलब है कि वे वर्तमान में स्थिर हैं लेकिन कोई भी भौगोलिक बदलाव या बाहरी दबाव जैसे कि बहुत ज्यादा बारिश या उन पर बढ़ा हुआ बोझ इसे बहुत ज्यादा अस्थिर बना सकता है और भूस्खलन जैसी आपदाओं को न्योता दे सकता है।
डिजाइन में कहां हुई चूक?
देहरादून में सस्टेनेबल भवन डिजाइन सलाहकार श्रीपर्णा साहा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि मैदानी इलाकों वाली भवन डिजाइन को पहाड़ी क्षेत्रों में इस्तेमाल करना आपदा को बुलाने जैसा है। अवैज्ञानिक डिजाइन से खतरा और ज्यादा बढ़ने की आशंका है।
वो कहती हैं, “जब भवन निर्माण की बात आती है तो मैदानी इलाकों की नकल करने को लेकर होड़ लगी है। ऐसे में ढलान की स्थिरता पर कम ध्यान दिया जाता है जो पहाड़ी इलाकों के लिए एक अलग तरह की चुनौती है। कई लोग कृत्रिम तरीके से चट्टानों को काटने की कोशिश करते हैं, ताकि उनके आधार को समतल किया जा सके और प्राकृतिक लैंडस्केप के विपरीत जाकर अपने घर बनाए जा सकें। ऐसे क्षेत्रों में सबसे अच्छा विकल्प उन डिजाइनों के साथ निर्माण करना है जो कुदरती लैंडस्केप में कम से कम हस्तक्षेप करते हैं।”
नए बन रहे घरों में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री के बारे में उन्होंने कहा, “घर का ढांचा बनाने के लिए रीइन्फोर्स किए गए कंक्रीट (आरसी) संरचनाओं का इस्तेमाल करने में कोई समस्या नहीं है। स्थिरता बनाए रखने के लिए इसका सुझाव दिया जाता है। समस्या तब आती है जब मिट्टी के प्रकार का विश्लेषण किए बिना निर्माण किया जाता है। समस्या तब और बढ़ जाती है जब ढलान के प्राकृतिक जल निकासी के रास्ते पर घर बनाए जाते हैं। यह और इसी तरह की अन्य संरचनात्मक गड़बड़ियां इसलिए होती हैं क्योंकि विशेषज्ञ अक्सर साइट का दौरा नहीं करते हैं। वे रिमोट तरीके से इस काम को अंजाम देते हैं। ” हालांकि वह लागत के बजाय बहुत कम जागरूकता को इसका जिम्मेदार मानती हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण सामग्री के चयन के लिए भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के 2000 के दिशानिर्देशों के अनुसार, लकड़ी, सीमेंट कंक्रीट, हल्का स्टील, तैयार पत्थर, सीमेंट मोर्टार में पकी हुई ईंटें वगैरह कुछ ऐसी सामग्रियां हैं जो द्रव्यमान घनत्व (मास डेन्सिटी) और कम्प्रैसिव स्ट्रेंथ के लिए अच्छी हैं। नेशनल बिल्डिंग कोड 2005 के अनुसार सुझावों का एक और सेट है जो आपदा संभावित क्षेत्रों में भवनों की बात करता है। नेशनल बिल्डिंग कोड ऑफ इंडिया (एनबीसी) अनिवार्य रूप से देश भर में भवन निर्माण गतिविधियों को विनियमित करने के लिए दिशानिर्देश देता है।
कोड और बीआईएस मानदंड कम से कम 7.5 मिमी की नींव बनाने, क्लस्टर में घर बनाने, सूरज की रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था और अन्य मापदंडों को पूरा करने की सलाह देते हैं। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर एनवायरन्मेंटल लॉ एजुकेशन द्वारा भवन और निर्माण नियमों के विश्लेषण में, शोधकर्ताओं ने संकेत दिया है कि ये मानदंड मैदानी इलाकों के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं, लेकिन इनमें ढलानों के साथ निर्माण के लिए सुझाव में विशेषज्ञता की कमी है।
सीईपीटी (CEPT) विश्वविद्यालय, अहमदाबाद द्वारा वर्नाकुलर हिल डिज़ाइन पर 2006 से एक अलग अध्ययन में दावा किया गया है कि पारंपरिक वास्तुकला में दीवारों में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी, भूकंप के दौरान क्षैतिज जोर को स्थिर करती है। लकड़ी के ज्यादा इस्तेमाल से निर्माण हल्का होता है और इसलिए भूकंप के दौरान बेहतर भूकंपीय प्रतिकिया होती है।
