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विदेशी प्रजातियों के पौधों के लिए बौने हैं पहाड़, बढ़ रही तादाद और तेजी से हो रहा फैलाव

  • एक वैश्विक अध्ययन के मुताबिक साल 2007 और 2017 के बीच पर्वतीय इलाकों में घुसपैठ करन वाले विदेशी पौधों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। साथ ही इनका ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों तक तेजी से फैलाव हुआ है।
  • वैज्ञानिकों को पता चला है कि भारत में कश्मीर हिमालय में रेलवे और सड़क जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का विस्तार इन विदेशी पौधों के फैलाव के लिए जिम्मेदार है।
  • वैज्ञानिक इन जगहों पर होने वाले निर्माण से मिट्टी में आने वाली खराबी को कम करने और शुरुआती चरण में समस्या बढ़ाने वाली संभावित प्रजातियों का पता लगाने और उनका प्रबंधन करने के लिए निगरानी जारी रखने पर जोर देते हैं।

परवेज़ डार पेशे से वनस्पति विज्ञानी हैं। उन्होंने साल 2012 और 2017 में कश्मीर में सड़कों के आसपास घूमकर अच्छा-खासा समय बिताया। इसमें पहाड़ी दर्रा सिंथन टॉप भी शामिल है। इस दौरान उन्होंने घुसपैठिए (विदेशी पौधों) की प्रजातियों का सर्वेक्षण किया। ऐसे पौधे जिनका कश्मीर से कोई वास्ता नहीं रहा है। लेकिन अब इस इलाके में तेजी से फैल रहे हैं। बुनियादी ढांचे के विस्तार के चलते इनकी तादाद बढ़ रही है।

उन्होंने पहाड़ी सड़कों के साथ ‘टी’ के आधार के साथ टी-आकार के अध्ययन वाले भूखंड में इन पौधों का सर्वेक्षण किया। इस दौरान डार ने अपनी आंखों के सामने यह गुत्थी सुलझते हुए देखी। डार ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “पहाड़ अब घुसपैठ करने वाले विदेशी प्रजातियों से भी अछूते नहीं हैं। समय के साथ उनकी संख्या और आवृत्ति बढ़ रही हैं।”

बैंगनी फूलों के गुच्छों के साथ फील्ड थीस्ल (Cirsium arvense), सफेद तिपतिया घास (Trifolium repens) के मैदान और चमकीले पीले फूलों (Sisymbrium loeselii) के साथ छोटे टम्बलवीड सरसों भारत में कश्मीर हिमालय में पहाड़ी सड़कों पर चुपचाप विस्तार कर रहे हैं और अपना दायरा बढ़ा रहे हैं। बुनियादी ढांचे के निर्माण के चलते खराब हो रही मिट्टी विदेशी पौधों को नई जगहों पर पनपने में मदद कर रही है।

डार का सर्वेक्षण माउंटेन इनवेशन रिसर्च नेटवर्क (मिरेन/ MIREN) की ओर से किए गए वैश्विक अध्ययन का हिस्सा है। यह अध्ययन बताता है यह नतीजा 651 अध्ययन भूखंडों से 616 गैर-स्थानीय वनस्पतियों की प्रजातियों की लगभग 15,000 ऑब्जर्वेशन पर आधारित है। इन्हें एक जैसे मानक वाली प्रक्रिया का इस्तेमाल करके दुनिया भर में एकत्र किया गया है। ईटीएच ज्यूरिख में इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव बायोलॉजी की पहली लेखक एवलिन इसेली ने कहा, “पिछले 10 सालों में प्रत्येक क्षेत्र में सर्वेक्षण किए गए विदेशी पौधों की प्रजातियों की संख्या में वैश्विक औसत के हिसाब से 16% की वृद्धि हुई है। इसके अलावा, अध्ययन किए गए 11 पर्वतीय क्षेत्रों में से दस में, प्रजातियां दस या पांच साल पहले की तुलना में बहुत ज्यादा ऊंचाई वाली जगहों पर फल-फूल रही हैं। ”

फोटो कैप्शन: बुनियादी ढांचे के निर्माण के चलते खराब हो रही मिट्टी विदेशी पौधों को नई जगहों पर पनपने में मदद कर रही है। ये सर्वे कश्मीर में सिंथन टॉप पहाड़ी दर्रे के पास किया गया। तस्वीर- परवेज़ डार/मोंगाबे

