- लैंगिक असमानता दूर करने के लिए ओडिशा की ग्राम पंचायतों में टैंकों में वैज्ञानिक तरीके से मछली पालन किया जा रहा है। इसमें लगभग 7,829 महिला स्वयं सहायता समूह शामिल हैं।
- एक छोटी स्वदेशी प्रजाति (SIS) की ‘मोला मछली’ ने इन स्वयं सहायता समूहों को सालाना 20 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई करने में मदद की है।
- ओडिशा में कुपोषण से निपटने के लिए वैज्ञानिक तरीके से मछली पालन को एक प्रभावी तरीके के तौर पर देखा जाता है। इस कार्यक्रम के जरिए प्रमुख स्वदेशी प्रजातियों और पोषक तत्वों से भरपूर मोला मछली को एक साथ पालने की व्यवस्था (पॉलीकल्चर) को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि पोषण की कमी को दूर किया जा सके।
लगभग डेढ़ दशक पहले तक ‘मोला मछली’ ओड़िया खाने का अभिन्न अंग थी। यह एक स्वदेशी प्रजाति की मछली है जिसे एंबलीफेरिंगोडोन मोला भी कहा जाता है। लेकिन बदलती जलवायु परिस्थितियों, प्रदूषण, कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल और उर्वरकों के जल निकायों में बह जाने के कारण मछली की प्रजातियां धीरे-धीरे गायब होने लगीं। हाल के कुछ सालों में महिलाओं की अगुवाई वाले ग्राम-स्तर के कार्यक्रम मछली की इन प्रजातियों को फिर से बहाल करने के लिए आगे आए हैं।
इन मछलियों को ओडिया भाषा में ‘महुरली’ या स्थानीय बोलचाल में ‘चुन्ना माचा’ के रूप में जाना जाता है। यह इन महिलाओं की आय का एक जरिया भी बन गया है।
सितंबर 2018 में ओडिशा के मछली और पशु संसाधन विकास (FARD) विभाग ने ग्राम पंचायत टैंकों में वैज्ञानिक तरीके से मछली पालन के साथ महिला स्वयं सहायता समूहों की सहायता के लिए एक प्रोग्राम शुरू किया था। यह कार्यक्रम लोगों में पोषण की कमी को दूर करने के लिए प्रमुख स्वदेशी प्रजातियों और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर मोला मछली को एक साथ पालने की व्यवस्था यानी पोषण-संवेदनशील तालाब (पॉलीकल्चर) को बढ़ावा देने पर केंद्रित था।
महिलाओं के हाथों में बागडोर
प्रदेश के मयूरभंज जिले में मारापुर ग्राम पंचायत के बादसाही गांव में भी ऐसा ही एक स्वयं सहायता समूह काम कर रहा है। इस संगठन के साथ 12 महिलाएं जुड़ी हैं, जिन्होंने 2019 में सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर मोला मछली पालन के जरिए पोषण-संवेदनशील तालाब को अपनाया था।
बादसाही के स्वयं सहायता समूह सदस्यों में से एक अष्टमी किल्लर ने कहा, “हमारे समूह ने आठ साल पहले मछली पालने के लिए गांव के एक तालाब को लीज पर लिया था। साल 2019 में हमने तालाब में महुरली मछलियों को पालना शुरू किया। मीठे पानी में मछली पकड़ना हमारे लिए बहुत फायदेमंद रहा है। पहले हम सिर्फ मछली बेचने तक ही सीमित थे, लेकिन अब हम तालाब का प्रबंधन करते हैं, इसे बनाए रखते हैं, मछलियों को खिलाते हैं, उनकी निगरानी करते हैं, उन्हें पालते हैं और फिर बेच देते हैं।”
समूह ने आठ साल पहले गांव के पांच एकड़ के तालाब को लीज पर लिया था। साल 2019 में उन्होंने पांच साल के लीज अनुबंध को फिर से बढ़ाया और स्वदेशी मछलियों की किस्मों का पालन करना शुरू किया। इस कार्यक्रम के जरिए हर महिला ने अपनी सालाना घरेलू आमदनी में 10,000 रुपये अतिरिक्त जोड़े हैं।
