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[वीडियो] समुद्री नमक में मिला माइक्रोप्लास्टिक, सेहत पर असर के लिए रिसर्च की जरूरत

थूथुकुडी, तमिलनाडु में नमक के पैन। नमक अब उन कई स्रोतों में से एक है जिसके माध्यम से इंसान के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक पहुंच रहा है। तस्वीर- राधा रंगराजन।

थूथुकुडी, तमिलनाडु में नमक के पैन। नमक अब उन कई स्रोतों में से एक है जिसके माध्यम से इंसान के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक पहुंच रहा है। तस्वीर- राधा रंगराजन।

  • पूरे भारत में हुए कई अध्ययनों ने समुद्री नमक में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता लगाया है। अध्ययन के आधार पर, एक किलो समुद्री नमक में पाए जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक की संख्या 35 और 575 कणों के बीच अलग-अलग होती है।
  • ये माइक्रोप्लास्टिक पॉलीइथाइलीन, पॉलिएस्टर और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे पॉलिमर से बने हैं।
  • रिसर्च से पता चलता है कि समुद्री पानी को फिल्टर करके नमक बनाने से माइक्रोप्लास्टिक की समस्या कम करने में मदद मिल सकती है।
  • इंसानी स्वास्थ्य पर माइक्रोप्लास्टिक के असर को अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। शोधकर्ताओं का मानना है कि मौजूदा अध्ययनों से स्वास्थ्य पर प्रभाव के बारे में कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी।

समुद्र के इको-सिस्टम के लिए प्लास्टिक प्रदूषण चिंता का मुद्दा है। हालांकि, समुद्र में बहाए जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा का सही अंदाजा लगाना कठिन है। लेकिन अनुमान है कि हर साल कम से कम 1.4 करोड़ टन प्लास्टिक महासागरों में पहुंचता है। इस पर तुरंत रोक के बिना, अगले दो दशकों में प्लास्टिक की मात्रा में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होने का अनुमान है।

हाल के सालों में मछली, मसल और क्रस्टेशियन सहित अलग-अलग तरह के समुद्री जीवों में माइक्रोप्लास्टिक (5 मिमी से छोटे प्लास्टिक के कण) का पता लगने के बाद, समुद्री दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण की व्यापकता पर ध्यान बढ़ा है। अब, कई अध्ययनों ने भारत में बनने वाले समुद्री नमक में भी माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का पता लगाया है। इससे दुनिया में प्लास्टिक की व्यापकता पर नई बहस छिड़ गई है। 

मुंबई के जुहू बीच पर प्लास्टिक कचरे का ढेर। अनुमान के मुताबिक हर साल 1.4 करोड़ टन प्लास्टिक हमारे महासागरों में पहुंचता है। तस्वीर-  कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे 
मुंबई के जुहू बीच पर प्लास्टिक कचरे का ढेर। अनुमान के मुताबिक हर साल 1.4 करोड़ टन प्लास्टिक हमारे महासागरों में पहुंचता है। तस्वीर-  कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे

वैसे प्लास्टिक जल्दी खत्म नहीं होता है। पर्यावरण में प्लास्टिक पराबैंगनी विकिरण और बाहरी ताकतों के संपर्क में आकर विखंडन से गुजरता है। इसके चलते यांत्रिक और जैविक क्षरण होता हैइससे छोटे-छोटे प्लास्टिक कण बनते हैं। आकार के आधार पर इन कणों को मैक्रो, मेसो और माइक्रोप्लास्टिक के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

पूरे देश में अलग-अलग रिसर्च ग्रुप ने समुद्री नमक के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी का विश्लेषण किया है। इनमें समुद्री पानी से बनने वाले उत्पादों की जांच करते हुए प्लास्टिक की मिलावट को तेजी से दूर करने की ज़रूरत पर जोर दिया गया है।

भारत में समुद्री नमक में माइक्रोप्लास्टिक का वितरण

वैसे साल 2018 में भारत में माइक्रोप्लास्टिक कणों पर अपनी तरह का पहला लेख प्रकाशित हुआ था। इसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे के पर्यावरण विज्ञान और इंजीनियरिंग केंद्र के चंदन कृष्ण सेठ और अमृतांशु श्रीवास्तव ने माइक्रोप्लास्टिक कणों की पहचान और मूल्यांकन कर तैयार किया था। इसमें वाणिज्यिक भारतीय नमक के नमूनों की पड़ताल की गई थी।

