- भारत दुनिया के सबसे बड़े एग्रोकेमिकल उत्पादक देशों में से एक है। इसे एग्रोकेमिकल के निर्यात आधारित आदर्श उत्पादक के रूप में देखा जा रहा है।
- ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जिनमें एग्रोकेमिकल से फैलने वाले प्रदूषण की वजह से हवा, मिट्टी, पानी और लोगों की सेहत पर बुरा असर देखा गया है।
- फसलों पर जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों का छिड़काव करने से ये मिट्टी और जमीन के नीचे के पानी में मिल जाते हैं और उन्हें प्रदूषित करते हैं। मिट्टी और गाद में जमे कीटनाशक धीरे-धीरे अपना रास्ता जलाशयों की ओर बना लेते हैं और जलीय पर्यावरण और वहां के जीवन पर भी बुरा असर डालते हैं।
- मई 2020 में भारत सरकार ने एक ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी किया था जिसके तहत 20 तरह के कीटनाशकों के उत्पादन और इस्तेमाल पर रोक लगाई जानी थी। यह आदेश अभी भी ड्राफ्ट के रूप में ही पड़ा है और लागू नहीं हो सका है।
सितंबर 2021 को देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक भाषण में कहा कि भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा एग्रोकेमिकल उत्पादक देश है। देश की 15 क्रॉप साइंस (कृषि विज्ञान) कंपनियों के एक ग्रुप ‘क्रॉपलाइफ इंडिया’ की 41वीं वार्षिक मीटिंग में बोलते हुए तोमर ने कहा, “इस क्षमता को देखते हुए सरकार ने एग्रोकेमिकल सेक्टर को अपने उन 12 चैंपियन सेक्टरों में शामिल किया है जहां भारत वैश्विक स्तर की सप्लाई चेन में अहम भूमिका निभा सकता है।”
एग्रोकेमिकल मुख्य रूप से औद्योगिक कृषि में जरूरी रसायन के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं। वे फसलों की रक्षा करने वाले ऐसे रासायनिक कीटनाशक हो सकते हैं जिनमें कीड़े-मकोड़े मारने वाले, दीमक मारने वाले और खरपतवार नाशक हो सकते हैं। वे फसलों की सेहत को बेहतर करने वाले सिंथेटिक फर्टिलाइजर जैसे रसायन भी हो सकते हैं।
एग्रोकेमिकल सेक्टर के बारे में साल 2021 में आई फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (FICCI) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत दुनिया के सबसे बड़े एग्रोकेमिकल निर्यातक देशों में से एक है और वह चार अहम देशों- अमेरिका, जापान, चीन और ब्राजील को इसका निर्यात कर रहा है। निर्यात किए जाने वाले एग्रोकेमिकल में सबसे बड़ा हिस्सा मैन्कोजेब, 2,4-D, एसीफेट, क्लोरोपायरिफोस, साइपरमेथ्रिन और प्रोफेन्स शामिल हैं।
बाजार के रुझानों की रिपोर्ट दिखाती है कि एग्रोकेमिकल के उत्पादन और निर्यात के मामले में भारत को आदर्श केंद्र के तौर पर देखा जाता है। मौजूदा समय में भारत दुनिया (फार्मास्युटिकल को छोड़कर) का 12वां सबसे बड़ा केमिकल निर्यातक देश है। इसमें मुख्य तौर पर अल्कली केमिकल, इनऑर्गैनेक केमिकल, कीटनाशक और डाई और रंग शामिल हैं। ये इस इंडस्ट्री और कृषि क्षेत्र की रीढ़ की तरह काम करते हैं। इसके अलावा, यही केमिकल टेक्सटाइल, पेपर, पेंट, साबुन और कई अन्य उद्योगों के लिए भी अहम भूमिका निभाते हैं।
भारत से जिन केमिकलों का निर्यात किया जाता है उनमें खरपतवार नाशक, कीटनाशक, केमिकल इमल्शन, फफूंदनाशक और रिएक्टिव डाई पांच अहम प्रकार हैं।
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स (PwC) के द्वारा तैयार की गई FICCI की रिपोर्ट कहती है कि भारत वैश्विक स्तर पर एग्रोकेमिकल का सबसे बड़ा उत्पादक बनने जा रहा है। साल 2015-16 के बाद से भारत में एग्रोकेमिकल कंपनियों में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई और रिपोर्ट के मुताबिक, इसकी मुख्य वजह निर्यात था। रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि संसाधनों की कम लागत, घरेलू बाजार में एग्रोकेमिकल का कम इस्तेमाल (भारत में प्रति हेक्टेयर 0.6 किलो एग्रोकेमिकल का इस्तेमाल होता है जबकि दुनिया में यही औसत 2.6 किलो का है), भारत सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ मुहिम और उससे जुड़े प्रयास और कोरोना महामारी जिसके बाद भारतीय कंपनियां चीन पर अपनी निर्भरता कम कर रही हैं और देश में ही निर्माण कर रही हैं, ये कुछ ऐसे कारक हैं जो भारत को एग्रोकेमिकल हब बनने में काफी मदद कर रहे हैं।