ओडिशा मत्स्य नीति- 2015 का उद्देश्य राज्य भर में मछली उत्पादन में वृद्धि करना था। इसने राज्य भर में बेकार पड़े और कम इस्तेमाल में आने वाले ग्राम पंचायत टैंकों में मछली पकड़ने को बढ़ावा दिया। ओडिशा के पंचायती राज और पेयजल विभाग, महिला एवं बाल विकास और मिशन शक्ति विभाग, एफएआरडी और स्वयं सहायता समूहों के बीच एक बहु-संस्थागत रणनीति और सहयोग के माध्यम से इन टैंकों में मछलियों के प्रजनन के लिए अनुबंधित किया गया था। इसके अनुसार, 2018 में राज्य के सभी 30 जिलों में डब्ल्यूएसएचजी को पांच साल के लिए जीपी टैंक पट्टे पर दिए गए थे।
मौजूदा समय में, राज्य में कुल 68,000 हेक्टेयर के 6,742.36 हेक्टेयर क्षेत्र में 7,960 ग्राम पंचायत टैंक है। इसमें से 7,829 टैंको को महिला स्वयं सहायता समूहों को पट्टे पर दिया गया है। ओडिशा में ऐसे लगभग छह लाख समूह हैं, जिनके 70 लाख से ज्यादा सदस्य हैं।
ओडिशा, मत्स्य विभाग के अतिरिक्त निदेशक देबानंद भंज ने कहा, “अधिकांश समूहों के लिए मछली पकड़ना एक नई अवधारणा थी। इसलिए इन सार्वजनिक जल निकायों का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए पर्यावरण के अनुकूल मछली उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं को मछली पालन में प्रशिक्षित किया गया और उनकी उनकी हर संभव मदद की गई थी।”
इस कार्यक्रम के जरिए ग्राम पंचायत टैंकों में 2,500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से औसत मछली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया। बाजार में, मछली औसतन 170 रुपये प्रति किलोग्राम में बेची जाती है।
लैंगिक असमानता दूर करने के इस प्रोग्राम के उद्देश्य और फायदे काफी सारे हैं। जहां एक तरफ कार्यक्रम ने महिलाओं को उनकी घरेलू आय बढ़ाने में मदद की है, वहीं दूसरी तरफ राज्य में महिलाओं को सामाजिक आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के साथ-साथ पौष्टिक मछली को बाजारों में आसानी से उपलब्ध भी कराया है।
सीजीआईएआर वैज्ञानिक और जलीय खाद्य प्रणालियों के जरिए पोषण की कमी को दूर करने वाले दृष्टिकोण के विशेषज्ञ शकुंतला थिल्स्टेड ने कहा, “यह लैंगिक असमानता दूर करने का एक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण है, जहां महिलाओं ने कार्यक्रम के कार्यान्वयन की बागडोर प्रमुखता से अपने हाथों में ली हुई है। इस तरह की पहल में मुख्य भूमिका निभाने से यह महिलाओं के लिए एक अतिरिक्त आय सुनिश्चित करती है। वह अपने इस पैसे का इस्तेमाल अपने बच्चों के खान-पान और शिक्षा पर करती हैं। यह उन्हें समुदाय में अपना सिर ऊंचा करके चलने की शक्ति देता है और उनके प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगता है।”
बेहतर पोषण की दिशा की ओर कदम
मोला मछली लोगों के खाने में फिर से शामिल करना पोषण की कमी को दूर करने का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इस परियोजना की वजह से स्थानीय ग्रामीण समुदाय को जीवित और ताजी मछलियां आसानी से किफायती दामों और नियमित तौर पर मिलने लगी हैं।
ज्यादातर स्व-सहायता समूहों ने आर्थिक फायदे को एक तरफ रखते हुए कम मात्रा में मछलियों, खासकर मोला को आपस में बांटकर खाना शुरू किया। यह उनके समुदायों के भीतर कुपोषण से निपटने के लिए एक प्रभावी तरीका बन गया है। इससे परिवारों के बीच पौष्टिक मछली की खपत बढ़ गई।
महिलाओं को इस योजना के केंद्र में रखना एक सोची समझी कोशिश है, क्योंकि महिलाएं परिवारों में पर्याप्त पोषण सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मोला मछली की प्रजाति पोषक तत्वों से भरपूर होती है और इसमें रेटिनॉल के रूप में विटामिन ए और विशेष रूप से 3, 4-हाइड्रोरेटिनॉल (विटामिन ए2) होता है।