इसेली ने बताया, “अधिकांश गैर-स्थानीय पौधों को मानवीय गतिविधियों के चलते होने वाली खराबी से बढ़ावा मिलता है। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें, इन पौधों को फलने-फूलने के लिए पहुंच बिंदु और नाली की सुविधा देती हैं। इसके चलते कई गैर-स्थानीय पौधे सड़क के किनारे पाए जा सकते हैं। सड़कें ऊंचाई वाली जगहों पर सैंपल जमा करने के लिए बहुत सुविधाजनक तरीके प्रदान करती हैं।”

वे कहते हैं कि सड़कें इन प्रजातियों के लिए “शुरुआती चेतावनी” की सुविधा देती हैं जो बाद में ज्यादा प्राकृतिक आवास में पनप सकती हैं। इसलिए देशी प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए संभावित उभरते खतरों की भविष्यवाणी करने के लिए उपयोगी हो सकती हैं।

हालांकि, शोधकर्ताओं ने सर्वेक्षण में शामिल प्रवृत्तियों को जलवायु परिवर्तन से जोड़ने के खिलाफ आगाह किया। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के बिना भी विदेशी पौधे अपनी जलवायु प्राथमिकताओं से मेल खाने वाली जगहों पर फलने-फूलने का तरीका खोज लेते हैं। इसेली ने कहा कि विदेशी पौधे, आमतौर पर तराई में लगाए जाते हैं। फिर वे बहुत ऊंची जगहों तक फैलते जाते हैं, जब तक कि उन जगहों का मौसम इतना ठंडा हो जाए कि वे फिर पनप नहीं सकें।

वे चेतावनी देते हैं कि मौसम का गर्म होना “लगभग निश्चित रूप से” कई गैर-स्थानीय पौधों के लिए बहुत ज़्यादा ऊंचाई वाले इलाकों को उपयुक्त बनाएगा। इसलिए इससे उनके विस्तार को बढ़ावा मिलेगा।

इसेली और उनके साथी शुरुआती चरण में समस्या बढ़ाने वाली संभावित प्रजातियों की पहचान और प्रबंधन के लिए लगातार निगरानी पर जोर देते हैं। वे बहुत ज्यादा ऊंचाई पर गैर-स्थानीय पौधों (जैसे सजावटी या व्यावसायिक प्रजातियों) को लगाने के खिलाफ हैं। खासकर वे प्रजातियां जो दुनिया के अन्य हिस्सों में ठंडी जलवायु के चलते पनपती हैं। साथ ही समस्या बढ़ाने वाली संभावित प्रजातियों का देशी प्रजातियों पर पड़ने वाले प्रभाव का लगातार शोध के साथ निगरानी अध्ययन का विस्तार करने पर जोर देते हैं।

विदेशी प्रजातियों और क्षेत्रीय जैव सुरक्षा में असमानताओं को दूर करने के लिए वैश्विक लक्ष्य

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट में इकोसिस्टम विशेषज्ञ श्रीजाना जोशी रिजाल ने शुरुआती पहचान और तेजी से प्रतिक्रिया प्रणाली स्थापित करने पर इसेली की बातों को ही दोहराया। वो कहती हैं कि नागरिकों को घुसपैठ करने वाले विदेशी प्रजातियों की निगरानी में लगाया जा सकता है।

अध्ययन से जुड़ी नहीं होने के बावजूद जोशी रिजाल इसे बहुत काम का मानती हैं। उन्होंने मोंगाबे इंडिया से कहा, “अनुसंधान उपयोगी है और पर्वतीय क्षेत्रों में प्रवृत्ति को समझने के लिए इस तरह के दीर्घकालिक अध्ययन की उपयोगिता और जरूरत को रेखांकित करता है। इस तरह के अध्ययन की फिलहाल हिंदुकुश हिमालयी इलाके में कमी है।”

एक बार भौगोलिक रूप से जटिल पर्वत पारिस्थितिकी तंत्र में फैल जाने के बाद हमलावर प्रजातियों का प्रबंधन महंगा और चुनौतीपूर्ण काम होगा। वो कहती हैं, “पर्वतीय पारिस्थितिक तंत्र में ऐसी प्रजातियों की समस्या को दूर करने के लिए गहन शोध की जरूरत है। इसमें पर्वतीय क्षेत्रों में हमले के मल्टीस्केल पैटर्न का विश्लेषण और पर्वतीय वातावरण में घुसपैठ करने वाली प्रजातियां किस तरह परस्पर क्रिया करती हैं, इस पर तुलनात्मक शोध शामिल है।”

