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उत्तराखंड में किसानों को क्यों नहीं मिल पा रहा जैविक खेती का लाभ

मटर के खेत में निराई-गुराई का काम करतीं पोखरा ब्लॉक के वीणा धार गांव में रहने वाली महिलाएं। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

मटर के खेत में निराई-गुराई का काम करतीं पोखरा ब्लॉक के वीणा धार गांव में रहने वाली महिलाएं। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

  • उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पलायन एक बड़ा मुद्दा रहा है। इसे रोकने के लिए सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा दिया लेकिन इसके बावजूद पलायन रोकने में सफलता नहीं मिली।
  • जैविक खेती में किसानों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें फसलों का उचित दाम नहीं मिल पाता है। साथ ही दुर्गम इलाकों से बड़ी मंडियां काफी दूर हैं।
  • हाल के सालों में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मौसम में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। यहां सर्दियों के मौसम में होने वाली बारिश लगातार कम होती जा रही है। इसके उलट मानसून में होने वाली बारिश लगातार बढ़ती जा रही है।

उत्तराखंड में कोटद्वार से लगभग 100 किलोमीटर दूर पोखरा ब्लॉक के वीणाधार गांव में रहने वाली लता देवी पूरे दिन व्यस्त रहती हैं। अहले सुबह वो अपनी गाय को दूहती हैं। फिर नाश्ता तैयार करती हैं। बच्चों को स्कूल भेजती हैं और घर का बाकी काम निपटाने के बाद खेतों की तरफ निकल जाती हैं। 

लता देवी गांव में किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) की ओर से चलाए जा रहे सभी चार स्वयं सहायता समूहों के ग्राम संगठन की अध्यक्ष भी हैं। इनमें से एक संगठन जय भोलेनाथ उपभोक्ता स्वयं सहायता समूह है। इस समूह में शामिल 13 महिलाएं जैविक खेती करती हैं और अपने द्वारा लगभग 70 नाली (करीब 18 बीघा) में लगाई गई मटर की फसल की निराई-गुड़ाई करने जा रही हैं। लगभग तीन घंटों में इन सभी महिलाओं ने मिलकर निराई-गुड़ाई का काम खत्म कर लिया। लेकिन अब भी इन महिलाओं के पास करने को बहुत कुछ है। 

लता देवी के पास दो गाय, दो गोवंश और तीन बकरियां हैं। उन्हें अभी अपने मवेशियों के लिए सूखी घास लानी है, हरे चारे के लिए भीमल से पत्तियां तोड़नी हैं और अपने खेतों में गोबर की खाद भी डालनी है। इस खेत में कुछ दिनों बाद मड़ुवा (रागी) जैसे मोटे अनाजों की रोपाई की जानी है। 

उत्तरखंड के पहाड़ी इलाकों में सुविधाओं और रोज़गार की कमी के चलते बड़ी संख्या में पलायन हुआ। ऐसे में कई गांवों में कृषि भूमि रखरखाव के अभाव में बंजर हो गयी। 

लता देवी बताती हैं कि उनके गांव के अधिकांश परिवार पलायन कर चुके हैं और जो परिवार गांव में हैं, वो भी बंजर जमीन और खेती की अन्य परेशानियों को देख मजदूरी करना पसंद करते थे। लेकिन तीन साल पहले उनके गांव की महिलाओं ने समूह बनाकर काम करना शुरू किया। समूह की तरफ से किए गए कामों से उनके गांव की बंजर ज़मीन पर फिर से फ़सल लहलहा रही है।

दूध दूहती लता देवी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
दूध दूहती लता देवी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

किसान उत्पादक संगठन के पोखरा ब्लॉक के अध्यक्ष अभिषेक रावत इसके बारे में बताते हुए कहते हैं, “हमने अपने गांव की सिंचाई वाली पांच नाली (करीब 1.25 बीघा) जमीन में मटर उपजाना शुरू किया। आज हमारे गांव की लगभग 170 नाली (करीब 42 बीघा) ज़मीन पर खेती हो रही है। इनमें हम सब्जियां और मसाले उगाते हैं। साथ ही बिना सिंचाई वाले खेतों में मोटा अनाज और दाल बोते हैं। हमारे गांव में चार समूह काम करते हैं। जय नरसिंह निरंकार स्वयं सहायता समूह में हम मसालों की खेती करते हैं। डेयरी स्वयं सहायता समूह में दूध उत्पादन और महिला सशक्तिकरण स्वयं सहायता समूह में हम मशरूम उगाते हैं।” 

पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों के सामने चुनौतियां 

उत्तराखंड की लगभग 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, जबकि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान महज 2.61 प्रतिशत है। अभिषेक रावत बताते हैं कि पहाड़ी इलाकों के किसान आय के लिए खेती नहीं करते थे इसलिए समय के साथ खेती के तरीकों में भी बदलाव नहीं आया। 

वीणाधार गांव की ही रहने वाली धनेश्वरी देवी की उम्र 60 साल से भी अधिक है। वो पिछले 40 साल से इस गांव में रह रही हैं। वह बताती हैं, “10 साल पहले तक हमारे 40 नाली वाले खेत में दस-दस क्विंटल से भी अधिक गेहूं और चावल होते थे। अधिकांश सब्जियां और दाल हमारे खेतों में ही पैदा होते थे। इसलिए हम खाने की चीजों के लिए बाज़ार पर बहुत कम निर्भर थे। लेकिन आज हालात उलट हैं।” 

“हमें सबसे पहले (फसल को) मौसम की मार से बचना पड़ता है। इसके बाद अगर खेत में कुछ फ़सल हो गई, तो बंदर, लंगूर और जंगली सुअर जैसे जानवरों से बचाना पड़ता है। इसके बाद मुट्ठी भर अनाज हाथ लगता है। इसलिए अब हमें भी अनाज और दाल के लिए सरकार से मिलने वाले राशन और बाज़ार पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए अधिकांश परिवार गांव छोड़ शहर में रहने लगे हैं,” धनेश्वरी देवी कहती हैं। 

हाल ही में आई ग्राम विकास और पलायन निवारण की रिपोर्ट के अनुसार साल 2008 से लेकर 2018 तक 6,338 ग्राम पंचायतों से कुल 3,83,726 व्यक्तियों ने अस्थाई रूप से पलायन किया है। हालांकि ये लोग समय-समय पर अपने घर आते रहते हैं और उन्होंने अब तक स्थायी रूप से पलायन नहीं किया है। लेकिन इन्हीं 10 सालों में 3,946 ग्राम पंचायतें ऐसी भी है जहां से कुल 1,18,981 लोगों ने पूरी तरह पलायन किया है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य में कुल 734 गांव ऐसे हैं, जो पूरी तरह खाली हो चुके हैं। पलायन करने वाले लोगों में आधे से अधिक ने रोजगार के लिए अपने घरों को छोड़ा है, वहीं 15 फीसदी से अधिक लोगों ने शिक्षा के लिए पलायन किया।

मवेशियों के चारे के लिए भीमल के पेड़ से पत्ते तोड़ती एक महिला। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
मवेशियों के चारे के लिए भीमल के पेड़ से पत्ते तोड़ती एक महिला। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

“हमारे पहाड़ मोटे अनाज और बेमौसम की सब्जी के लिए उपयुक्त तो हैं, लेकिन पहाड़ पर सिंचाई सुविधाओं की कमी, लगातार बदलता मौसम और फसलों पर जंगली जानवरों का हमला हमारे काम को और भी मुश्किल बना देता है,” रावत बताते हैं। 

“खेती से आमदनी नहीं होने के चलते अधिकांश लोग मैदानी इलाकों में पलायन कर गए। वहां की सुख-सुविधाओं को देख कर वहीं बस गए। पहाड़ के गांव खाली होते चले गए। लेकिन अब जब सरकार पर्वतीय क्षेत्रों में खेती को प्रोत्साहन दे रही है और खेती को रोजगार के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। इसलिए सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम योजनाओं के बावजूद भी पहाड़ से लगातार पलायन हो रहा है,” वह आगे कहते हैं।  