मनकिडिया गांव की संध्यारानी बिस्वाल ने बताया, “मछली पोषण का एक प्रमुख स्रोत है। हमारी कोशिश यही रहती है कि हमारे बच्चे घर पर मछलियां खाएं। अब हम अतिरिक्त मछलियों को प्रोसेस करने और आस-पास के गांवों में मिड-डे मील और आंगनवाड़ी केंद्रों के लिए मछली पाउडर तैयार करने की योजना बना रहे हैं।” इस पहल के पोषण परिणामों का आकलन किया जाना अभी बाकी है।
मछली पालन के लिए नया वित्तपोषण तंत्र
यह कार्यक्रम 1,50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की कुल इकाई लागत के मुकाबले 60% की दर से 90,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की इनपुट सब्सिडी प्रदान करता है। देबानंद भंज ने कहा, “सभी महत्वपूर्ण निवेश पर हम सब्सिडी दे रहे हैं। मसलन, पांच साल में पट्टा समाप्त हो रहा है, तो हम हाल ही में हुई बैठक में मिशन शक्ति विभाग के साथ चर्चा के अनुसार इनपुट सब्सिडी का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं।”
वर्ष 2021-22 में ग्राम पंचायत टैंकों से कुल 29.07 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था। भंज बताते हैं, “इस व्यवसाय के वित्तीय जोखिम बहुत कम हैं और अब तक डब्ल्यूएसएचजी के लिए इनपुट सब्सिडी के साथ यह पहल लाभदायक रही है। एक बार जब लाभ एक निश्चित बिंदु पर पहुंच जाएगा, तो महिला उद्यमी अधिक आत्मविश्वास के साथ इस पहल को आगे बढ़ाने के लिए आत्मनिर्भर हो जाएंगी।”
इसके साथ ही, बीजों की उपलब्धता बढ़ाने पर भी काम किया जा रहा है। दरअसल यह अभी भी एक चुनौती बनी हुई है। मोला पॉलीकल्चर को बड़े पैमाने पर अपनाने की सुविधा के लिए मोला के बीज उत्पादन के लिए जगतसिंहपुर जिले में एक हैचरी स्थापित की गई है।
वर्ल्डफिश के साथ जुड़े एक एक्वाकल्चर विशेषज्ञ सौरभ दुबे ने कहा, “इस जीआईजेड-वित्त पोषित परियोजना के तहत विकसित हैचरी-आधारित प्रजनन प्रोटोकॉल का पालन मोला प्रजनन में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा किया जा सकता है। और पोषण-संवेदनशील मत्स्य पालन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।” उन्होंने बताया कि प्रजनन प्रोटोकॉल सरल है और इसे छोटे पैमाने पर हैचरी संचालक आसानी से अपना सकते हैं। वर्ल्डफिश मछली पालन कार्यक्रम के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करता है।
दुबे ने कहा, “यह ओडिशा और असम के मामले में विशेष रूप से मददगार होगा, जहां राज्य सरकारों ने पोषण की कमी को दूर करने के लिए इस तरह के दृष्टिकोण को पहचाना और उन्हें प्राथमिकता दी है। उन्होंने मत्स्य विभाग के तत्वावधान में नए कार्यक्रम शुरू करके अपनी नीतियों में स्वदेशी मछलियों के पालन के लिए पॉलीकल्चर को शामिल किया है।”
हैचरी सालाना 50 करोड़ मोला मछली के अंडे या हैचलिंग का उत्पादन कर सकती है। लेकिन दुबे का कहना है कि इसकी स्वदेशी प्रजाति के बीजों का उत्पादन करने की क्षमता कई कारकों से प्रभावित होती है, जिसमें सही ब्रूडर की उपलब्धता, श्रम, अनुकूल जलवायु और प्राकृतिक आपदाएं शामिल हैं।
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बैनर तस्वीर: ओडिशा में लगभग 7,829 महिला स्वयं सहायता समूह पिछले पांच सालों से गांव के तालाबों में पोषण-संवेदनशील मछली पालन में शामिल हैं। तस्वीर- डेटौर ओडिशा/वर्ल्डफिश