जोशी रिजाल कहती हैं कि हिंदूकुश हिमालय (एचकेएच/ HKH) क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले लगभग 50% पौधे बिना किसी इरादे के लाए गए हैं। बड़े पैमाने पर, हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के देशों में इन प्रजातियों से निपटने के लिए नीतियों और कानून की कमी है क्योंकि यह संरक्षण से जुड़ा ऐसा मुद्दा नहीं है जो प्राथमिकता में शामिल हो।


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कश्मीर हिमालय के तीन मिरेन वैज्ञानिकों में से एक और अध्ययन के सह-लेखक इरफान राशिद बताते हैं कि उदाहरण के लिए, भारत में पर्यावरण से जुड़ी नीतियों का लंबा इतिहास होने के बावजूद विदेशी प्रजातियों से निपटने के लिए विधायी ढांचे का अभाव है। वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2021 ने भारतीय पर्यावरण कानून में घुसपैठ करने वाली विदेशी प्रजातियों’ के लिए नियामक ढांचा पेश किया गया, जो अभी भी शुरुआती दौर में है। कि परिवहन के नए रास्तों के चलते घुसपैठ करने वाले विदेशी पौधों की प्रजातियां ऊंचाई वाली जगहों पर तेजी से पनपी और फली-फूली हैं। यह सर्वेक्षण दक्षिणी और मध्य चिली, ऑस्ट्रेलिया के दो क्षेत्रों, स्पेन के कैनरी द्वीप समूह में टेनेरिफ़, स्विटज़रलैंड, हवाई और पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका के दो क्षेत्रों, भारत में कश्मीर और नॉर्वे में पहाड़ी सड़कों के आसपास हुआ। इसके जरिए पता चलता है कि 2007 और 2017 के बीच ऊंचाई वाले इलाकों में विदेशी पौधों की प्रजातियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हुई है और इनका तेजी से फैलाव हुआ है।

फोटो कैप्शन: भारत में पर्यावरण से जुड़ी नीतियों का लंबा इतिहास होने के बावजूद विदेशी प्रजातियों से निपटने के लिए विधायी ढांचे का अभाव है। तस्वीर- मैट लैविन/ विकिमीडिया कॉमन्स/सिर्सियम अर्वेन्से

कानूनों में सुधार के लिए शोध करने वाला स्वतंत्र थिंकटैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के अनुसार, डब्ल्यूपीए (WPA) संशोधन का दायरा बहुत छोटा है। बिल विदेशी प्रजातियों को ऐसे जानवर या पौधे की प्रजाति के रूप में परिभाषित करता है जो भारत की स्थानीय प्रजातियां नहीं हैं और जिनके आने या फलने-फूलने से वन्यजीव या इसके आवास पर खतरा या प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन कन्वेंशन ऑन बॉयोलॉजिकल डायवर्सिटी किसी ‘विदेशी प्रजाति’ को उसके कुदरती स्थान के संदर्भ में परिभाषित करता है। इसलिए ऐसी प्रजातियां जो भारत में पाई जाती हैं, लेकिन देश के भीतर एक नई जगह के लिए अभी भी घुसपैठ करने वाली हैं, रेगुलेशन के दायरे से बाहर रहती हैं।

जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (IPBES) पर अंतर सरकारी विज्ञान-नीति प्लेटफ़ॉर्म की 2019 की रिपोर्ट, सबसे बड़े सापेक्ष वैश्विक प्रभावों के साथ प्रकृति में बदलाव के पांच प्रत्यक्ष चालकों में से एक के रूप में घुसपैठ करने वाली विदेशी प्रजातियों की पहचान करती है।

जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के सदस्य देशों द्वारा साल 2030 के लिए कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क के तहत अपनाए गए 23 वैश्विक लक्ष्यों में विदेशी प्रजातियों के आने के रास्तों की पहचान और प्रबंधन पर जोर है। साथ ही प्राथमिकता वाली विदेशी प्रजातियों को आने से रोकने और इन्हें आधा करने पर जोर है। साथ ही द्वीपों और अन्य प्राथमिकता वाली जगहों पर विदेशी प्रजातियों को खत्म या नियंत्रित करने की बात करता है।

