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‘म्युनिसिपल बॉन्ड’ लाने के लिए कितने ‘स्मार्ट’ हैं हमारे शहर?

  • इंदौर नगर निगम को अपने पहले ग्रीन बॉन्ड पर जबरदस्त प्रतिक्रिया मिल रही है।
  • केंद्र सरकार की ओर से भी इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अपनी वित्तीय हालत सुधारने के लिए शहरी स्थानीय निकाय ‘डेट इंस्ट्रूमेंट’ यानी निवेश पर ब्याज कमाने के माध्यम का इस्तेमाल करें।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक ने नगर निगमों के वित्तीय हालात पर एक पेपर प्रकाशित किया है जिसमें बॉन्ड जारी करके पैसे जुटाने पर काफी जोर दिया गया है और इस पर अच्छे से प्रकाश डाला गया है।
  • हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि अभी इस दिशा में काम करने के लिए नगर निगमों को काफी लंबा जाना है और डेट इंस्ट्रूमेंट का बेहतरीन इस्तेमाल करने से पहले बाजार का भरोसा जीतना होगा।

इंदौर नगर निगम ने जब अपना ग्रीन बॉन्ड जारी किया तो औद्योगिक और कॉर्पोरेट निवेशकों की ओर से उसे अच्छी प्रतिक्रिया मिली। इससे उन शहरी स्थानीय निकायों को भी हौसला और सकारात्मक रुख मिलेगा जो संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं और अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निवेश ढूंढ रहे हैं। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि शहरी निकायों के लिए बॉन्ड जारी करके पैसे जुटाना काफी चुनौती भरा होगा और अभी यह अपने शुरुआती दौर में है।

बॉन्ड सरकारों या कंपनियों की ओर से जारी किए जाते हैं जिनके जरिए वे अपने बड़े प्रोजेक्ट के लिए निवेशकों से पैसे जुटाते हैं। निवेशकों के लिए ये बॉन्ड तय आय वाले निवेश होते हैं। जलवायु और पर्यावरण से जुड़े प्रोजेक्ट के लिए पैसे जुटाने के लिए जारी किए जाने वाले बॉन्ड को ‘ग्रीन बॉन्ड’ कहा जाता है।

भारत की ‘स्मार्ट सिटी’ में शामिल इंदौर का लक्ष्य है कि इस तरह से आने वाले पैसों से शहर की पीने के पानी की जरूरतों की वजह से पड़ने वाले बोझ को कम किया जा सकेगा। इंदौर इन पैसों का इस्तेमाल सोलर प्लांट लगाने और नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल करके नर्मदा नदी से पानी लाने में करेगा। यह पानी खरगोन जिले से लाया जाएगा जो कि इंदौर से 80 किलोमीटर दूर है। इसी काम के लिए इंदौर नगर निगम (IMC) हर साल 300 करोड़ रुपये खर्च करता था। इस साल 15 फरवरी तक निगम के इस बॉन्ड को 5.91 गुना ज्यादा खरीदा गया और कुल 721 करोड़ रुपये इकट्ठा किए गए जबकि बॉन्ड का बेस प्राइस सिर्फ 122 करोड़ रुपये रखा गया था।

विशेषज्ञ इसे उत्साहजनक खबर बता रहे हैं। बेंगलुरु आधारित एक थिंक टैंक ‘जनाग्रह’, जो कि नीति और संचालन के मुद्दे पर शहरी स्थानीय निकायों के साथ काम करता है, से जुड़ी नमिता अग्रवाल कहती हैं कि शहरी स्थानीय निकायों की माली हालत में अंतर को देखते हुए यह काफी प्रोत्साहित करने वाला है। बॉन्ड को लक्ष्य से ज्यादा सब्सक्राइब किया गया यह अच्छी खबर है।

वह इंदौर की इस मुहिम की तारीफ करती हैं कि उसने सस्टेनेबिलिटी के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए ग्रीन बॉन्ड जारी किया। इसके पहले, साल 2021 मेंगाजियाबाद नगर निगम ने ग्रीन बॉन्ड जारी किया और इससे एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया।

