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झारखंड में बॉक्साइट खनन से बंजर होती आदिवासियों की कृषि भूमि, गिरता भूजल स्तर

लोहरदगा जिला स्थित बगरू हिल पर मौजूद एक बॉक्साइट खदान की तस्वीर। जो खेत खनन के लिए नहीं लिए गए हैं, वह खनन के दौरान निकली धूल व बारिश के दिनों में बहकर आये खदानों के अपशिष्ट से खराब हो जाते हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

लोहरदगा जिला स्थित बगरू हिल पर मौजूद एक बॉक्साइट खदान की तस्वीर। जो खेत खनन के लिए नहीं लिए गए हैं, वह खनन के दौरान निकली धूल व बारिश के दिनों में बहकर आये खदानों के अपशिष्ट से खराब हो जाते हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

  • झारखंड के गुमला जिले में भारी मात्रा में बॉक्साइट खनन से न सिर्फ क्षेत्र की जमीन बंजर हो रही बल्कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर हो रहा है। खनन के दौरान होने वाले प्रदूषण से खदान के बगल के खेत प्रदूषित होते हैं और हवा में धूलकण की मात्रा काफी अधिक होती है।
  • प्रभावित लोगों का कहना है कि कंपनियां खनन के बाद खेतों का पुनर्भराव सहित अन्य मानकों का पालन नहीं करती हैं, जिससे उनके सामने आजीविका का संकट उत्पन्न हो जाता है।
  • खनन कंपनियों के लिए वन भूमि के बजाय रैयतों की जमीन पर खनन करना आसान होता है। खनन के लिए वन भूमि हासिल करने के नियम बड़े कड़े हैं, जिससे वे रैयतों की भूमि लेते हैं, जिसका आवंटन जिला प्रशासन के स्तर पर हो जाता है और राज्य से सीटीओ मिलता है।
  • वन विभाग खनन से वन भूमि को होने वाले नुकसान पर नजर रखता है और उससे निबटने के लिए योजना तैयार करता है। उसके दायरे में सिर्फ वन्य जीव और वनस्पति आते हैं, प्रभावित समुदाय (मनुष्य) उसके दायरे में नहीं आता।

झारखंड के गुमला जिले में नेतरहाट पठार पर स्थित डुंबरपाठ एक आदिवासी आबादी वाला गांव है। यह गांव चारों ओर से बॉक्साइट की खदानों से घिरा है, जहां भारी मात्रा में बॉक्साइट का खनन होता है। पिछले करीब 30 सालों से लगातार हो रहे खनन और अयस्क से भरे ट्रकों की आवाजाही से इस क्षेत्र की जमीन लगभग बंजर हो चुकी है, हवा में फैले धूलकण लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। इसके साथ ही स्थानीय लोग भूजल के गिरते स्तर को लेकर भी चिंतित हैं। 

इस गांव के लोग बॉक्साइट खनन से होने वाली परेशानियों को लेकर इस संवाददाता से बात करने को तैयार हैं, लेकिन अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं। यह चाहते हैं कि उनकी तस्वीर छपे।

“साल 1987 से यहां बॉक्साइट का खनन हो रहा है। इससे हालात ऐसा हो गया है कि गोंदली (मोटे अनाज की एक किस्म) और घास भी नहीं होता है, पता नहीं हम लोगों का क्या होगा,” गुमला जिले के बिशुनपुर ब्लॉक की गुरदरी पंचायत में पड़ने वाले डुंबरपाठ गांव के माइकल (परिवर्तित नाम) कहते हैं। 

उनके साथी जेम्स (परिवर्तित नाम) कहते हैं, “जो खेत बचे हुए हैं, वहां हम लोग धान, गेहूं और गोंदली की खेती करते हैं, यहां सिंचाई का साधन नहीं है, पहले से यह सूखा इलाका है।”

भारत में ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश तमिलनाडु में बॉक्साइट का खनन होता है। आस्ट्रेलिया, चीन, इंडोनेशिया ब्राजील के साथ भारत दुनिया के प्रमुख बॉक्साइट उत्पादक देशों में शामिल है। दुनिया के कई देशों में बॉक्साइट खनन के स्थानीय समुदाय पर असर का वैज्ञानिक व पर्यावरणीय अध्ययन किया गया है।