विदेशी प्रजातियों के आने के रास्तों की पहचान और प्रबंधन की नई पहल देशों को पर्यावरणीय जैव सुरक्षा में तेजी लाने के लिए संकेत देती है। लेकिन जोशी रिजाल बताती हैं कि सभी देश, विशेष रूप से हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में घुसपैठ से बचाव के लिए इतनी मजबूत जैव सुरक्षा नहीं है कि वो इन प्रजातियों से बच सके।

जोशी रिजाल ने कहा, ” उदाहरण के लिए चीन अपनी जैव सुरक्षा की सुरक्षा में बहुत आगे है। अन्य देशों के साथ खुली सीमाएं घुसपैठ के लिए अतिसंवेदनशील होती हैं। लेकिन, हिंदुकुश क्षेत्र के देशों के बीच हमारी खुली सीमाएं हैं। उदाहरण के लिए भारत और नेपाल के बीच, जिसके लिए जैव विविधता सुरक्षा में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।”

बाग के फूल, देवदार और गुलबहार

मिरेन के अध्ययन से एकत्र किए गए दीर्घकालिक डेटा से पता चलता है कि स्विट्ज़रलैंड में बागों में लगाया जाने वाला लोकप्रिय फूल ल्यूपिन, चिंता बढ़ाने वाली प्रजाति है। मूल रूप से अमेरिका के प्रशांत उत्तर पश्चिमी क्षेत्र से, यह 170 साल पहले जर्मनी पहुंचा और लगभग 70 सालों से स्विट्जरलैंड में पाया जा रहा है।

इसेली बताती हैं कि दक्षिण अमेरिका में, स्थानीय पहाड़ी जंगलों में देवदार जैसी लकड़ी की प्रजातियां समस्या पैदा करने वाली हैं; कश्मीर में फील्ड थीस्ल घुसपैठ करने वाली अहम प्रजाति है जिसे सर्वेक्षण में भी दर्ज किया गया है। ऑस्ट्रेलिया में, मीठी वसंत घास (स्वीट वर्नल ग्रास) अध्ययन के दौरान अल्पाइन क्षेत्र तक पहुंचने वाली पहली आम घुसपैठ करन वाली प्रजाति है, जो सबसे अधिक संभावना वाली प्रजाति भी साबित हुई है और सड़क के किनारों से आगे निकलकर प्राकृतिक वनस्पति में फैल जाती हैं।

कश्मीर हिमालय सहित अध्ययन में शामिल किए गए कई क्षेत्रों में आक्रामक डेज़ी जैसे ऑक्स-आई डेज़ी का पता चला था।

माना जाता है कि आजादी से पहले भारत में अंग्रेजों की तरफ से सजावट के लिए इन फूलों को लाया गया था। अब कश्मीर में नामी बागों की शोभा बढ़ाने वाले ऑक्स-आई डेज़ी तेजी से फैल गए और समय के साथ इस क्षेत्र के नाजुक जंगल और पहाड़ी परिदृश्य पर आसानी से घुसपैठ कर ली।

कश्मीर विश्वविद्यालय के इरफ़ान राशिद कहते हैं, “इनमें से अधिकतर का आना अनजाने में हुआ है। सड़कें इन प्रजातियों को सुरक्षित रास्ता दे रही हैं।” यहां 17% विदेशी प्रजातियों के घुसपैठ वाली होने की सूचना है।

ETH ज्यूरिख शोधकर्ता स्विट्जरलैंड के वालिस में एक पहाड़ी सड़क के किनारे विदेशी पौधों की प्रजातियों की तलाश कर रही है। तस्वीर- फियोना श्वालर/ETH ज्यूरिख

कश्मीर में, राशिद और उनके साथियों ने मिरेन सर्वेक्षणों के दौरान अन्य क्षेत्रों की तुलना में समय के साथ गैर-स्थानीय प्रजातियों से होने वाले छोटे शुद्ध नुकसान की खोज की। बुनियादी ढांचे के विस्तार के दौरान मिट्टी की खराबी को कम करना घुसपैठ करने वाली विदेशी प्रजातियों के साथ आने वाली चुनौतियों को कम करने का एक तरीका है।

