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[कॉमेंट्री] स्थानीय स्तर पर पानी की सफाई से दूर होगा जल संकट

थार रेगिस्तान में ऊंट को पानी पिलाता एक ग्रामीण। एक अनुमान है कि साल 2030 तक भारत में 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होगी। तस्वीर- व्याचेस्लाव आर्जेनबर्ग / विकिमीडिया कॉमन्स

थार रेगिस्तान में ऊंट को पानी पिलाता एक ग्रामीण। एक अनुमान है कि साल 2030 तक भारत में 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होगी। तस्वीर- व्याचेस्लाव आर्जेनबर्ग / विकिमीडिया कॉमन्स

  • भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में गंदे पानी के शोधन के लिए अपनाई जाने वाली विकेन्द्रीकृत दूषित जल शोधन व्यवस्था (DEWATS) को कम खर्चीला तरीका माना जाता है।
  • समय के साथ DEWATS के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं क्योंकि इन तरीकों से पानी की सफाई के लिए तय मानक पूरे नहीं हो पाते हैं। इसमें, आम लोगों का भाग न लेना और रख-रखाव के लिए तकनीक से जुड़े उपाय न करना भी बड़ी चुनौतियों में शामिल है।
  • इस कॉमेन्ट्री के लेखकों का मानना है कि अगर पानी की ज्यादा कीमतों, तकनीक अपनाने के लिए सख्त नियम और सिस्टम को जल्दी अपनाने पर इनाम दिया जाए तो विकेंद्रीकरण दूषित जल शोधन और दोबारा इस्तेमाल की व्यवस्था फिर से प्रचलित हो सकती है।
  • इस कॉमेंट्री में दिए गए विचार लेखकों के हैं।

साल 2030 तक भारत में पानी की जरूरत 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाएगी। भारत में जितना सीवेज या अपशिष्ट जल निकलता है उसमें से सिर्फ 16.8 प्रतिशत की सफाई करके उसका दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। पानी की डिमांड और सप्लाई में इतना बड़ा अंतर है कि इसकी भरपाई दूषित पानी की रीसाइकलिंग करके और उसे फिर से इस्तेमाल करके ही हो सकती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के घरेलू दूषित पानी से जुड़े आंकड़े दर्शाते हैं कि जो पानी साफ किया जाता है उसमें से सिर्फ 5 प्रतिशत पानी का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है।

नेशनल एनुअल रूरल सैनिटेशन सर्वे (NARSS) की साल 2019-20 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 95.2 प्रतिशत ग्रामीण जनता निजी शौचालयों का इस्तेमाल करती है। स्वस्छ भारत मिशन की कामयाबी इतनी रही है कि बीते कुछ सालों में खुले में शौच की आदत में कमी आई है। इसके बावजूद, भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी इलाकों में घरों से निकलने वाले दूषित पानी के निपटारे का इंतजाम अभी भी पुराना ही है। इन क्षेत्रों में अभी भी खुली नालियों, जलाशयों या सोख्तों में दूषित पानी बहाया जा रहा है।

सोख्ते ऐसे लंबवत गड्ढे होते हैं जिनकी गहराई कम होती है और उनकी दीवारें छेदनुमा चेंबर की बनी होती हैं। इन चेंबर की वजह से सूखा कचरा और पानी की गंदगी रुक जाती है और धरती धीरे-धीरे पानी को सोख लेती है। इन सोख्तों का मैनेजमेंट सही से न होने, जैसे कि समय-समय पर जैविक ठोस पदार्थों को न निकालने पर बारिश के मौसम में सोख्तों के अंदर का गंदा पानी बाहर बहने लगने, को वजह से जमीन के अंदर का पानी दूषित होता है और गंदे पानी से होने वाली बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। गंदे पानी की सफाई के लिए इस्तेमाल होने वाली सोख्ता गड्ढा तकनीक का मैनेजमेंट अगर सही से न किया जाए तो इससे पानी की सफाई ठीक से नहीं हो पाती और गंदा पानी जमीन में जाने लगता है।