अगर स्थानीय सरकारों की बात करें तो इंदौर का नगर निगम इस मामले में रिकॉर्ड बना रहा है। भारत के म्युनिसिपल परफॉर्मेंस इंडेक्स में साल 2020 में इंदौर की रैंकिंग सबसे ज्यादा है। इंदौर ने स्वच्छता सर्वे में भी पिछले छः सालों से अपना शीर्ष स्थान बना रखा है।

हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें इंदौर का खास जिक्र किया गया क्योंकि इस शहर के नगर निगम ने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में साल 2018 में पहले नगर निगम के रूप में खुद को लिस्ट किया।

नगर निकायों की वित्तीय व्यवस्था पर केंद्रित 10 नवंबर 2020 को आई इस रिपोर्ट में शहरी निकायों के वित्तीय हालात की झलक भी दिखाई गई।

हैदराबाद में लगा ट्रैफिक जाम: लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसी कई अन्य बेसिक सुविधाएं देने की जिम्मेदारी स्थानीय शहरी निकायों की है।तस्वीर: iMahesh/Wikimedia Commons।

तेजी से बढ़ रही हैं जरूरतें

पिछले 50 सालों में भारत के शहरों की जनसंख्या काफी तेजी से बढ़ रही है। साल 1951 में देश में कुल पांच मेट्रो शहर थे जिनकी जनसंख्या 10 लाख थी। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, 10 लाख की जनसंख्या वाले शहरों की संख्या 53 हो गई है। ऐसा अनुमान है कि 2018 से 2050 के बीच भारत के शहरों की जनसंख्या में लगभग 41.6 करोड़ का इजाफा होगा और इस समय के आखिर तक देश की शहरी जनसंख्या 85 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगी।

आरबीआई ने निकायों के वित्तीय हाल के बारे में अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में शहरीकरण की तेज रफ्तार के साथ-साथ शहरों में मूलभूत ढांचों में उतनी बढ़ोतरी नहीं हुई है।

तेजी से बढ़ता शहरीकरण मूलभूत ढांचो पर दबाव डाल रहा है। सस्ते मकानों, मजबूत ट्रांसपोर्ट सिस्टम और मूलभूत सुविधाओं जैसे कि पानी, बिजली, स्कूल और अस्पताल आदि जैसी चीजों की मांग बढ़ती जा रही है। कोविड-19 की महामारी ने भारत के शहरों की तैयारियों की पोल खोल दी है जो अब खुद को आगामी आपदाओं के लिए तैयार कर रहे हैं। इसी के साथ, जलवायु परिवर्तन की वजह से भी बोझ बढ़ा है।

आरबीआई के पेपर में कहा गया है कि समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी, तूफान, बाढ़ और हीट वेव ये संकेत दे रहे हैं कि जलवायु के हिसाब से खुद को ढालें और खतरों के खिलाफ योजना बनाएं।

इसके लिए त्रिस्तरीय स्थानीय सरकारों को पैसों की खूब जरूरत है ताकि वे भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए वे मूलभूत ढांचों को मजबूत कर सकें।

पैसों की जरूरत कितनी है यह समझने के लिए भारत सरकार ने एक उच्च-स्तरीय समिति बनाई जिसने अपनी रिपोर्ट 2011 में सौंपी। समिति ने बताया कि आगामी 20 सालों में यानी 2012 से 2031 (2009-10 की कीमतों के मुताबिक) के बीच शहरी मूलभूत ढांचों (8 सेक्टर से जुड़े) के लिए 3.1 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इन सेक्टर में पानी की सप्लाई, सीवर, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, शहरी सड़कें, बारिश के पानी के लिए नालियां, शहरी ट्रांसपोर्ट, ट्रैफिक सपोर्ट सिस्टम और स्ट्रीट लाइट शामिल हैं।

हालांकि, नमिता अग्रवाल कहती हैं कि पिछले दशक में इस अनुमानित निवेश को बदला नहीं गया। वह आगे कहती हैं कि शहरी निकायों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे जनता की जरूरतों को पूरा कर सकें। वे पैसों के लिए मुख्य रूप से राज्य और केंद्र सरकार के ग्रांट पर निर्भर हैं और इन पैसों का मिलना भी कुछ तय नहीं होता और यह अपर्याप्त भी होता है। नमिता यह भी कहती हैं कि पिछले दशक में शहरों के खर्च में कई गुना का इजाफा हुआ है।

आरबीआई के पेपर में भी इसी बात को दोहराया गया है, “राजस्व कमाने के सीमित संसाधनों के चलते भारत के नगर निगम मुख्य रूप से राज्य और केंद्र सरकार पर निर्भर रहते हैं कि वहां से पैसे मिल जाएंगे।”

खराब मौसम से जुड़ी घटनाएं जैसे कि दिसंबर 2015 में चेन्नई में आई बाढ़ पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मुख्यधारा की चर्चा में ले आई है।तस्वीर: Destination8infinity/Wikimedia Commons.