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दोनों ने मुंबई के बाजारों से लिए गए आठ नमूनों का विश्लेषण किया। ब्रांड का चयन न सिर्फ़ उपलब्धता बल्कि देश में उनकी लोकप्रियता के आधार पर भी किया गया। ये नमक गुजरात, केरल और महाराष्ट्र में बने थे।

सेठ और श्रीवास्तव ने सभी आठ नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक पाया। नमक के नमूनों के हर किलो में माइक्रोप्लास्टिक कणों की संख्या 56 और 103 के बीच थी।

जिन नमूनों की जांच की गई थी, उनमें फाइबर और टुकड़े दोनों पाए गए। इनमें टुकड़ों की संख्या ज्यादा थी। टीम ने माइक्रोप्लास्टिक की संरचना का भी अध्ययन किया और पॉलीस्टर, पॉलीस्टाइनिन, पॉलियामाइड और पॉलीइथाइलीन की मौजूदगी पाई।

माइक्रोप्लास्टिक की एक प्रतिनिधि तस्वीर। पांच मिमी से छोटे प्लास्टिक कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है और उन्हें अलग-अलग समुद्री जीवों में पाया गया है। तस्वीर- ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी/फ्लिकर 
माइक्रोप्लास्टिक की एक प्रतिनिधि तस्वीर। पांच मिमी से छोटे प्लास्टिक कणों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है और उन्हें अलग-अलग समुद्री जीवों में पाया गया है। तस्वीर– ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी/फ्लिकर

निकाले गए कणों की उनके रंगों के लिए भी जांच की गई। ये भूरे, भूरे-काले, बैंगनी थे। इससे पता चला कि शायद इसकी वजह मैलापन है। जैसा कि लेखकों ने अध्ययन में बताया, नमक के नमूनों में पाए गए पीईटी में पैकेजिंग सामग्री, बोतल निर्माण और वस्त्रों में खपाए जाने वाले प्लास्टिक थे।

श्रीवास्तव ने कहा कि नतीजों से उन्हें कोई हैरानी नहीं हुई। उन्होंने कहा, “संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और कई अन्य जगहों का अध्ययन भी हमारे सामने था। इनमें भी प्लास्टिक के कणों से नमक के दूषित होने का पता चला था। भारत नमक का एक प्रमुख उपभोक्ता और उत्पादक देश है। हमारे पास ऐसा कोई डेटा उपलब्ध नहीं था। इसलिए हमने महसूस किया कि इस शोध को करना महत्वपूर्ण था।” 

उसी वर्ष, ग्रीनपीस ईस्ट एशिया ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें बताया गया था कि नमक के 90% वैश्विक ब्रांडों में माइक्रोप्लास्टिक थेइनमें इंडोनेशिया का एक नमूना सबसे ज़्यादा दूषित था। यह देश वैश्विक समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण में दूसरा सबसे बड़ा योगदान देने वाला है। विश्लेषण किए गए 39 नमूनों में से महज तीन में माइक्रोप्लास्टिक नहीं मिला। इससे इस मुद्दे की व्यापक प्रकृति का पता चलता है। अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि औसतन एक वयस्क अपने नमक के सेवन से हर साल लगभग 2,000 माइक्रोप्लास्टिक कणों का उपभोग कर सकता है।

नमक का मामला

दुनिया भर में भारत नमक उत्पादन में अग्रणी देशों में से एक है। साल 2022 में, देश का नमक उत्पादन 4.5 करोड़ मीट्रिक टन था। हालांकि उत्पादन में चीन पहले स्थान पर है। वहां 6.4 करोड़ मीट्रिक टन का सालाना उत्पादन होता है। भारतीय में नमक बनाने वाली कंपनियों के लिए समुद्री पानी नमक का एक प्रमुख कच्चा माल है। आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन ने न सिर्फ इसे सामने लाया कि भारतीय नमक में प्लास्टिक मिला है बल्कि इस बारे में और ज्यादा अध्ययन को भी प्रोत्साहित किया।

