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[वीडियो] समान सिंचाई के मॉडल से बदलती महाराष्ट्र के इस सूखाग्रस्त क्षेत्र की तस्वीर

आटपाडी में अपने शिमला मिर्च के पौधों की देखभाल करती एक महिला। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे

आटपाडी में अपने शिमला मिर्च के पौधों की देखभाल करती एक महिला। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे

  • महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के पूर्वी किनारे के ऊपरी हिस्से में बसा आटपाडी तालुका ऐतिहासिक रूप से एक सूखाग्रस्त क्षेत्र है।
  • आटपाडी तालुका में पानी के समान वितरण के लिए किसानों और कार्यकर्ताओं का दशकों पुराना संघर्ष एक पायलट परियोजना के आने के बाद खत्म हुआ।
  • व्यापक दृष्टिकोण को अपनाते हुए पानी के समान वितरण के मॉडल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें टेंभू लिफ्ट सिंचाई योजना के जरिए बाहर से लाए गए पानी की आपूर्ति के साथ-साथ सतही निकायों और गांव के भूजल का इस्तेमाल भी शामिल है।

लगभग 1.5 लाख से ज्यादा आबादी वाले दक्षिणी महाराष्ट्र के सांगली जिले के आटपाडी तालुका (प्रशासनिक प्रभाग) में लगभग 60 गाँव हैं। यह इलाका सह्याद्रि के सुदूर पूर्वी हिस्से में कृष्णा बेसिन के ऊपरी हिस्से में पड़ता है जिसे ऐतिहासिक रूप से वर्षा-छाया क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। यहां हर साल मुश्किल से 300-350 मिमी बारिश होती है, जिसकी वजह से इस क्षेत्र को अक्सर सूखे का सामना करना पड़ता है। साल 2012 में आटपाडी में भयंकर सूखा पड़ा था। उसके बाद 2016 और 2019 में भी सूखे की स्थिति बनी रही। इसके बाद से  इसे दुष्काल की भूमि या सूखे की भूमि के रूप में जाना जाने लगा। 

यहां के स्थानीय लोग, परंपरागत रूप से, पशुओं को चराने और बाजरा, ज्वार के थोड़ी-बहुत खेती कर अपना गुजर-बसर करते आए हैं। बहुत से लोग कपडा मिलों में मजदूरी करने या कुलियों का काम करने के लिए शहरों की ओर पलायन कर गए। कुछ ने पश्चिमी महाराष्ट्र की तरफ रूख कर लिया और पानी से भरपूर क्षेत्रों में गन्ना काटने का काम करने लगे। आटपाडी कृषि पॉलिटेक्निक के प्रिंसिपल सचिन खंडागले ने कहा, “अगर आप 10 साल पहले भी यहां आए होते, तो आपको झाड़ियों और घास चरते पशुओं के अलावा कुछ नहीं दिखता। यह क्षेत्र पूरी तरह से सूखा-ग्रस्त था। ” 

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लेकिन पिछले तीन सालों या इससे थोड़े अधिक समय में इस इलाके की तस्वीर बदल गई है। कुछ गांव अनार के खेतों से समृद्ध हैं, तो कुछ अन्य अंगूर, गन्ना, टमाटर, हाथी घास और ज्वार व बाजरा जैसे अनाज उगा रहे हैं। किसान पहले से ज्यादा खुश नजर आते हैंउनकी आय बेहतर हो गई है। यहां अब पीने के लिए और खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कोई कमी नहीं है। काम के लिए शहरों की ओर पलायन करने वाले लोगों की संख्या भी काफी कम हो गई है। 

आटपाडी में अनार का बाग। तस्वीर- जयसिंग चव्हाण/ मोंगाबे 
आटपाडी में अनार का बाग। तस्वीर- जयसिंग चव्हाण/ मोंगाबे

जिस तरह का आटपाडी आज नजर आ रहा है, वह दरअसल किसानों, वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं द्वारा पानी के समान वितरण के एक कार्यशील मॉडल को लाने के लिए दशकों से किए जा रहे प्रयासों का फल है।  यह साबित करता है कि सूखा प्रभावित इलाकों को भी बदला जा सकता है।