जहां निर्यात आधारित मैन्युफैक्चरिंग हब भारत की आर्थिक वृद्धि के पहलू को मजबूत करता है वहां ऐसे कई सबूत सामने ही रखे हैं जो दिखाते हैं कि इन रसायनों का दुरुपयोग, खासकर फसलों की रक्षा के लिए इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा प्रयोग बहुत बुरा असर भी डाल रहा है।
भारत में फसलों की रक्षा के लिए डाले जाने वाले कीटनाशकों का ज्यादातर इस्तेमाल कपास, धान, गेहूं, गन्ना, दालों और सब्जियों पर होता है। एक फसल चक्र में कपास का किसान लगभग 20 अलग-अलग तरह के रसायनों का इस्तेमाल करता है। गुजरात के भरूच जिले के त्रालसा गांव में कपास की खेती करने वाले 56 साल के किसान मनोज भाई पटेल कहते हैं, “बिना कीटनाशकों के हम फसल उगा ही नहीं सकते हैं। कीड़े-मकोड़े और बीमारियां हमारी फसलों को खा जाएंगी। अगर खेत खरपतरवार मुक्त न हो तो हमें मजदूर लगाकर उसे भी निकलवाना पड़ता है। ऐसे में केमिकल का इस्तेमाल सस्ता भी पड़ता है।”
एक गैर लाभकारी संस्था पेस्टिसाइड एक्शन नेटवर्क (PAN) इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि खरपतवार नाशक रसायनों के इस्तेमाल के पीछे यह सोच काम करती है कि मजदूरों से काम करवाने की अपेक्षा यह बेहतर और सस्ता भी है।
लोगों को एग्रोकेमिकल के प्रभावों और इसके इस्तेमाल के बारे में कम जानकारी है। दूसरी तरफ, कंपनियां भी और ज्यादा केमिकल इस्तेमाल करने पर जोर देती हैं ताकि उत्पादन ज्यादा से ज्यादा हो।
घातक साबित होता कीटनाशकों का गलत इस्तेमाल
एग्रोकेमिकल्स से होने वाला प्रदूषण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है- पहला है पॉइंट प्रदूषण जो कि उस स्रोत से होता है जहां एग्रोकेमिकल का उत्पादन होता है। दूसरा होता है डिफ्यूज्ड प्रदूषण, जो कि फसलों पर एग्रोकेमिकल के इस्तेमाल से होता है।
पब्लिक पॉलिसी एक्सपर्ट और पेस्टिसाइड एक्शन नेटवर्क (PAN) इंडिया के रणनीतिक सलाहकार नरसिम्हा रेड्डी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि भारत में दो केमिकल ग्लूफोसेट और पैराक्वेट का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है। साल 2013 में बनी PAN इंडिया कीड़े-मकोड़ों को खत्म करने के लिए हानिकारक रसायनों के छिड़काव पर निर्भरता को कम करने के लिए काम करता है। वह आगे कहते हैं, “इस केमिकल के रजिस्ट्रेशन के मुताबिक, इसका इस्तेमाल चाय के बागानों और गैर-वृक्षारोपित इलाकों में प्रतिबंधित है। हालांकि, इसका इस्तेमाल बाकी की फसलों पर भी किया जा रहा है।”
साल 2017 में मीडिया ने महाराष्ट्र में कपास उगाने वाले यवतमाल में कीटनाशकों की वजह से लोगों की मौत होने के मामलों पर रिपोर्ट की। यहां जहरीले कीटनाशकों के मिश्रण का छिड़काव किए जाने के बाद 22 लोगों की मौत हो गई और लगभग 180 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए। इसमें मोनोक्रोटोफोस नाम के रसायन का इस्तेमाल किया गया जबकि इसके इस्तेमाल को प्रशासन की अनुमति नहीं थी और न ही इसके डोज और इस्तेमाल को लेकर कोई गाइडलाइन थी। साल 2019 में ओडिशा में पैराक्वेट डाई क्लोराइड के छिड़काव की वजह से 171 लोगों की मौत हुई।
मई 2020 में भारत सरकार ने एक ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी करके 27 कीटनाशकों के इस्तेमाल और उत्पादन पर रोक लगाई। हालांकि, तीन साल बाद भी यह आदेश ड्राफ्ट ही है और लागू नहीं हो सका है।