देश में, गुजरात प्रमुख नमक उत्पादक राज्य है। इसके बाद तमिलनाडु है, जहां थूथुकुडी बंदरगाह शहर अपने नमक पैन के लिए जाना जाता है। सुगंती देवदासन मरीन रिसर्च इंस्टीट्यूट, थूथुकुडी के शोधकर्ताओं ने माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के स्तर को समझने के लिए समुद्री नमक के सात नमूनों और बोरवेल के पानी से बने नमक के सात नमूनों का विश्लेषण किया। नतीजे 2020 में प्रकाशित किए गए थे।

यहां भी नतीजे 2018 की आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन के जैसे ही आए। शोधकर्ताओं ने नमक के सभी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक पाया। समुद्री नमक के एक किलो के नमूनों में लगभग 35-72 कण माइक्रोप्लास्टिक था। जबकि बोरवेल के पानी से बने नमक में बहुत कम माइक्रोप्लास्टिक था। इनकी संख्या 2-29 कण थी। इससे पता चलता है कि समुद्री पानी में प्रदूषण का स्तर बहुत ऊंचा है। 

थूथुकुडी अध्ययन की प्रमुख लेखक नमृता सतीश और श्रीवास्तव दोनों कहते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक की गिनती, भले ही कम है, लेकिन यह बहुत बड़ी समस्या का संकेत है। तटीय प्रदूषण पर केंद्रित सतीश के शोध ने पहले अध्ययन कर तमिलनाडु में तटीय क्षेत्रों में क्लैम (एक तरह की शैलफिशय/डोनैक्स क्यूनेटस), मेसोपेलैजिक मछली और समुद्र के तलछट में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी की जानकारी दी थी। उन्होंने कहा, “एक बार जब हमने देखा कि माइक्रोप्लास्टिक तटीय पारिस्थितिक तंत्र में इतने व्यापक स्तर पर हैं, तो हमें पता था कि हमें नमक के नमूनों की भी जांच करनी होगी।” 

SEM/EDS (स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी/एनर्जी डिस्पर्सिव स्पेक्ट्रोस्कोपी) समुद्री नमक से पॉलीथीन (पीई) माइक्रोप्लास्टिक की तस्वीरें। स्रोत: नमृता सतीश व अन्य
SEM/EDS (स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी/एनर्जी डिस्पर्सिव स्पेक्ट्रोस्कोपी) समुद्री नमक से पॉलीथीन (पीई) माइक्रोप्लास्टिक की तस्वीरें। स्रोत: नमृता सतीश व अन्य

अपने अध्ययन में, नमृता और उनकी टीम ने यह भी खुलासा किया कि प्लास्टिक के कणों की उपस्थिति से परे, माइक्रोप्लास्टिक के अपक्षय से उनकी पोलेरिटी, पोरोसिटी और खुरदरापन बढ़ सकता है। इससे वे समुद्री वातावरण में अकार्बनिक प्रदूषकों के वाहन बन सकते हैं। विश्लेषण किए गए कणों में, उन्होंने औद्योगिक और घरेलू कचरों, पेट्रोलियम से संबंधित गतिविधियों और तूतीकोरिन थर्मल प्लांट से फ्लाई ऐश के कारण क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण की मौजूदा रिपोर्टों के अनुरूप लोहा, निकल और आर्सेनिक की मौजूदगी पाई गई।


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वहीं साल 2021 में एक अन्य अध्ययन ए. विद्यासाकर और अन्य ने किया था। इसमें गुजरात और तमिलनाडु से लिए गए क्रिस्टल और पाउडर नमक के नमूनों का विश्लेषण किया। गुजरात के प्रति 200 ग्राम नमक में 46-115 कण पाए गए। वहीं तमिलनाडु में ये संख्या 23-101 कण प्रति 200 ग्राम थी। विद्यासाकर ने भी पॉलीइथाइलीन और पॉलिएस्टर की उपस्थिति की पहचान की। उन्हें पॉलीविनाइल क्लोराइड की उपस्थिति का भी पता चला। 