यह मॉडल इस सिद्धांत पर आधारित है कि हर व्यक्ति, अब चाहे वह जमीन का मालिक हो या न हो, को सिंचाई के लिए पानी का अधिकार है। इस मॉडल में एक व्यापक नजरिए को अपनाते हुए लिफ्ट सिंचाई योजना के जरिए बाहर से लाए गए पानी की आपूर्ति के साथ-साथ सतही निकायों (नदियां,जलाश्य, झीलें आदि) और गांव के भूजल का इस्तेमाल करना शामिल है।

बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल से शुरू हुआ जल वितरण आंदोलन

आटपाडी में बदलाव का ये सफर 1982-83 की बॉम्बे टेक्सटाइल में हड़ताल के साथ शुरू हुआ था। जनवरी 1982 में बॉम्बे (अब मुंबई) की मिलों में काम करने वाले दो लाख से ज्यादा कपड़ा मजदूर हड़ताल पर चले गए। दरअसल इनमें से कई मजदूर पहले किसान थे और खानपुर, आटपाडी और दक्षिणी महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से पलायन कर यहां आए थे। बेहतर वेतन और बोनस की मांग के अलावा हड़ताल का उद्देश्य मौजूदा ट्रेड यूनियन, राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ (आरएमएमएस) या नेशनल मिल वर्कर्स एसोसिएशन के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करना भी था। मजदूर एक स्वतंत्र संघ स्थापित करना चाहते थे। श्रमिक मुक्ति दल (टाइलर्स लिबरेशन लीग) के कार्यकर्ता और सह-संस्थापक भरत पाटणकर ने कहा, “हड़ताल 18 महीने तक चली। जब मजदूरों का पैसा खत्म हो गया, तो वे गांवों में वापस आ गए।”

 श्रमिक मुक्ति दल एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन है जो सूखे, बांध, परियोजना की वजह से बेदखली और जाति उत्पीड़न से जुड़े मुद्दों पर किसानों व श्रमिकों को संगठित करता है। पाटणकर महाराष्ट्र में पानी के समान वितरण के मॉडल के वास्तुकारों में से भी एक हैं।

श्रमिक मुक्ति दल (टॉयलर लिबरेशन लीग) द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन की तस्वीर। फोटो-शेतमजूर कश्तकारी शेतकरी संगठन (एसकेएसएस) के संग्रह से ली गई है। 
श्रमिक मुक्ति दल (टॉयलर लिबरेशन लीग) द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन की तस्वीर। फोटो-शेतमजूर कश्तकारी शेतकरी संगठन (एसकेएसएस) के संग्रह से ली गई है।

उस समय आटपाडी सूखे का सामना कर रहा था। जल शोधकर्ता, कार्यकर्ता और सोसायटी फॉर प्रमोटिंग पार्टिसिपेटिव इकोसिस्टम मैनेजमेंट (SOPPECOM) के सह-संस्थापक के. जे. जॉय ने बताया कि कई प्रवासी मजदूर आटपाडी और आसपास के सूखाग्रस्त इलाकों में लौट आए थेउन्हें राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना के तहत नौकरी दी गई। जॉय की राय में हालांकि यह योजना नेक इरादों के साथ शुरु की गई थी और यह मजदूरों को नियमित रोजगार भी दे रही थी लेकिन काम की गुणवत्ता आदर्श नहीं थी। 

मजदूर, जो मूल रूप से छोटे-भूस्वामी और किसान थे, उन्हें उनके खेतों से संबंधित काम के बजाय सड़क बनाने या पत्थर तोड़ने का काम दिया गया। उन्होंने आगे कहा, “अपने सूखाग्रस्त गांवों में उनके पास ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़े थे, लेकिन ज़मीन को जोतने के लिए पानी नहीं था।”