झारखंड में प्रमुख रूप से लोहरदगा व गुमला जिले में बॉक्साइट खनन होता है। लोहरदगा जिले में इसकी सबसे प्रमुख खदान बगरू माइंस है, जो बगरू पहाड़ पर स्थित है। तस्वीर- राहुल सिंह
झारखंड में प्रमुख रूप से लोहरदगा व गुमला जिले में बॉक्साइट खनन होता है। लोहरदगा जिले में इसकी सबसे प्रमुख खदान बगरू माइंस है, जो बगरू पहाड़ पर स्थित है। तस्वीर- राहुल सिंह

भारत में महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले, जहां व्यापक स्तर पर बॉक्साइट खनन होता है, में बॉक्साइट खनन पर किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि खनन से इसके क्षेत्र पर वायु प्रदूषण, वनों का विखंडन और जैव विविधता की हानि जैसे नाकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। इस अध्ययन में कहा गया है कि इससे जल संसाधन का नुकसान होता है।

झारखंड में प्रमुख रूप से लोहरदगा गुमला जिले में इसका खनन होता है। लोहरदगा जिले में इसकी सबसे प्रमुख खदान बगरू माइंस है, जो बगरू पहाड़ पर स्थित है।

झारखंड  में बॉक्साइट के खनन के लिए कई किसानों की कृषि भूमि ली गई है। जो खेत खनन के लिए नहीं लिए गए हैं, वह खनन के दौरान निकली धूल व बारिश के दिनों में बहकर आये खदानों के अपशिष्ट से खराब हो जाते हैं। ऐसे में कृषि भूमि पर व्यापक रूप से खनन होने की वजह से यहां के स्थानीय लोग रोजगार और आजीविका के लिए बॉक्साइट खदानों पर पूरी तरह निर्भर हो गए हैं। 

डुंबरपाठ से करीब पांच किमी दूर असुर आदिम जनजाति का गांव सखुआपानी है। जंगल और पठार के बीच स्थित यह गांव बॉक्साइट खदान से घिरा है और इस गांव की सुषमा असुर असुरी संस्कृति, अधिकार और उनकी भाषा असुरी को बचाने के संघर्ष में एक प्रमुख चेहरा बन कर उभरी हैं। सुषमा असुर ने अपने गांव में मोंगाबे हिंदी से बातचीत में कहा, “यहां के लोगों की समस्या यह है कि अगर दो दिन माइनिंग बंद हो जाए तो खाने के लाले पड़ जाएंगे, क्योंकि उनके (ग्रामीणों के) खेत तो पहले ही खदान बन चुके हैं। लड़के खदान में मजदूरी करते हैं, जिनको खदान में काम नहीं मिलता वे ट्रकों पर बॉक्साइट की लोडिंग का काम करते हैं।”

सखुआपानी गांव के 35 वर्षीय बंदे असुर वर्ष 2008 से बॉक्साइट खदान में काम कर रहे हैं। बंदे असुर कहते हैं कि खदान के लिए उनकी 22 एकड़ जमीन ली गई है। जमीन देने के बाद उन्होंने खदान में 72 रुपये प्रतिदिन की दर से मजदूरी करना शुरू किया था और अभी उन्हें 595 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। अगर बंदे की नौकरी खदान में सुरक्षित है तो उन्हें स्थानीय लोगों के बीच भाग्यशाली माना जाएगा, क्योंकि कंपनियां कई बार अलगअलग वजहों से मजदूरों को काम से बैठा भी देती हैं। सुषमा असुर के अनुसार, इसके पीछे उनके द्वारा अपनी मांगों के लिए आवाज उठाना भी एक वजह होती है।

सखुआपानी गांव के 35 वर्षीय बंदे असुर वर्ष 2008 से बॉक्साइट खदान में काम कर रहे हैं। तस्वीर- राहुल सिंह
सखुआपानी गांव के 35 वर्षीय बंदे असुर वर्ष 2008 से बॉक्साइट खदान में काम कर रहे हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

