- कश्मीर घाटी की सर्दियां गर्म होती जा रही हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि स्टर्नबर्जिया वर्नालिस (गुल तूर) के फूलों के खिलने का समय मार्च के महीने के मध्य से हटकर फरवरी के महीने में आ गया है।
- जलवायु परिवर्तन की स्थितियों में इतनी क्षमता है कि वे पौधों और परागण के मेल को प्रभावित कर सकें। इसका असर यह होगा कि यह मेल न हो पाने पर पौधों और परागणों की प्रजातियां ही खतरें में आ जाएंगी और वे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जाएंगी।
- मौसम का अनियमित पैटर्न केसर में फूल आने के समय को भी प्रभावित कर रहा है। अब केसर के फूल नवंबर में आ रहे हैं और उस समय सूरज की रोशनी पर्याप्त नहीं होती है। तापमान सही न होने की वजह से लगभग 30 प्रतिशत फूल शुरुआती दौर में ही खराब होकर झड़ जाते हैं।
गुल तूर के पीले फूलों का खिलना, कश्मीर में दर्द भरी आंखों के लिए एक सुकून रहा है। कश्मीर में लंबी सर्दियों के बाद यह रंग गायब है। आम तौर पर पीले रंग का गुल तूर फूल कश्मीर घाटी में फूलों के खिलने की प्रक्रिया समझने के लिए काफी अहम भूमिका निभाता है।
हालांकि, अब गुल तूर के फूलों का खिलना कश्मीर में खुशियां लौटने का अग्रदूत नहीं रह गया है। अब गुल तूर के फूलों का खिलना या जल्दी खिलना यह दर्शा रहा है कि सबकुछ अब ठीक नहीं है। एक नई स्टडी में यह सामने आया है कि घास की प्रजाति के ये फूल अब एक महीने पहले ही खिलने लगे हैं क्योंकि कश्मीर घाटी में पिछले चार दशकों में तापमान में काफी बदलाव हुआ है।
कश्मीर यूनिवर्सिटी की ओर से की गई इस स्टडी में सामने आया है कि बसंत ऋतु में खिलने वाले फूलों जैसे कि स्टर्नबर्जिया वर्नालिस के फूलों के खिलने की फ़ीनोलॉजी (ऐसे फूलों के खिलने के पैटर्न और साइकल की स्टडी जो मौसम के हिसाब से बदलने वाली जलवायु से प्रभावित होते हैं) में बदलाव हुआ है। इसका कारण है कि हिमालय के कश्मीर क्षेत्र की जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहा है।
गुल तूर के खिलने के समय में हुआ बदलाव
इस स्टडी में पता चला है कि हर साल सालाना औसत अधिकतम तापमान में 0.038 डिग्री सेल्सियस और औसत न्यूनतम तापमान में 0.016 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है और तापमान में बढ़ोतरी का रुझान देखा गया है। वहीं, दैनिक तापमान की रेंज (एक दिन में न्यूनतम और अधिकतम तापमान में अंतर) में हर साल 0.023 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। शोधकर्ताओं को यह भी पता चला है कि पिछले चार दशकों (1980 से 2019 तक) में इस क्षेत्र में हर साल लगभग -1.24 मिलीमीटर बारिश कम हुई है और बारिश में लगातार कमी का रुझान देखा गया है।
इस स्टडी की मानें तो गुल तूर के फूल खिलने की फीनोलॉजी अब समय से पहले शुरू हो रही है। यानी अधिकतम तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने से फूलों का खिलना 11.8 दिन पहले हो जाता है और न्यूनतम तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से फूलों का खिलना 27.8 दिन पहले हो जाता है। इससे यह भी पता चलता है कि इन पौधों की प्रजातियों के फूल खिलने की फीनोलॉजी में जलवायु परिवर्तन की वजह से बड़ा बदलाव हुआ है।
कश्मीर यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर अन्जार खुरू के मुताबिक, ग्लेशियर का पिघलना और मौसम में अनियमित बदलाव दिखते हैं कि जलवायु में कितना परिवर्तन हो गया है। वह आगे कहते हैं, “फूलों की फीनोलॉजी (पत्तियों का गिरना, फूल खिलना, फल आना और अलग-अलग तरह के पौधों का समय के साथ आयु पूरी कर लेना) पूरी तरह से जलवायु पर निर्भर है। तापमान और बारिश में जैसे-जैसे बदलाव होता है, पौधे भी उसी के हिसाब से व्यवहार करते हैं।”