सरकारी मंडियों की कमी बड़ी समस्या 

लता देवी कहती हैं, “हम दिन-रात मेहनत करके और जानवरों से फसल बचाकर जब बाज़ार जाते हैं, तब हमारी फसल के औने-पौने दाम मिलते हैं। हम अपने खेतों में केमिकल का इस्तेमाल नहीं करते हैं। हमारी फसल पूरी तरह जैविक होती हैं। पिछली बार हमारी मटर महज 20 से 30 रुपये किलो बिकी थी। हमने सुना है कि देहरादून में जैविक मटर 60 से 70 रुपये किलो बिकती है। दूसरा, हमारे यहां मटर तब भी होती है जब मैदानी क्षेत्रों में नहीं होती। लेकिन हमारे यहां फसल बेचने का उचित प्रबंध नहीं होने के चलते हमें सस्ते दामों में ही फसल बेचनी पड़ती है।” 

उत्तराखंड कृषि उत्पादन विपणन बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध दस्तावेज में मंडी समितियों के साल 2021-22 आय व्यय की जानकारी दी गयी है। इसके अनुसार राज्य में कुल 23 मंडी समितियां हैं जिनमें से अधिकांश मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। इन सभी 23 मंडी समितियों में से केवल चमोली और चकराता मंडी पूर्ण रूप से पर्वतीय क्षेत्र में आती हैं। इसके अतिरिक्त रामनगर, विकास नगर, कोटद्वार और ऋषिकेश की मंडी समितियां ऐसी हैं जो पर्वतीय क्षेत्र से सटी हुई हैं। 

दयानन्द एंग्लो वैदिक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अल्पना निगम, उत्तराखंड के विकास में जैविक खेती की भूमिका नामक अपने शोध पत्र में लिखती हैं, “उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति जैविक खेती के लिए पूर्णतः अनुकूल है यहां बहुतायत में वनों का होना और जैव विविधता एक ही समय में विभिन्न प्रकार की फसलों का एक साथ उत्पादन राज्य के किसानों की समृद्धि के लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है। लेकिन, उत्तराखंड राज्य में कृषि उत्पादन के विपणन के लिए विकल्प बहुत सीमित हैं और जो मंडिया वर्तमान में कार्यरत हैं उनमें से भी अधिकांश मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं।” 

उत्तरखंड के पहाड़ी इलाकों में सुविधाओं और रोज़गार की कमी के चलते बड़ी संख्या में पलायन हुआ। ऐसे में कई गांवों में कृषि भूमि रखरखाव के अभाव में बंजर हो गयी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
उत्तरखंड के पहाड़ी इलाकों में सुविधाओं और रोज़गार की कमी के चलते बड़ी संख्या में पलायन हुआ। ऐसे में कई गांवों में कृषि भूमि रखरखाव के अभाव में बंजर हो गयी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

रावत बताते हैं, “हम लोगों ने जितने गांवों में समूह बनाए हैं उन सभी में छोटी जोत वाले किसान हैं। जिसके कारण अधिकांश किसान केवल अपने खाने के लिए ही खेती करते हैं। लेकिन समूह में खेती के चलते सबसे ज्यादा समस्या फ़सल बेचने में आ रही है। हमारी सबसे नजदीकी मंडी कोटद्वार है। अभी हमारे पास इतनी ज्यादा फसल नहीं हो पाती है कि हम इतनी दूर फसल बेचने जाएं। हमारा किराया ही फसल की कीमत से ज्यादा हो जाएगा। दूसरा, हमारे नजदीकी बाजार में मांग इतनी नहीं होती कि सारी उपज एक बार में बिक जाए। इसके अलावा स्थानीय बाजारों में हमारी जैविक फसलों का दाम भी गैर-जैविक फसलों जितना ही मिलता है। अगर हमारे आसपास सरकारी खरीद केंद्र होगा, तो हमें भी अपनी फसल का उचित दाम मिलेगा। जो युवा रोजग़ार के लिए पालयन कर रहे हैं, वो भी खेती को रोजगार के रूप में देख खेती करने के लिए उत्साहित होंगे।” 