इसके अलावा, इस तरह की तकनीक में पानी का दोबारा इस्तेमाल बेहद सीमित होता है। इसमें सलाह दी जाती है कि ग्रामीण और अर्ध शहरी इलाकों में एकीकृत विकेन्द्रीकृत दूषित जल शोधन व्यवस्था (DEWATS) व्यवस्था का इस्तेमाल किया जाए, ताकि दूषित पानी से ट्रीटेड पानी बढ़ाया जा सकेगा। स्थानीय स्तर पर इस पानी का दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा और ताजे पानी की मांग घटाई जा सकेगी।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के डेटा के मुताबिक, भारत में शोधित किए जाने वाले दूषित पानी के सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्से का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- मैके सैवेज / फ़्लिकर
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के डेटा के मुताबिक, भारत में शोधित किए जाने वाले दूषित पानी के सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्से का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर– मैके सैवेज / फ़्लिकर

DEWATS व्यवस्था

एशियन डेवलपमेंट बैंक की साल 2020 की रिपोर्ट डीसेंट्रलाइज्ड वेस्टवाटर एंड फीकल स्लज मैनेजमेंट: केस स्टडीज फ्रॉम इंडिया, में बताया गया है कि भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी इलाकों में दूषित पानी की सफाई के लिए सबसे कम खर्च वाली व्यवस्था DEWATS ही है। DEWATS में ही ऐसी कई तकनीकी व्यवस्थाएं मौजूद हैं कि जिन्हें स्थानीय जरूरतों के हिसाब से इस्तेमाल में लाया जा सकता है।

भारत में DEWATS तकनीक के अंतर्गत इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके कुछ इस प्रकार हैं। इसमें वेटलैंड, एक्टीवेटेड स्लज प्रोसेस, दूषित पानी को स्थिर करने के लिए तालाब और USAB (अवायवीय पाचक) हैं। इसके अलावा, एयरेशन प्रोसेस, मूविंग बेड बायो फिल्म वाले रिएक्टर, सीक्वेंशियल बैच रिएक्टर, मेम्ब्रेन बायोरिएक्टर, बायो टावर्स और एनारोबिक बैफल्ड वॉल रिएक्टर्स हैं।

DEWATS व्यवस्था की प्रतीकात्मक तस्वीर। भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में दूषित पानी को साफ करने के लिए सबसे कम खर्चीली व्यव्स्था यही है। तस्वीर- सुसाना सचिवालय / फ़्लिकर
DEWATS व्यवस्था की प्रतीकात्मक तस्वीर। भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में दूषित पानी को साफ करने के लिए सबसे कम खर्चीली व्यव्स्था यही है। तस्वीर– सुसाना सचिवालय / फ़्लिकर

वेटलैंड बनाकर दूषित पानी को विकेंद्रीकरण प्रक्रिया से साफ करने का तरीका काफी फायदेमंद हो सकता है क्योंकि इसमें दूषित पानी का निपटारा काफी सुरक्षित होता है और यह स्वच्छ भारत मिशन के लक्ष्यों को भी पूरा करता है। यह एक ऐसी तकनीक है जो काले और भूरे दोनों पानी को साफ कर सकती है और उसमें से भारी धातुओं को अलग कर सकती है। इसमें ऊर्जा की खपत कम होती है, इसके रख-रखाव का खर्च कम है और सामाजिक व्यवस्था में इसे आसानी से स्वीकार किया जाता है और यह टिकाऊ भी है। इन नतीजों की पुष्टि पश्चिम बंगाल में स्थित जादवपुर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ वाटर रिसोर्स इंजीनियरिंग की स्टडी ने भी की है। इस स्टडी में 1200 लीटर प्रति दिन क्षमता करने वाले कृत्रिम वेटलैंड का अध्ययन किया गया जिसमें विकेंद्रीकरण पद्धति से पानी साफ किया जाता था। यह प्रोजेक्ट पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में पायलट आधार पर चलाया गया। इसमें भूरे पानी को साफी किया जाता है।