भूजल दोहन इस क्षेत्र में सूखे के कई कारणों में से एक रहा है। भूजल दोहन के इतिहास के बारे में बताते हुए पाटणकर ने कहा कि पूर्व-औपनिवेशिक काल में इन क्षेत्रों में खेती सिर्फ उन इलाकों में की जाती थी जहां मिट्टी की गहराई छह इंच से ज्यादा थी। बाकी की जमीन मवेशियों के चरने के लिए छोड़ दी जाती। लेकिन जब अंग्रेजों ने भूमि कर वसूलना शुरू किया, तो लोगों ने आमदनी के लिए उस जमीन पर भी खेती करनी शुरू कर दिया जो खेती के लिए नहीं थी। कुओं को खोदने की संख्या काफी तेजी से बढ़ने लगी। एकल खेती ने बिजली और डीजल पंपों की मांग को बढ़ा दिया। ये लोग सिंचाई के लिए जमीन से निकाले गए पानी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे थे। पाटणकर ने कहा, “हमने पाया कि खानापुर में 1972 से 1983 के बीच भूजल का कई सौ गुना अधिक दोहन हुआ था। यह 1972 से पहले के समय की तुलना में 500 गुना अधिक था।” 

पाटणकर ने बताया कि वह ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नक्शेकदम पर चलते हुए यहां तक पहुंचे हैं। लोग उन्हें महात्मा फुले के नाम से भी जाते हैं। वह  एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पाटणकर ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “महात्मा फुले ने पहली बार पानी के समान वितरण का उल्लेख किया था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कहा कि वे हर किसान को पाइप से पानी दें। किसानों को उनकी फसल की जरूरत के अनुसार पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। यह न तो अधिक होना चाहिए और न ही कम।”

पानी का समान वितरण

पानी के समान वितरण की अवधारणा पानी को एक सार्वजनिक संसाधन मानने से आती है। पाटणकर ने कहा, “पानी निजी संपत्ति नहीं है। लेकिन पानी के इस्तेमाल का निजीकरण हो जाता है, क्योंकि कृषि भूमि निजी स्वामित्व में है।”

कृषि क्षेत्र में कई प्रकार की भूमि-जोत और भूमिहीन मजदूर शामिल होते हैं। उस मानदंड के अनुसार, पानी जैसे सार्वजनिक संसाधन का भूमि के स्वामित्व के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा, “इसलिए, जिन लोगों के पास ज्यादा जमीन है उन्हें ज्यादा पानी मिलता है। जबकि कम जमीन वाले और भूमिहीन किसानों को कम पानी मिलता है या खेती के लिए पानी नहीं मिलता है। वो सिर्फ पीने के पानी मिलने के हकदार होते हैं।”

इसके अलावा  बांध के जरिए सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति करने का तरीका भी असमानता पैदा करता है। क्योंकि जो लोग सप्लाई क्षेत्र के आस-पास होते हैं उन तक पानी की पहुंच बेहतर पहुंच होती है।

आटपाडी में मिट्टी के वाटर रिटेंशन का अध्ययन करने के लिए एक प्रयोग चल रहा है। तस्वीर-जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे 
आटपाडी में मिट्टी के वाटर रिटेंशन का अध्ययन करने के लिए एक प्रयोग चल रहा है। तस्वीर-जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे

पाटणकर ने कहा कि पानी का समान वितरण आजीविका के अधिकार पर आधारित होना चाहिए और इस देश के किसी भी नागरिक को आजीविका का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “चाहे आप जमीन के मालिक हों या न हो या फिर आपके पास जमीन ज्यादा है या कम, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आजीविका की जरूरतों को पूरा करने के लिए जो भी उत्पादन किया जा रहा है, उसके लिए पानी की एक निश्चित मात्रा की जरूरत होती है और इतना पानी हर व्यक्ति को दिया जाना चाहिए।

पानी के समान वितरण पर जोर देने वाले कार्यकर्ताओं, किसानों और वैज्ञानिकों के समूह ने कई अध्ययन करने के बाद तय किया कि प्रति घर (हर परिवार) प्रति वर्ष 5,000 क्यूबिक मीटर पानी सिंचाई के लिए दिया जाना चाहिए। इस पर सहमति के साथ, अगला कदम जल स्रोतों की पहचान करना और कार्यान्वयन में सहायता के लिए सरकार तक पहुंचना था।

फिर समूह ने आटपाडी गांव में मौजूद जल स्रोतों की जानकारी पाने के लिए सर्वे किया। पाटणकर ने समझाया, “समान पानी के वितरण में सभी स्रोतों को एकीकृत करके, उपलब्ध कुल पानी का समान रूप से लोगों को मुहैया कराया जाता है। ये स्रोत हमारे पास पहले से ही सतह, भूजल और सीटू के रूप में मौजूद हैं।