भारत में कोई भी कीटनाशक बाजार में उतारे जाने से पहले कई तरह के परीक्षणों से होकर गुजरता है। इंसानों या जानवरों को कीटनाशकों से होने वाले खतरों को ध्यान में रखते हुए कीटनाशकों के आयात, उत्पादन, बिक्री, ट्रांसपोर्ट, वितरण और इस्तेमाल को रेगुलेट करने के लिए कीटनाशी अधिनियम 1968 और कीटनाशी नियम 1971 बनाए गए थे। भारत सरकार को कीटनाशक के उत्पादन के बारे में कीटनाशी अधिनियम के तहत सलाह देने के लिए औद्योगिक (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 (65 और 1951) के तहत केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति का गठन किया गया था। साथ ही, इस बोर्ड का काम कीटनाशकों को उनके जहरीलेपन के आधार पर वर्गीकृत करने और उनका इस्तेमाल तय करना भी था। इसके अलावा, यह तय करना भी बोर्ड का ही काम था कि इन कीटनाशकों का इस्तेमाल और अन्य चीजें कैसे होंगी। बोर्ड के कई कामों में से एक यह भी था कि वह स्पष्ट रूप से तय करे कि किसी कीटनाशक की मात्रा कितनी होगी और उसका छिड़काव कितनी बार किया जाएगा। साथ ही यह भी बताए कि इससे कितना नुकसान हो सकता है और बोर्ड फसलों की जरूरत के हिसाब कीटनाशकों की मात्रा को मंजूरी दे।
अक्टूबर 2022 तक इस कानून के तहत अनुसूची में कीटनाशकों के 820 फॉर्मूलेशन और 939 मॉलिक्यूल शामिल थे। ठीक उसी समय सरकार ने ऐसे कीटनाशकों की सूची भी जारी कि जिनको प्रतिबंधित किया गया था और जिनके रजिस्ट्रेशन की अनुमति नहीं दी गई थी।
फरवरी 2022 में PAN इंडिया ने भारत में अलग-अलग राज्यों में चार कीटनाशकों- क्लोरोपायरिफोस, पैराक्वेट डाईक्लोराइड, एट्राजीन और फिप्रोनिल के इस्तेमाल के बारे में अपनी जांच-पड़ताल पर एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के लिए, सात राज्यों में 300 लोगों से प्राथमिक डेटा और सेकेंडरी डेटा जुटाया गया। इसमें सामने आया कि ऐसी कई फसलों पर कीटनाशकों का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा किया जा रहा था जिनके लिए अनुमति (ऐसी फसलें जिन पर इन केमिकल्स के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है) नहीं मिली है। इस रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि किसानों को कीटनाशकों के बारे में जानकारी सिर्फ सेल्समैन और कीटनाशकों के थोक विक्रेताओं से ही मिलती है। कीटनाशक बेचने वाली दुकानों पर न तो जरूरी PPE का स्टॉक पाया गया और एक तिहाई दुकानों पर सुरक्षा के उपकरण भी खराब गुणवत्ता के थे। इसी रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि इन चार केमिकल्स की लेबलिंग और इस्तेमाल की सलाह छापने में कीटनाशी अधिनियम 1968 और कीटनाशी नियम 1971 और इंटरनेशनल कोड ऑफ कंडक्ट ऑन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट के नियमों का उल्लंघन किया गया।
इसके अलावा, भारत में ऐसी कुछ और स्टडीज हैं जो दिखाती हैं कि फसलों पर कीटनाशकों का गलत और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने पर ये घुलकर जमीन और जमीन के नीचे के पानी में चले जाते हैं। इसके बाद ये सतह पर मौजूद पानी में भी चले जाते हैं और उनको दूषित करते हैं। मिट्टी और गाद पर जमे कीटनाशक जलाशयों की ओर अपना रास्ता तलाश लेते हैं और जलीय जीवन को भी खतरा पैदा करते हैं। सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर, हैदराबाद के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर जी वी रमनजनेयुलु कहते हैं, “कीटनाशकों से खतरनाक जहर फैलने के अलावा दूसरा सबसे बड़ा खतरा बायोमैग्निफिकेशन (जीव-जंतुओं में केमिकल का इकट्ठा हो जाना) का होता है।” वह आगे कहते हैं, “आप फसलों पर कीटनाशक का छिड़काव करते हैं, बारिश इसे धो देती है और यह मिट्टी में घुल जाता है और यह बहकर जलाशयों के पानी में मिल जाता है। कीड़े-मकोड़े इन पौधों को खाते हैं, उन कीड़ों को मछलियां खाती हैं और मछलियों को इंसान खाते हैं। केमिकल उनमें मौजूद रहता है और इसका असर 20 से 50 साल बाद देखने को मिलता है। कुल मिलाकर इसका प्रभाव इकट्ठा हो जाता है।”
केमिकल के उत्पादन से होने वाला प्रदूषण