राशिद ने कहा, “हमारे वैश्विक अध्ययन में हिमालय का प्रतिनिधित्व कश्मीर हिमालय करता है; हमें अपने नतीजों को प्रमाणित करने के लिए भारतीय हिमालयी क्षेत्र के मध्य और पूर्वी भागों सहित अन्य हिमालयी क्षेत्रों के और ज्यादा इलाकों को शामिल करने की आवश्यकता है। हम आईएचआर के अन्य हिस्सों से और अधिक मिरेन ट्रांज़ेक्ट स्थापित करने के लिए इसी तरह के ज्यादा सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं।”

पर्वतीय इलाकों में बुनियादी ढांचे के विस्तार के दीर्घकालिक प्रभाव रेलवे तक फैले हुए हैं। कश्मीर में, राशिद और उनके साथियों ने पाया कि रेल लाइनों के निर्माण से जुड़ी खराबी की एक घटना का पेड़-पौधों की प्रजातियों पर बड़ा और लंबे समय तक चलने वाला प्रभाव था- जिससे उनका प्रसार ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों तक हो गया।

मिरेन साथियों के साथ कश्मीर में कुछ हमलावर प्रजातियों के प्रभाव का अध्ययन करने वाले राशिद ने कहा, “हालांकि, घुसपैठ करने वाली इन प्रजातियों के प्रभावों का शायद ही कभी मूल्यांकन किया गया हो। प्रत्येक प्रजाति अपने आप में खास है। हम घुसपैठ करने वाली सभी प्रजातियों को खराब पौधों का दर्जा नहीं दे सकते।” जैसे कि लगातार परेशानी पैदा करने वाली एक खर-पतवार फील्ड थीस्ल (Cirsium arvense), जो यूरोप और पूर्वी भूमध्यसागरीय मूल की है। इसे अंग्रेज एक सदी से भी पहले कश्मीर में लाए थे।

जोशी रिजाल ने इससे सहमति व्यक्त की। वह दोहराती हैं कि अधिकांश शोध घुसपैठ करने वाली प्रजातियों के फैलाव और प्रसार पर केंद्रित हैं, जबकि “अन्य विषयगत विषय जैसे नियंत्रण और प्रबंधन और प्रभाव क्षेत्र में कम अध्ययन किए जाते हैं।”

उन्होंने कहा, “हमें विदेशी प्रजातियों के प्रबंधन पर और अधिक जोर देने और समर्पित संसाधनों को आवंटित करने की जरूरत है। लेकिन इन पर अमल नहीं हुआ है। यह पर्याप्त सबूतों की कमी के चलते हो सकता है, विशेष रूप से विभिन्न देशों में विदेशी प्रजातियों से आर्थिक नुकसान का मूल्यांकन।”

एक हालिया विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने बताया कि विदेशी प्रजातियों की तरफ से भारतीय अर्थव्यवस्था पर डाले गए आर्थिक भार में जानकारी की स्पष्ट कमी का पता चलता है। पिछले 60 सालों में घुसपैठ करन वाली विदेशी प्रजातियों के चलते भारत को 127.3 अरब डॉलर (8.3 ट्रिलियन रुपये) का नुकसान हुआ है। यह रकम संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद सबसे ज़्यादा है। लेकिन यह आंकड़ा ज्ञात आक्रामक प्रजातियों में से सिर्फ 3% की लागत को दिखाता है।

विकासवादी जीवविज्ञानी आलोक बंग और उस विश्लेषण के प्रमुख लेखक कहते हैं, “घुसपैठ करने वाली प्रजातियां”, “जैविक आक्रमण” या क्षेत्रीय भाषाओं में घुसपैठ करने वाली प्रजातियों के सामान्य नामों के लिए खोज शब्दों की कमी, प्रासंगिक लागत स्रोतों की खोज को बाधित करती है। बंग ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “देशी प्रजातियों के बारे में जानकारी होना भी जरूरी है, ताकि देश के भीतर भी जैव विविधता एक जैसी न बन जाए। भारत (और किसी भी देश) के भीतर प्रत्येक क्षेत्र का अपना वनस्पति और जीव है, इसलिए विदेशी प्रजातियों की समस्या को दूर करने के लिए क्षेत्रीय ढांचा भी जरूरी है।”

 

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बैनर तस्वीर: कश्मीर में पहाड़ी सड़कों का सर्वेक्षण करते वैज्ञानिक। तस्वीर- परवेज़ डार/मोंगाबे

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