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (CBGA) के निश्चल आचार्य कहते हैं कि साल 1992 में हुए 74वें संविधान संशोधन ने शहरी स्थानीय निकायों को स्वतंत्र रूप से अपनी सरकार के रूप में काम करने की आजादी दी। हालांकि, अपने जरूरी कर्तव्यों का पालन करने और शहरी नागरिकों की मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए भी ज्यादातर शहरी निकाय केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाले संसाधनों पर ही निर्भर रह गए। निश्चल आचार्य CBGA के साथ रिसर्च लीड के तौर पर काम करते हैं और उन्होंने भारत के 6 बड़े नगर निगमों का अध्ययन किया है। वह नगर निगमों की वित्तीय जानकारी पेश करने के लिए तैयार किए जा रहे एक डैशबोर्ड के लिए किए जा रहे काम की अगुवाई कर रहे हैं ताकि गैर-तकनीकी जनता भी इसे आसानी से समझ सके।

उनकी स्टडी कहती है, “अब शहरी निकाय बहुत बड़े स्तर पर केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाले ग्रांट पर निर्भर हैं।”

इन स्थानीय निकायों को मिलने वाले ग्रांट का फैसला समय-समय पर आने वाली केंद्रीय वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर होता। राज्य वित्त आयोग (SFC) भी ग्रांट को लेकर अपनी सिफारिश देता है और निकायों के संसाधनों को पूरा करने के लिए राज्य की संचित निधि से पैसा दिया जाता है। हर पांच साल पर केंद्र के और राज्य के वित्त आयोग का गठन किया जाता है और ये आयोग राज्य और केंद्र सरकार की संचित निधि से निकायों के लिए ग्रांट जारी करने की सिफारिश करते हैं। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जितने की सिफारिश की जाती है शहरी स्थानीय निकायों को उतना पूरा पैसा मिल भी जाता है। इसके लिए, केंद्र और राज्य सरकारें कुछ गाइडलाइन तय करती हैं जिनका पालन करके ही वित्त आयोग से पैसे लेने के लिए ये निकाय योग्य साबित हो सकते हैं।

साल 2021 से 2026 के लिए आए हालिया 15वें वित्त आयोग के मुताबिक, इन पांच सालों में स्थानीय निकायों के लिए 1.2 लाख करोड़ रुपये दिए जाने हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के मुताबिक, “शहरीकरण की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए 2021 से 2026 के बीच स्थानीय शहरी निकायों को 1,21,055 करोड़ रुपयों के ग्रांट की सिफारिश की गई है।” इसके पहले, 14वें वित्त आयोग में 2015 से 2020 के बीच शहरी निकायों के लिए 871.44 बिलियन रुपयों की सिफारिश की गई थी जिसमें से 697.15 बिलियन रुपये बेसिक ग्रांट के रूप में 174.29 बिलियन रुपये परफॉर्मेंस ग्रांट के रूप में थे। इसके अलावा, केंद्रीय वित्त आयोग और राज्य के आयोग भी शहरी निकायों को ग्रांट देते हैं हालांकि वे बेहद मामूली होते हैं।

आरबीआई के पेपर के मुताबिक, 13वें और 14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान शहरी और ग्रामीण निकायों के लिए जितने पैसों की सिफारिश की गई उसमें से 90 प्रतिशत कम पैसे ही मिल पाए। रिपोर्ट यह भी कहती है कि इन ग्रांट पर निर्भरता की वजह से शहरी निकाय की वित्तीय स्वतंत्रता प्रभावित होती है। इस रिपोर्ट में यह जानने की कोशिश की गई थी कि नगर निकाय किन-किन तरीकों से आय पैदा कर सकते हैं। इसमें बॉन्ड जारी करने को भी एक टूल माना गया है।