जेरोम जेराल्ड कुजूर इस क्षेत्र के समाजसेवी हैं और इस इलाके में चल रही सेना की फील्ड फायरिंग रेंज के विरोध में गठित की गयी ‘नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज विरोधी केंद्रीय जन संघर्ष समिति’ के महासचिव भी हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी से कहा, “हम अपने इलाके में बॉक्साइट माइनिंग का विरोध करते रहे हैं, इससे किसानों के खेत बर्बाद हो गए और उनका संकट बढ गया।”

कुजूर कहते हैं, “कंपनियां खनन के बाद खेतों का भराव ठीक से नहीं करवाती जिस वजह से वह खेती लायक नहीं रह जाती।”

खान मंत्रालय के खनिज संरक्षण और विकास नियम, 1988 (नियम संख्या 34) में खनन से प्रभावित भूमि की चरणबद्ध पुनर्बहाली, सुधार व पुनर्वास की शर्ताें का जिक्र है और ऐसा इस तरह के खनन ऑपरेशन की समाप्ति से पहले और उसे परित्यक्त करने से पहले किया जाना होता है।

लोहरदगा के जिला खनन पदाधिकारी ने राजाराम प्रसाद ने इस संबंध में मोंगाबे हिंदी के सवाल पर कहा, “कंपनियां खनन शर्ताें के अनुरूप रिक्लेमेशन (भूमि सुधार) का काम करती हैं, ग्रामीणों की अगर हमें इस संबंध में शिकायत मिलती है तो हम इस संबंध में संबंधित कंपनी को लिखते हैं। यह कोई कोयला का खदान नहीं है जिससे बहुत अधिक प्रदूषण होगा।”

उन्होंने कहा, “कंपनियां खनन के बाद जमीन का समतलीकरण करती हैं और शर्ताें के अनुरूप बागवानी भी करती हैं, हां अगर माइनिंग में उपयोग किए गए विस्फोटक का बारूद पानी में मिल जाए तो वह मछली आदि के लिए खतरनाक हो सकता है।”


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हालाँकि, झारखंड जैव विविधता बोर्ड के चेयरमैन सर्वेश सिंघल ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “खनन की वजह से कई रसायन उत्पन्न होते हैं जो पानी को प्रदूषित करते हैं। साथ ही इस वजह से मिट्टी की जल धारण क्षमता कम होती है। उन्होंने खदान के पुनर्भराव के सवाल पर कहा कि प्राकृतिक भूमि प्राकृतिक होती है और उसे कृत्रिम तरीके से कभी भी पहले की स्थिति में नहीं लाया जा सकता है।”

रांची स्थित बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में फैकेल्टी ऑफ एग्रीकल्चर के डीन डॉ डीके शाही ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “किसी भी प्रकार की खेती में टॉप सॉइल (भूमि की ऊपरी परत) सबसे महत्वपूर्ण होती है, उसे हम दो हिस्से में बांट सकते हैं, सतह से 15 सेमी तक और फिर 15 सेमी से 30 सेमी तक। इसमें पहला लेयर अधिक महत्वपूर्ण है, कुछ फसलों की जड़ें अधिक गहरी होती हैं तो उनके लिए दूसरा लेयर भी महत्वपूर्ण होता है। अगर किसी भी तरह के काम के लिए उस टॉप स्वॉयल को हटा दिया जाता है तो मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है।”

खनन का आदिवासियों पर असर

झारखंड के गुमला और लोहरदगा जिले असुर आदिम जनजाति के मुख्य निवास स्थान हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में असुर आदिम जनजाति की आबादी 22,459 थी। असुर नेतरहाट पहाड़ी उसके आसपास ही रहते हैं। प्रदूषण से असुर जनजाति की दीर्घजीविता कम हो जाने का भय है, जो पहले से संकट में हैं।

रांची यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और भूवैज्ञानिक नीतीश प्रियदर्शी ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “झारखंड में पाए जाने वाले बॉक्साइट में एल्यूमीनियम कंटेंट 52 से 54 प्रतिशत होता है और इस लिहाज से यह अच्छा माना जाता है, लेकिन इसके खनन से आदिवासियों और खासकर संकट ग्रस्त आदिम जनजाति असुरों पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ रहा है”। 