वाटर लिफ्टिंग

जब आटपाडी के लोगों ने यह जान लिया कि वे सिंचाई के लिए पानी के अपने अधिकार की मांग कर सकते हैं, तो पानी के समान इस्तेमाल के लिए आंदोलन भी तेज हो गया। आटपाडी के एक स्थानीय किसान एवं खेतिहर मजदूर संघ शेतमजूर कश्तकारी शेतकरी संगठन (एसकेएसएस) और आस-पास के सूखा-ग्रस्त 13 तालुकों ने कई आंदोलन किए। ये आंदोलन 2000 के दशक की शुरुआत में और अधिक केंद्रित हो गए। इसमें किसानों के लिए विचार-विमर्श और मंच भी आयोजित किए गए।

महाराष्ट्र सरकार से उनकी मुख्य मांग थी कि कृष्णा नदी से पर्याप्त पानी “लिफ्ट” किया जाए और तत्कालीन प्रस्तावित टेंभू लिफ्ट सिंचाई योजना (टीएलआईएस) के जरिए एक समान तरीके से उनके गांवों में लाया जाया जाए। वह मांग कर रहे थे कि इससे मिलने वाले पानी को 13 जिलों में रहने वाले भूमिहीनों मजदूरों समेत सभी परिवारों को समान रूप से वितरित किया जाना चाहिए। राज्य और महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम (एमकेवीडीसी) ने घरों के आधार पर पानी के समान वितरण के इस विचार का विरोध किया और ग्रेविटी कमांड क्षेत्र आधारित सिंचाई को प्राथमिकता दी।

जॉय ने बताया कि तत्कालीन प्रस्तावित टेंभू लिफ्ट सिंचाई परियोजना के मूल डिजाइन के हिस्से के रूप में  आटपाडी तालुका को 16,000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के लिए 4.42 टीएमसी पानी आवंटित किया जाना था। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “मूल प्रस्तावित डिजाइन के अनुसार तो आटपाडी (फसली क्षेत्र 50,000 हेक्टेयर से अधिक है) के फसली क्षेत्र के एक-चौथाई हिस्से की भी सिंचाई नहीं पाती। कुछ गांव आंशिक रूप से सिंचित होते तो कुछ इससे पूरी तरह से बाहर हो जाते। इसका मतलब यह होता कि कई किसानों को पानी नहीं मिल  पाएगा। उन्होंने आगे कहा, “हमने अपना अध्ययन (समूह द्वारा किए गए सभी सर्वेक्षणों के आधार पर) सामने रखा और महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम (MKVDC) को प्रस्ताव दिया। गांव वालों ने वापस लड़ाई शुरू कर दी। लोगों ने सरकार को बताया कि वे क्या करना चाहते हैं या उनकी मांगे क्या हैं।

शेतमजूर काश्तकारी शेतकरी संगठन (एसकेएसएस) ने टेंभू लिफ्ट सिंचाई योजना (टीएलआईएस) के तेजी से कार्यान्वयन की मांग को लेकर कई आंदोलन किए। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/ मोंगाबे
शेतमजूर काश्तकारी शेतकरी संगठन (एसकेएसएस) ने टेंभू लिफ्ट सिंचाई योजना (टीएलआईएस) के तेजी से कार्यान्वयन की मांग को लेकर कई आंदोलन किए। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/ मोंगाबे

टीएलआईएस योजना को 1996 में प्रशासनिक स्वीकृति मिली थी। एसकेएसएस ने समान वितरण पर ध्यान केंद्रित करते हुए पारंपरिक लिफ्ट सिंचाई की बजाए सुधार के लिए अभियान चलाया। साल 2014 में और फिर 2016 में महाराष्ट्र सरकार ने टेंभू लिफ्ट सिंचाई योजना के लिए फंड स्वीकार करने पर सहमति व्यक्त की। इस योजना के अंतर्गत पांच चरणों में कृष्णा बेसिन से पानी उठाते हुए सांगली, सतारा व सोलापुर जिलों के सूखाग्रस्त इलाकों को उपलब्ध कराना था। आटपाडी उन्हीं इलाकों में से एक है। सरकार जल मॉडल के समान वितरण के पक्ष में थी और फिर इसके लिए योजना 2016 से शुरू हुई।