पहाड़ी इलाकों में निर्माण को रेगुलेट करना
नेशनल बिल्डिंग कोड (एनबीसी) के अनुसार, औसत मध्यमान समुद्र तल (मीन सी लेवल) से 600 मीटर की ऊंचाई वाली साइट या औसत 30 डिग्री कोण वाले ढलानों को ‘पहाड़ियों’ के रूप में माना जाता है। उत्तराखंड में कुछ स्थानीय भवन उपनियम भी हैं जैसे उत्तराखंड भवन उपनियम और रेगुलेशन-2011। यह मसूरी में जमीनी स्तर से ऊपर सिर्फ़ तीन मंजिल तक और जमीन से ज्यादा से ज्यादा 11 मीटर ऊपर तक की बात करता है जबकि नैनीताल में इसे 7.5 मीटर ऊंचाई तक सीमित किया गया है।
एनबीसी रेगुलेटेड और अहम क्षेत्रों में स्थानीय विकास प्राधिकरणों से मंजूर नक्शों के आधार पर भवनों के निर्माण के बारे में भी बात करता है जो एनबीसी का अनुपालन पक्का कर सकते हैं। स्थानीय उप-नियम यह पक्का करने के लिए हैं कि भवन, आपदाओं का सामना करने के लिए संरचनात्मक रूप से मजबूत हैं और स्थानीय बनावट के अनुसार हैं। इनके लिए आर्किटेक्ट और नियुक्त इंजीनियरों के प्रमाणन और अनुमोदन की जरूरत होती है। उपनियम पहाड़ी क्षेत्रों में ऊंचाई की सीमा, न्यूनतम क्षेत्रों और अन्य सुरक्षा मानकों के बारे में भी बात करता है। लेकिन कई मामलों में ऐसे उपनियमों की खुली अवहेलना भी देखी जाती है।
हालांकि, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की द्वारा मसूरी और नैनीताल में किए गए 2017 के एक अध्ययन में पाया गया कि उत्तराखंड के इन शहरों में कई इमारतें उपनियमों की धज्जियां उड़ाकर बनाई गई थीं और 20 मीटर तक ऊंची थी। पहला भूकंपीय कोड डिज़ाइन 1962 में सामने आया और आपदा संभावित इमारतों के तत्वों को NBC 2002 में शामिल किया गया।
दो लोकप्रिय हिल स्टेशनों के अध्ययन से पता चला कि स्टडी में शामिल इमारतों में से लगभग 50 प्रतिशत प्री-कोड इमारतें थीं (1962 से पहले बनी) और भूकंप के मामले में सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना भी इन्हें ही थी क्योंकि आपदा संभावित इमारतों के नियम बाद में आए थे।
अध्ययन ने यह भी संकेत दिया कि एनबीसी पहाड़ी भवनों की मांगों को पूरा नहीं करता है, लेकिन अगर इसके प्रावधानों के साथ निर्माण किया जाता है तो यह अन्य गैर-अनुपालन वाले भवनों की तुलना में बेहतर आपदा तैयारी भी देता है। इसने यह भी कहा कि भारतीय हिमालय क्षेत्र में, इस तरह के कोड को अमलीजामा पहनाने में अक्सर कमी देखी जाती है और डिजाइन के मुद्दों को अक्सर राज्य निर्माण उपनियमों द्वारा तय किया जाता है, जिससे पहाड़ी इमारतों की संरचनात्मक स्थिरता की समस्या बढ़ जाती है।
मास्टर प्लान, भवन निर्माण नियमों का अभाव
शिमला, नैनीताल, सिक्किम और आइजोल के पहाड़ी शहरों के लिए विकास की कई योजनाएं तैयार की गई हैं। लेकिन अन्य पहाड़ी शहर भी हैं जो अब आबादी और इमारतों में बढ़ोतरी देख रहे हैं लेकिन इन जगहों पर मास्टर प्लान और रेगुलेशन की कमी है।
उत्तराखंड में हिमालयी क्षेत्रों में काम करने वाले ग्रीन बिल्डिंग कंसल्टेंट मनुज अग्रवाल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि भारत के अधिकांश हिल स्टेशनों में मास्टर प्लान की कमी है और यह बड़े पैमाने पर अनियोजित और अवैज्ञानिक प्लानिंग का नतीजा है।