खदानों की धूल से उर्वर भूमि को नुकसान हो रहा है और आदिवासियोंअसुरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। वे नेतरहाट पहाड़ी और गुमला लोहरदगा जिले में बॉक्साइट खदानों के आसपास रहते हैं। प्रियदर्शी कहते हैं, “नेतरहाट पठार अपनी जैव विविधता खूबसूरती के लिए जाना जाता है, लेकिन बेतहाशा खनन से वहां भी जोशीमठ जैसी भू धंसान की समस्या हो सकती है और पानी का संकट बढता जाएगा”। 

सखुआपानी गांव स्थित बॉक्साइट खदान में चल रहे ट्रक। तस्वीर- राहुल सिंह
सखुआपानी गांव स्थित बॉक्साइट खदान में चल रहे ट्रक। तस्वीर- राहुल सिंह

वे कहते हैं, “असुर जनजाति लोहा के आविष्कार रहे हैं और उनके पास लेटेराइट से लोहा शोधन की सदियों पुरानी तकनीक रही है, वे लेटेराइट बॉक्साइट की खदानों के आसपास ही रहते रहे हैं।” साल 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में असुर आदिम जनजाति की आबादी 22,459 थी। असुर नेतरहाट पहाड़ी उसके आसपास ही रहते हैं। प्रदूषण से असुर जनजाति की दीर्घजीविता कम हो जाने का भय है, जो पहले से संकट में हैं।

बॉक्साइट लाल मिट्टी की चट्टान होता है, जिसे लेटराइट मिट्टी कहा जाता है। बॉक्साइट में मुख्य रूप से एल्यूमीनियम ऑक्साइड यौगिक (एल्यूमिना )ए सिलिका, आयरन ऑक्साइड और टाइटेनियम डाइऑक्साइड शामिल हैं। भारत खान ब्यूरो के एक दस्तावेज के अनुसार, बॉक्साइट एल्यूमीनियम को प्राप्त करने का मुख्य खनिज अयस्क है। एल्यूमीनियम लोहे के बाद मनुष्य द्वारा उपयोग किया जाने वाली दूसरी प्रमुख धातु है।

‘नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज विरोधी केंद्रीय जन संघर्ष समिति’ के जेरोम ने वर्ष 2016 में एक टीम के साथ आदिवासी समुदाय पर बॉक्साइट खनन के दुष्प्रभाव पर एक अध्यन किया था। इस रिपोर्ट के अनुसार, 1948 से झारखंड में बॉक्साइट का खनन हो रहा है, जबकि नेतरहाट के पठार पर 1984-85 से बॉक्साइट का खनन किया जा रहा है। यह रिपोर्ट पांच गांव के 226 परिवारों पर केंद्रित है, जिनकी आबादी 1835 है। इसमें 230 असुर आबादी है और बाकी उरांव मुंडा आदिवासी हैं। 

इस रिपोर्ट के अनुसार 95 प्रतिशत किसानों ने कहा कि खनन की शर्ताें के अनुरूप कंपनियां जमीन पर खनन करने के बाद उसका समतलीकरण नहीं करवाती हैं, जिससे वह उपयोग के लायक नहीं रह जाती।

वन भूमि की जगह खेतों में खनन आसान

मोंगाबे हिंदी को मिले दस्तावेजों के अनुसार, लोहरदगा जिले में 13 बॉक्साइट माइनिंग लीज हैं और इसके लिए 1814.99 एकड़ जमीन आवंटित की गयी है। वहीं गुमला जिले में 27 बॉक्साइट माइनिंग लीज हैं जिसके लिए 7864.58 एकड़ जमीन आवंटित की गयी है। लोहरदगा वन प्रमंडल क्षेत्र, जिसमें गुमला जिले का भी कुछ क्षेत्र शामिल है, में मात्र 11 एकड़ (4.47 हेक्टेयर) वन भूमि खनन के लिए ली गयी है बाकी खनन कृषि भूमि पर होता है। 