फिर एसकेएसएस ने महाराष्ट्र सरकार को 2018 में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में आटपाडी, तसगांव और सांगोला के तीन तालुकों में समान आधार पर योजना का पुनर्गठन करने के लिए राजी किया। पाटणकर ने कहा, “आटपाडी पहला तालुका है जहां खुली नहर प्रणाली के बजाय पाइपलाइनों से पानी देना शुरू किया गया।” MKVDC सांगली सिंचाई सर्कल के माध्यम से परियोजना को लागू कर रहा है।

कई बदलाव आए, लेकिन काम अभी भी चल रहा है

आटपाडी के गोमेवाडी गांव के 26 वर्षीय किसान अजय महानूर ने एक स्थानीय जल निकाय की ओर इशारा करते हुए कहा कि सरकार 2014 में यहां समान वितरण मॉडल पर सहमत हुई थी। उससे पहले वहां पानी लगभग न के बराबर था। लेकिन यहां अब खेत लहरा रहे हैं। जिस गांव में सिर्फ मक्का और ज्वार देखने को मिलता था, वहां अब टमाटर, मिर्च, अंगूर, अनार और ककड़ी की पैदावार हो रही है।

पैंतीस वर्षीय किसान विजय सत्यवाना रागे के पास 70 एकड़ जमीन है। उन्होंने कहा, “सिंचाई परियोजना (टीएलआईएस) से पहले मैं अपनी ज़मीन के बमुश्किल 1-2 एकड़ हिस्से का इस्तेमाल कर पाता था। लेकिन आज मैं अपनी पूरी जमीन पर फसल उगा रहा हूं।” उनके पास 40 बकरियां और 40 गाय भी हैं। इनके लिए हर दिन 500 लीटर पानी की जरूरत होती है। उन्होंने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए झील के पास एक मोटर लगाई हुई है और पानी लाने के लिए छोटी-छोटी नालियां बनाई हुई हैं। 

अटापाडी से सटे तालुका संगोला में रहने वाले गणेश बाबर ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि यह इलाका अनार की खेती के लिए प्रमुखता से जाना जाता है। इस पर काफी सालों से काम चल रहा था लेकिन टीएलआईएस परियोजना के आने से इसे आगे बढ़ने का मौका मिला। उन्होंने कहा, “हमारे खेतों में उगा अनार दुनिया भर में निर्यात किया जाता है।वह आगे कहते हैं, “हमारे पास 16 जल उपयोगकर्ता संघ हैं, जहां किसान सामूहिक रूप से पानी लेने और अपने खेतों की सिंचाई करने और एक स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी लेते हैं।”


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हालांकि आटपाडी में पायलट परियोजना सफल रही है। लेकिन अभी भी इस पर काम चल रहा है। जॉय ने कहा, “इसमें कई चुनौतियां हैं और हर एक घर का सटीक रूप से दस्तावेजीकरण करना एक बड़ी चुनौती है।”

जॉय ने समझाते हुए कहा कि सामने आने वाली एक और चुनौती सिंचाई अधिकारियों के बार-बार होने वाले तबादले को लेकर है। जब तक हम उन्हें समझाते हैं, तब तक वे जा चुके होते हैं। 

वे मिट्टी की नमी में सुधार के तरीकों की भी तलाश कर रहे हैं, ताकि सिंचाई की जरूरत कम हो। जॉय ने कहा कि फसल विविधीकरण और  फसल के बदलते पैटर्न जैसे कई तरीके हैं जिससे वे मिट्टी की गुणवत्ता और नमी धारण करने की क्षमता में सुधार ला सकते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन की अनियमितता से निपटने में भी मदद मिलेगी। 

फिलहाल अब यह देखा जा रहा है कि इस मॉडल को मराठवाड़ा के अन्य सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में कैसे लागू किया जा सकता है।

 

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बैनर तस्वीर: आटपाडी में अपने शिमला मिर्च के पौधों की देखभाल करती एक महिला। तस्वीर- जयसिंह चव्हाण/मोंगाबे

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