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उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “पहाड़ी क्षेत्रों में अनियोजित इमारतें एप्रोच रोड और आस-पास की ढलानों पर कुकरमुत्तों की तरह बनने लगीं। मास्टर प्लान, रेगुलेशन और कानूनों की एक बड़ी कमी है जो लोगों को स्थायी, आपदा संभावित भवन बनाने के लिए बाध्य कर सकते हैं। ऐसे नियम होने चाहिए जो लोगों को वैज्ञानिक डिजाइनों के लिए प्रोत्साहित कर सकें। इसके लिए सरकार उन भवनों को प्रोत्साहन देने पर भी विचार कर सकती है जो स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग करने का विकल्प चुनते हैं या वैज्ञानिक तरीके से भवनों को डिजाइन करते हैं। इससे दूसरों को स्थायी तरीके से बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।”
उन्होंने कहा कि बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं के दौरान पहाड़ों को तोड़ने से निकलने वाले पत्थरों (मलबे) को नदी में फेंका जाता है जो आखिरकार नदी के क्षेत्रों को चौड़ा करती हैं और जल स्तर को बढ़ाता है। यह बदले में आस-पास के इंसानी आवासों और भूमि क्षेत्र में समस्याओं को बढ़ाता है, जिससे वे बाढ़ के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। अग्रवाल ने सुझाव दिया कि नदी में पत्थरों को डंप करने के बजाय, सरकार नीलामी प्रक्रिया के माध्यम से पत्थरों को स्थानीय लोगों को दे सकती है। इन पत्थरों को भवन निर्माण के लिए प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह की नीलामी प्रक्रिया का पालन इमारती लकड़ी के साथ किया जाता है जिसे बुनियादी ढांचे के विकास के लिए काटा जाता है और स्थानीय निवासी इसका इस्तेमाल करते हैं।
उन्होंने कहा, “पहाड़ी इलाकों में अब बड़ी समस्या यह है कि जैसे ही मैदानी इलाकों में प्रमुख शहरों के साथ संपर्क में सुधार हुआ, कई ने कम से कम टिकाऊ डिजाइन अनुपालन के साथ तेजी से निर्माण करना शुरू कर दिया (क्योंकि निर्माण सामग्री तक पहुंच और परिवहन आसान हो गया) जो उनके लिए सस्ता भी साबित हुआ। इस तरह की परिपाटी अधिक समस्याएं पैदा कर रही है।” उन्होंने विशेषज्ञ डिजाइन जानकारों के साथ स्थानीय परामर्श केंद्र, स्थानीय लोगों के प्रशिक्षण केंद्र खोलने की भी वकालत की, जो उन्हें स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर टिकाऊ और आपदा से बचाने वाले घर बनाने में मदद कर सकते हैं।
विशेषज्ञों ने हालांकि यह भी बताया कि पहाड़ी क्षेत्रों में प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत बने घर एनबीसी और स्थानीय उप-नियमों के अनुपालन के चलते बेहतर प्रतीत होते हैं, जिसमें कई स्तरों पर अधिक जांच की जाती है।
हालांकि अनियोजित डिजाइन, दोषपूर्ण भवन डिजाइन सिर्फ ऐसे मुद्दे नहीं हैं जो हिमालय की पहाड़ियों के लिए समस्याएं पैदा कर रहे हैं। साल 2011 में सिक्किम में आये भयानक भूकंप के चलते लगभग 34,000 इमारतें ढह गईं और सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 60 लोग मारे गए। ‘सिक्किम सेव द हिल्स’ के संयोजक प्रफुल्ल राव ने दावा किया कि ऐसी पहाड़ियों में जल निकासी व्यवस्था की कमी और बढ़ती चरम मौसमी घटनाओं ने समस्या को और बढ़ा दिया है, जबकि बारिश के बदलते पैटर्न के चलते भी संकट बढ़ रहा है।
उन्होंने बिजली परियोजनाओं, सड़क निर्माण और अन्य परियोजनाओं की बढ़ती तादाद के चलते सिक्किम और आस-पास के क्षेत्रों में नाजुक हिमालयी क्षेत्रों पर अतिरिक्त दबाव पड़ने के उदाहरण भी दिए। उन्होंने दावा किया कि ऐसे क्षेत्रों में तेजी से हो रहे शहरीकरण को सरकार को नियंत्रित करना चाहिए। साथ ही पहाड़ियों से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए भारत के पहाड़ों के लिए एक अलग मंत्रालय बनाने जैसे कदमों की जरूरत है।
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बैनर तस्वीर: उत्तराखंड में देवप्रयाग में ढलान के किनारे बने भवन। तस्वीर- मनीष कुमार / मोंगाबे