गुजरात को भारत का केमिकल कॉरिडोर माना जाता है। गुजरात लगातार जलाशयों को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने वाला राज्य भी बना हुआ है। नदियों में प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष पांच राज्यों में भी गुजरात शामिल है और राज्य की लगभग 20 नदियां गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। इसमें ज्यादातर प्रदूषण बिना ट्रीट किए गए गंदे पानी, बड़े स्तर पर एग्रोकेमिकल प्रदूषक, कंपनियों से निकलने वाले डिस्चार्ज से होता है और खासकर खंभात की खाड़ी वाले इलाके में इसका असर सबसे ज्यादा होता है।
मई 2022 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गुजरात के भरूच जिले के दहेज इंडस्ट्रियल एरिया से निकलने वाले गंदे पानी के बारे में अपनी एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की। बोर्ड ने जीआईडीसी द्वारा संचालित ड्रेनेज नेटवर्क में ‘रेड’ कैटेगरी की कंपनियों से निकलकर बहने वाले पानी का परीक्षण किया। बता दें कि रेड केटेगरी कंपनियां वे होती हैं जिनमें प्रदूषण का इंडेक्स स्कोर 60 से ज्यादा होता है। प्रदूषण के इंडेक्स में हवा के प्रदूषण, पानी के प्रदूषण और संसाधनों के उत्पादन और उनकी खपत से पैदा होने वाले हानिकारक प्रदूषण को मापा जाता है।
इस इलाके में एग्रोकेमिकल, पेंट, डाई और पेपर आदि से जुड़ी लगभग 232 कंपनियां ऐसी हैं जो रेड कैटगरी में हैं। इनमें से 53 कंपनियों का निरीक्षण किया गया जिनमें से कम से कम 20 एग्रोकेमिकल कंपनियां थीं। ये सभी नियमों का उल्लंघन कर रही थीं। ये सभी कंपनियां ड्रेनेज नेटवर्क में बिना साफ किए ही पानी छोड़ रही थीं और यही पानी नदियों और समुद्री इलाकों में जा रहा था। इन कंपनियों पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के जुर्म में कुल मिलाकर 6 करोड़ 19 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया।
यह रिपोर्ट फरवरी 2022 (आर्यावर्त फाउंडेशन बनाम हेमानी ऑर्गैनिक्स) में एनजीटी की एक रिपोर्ट के बाद आई थी। कंपनियों के निरीक्षण में यह सामने आया कि इंडस्ट्रियल एरिया से भारी मात्रा में दूषित पानी ड्रेनेज नेटवर्क में छोड़ा जा रहा था। यह गंदा पानी ऐसे अनुपात में बना कॉकटेल था जिसमें केमिकल की मात्रा तय अनुपात से ज्यादा थी। संयुक्त रिपोर्ट पढ़ते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने कहा कि रेगुलेटरी संस्थाएं कानून को सही से लागू करवाते हुए कंपनियों को बंद नहीं करवा पा रहा रही हैं। उनके खिलाफ मुकदमा नहीं किया जा रहा और न ही पिछले उल्लंघनों के लिए उन पर लगाए गए जुर्माने की वसूली की जा रही है।
एनजीटी ने निर्देश दिया कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और गुजरात की सरकार यह सुनिश्चित करे की इस तरह की कंपनियों (जिसमें बड़ी संख्या में एग्रोकेमिकल कंपनियां भी शामिल हैं) को बंद किया जाए। कंपनियों को बंद करने की प्रक्रिया में पानी का कनेक्शन काटना, बिजली बंद कर देना और जीआईडीसी के सिस्टम में छोड़े जाने वाले गंदे पानी को बंद करवाना शामिल है। इसके अलावा, समुद्र से लगे इलाकों में गंदा पानी छोड़ने की अनुमति न देना और साफ किए गए पानी को सही तरीके से समुद्री क्षेत्र में छोड़ने के लिए मानकों का पालन करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण से बचाने के लिए समुद्र तक जाने वाली पाइपलाइन में डिफ्यूजर सिस्टम लगाए जाएं और दूषित पानी को पर्याप्त मात्रा में डाइल्यूट किया जाए। पर्यावरण को होने वाले नुकसान खासकर मिट्टी और जमीन के नीचे के पानी को रीस्टोर करने का काम किया जाए और इस सबके लिए मॉनीटरिंग का सही तरीका अपनाया जाए।
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बैनर तस्वीरः भारत के एक खेत में कीटनाशक का छिड़काव करते किसान की प्रतीकात्मक तस्वीर। भारत में फसलों की रक्षा करने वाले कीटनाशकों का इस्तेमाल ज्यादातर कपास, गेहूं, धान और सब्जियों की फसलों पर होता है। तस्वीर– देवेंद्र/पिक्साहाइव।