इंसानों पर असर

हालांकि मानव स्वास्थ्य पर माइक्रोप्लास्टिक के असर को अब तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका हैश्रीवास्तव को लगता है कि मौजूदा अध्ययनों से कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। ऐसा इसलिए कि नमक के नमूनों के बीच सांद्रता अलग-अलग होती हैग्रीनपीस ईस्ट एशिया के अध्ययन से यह भी पता चला है कि किसी दिए गए क्षेत्र में प्लास्टिक उत्सर्जन समुद्री उत्पादों के माध्यम से माइक्रोप्लास्टिक के शरीर में पहुंचने को किस तरह प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, अध्ययन में हर साल 2,000 कणों के इंसानी शरीर में जाने का अनुमान लगाया गया था। हालांकि सतीश व अन्य के शोध से पता चला है कि समुद्री नमक के माध्यम से हर साल लगभग 216 कण इंसानों के शरीर में पहुंच सकते हैं। 

तमिलनाडु के थूथुकुडी में नमक के पैन पर काम करते मजदूर। यह राज्य गुजरात के बाद भारत में दूसरा सबसे बड़ा नमक उत्पादक है। तस्वीर- राधा रंगराजन।
तमिलनाडु के थूथुकुडी में नमक के पैन पर काम करते मजदूर। यह राज्य गुजरात के बाद भारत में दूसरा सबसे बड़ा नमक उत्पादक है। तस्वीर- राधा रंगराजन।

श्रीवास्तव ने विस्तार से बताया, “हमें ध्यान रखना चाहिए कि समुद्री नमक उन कई स्रोतों में से एक है जिनके जरिए अब हम माइक्रोप्लास्टिक निगलते हैं।” सी-फूड में इसकी मौजूदगी के अलावा, माइक्रोप्लास्टिक की खोज उस हवा में की गई है जिसमें हम सांस लेते हैं, फलों और सब्जियों में और जो पानी हम पीते हैं।

उन्होंने कहा, “हालांकि नमक की सीधी खपत बड़ी मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक को एक्सपोज नहीं कर सकती हैअगर हम सभी संभावित रास्तों को जोड़ते हैं तो हम उच्च सांद्रता को एक्सपोज करते हैं। जब तक हमारे पास माइक्रोप्लास्टिक को निगलने के इन सभी रास्तों और परिणामी खुराक में स्वास्थ्य जोखिम का आकलन नहीं होता है, तब तक इसके असर को नहीं समझ सकते।

इस बीच, उनके शोध से पता चलता है कि समुद्री जल को फिल्टर कर इससे बचा जा सकता हैइससे बनाए गए नमक में माइक्रोप्लास्टिक कम हो जाता है। सतीश ने यह भी बताया कि उनकी टीम खाए जाने वाले समुद्री नमक से माइक्रोप्लास्टिक को कम करने और हटाने के लिए प्राकृतिक तरीकों की खोज कर रही है।

पर्यावरण सहायता समूह के समन्वयक लियो एफ. सलदान्हा ने कहा कि माइक्रोप्लास्टिक दुनिया भर में एक बड़ा मुद्दा है। इसके बावजूद, खाने-पीने की चीजों में उसकी मौजूदगी और उससे होने वाले प्रदूषण को दूर करने से जुड़े नियम नहीं हैं। श्रीवास्तव की तरह सलदान्हा भी अध्ययन के निष्कर्षों से हैरान नहीं थे। उन्होंने कहा, “इस बात पर विचार करते हुए कि बड़े पैमाने पर प्लास्टिक का इस्तेमाल किस तरह किया जाता है और कचरे का कुप्रबंधन किस तरह किया जाता है। हमें हर उस जगह पर माइक्रोप्लास्टिक मिल जाएगा, जहां हम उसकी तलाश करेंगे।”

उन्होंने समझाया, “देश में लगभग हर जगह कचरे को व्यापक रूप से जलाना और प्लास्टिक का लापरवाही से निपटान माइक्रोप्लास्टिक के उत्पादन की बहुत बड़ी वजह है।”

 

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बैनर तस्वीर: थूथुकुडी, तमिलनाडु में नमक के पैन। नमक अब उन कई स्रोतों में से एक है जिसके माध्यम से इंसान के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक पहुंच रहा है। तस्वीर- राधा रंगराजन।

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