लोहरदगा के वन प्रमंडल पदाधिकारी (डीएफओ) अरविंद कुमार ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “4.47 हेक्टेयर के माइनिंग लीज को छोड़कर हमारे यहां कहीं भी वन भूमि पर बॉक्साइट की माइनिंग नहीं हो रही है, जिस भूमि पर माइनिंग हो रही है, वह रैयतों (किसानों) की है और उसकी लीज की प्रक्रिया उपायुक्त के द्वारा पूरी करवायी जाती है।”

यह दिलचस्प तथ्य है कि कंपनियों के लिए बॉक्साइट का खनन किसानों की जमीन पर करना आसान है। वन विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि वन विभाग की जमीन पर खनन कार्य करना और उसकी मंजूरी हासिल करना एक जटिल प्रक्रिया है। कंपनी को वन विभाग को उतनी जमीन देनी होगी, जितनी पर वह खनन करना चाहती है। उसके बाद राज्य से केंद्र तक मंजूरी हासिल करने की जटिल प्रक्रिया है। जबकि रैयत की जमीन की लीज उपायुक्त (जिलाधिकारी)  कार्यालय से हो जाता है। हां, इस लीज की अलगअलग शर्तें होती हैं।

कुजाम बॉक्साइट माइन। भारत में ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश व तमिलनाडु में बॉक्साइट का खनन होता है। तस्वीर- राहुल सिंह
कुजाम बॉक्साइट माइन। भारत में ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश व तमिलनाडु में बॉक्साइट का खनन होता है। तस्वीर- राहुल सिंह

गुमला के एडिशन कलेक्टर सुधीर गुप्ता ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “हमारे जिले में बॉक्साइट की माइनिंग होती है, रेवेन्यू कलेक्शन में माइनिंग का बहुत छोटा योगदान है। गुमला जिले में करीब 1300 करोड़ रुपये के राजस्व संग्रह में माइनिंग का योगदान मात्र 50 से 60 करोड़ रुपये के बीच होता है, जो करीब चार प्रतिशत है।”

उनके अनुसार, गुमला कृषि आधारित जिला है और उनका जोर कृषि के माध्यम से लोगों की आजीविका का प्रबंध करने और उनका जीवन स्तर सुधारने पर है। हालांकि उन्होंने किसानों की जमीन खनन के लिए लिये जाने के सवाल पर कहा कि, छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियमसीएनटी एक्ट के सेक्शन 49 में इसके लिए प्रावधान है। 

छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 की धारा 49 (बी) में इस बात का उल्लेख है कि रैयत की जमीन खनन के लिए हस्तांतरित की जा सकती है और जिसके लिए राज्य सरकार अधिसूचना के द्वारा घोषणा कर सकती है।

वहीं गुमला वन प्रमंडल के डीएफओ विलाल अनवर ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “हमारे क्षेत्र में बॉक्साइट माइनिंग होती है, लेकिन वह फॉरेस्ट एरिया से बाहर होती है। हम उसके असर को लेकर मिटिगेशन प्लान और कैचमेंट एरिया ट्रिटमेंट प्लान तैयार करते हैं। वाइल्डलाइफ मैंनेजमेंट प्लान तैयार होता है, जैसे यह समझने की कोशिश की जाती है कि क्या फॉरेस्ट एरिया के बाहर माइनिंग होने पर उसकी वजह से वहां से पशु भाग तो नहीं गए। प्लांटेशन किया जाता है, चेकडैम बनाए जाते हैं, ताकि माइनिंग के असर को कम से कम किया जा सके। उन्होंने कहा कि इन कार्याें पर खर्च के लिए खनन कंपनियां पैसे देती हैं”।

 

बैनर तस्वीरः लोहरदगा जिला स्थित बगरू हिल पर मौजूद एक बॉक्साइट खदान की तस्वीर। जो खेत खनन के लिए नहीं लिए गए हैं, वह खनन के दौरान निकली धूल व बारिश के दिनों में बहकर आये खदानों के अपशिष्ट से खराब हो जाते हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

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