इस जलवायु परिवर्तन के दौरान ही कश्मीर यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट ने गुल तूर पर स्टडी के लिए मौसम, इतिहास और प्रायोगिक डेटा का इस्तेमाल किया और कई तरह के अध्ययन किए।
इस अध्ययन के बारे में विस्तार से बताते हुए अंजार खुरू कहते हैं, “श्रीनगर के मौसम विभाग के आंकड़ों के हिसाब से हमने घाटी के पिछले 40 साल के न्यूनतम और अधिकतम तापमान की जानकारी खंगाली। इन आंकड़ों से पता चला कि सर्दियां अब उतनी खतरनाक नहीं रहीं और शून्य से नीचे तापमान जाने की घटनाएं भी कम होती जा रही हैं। इसके अलावा, पिछले दशक से यह देखा जा रहा है कि फरवरी का महीना औसतन गर्म होता जा रहा है।”
वह कहते हैं कि मौसम विभाग के आंकड़ों को ऐतिहासिक आंकड़ों से जोड़कर देखा गया। इसमें KASH वनस्पति संग्रहालय में मौजूद साल 1980 का गुल तूर और उससे जुड़ा प्रायोगिक डेटा शामिल था।
खुरू आगे कहते हैं, “हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि तापमान में बढ़ोतरी के साथ ही सतह पर पड़ी बर्फ के पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि गुल तूर के फूलों के बीजों को पर्याप्त नमी और उचित तापमान तब ही मिलने लगता है जब बर्फ पिघलने की शुरुआत होती है। इसी के चलते गुल तूर के फूलों का खिलना 15 मार्च से हटकर फरवरी के मध्य में आ गया है।”
समय से पहले खिल रहे हैं कई प्रजातियों के फूल
कश्मीर यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट ने बसंत ऋतु के फूलों की आठ और प्रजातियों पर स्टडी की है जिसमें यह सामने आया है कि तापमान में बढ़ोतरी की वजह से ही फूलों का खिलना समय से पहले हो रहा है। ये आठ प्रजातियां- प्रुनुस पर्सिका (आड़ू), प्रुनुस टोमेनटोसा (डाउन चेरी), पॉपुलस अल्बा (सफेद चिनार), पॉपुलस डेल्टोइड्स (ईस्टर्न कॉटनवुड), उल्सम विलोसा (चेरी-बार्क एल्म), उल्मस वलीचिआना (हिमालयन एल्म), विबर्नम ऑपुलस (स्नोबॉल ट्री) और विबर्न कोटिनीफोलियम (स्मोकट्री लीव्ड विबर्नम) हैं।
इस रिसर्च के तहत इन प्रजातियों के फूलों की सुप्त पड़ी रहने वाली टहनियों का कंट्रोल्ड ग्रोथ चेंबर्स में अध्ययन किया गया, ताकि यह समझा जा सके कि अलग-अलग तापमान में इनकी फीनोलॉजी में किस तरह के बदलाव होते हैं।
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इस स्टडी की मुख्य लेखिका तब्बसुम हसन कहती हैं कि फूलों की ये प्रजातियां तापमान में बदलाव के प्रति भी संवेदनशील हैं। वह आगे कहती हैं, ‘हमने आठ अलग-अलग प्रजातियों की टहनियों के दो पहलुओं पर गौर किया- फूल कब खुलता है और कब सूखता है। हमारे अध्ययन में यह पता चला कि तापमान में बढ़ोतरी के साथ फूल जल्दी खिल रहे थे। वहीं, फूलों का सूखना, उनके खिलने से जल्दी हो रहा था।’
CSIR-इंस्टिट्यूट ऑफ बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी में सीनियर साइंटिस्ट गौरव जिंटा का कहना है कि गर्मी का मतलब है कि फूल जल्दी खिलेंगे लेकिन इस बदलाव के कई प्रभाव भी हैं जैसे कि ‘इकोलॉजिकल मिसमैच’ होना। इससे, पौधों और परागणों का आपसी संबंध भी प्रभावित होता है।
गौरव जिंटा आगे समझाते हैं, “उदाहरण के लिए, गर्मी की वजह से फूल जल्दी आते हैं लेकिन मधुमक्खी जैसे परागण उस समय पर उपलब्ध नहीं होते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि फूलों की संख्या नहीं बढ़ती और उनका उत्पादन कम हो जाता है। पृथ्वी के इस इकोसिस्टम में जानवरों की मदद से होने वाला परागण काफी अहम पारिस्थितिक लेनदेन है। इसमें मुख्य तौर पर कीट-पतंगें अपनी भूमिका निभाते हैं और वैश्विक स्तर होने वाले खाद्य उत्पादन में 9.5 प्रतिशत का योगदान देते हैं।”