बॉन्ड के जरिए पैसे जुटाने की संभावना

पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार स्थानीय सरकारों पर दबाव बना रही है कि वे बाजार से पैसे जुटाने के लिए बॉन्ड का इस्तेमाल करें। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा, “अर्बन प्लानिंग रिफॉर्म लागू करने और हमारे शहरों को भविष्य की सस्टेनेबल सिटी बनाने के लिए किए जाने प्रयास करने के लिए राज्यों और शहरों को प्रोत्साहित किया जाएगा।” इसका मतलब है कि उपलब्ध जमीन का बेहतर इस्तेमाल किया जाए, शहरी मूलभूत ढांचों के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाएं, ट्रांजिट-आधारित विकास हो, शहरी जमीन की उपलब्धता बढ़ाई जाए और उसे सब खरीद सकें और हर व्यक्ति के लिए अवसर हों। उन्होंने आगे कहा कि म्युनिसिपल बॉन्ड के लिए निगमों का क्रेडिट बढ़ाने के लिए उन्हें इन्सेन्टिव भी दिया जाएगा।

ओखला में मौजूद वेस्ट टू एनर्जी प्लांट। नए नियमों के मुताबिक, वेस्ट-टू-एनर्जी ग्रीन अंब्रेला में आती है और इसे बिजली के व्यापार में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।तस्वीर: कुंदन पांडेय/मोंगाबे।

वैसे तो भारत में बॉन्ड जारी करके मार्केट से पैसे उठाना नया नहीं है। साल 1997 में पहला म्युनिसिपल बॉन्ड आया था जब बेंगलुरु ने डेट इंस्ट्रूमेंट के जरिए पैसे जुटाने की कोशिश की। आरबीआई के पेपर से जानकारी मिलती है, “तब से साल 2000 तक भारत के म्युनिसिपल बॉन्ड मार्केट ने अच्छी खासी बढ़ोतरी देखी है। इस दौरान 9 नगर निगमों ने 1200 करोड़ रुपये जुटाए।” साल 2005 में जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (JNNURM) लॉन्च किए जाने के बाद इसमें थोड़ी रुकावट आई।

CBGA के निश्चल आचार्य समझाते हैं कि इसका कारण यह हो सकता है कि नगर निगमों को अपनी मूल सेवाओं के लिए राज्य और केंद्र सरकार की ओर से पर्याप्त साधन मिल रहे थे, इसी वजह से उन्होंने खुद के स्रोत खंगालने बंद कर दिए।

अब 2017 के बाद से म्युनिसिपल बॉन्ड में फिर से बढ़ोतरी आई है। आरबीआई के पेपर में बताया गया है कि 2017 से 2021 के बीच कुल 9 नगर निगमों ने 3840 करोड़ रुपये जुटाए हैं।

म्युनिसिपल बॉन्ड जारी करने पर केंद्रीय आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय भी नगर निगमों को इन्सेन्टिव देता है।

वैसे तो बॉन्ड जारी करने पर काफी जोर है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह काफी दूर की कौड़ी है। नमिता अग्रवाल कहती हैं कि बॉन्ड के जरिए पैसे इकट्ठा करना अभी शुरुआती दौर में हैं। म्युनिसिपल बॉन्ड को दोबारा जारी करना काफी सीमित रहा है। यह बताता है कि जिन नगर निगमों ने म्युनिसिपल बॉन्ड जारी किए हैं उन्होंने इसे पैसे जुटाने के लिए एक बार किए जाने वाले काम के तौर पर किया और अपने मूलभूत प्रोजेक्ट की फंडिंग के लिए इसे सतत मॉडल के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सका।

दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर पैसे जुटाने के लिए बॉन्ड का इस्तेमाल कर सकते हैं। नमिता अग्रवाल कहती हैं, “छोटे नगर निगमों की हालत देखते हुए मुझे नहीं लगता कि बॉन्ड के जरिए पैसे जुटाना काफी कारगर साबित हो सकता है। इन मामलों में शहर कई मोर्चों पर पीछे हैं। उनके पास राजस्व के मजबूत स्रोत नहीं हैं और सरकारों से ग्रांट मिलने की भी कोई गारंटी नहीं है। बाजार को ऐसा लगता है कि इन नगर निगमों की क्षमता इतनी नहीं है कि वे पैसा लौटा पाएंगे। सबसे पहले तो यह भरोसा बनाने की जरूरत है ताकि बाजार यह समझे कि यह निवेश का एक अच्छा जरिया हो सकता है।”