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लोगों के घरों की रसोई, नहाने, कपड़े थोने और टॉइलट के फ्लश से निकलने वाले पानी को तेल और ग्रीस अलग करने वाली मशीन से गुजारा गया और फिर एक बड़े टैंक में इसमें काला पानी मिलाया गया। इस वेटलैंड सिस्टम में कृत्रिम तरीके से बनाए गए एरोबिक, एनॉक्सिक और ऐनेरॉबिद जोन का इस्तेमाल करके दूषित पानी को शोधित करने की प्रक्रिया को बेहतर बनाने की कोशिश की गई। इसके नतीजे दिखाते हैं कि दूषित पानी में से 85 से 90 प्रतिशत प्रदूषक और भारी धातुएं निकल गईं जो दिखाता है कि यह कितना कामयाब है। इन प्रयोगों के नतीजे बताते हैं कि इस तरह से बनाए जाने वाले वेटलैंड भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण दूषित जल शोधन में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

मौजूदा चुनौतियां

पानी की कमी की समस्या दूर करने के लिए अभी की जरूरत यह है कि दूषित पानी का फिर से इस्तेमाल किया जाए। यह बिल्कुल उपयुक्त स्थिति है जब खास कर ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में दूषित पानी को साफ करने के लिए DEWATS व्यवस्था की शुरुआत की जाए। वैसे तो भारत में DEWATS की क्षमता बढ़ाने के लिए राजनीतिक मंशा दिखती है। इसके साथ ही, ऐसी एकीकृत रणनीति विकिसत करने की भी जरूरत है जो सामाजिक-आर्थिक और भौतिक ढांचे के बीच संतुलन साध सके।

भारत के ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में बने DEWATS समय के साथ कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं क्योंकि तय मानकों के हिसाब से वे प्रदूषकों को पानी से अलग नहीं कर पा रहे हैं। इसका सबसे अहम कारण है कि इसमें आम जनता की भागीदारी बहुत कम होती है और इसके रख-रखाव के लिए तकनीक से जुड़े नियमों को अपनाया नहीं जाता है।

भारत में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कार्यक्रम चल रहे हैं जो इनसे जुड़ी गाइडलाइन्स और इन्सेंटिव देते हैं। ऐसे में जरूरत है कि DEWATS के बेहतर मैनेजमेंट के लिए एक मजबूत कानूनी और नीतिगित फ्रेमवर्क तुरंत लागू किया जाए। यह भी जरूरी है कि इसके लिए एक केंद्रीय गर्वनेंस मॉडल तैयार किया जाए जो सरकारी एजेंसियों के बीच तालमेल, मार्केट गवर्नंस मैकेनिज्म और सभी हिस्सेदारों की सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित करने का काम करे।

दूषित पानी की सफाई के लिए नई व्यवस्था बनाना, सीवर सिस्टम को अपग्रेड करना, दूषित पानी की सफाई की मौजूदा टेक्नोलॉजी को बेहतर करना और इन सबके आर्थिक पहलुओं का ध्यान रखा, भारत की जल अर्थव्यवस्था के लिए बेहद जरूरी है। ‘स्वच्छ भारत’ का विजन या ‘क्लीन इंडिया’ कैंपेन तभी और सफल होगा जब बिल्ट इन टॉइलट से ही पानी के दोबारा इस्तेमाल पर ध्यान दिया जाएगा और घरों से निकलने वाले गंदे पानी को उनके स्रोतों से दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। इन समस्याओं का हल निकालने में और जमीनी स्तर पर इसे लागू करने में थिंक टैंक अहम भूमिका निभा सकते हैं।

इसलिए, अभी की जरूरत है कि इन व्यवस्थाओं को चलाने, इनमें नए विचार लाने और इन पर नजर रखने के लिए एक मजबूत व्यवस्था विकसित की जाए। विकेंद्रीकरण दूषित जल शोधन और दोबारा इस्तेमाल की व्यवस्था दोबारा चर्चा में आ सकती है अगर इसके साथ ही पानी को थोड़ा महंगा किया जाए और इस तरह की व्यवस्था को जल्दी लागू करवाया जाए और खुद से लागू करने वालों को प्रोत्साहित किया जाए।

 

इस कॉमेंट्री को द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (TERI), नई दिल्ली के रिसर्स असोसिएट्स ने लिखा है। इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: थार रेगिस्तान में ऊंट को पानी पिलाता एक ग्रामीण। एक अनुमान है कि साल 2030 तक भारत में 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होगी। तस्वीर व्याचेस्लाव आर्जेनबर्ग / विकिमीडिया कॉमन्स

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