गौरव आगे कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पौधों और कीट-पंतंगों की एक-दूसरे पर निर्भरता प्रभावित हो सकती है और इसका नतीजा यह होगा कि इनके बीच आपसी लेनदेन प्रभावी रूप से नहीं हो पाएगा। ऐसा न हो पाने के चलते पौधों और परागणों की प्रजातियां विलुत्प होने की कगार पर पहुंच जाएंगी।
उनका मानना है कि फूलों का जल्दी खिलना ठंड के मौसम के साथ-साथ होता है, ऐसे में जब ये फूल समय से पहले खिलने लगते हैं तो इस बात की आशंका ज्यादा है कि ये ठंड का शिकार भी होंगे।
गौरव बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से फूलों के उत्पादन और उत्तर-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के साथ-साथ हिमाचल और कश्मीर में सर्दी के मौसम में मिलने वाले फलों की गुणवत्ता पर भी काफी असर पड़ा है। वह कहते हैं, “इसका नतीजा यह हुआ है कि सेब की खेती के लिए ज्यादा उंचाई और मध्यम या कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में कई तरह के बदलाव हुए हैं।”
उनका कहना है कि फूलों का जल्दी खिलना रोकने के लिए यह जरूरी है कि हम पृथ्वी के गर्म होने की रफ्तार को थोड़ा कम करें।
वह आगे कहते हैं, “हमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा, ग्रीन एनर्जी की ओर चलना होगा, बारहमासी फसलों की खेती करनी होगी, कम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करने वाली टेक्नोलॉजी की अपनाना होगा और हमारे ट्रांसपोर्ट सिस्टम में बड़ा बदलाव (इलेक्ट्रिक या ग्रीन एनर्जी आधारित) लाना होगा।”
वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (WII) देहरादून के पूर्व डीन और सीनियर साइंटिस्ट गोपाल रावत का कहना है कि कई अध्ययनों में सामने आया है कि ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में निचले क्षेत्रों की तुलना में औसत सालाना तापमान में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। वहीं, औसत अधिकतम तापमान की तुलना में औसत न्यूनतम तापमान में अंतर ज्यादा हुआ है।
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वह कहते हैं, “उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में पिछले एक दशक में मॉनसून का आना थोड़ा देरी से होने लगा है।” उनका कहना है पहाड़ों में सबसे बड़ी चिंता प्रतिकूल मौसम वाली घटनाओं जैसे कि ओला वृष्टि, बेमौसम बारिश इत्यादि का बार-बार होना है। इससे उत्तर-पश्चमी हिमालय क्षेत्र में बागवानी और खेती प्रभावित होगी।”
गोपाल रावत यह भी कहते हैं, “इसके अलावा, जल्दी फूल आने से कई पारिस्थितकीय प्रभाव भी पड़ेंगे जिनमें फलों या बीजों का उत्पादन कम होना भी शामिल है। ऐसा होने की वजह यह है कि परागण नहीं होंगे और इन प्रजातियों के फीनो चरणों पर असर पड़ेगा।”
इस समस्या के वैज्ञानिक हल के बारे में बात करते हुए गोपाल राव कहते हैं कि ऐसी प्रजातियां विकसित करने और अपनाने की जरूरत है जिनमें जल्दी फूल भी आएं और वे जल्दी तैयार भी हो जाएं। वह कहते हैं, “एक और संभावना यह हो सकती है कि मौसम का एकदम सटीक अनुमान लगाया जाए और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके ओलावृष्टि को टाला जाए।”
संकट में है केसर की खेती
जहां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी व्यापक हैं वहीं कश्मीर का सबसे महंगा मसाला यानी केसर (Crocus Sativus) भी प्रतिकूल मौसम के बुरे प्रभावों को झेल रहा है।
ईरान के बाद दुनिया में भारत ही केसर का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत में सबसे बेहतर क्वालिटी का केसर केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में ही पैदा होता है। केसर को संयुक्त राष्ट्र संघ के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (FAO) की ओर से भारत के ‘ग्लोबली इंपॉर्टेंट एग्रीकल्चरल हेरिटेज सिस्टम’ के रूप में भी पहचान मिली है। इसके अलावा, केसर को जियोग्राफिकल इंडेकेशन यानी जीआई टैग भी मिला है।