नमिता बताती हैं कि बाजार की जो उम्मीदे हैं और नगर निगम जो उन्हें दे सकते हैं उनमें अंतर है और इस अंतर के अलावा कई और बाधाएं हैं जो बॉन्ड के जरिए पैसे जुटाने के रास्ते में पैदा कर रही हैं। शहर वित्तीय मामलों की जानकारी के मामले में उतने मजबूत नहीं हैं और इसे ज्यादा आगे नहीं बढ़ा सकते। इसके लिए वे राज्य की क्षमताओं ओर निजी सलाहकारों पर निर्भर हैं जो बॉन्ड से जुड़ी पूरी प्रक्रिया पर उन्हें सलाह देते हैं। वह आगे कहती हैं, “शहरों के पास उनके खुद के कुछ ऐसे प्रोजेक्ट होने चाहिए जिन पर वे भरोसा कर सकें और उनमें राजस्व पैदा करने की क्षमता हो। इन प्रोजेक्ट की फंडिंग के लिए उन्हें मार्केट के पास जाना चाहिए। अभी जो हो रहा है वह इसका बिल्कुल उलट है। ये शहर मार्केट में सिर्फ इसलिए जा रहे हैं क्योंकि यह सब नया-नया है। वे पहले मार्केट में जा रहे हैं और प्रोजेक्ट के बारे में बाद में सोच रहे हैं।”

निश्चल आचार्य कहते हैं कि अलग-अलग राज्यों में निगमों के प्लानिंग खराब होती है, कार्यक्रमों का बजट ठीक नहीं होता और अकाउंटिंग के लिए अपनाए जाने वाले तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं इसकी वजह से वित्तीय पारदर्शिता बहुत कम होती है और इसके चलते मार्केट में बॉन्ड जारी करके पैसे जुटाना मुश्किल हो जाता है।

आरबीआई का पेपर भी इसी बात को हाइलाइट करते हुए कहता है कि नगर निगमों के कानूनों में किसी एक अकाउंटिंग प्रक्रिया या मानकों का कोई प्रावधान नहीं है। इसकी वजह से अलग-अलग राज्यों और कई बार एक ही राज्य के अलग-अलग निगमों के अकाउंट्स में काफी फर्क होता है।


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शहरी स्थानीय निकायों के अकाउंटिंग फॉर्मेट के बारे में भारत के सीएजी ने 2002 में एक टास्क फोर्स का गठन किया था। टास्क फोर्स ने नगर निगमों में एक Accrual अकाउंटिंग सिस्टम अपनाने की सलाह दी ताकि निगमों के लेनदेन को सही, पूरा और समय से दर्ज किया जा सके। इससे, सटीक और सही वित्तीय रिपोर्ट तैयार करने में मदद मिलेगी। इसके बाद, केंद्र सरकार ने साल 2004 में नेशनल म्युनिसिपल अकाउंट्स मैनुअल (NMAM) बनाया। फिर राज्य सरकारों को NMAM को लागू करना था लेकिन आरबीआई के पेपर के मुताबिक सिर्फ 9 राज्यों (CAG रिपोर्ट के मुताबिक, जिन 14 राज्यों ने म्युनिसिपल अकाउंट्स मैनुअल के बारे में जानकारी दी है) ने इसे अपनाया है। 

अब केंद्र सरकार नगर निगमों की क्रेडिंग रेटिंग के भरोसे है और इसे ही स्मार्ट सिटी और AMRUT प्रोग्राम के अपने रिफॉर्म एजेंडा में भी शामिल कर लिया है। 2018 में जिन 94 शहरों को क्रेडिट रेटिंग दी गईं उनमें से 59 प्रतिशत शहर ऐसे थे जिन्हें इन्वेस्टमेंट ग्रेड या उससे ऊपर की रेटिंग मिली। आरबीआई के पेपर में कहा गया कि इससे यह साफ हो जाता है कि भारतीय नगर निगमों की बॉन्ड फाइनैंसिंग की क्षमता को सही से इस्तेमाल नहीं किया जा सका है।

 

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बैनर तस्वीर: नई दिल्ली में सराय काले खां के पास चलती एक ई-बस। तस्वीर: मनीष कुमार/मोंगाबे।

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