हालांकि, कश्मीर में साल 2014 से 2017 के अनियमित मौसम ने केसर की खेती की व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया है। कश्मीर में स्थित शेर-ए-कश्मीर, यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी ऑफ कश्मीर की एक स्टडी के मुताबिक, “खराब मौसम की वजह से केसर के उत्पादन में कमी आई है। साल 2013 में जहां केसर का उत्पादन 16.5 मीट्रिक टन था, वह 2017 में घटकर 1.5 मीट्रिक टन रह गया।”
CSIR-इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ इंटिग्रेटिव मेडिसिन के प्लांट बायोटेक्नोलॉजी एंड एग्रो-टेक्नोलॉजी डिवीजन में सीनियर साइंटिस्ट वाजिद वहीद भट्ट कहते हैं कि केसर के लिए कई अलग-अलग फीनोलॉजिकल स्टेज हैं। वह बताते हैं कि पहला स्टेज 1 मई से 25 (जब घनकंद सक्रिय नहीं होता) जनवरी तक होता है। इस अवधि के दौरान, केसर के घनकंद (पौधे का वह तना जो जमीन के अंदर होता है और उसमें उसका भोजन इकट्ठा होता है) में न तो कोई बाहरी बदलाव होता है और न ही कोई बढ़ोतरी होती है। इसके बाद 26 जून से 25 अगस्त तक दूसरा स्टेज शुरू होता है। यह काफी अहम स्टेज है क्योंकि इसी दौरान घनकंद के अंदर फूलों का विकास शुरू होता है।
इसके बाद 26 अगस्त से 30 सितंबर तक कलियों का अंकुरण शुरू होता है। केसर की कलियों को उनके अंकुरण की शुरुआत के हिसाब से, जड़ों के विकास के हिसाब से और शुरुआती फूलों के हिसाब से वर्गीकृत किया जाता है। इसके अलावा, केसर के फूलों में खाने और पानी के लिए शिराएं भी साफ-साफ दिखाई देती हैं।
इसके बाद अगला चरण वह होता है जिसमें अंकुर (सामान्य तौर पर तीन खोल से ढके हुए) जमीन की सतह से बाहर आने लगते हैं। इस स्टेज पर 41 दिनों की अवधि (1 अक्टूबर से 10 नवंबर) के बीच मौसम इसे प्रभावित करता है। सबसे लंबा और सबसे अहम पीरियिड 11 नवंबर से 31 मार्च तक होता है और इस दौरान वानस्पतिक चरण चलता है। इस स्टेज पर पत्तियों का विकास होता है और घनकंदों के लिए जरूरी पोषक तत्व मिलता है।
इसके बारे में वाजिद कहते हैं, “कश्मीर घाटी में मौसम की अनियमित पैटर्न की वजह से केसर के फूलों के आने में देरी हुई है। हमने यह भी देखा है कि पिछले कुछ सालों में अक्टूबर महीने में औसत तापमान 25 डिग्री सेल्सियस रहता है जबकि इसे 20 डिग्री सेल्सियस से कम हो जाना चाहिए।” वह आगे यह भी बताते हैं कि इसका नतीजा यह होता है कि केसर के फूल नवंबर में आते हैं जब सूरज की रोशनी पर्याप्त नहीं मिल पाती है।
वाजिद आगे कहते हैं, “अगर फूल आ भी जाते हैं तब भी 30 प्रतिशत फूल अंकुरण के समय ही खराब हो जाते हैं कि क्योंकि तापमान उनके हिसाब से ठीक नहीं होता है।”
उनके मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से केसर के फूलों का समय 20 दिन कम हो गया है। वह आगे कहते हैं, “पहले फूल 1 अक्टूबर से 10 नवंबर तक आते थे। पिछले कुछ सालों में पूलों की तुड़ाई भी कम हुई है। पहले हम तीन से चार बार फूलों की तुड़ाई करते थे। अब तापमान की स्थिति की वजह से केसर की खेती ज्यादा ऊंचे इलाकों में जा रही है। अब हम मध्यम ऊंचाई वाली पहाड़ियों की ओर जा रहे हैं।”
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बैनर तस्वीर: कश्मीर यूनिवर्सिटी के बोटैनिकल गार्डेन में मौजूद स्टर्नबर्जिया वर्नालिस यानी गुल तूर के फूल।
तस्वीर- कश्मीर यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट में असिस्टैंट प्रोफेसर अंजान खुरू।