कृषि विशेषज्ञ डॉ राजेंद्र कुकसाल बताते हैं कि उत्तराखंड में साफ-सुथरी जलवायु होने के कारण यहां की फसलों में बीमारी और कीड़ों की समस्या बहुत कम थी। यहां किसान फसलों में बहुत कम रासायनिक दवाओं और खाद का इस्तेमाल करते थे। साल 2003 में पहली बार उत्तराखंड में जैविक खेती का विचार लाया गया। साल 2015 से 2017 आते-आते इस योजना पर अधिक जोर दिया गया। ऐसा इसलिए कि पर्वतीय क्षेत्रो की भौगोलिक परिस्थितियां जैविक खेती के अनुकूल हैं। इसलिए जैविक खेती से रोजग़ार देने का प्रयास किया गया। 

वीणाधार गांव में टपक विधि से सिंचाई के लिए बनी पानी की टंकी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे
वीणाधार गांव में टपक विधि से सिंचाई के लिए बनी पानी की टंकी। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

कुकसाल कहते हैं, “राज्य और केंद्र की योजनाओं पर सही तरीके से अमल नहीं हो पाया। मसलन, किसानों को प्राकृतिक तौर पर जैविक खाद और जैविक दवाएं बनाने का प्रशिक्षण दिया जाना था। इससे वह घर पर ही मवेशियों के गोबर से जैविक खाद, नीम के पत्तों से जैविक दवा और बीज का संरक्षण कर सकते थे। इससे उपज की लागत घटती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसानों को अधिकांश खाद और दवाओं के लिए इनपुट बाहर से दिया गया। खराब कार्यान्वयन के चलते कुछ ही किसानों को इसका लाभ मिला। छोटी जोत वाले किसान योजनाओं के लाभ से वंचित ही रहे। इसलिए अब सरकार द्वारा किसानों के समूह बनाकर जैविक खेती कराई जा रही है और जैविक प्रमाण पत्र दिया जा रहा है।” 

उत्तराखंड वित्त मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने 2022-23 के अपने बजट भाषण में बताया कि उत्तराखंड में जैविक कानून लागू किया गया है। इसके तहत पिछले पांच सालों में जैविक कृषि में लगातार बढ़ोतरी हुई है। वर्तमान में 2,15,000 हेक्टेयर में जैविक खेती हो रही है। यह प्रदेश के कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 34 प्रतिशत है। अलग-अलग योजनाओं के तहत 4485 जैविक क्लस्टर भी संचालित किए जा रहे हैं। साथ ही स्थानीय स्तर पर जैविक उत्पादों की खरीद-बिक्री के लिए आउटलेट भी तैयार किए जा रहे हैं।

मौसम में बदलाव भी एक बड़ी चुनौती  

उत्तराखंड कृषि नीति 2018 के ड्राफ्ट में उपलब्ध जानकारी के अनुसार कृषि राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 59,926 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 37,999 वर्ग किमी वन है। वर्तमान में 6.98 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर खेती होती है। राज्य के कुल कृषि क्षेत्र का 54 प्रतिशत भू-भाग पर्वतीय क्षेत्र में आता है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में राज्य की कुल सिंचित कृषि भूमि का मात्र 13 प्रतिशत भाग ही आता है। 

ऐसे में राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश किसान सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं। इसलिए बारिश के समय में होने वाले बदलाव का सीधा असर खेती पर पड़ता है। 

हाल के सालों में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मौसम में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। यहां सर्दियों के मौसम में होने वाली बारिश लगातार कम होती जा रही है। इसके उलट मानसून में होने वाली बारिश लगातार बढ़ती जा रही है। भारतीय मौसम विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक जनवरी 2023 से 24 फरवरी 2023 तक सामान्य से 82 प्रतिशत कम बारिश हुई। 


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धनेश्वरी देवी बताती हैं कि इस साल सर्दियों में ना के बराबर बारिश हुई। “इससे गेहूं और सरसों की फसल नहीं हो पाई। इसके चलते हमें गेहूं,आटे और सरसों तेल की ख़रीदारी बाजार से करनी होगी।” 

महाराजा अग्रसेन यूनिवर्सिटी में कृषि विभाग के प्रमुख डॉ. कमल किशोर कहते हैं कि अगर जैविक खेती को वैज्ञानिक तरीके से किया जाए, तो यह पर्यावरण और किसान दोनों के लिए लाभकारी होगा। “खेत में यूरिया और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से ग्रीन हाउस गैसों का भारी मात्रा में उत्सर्जन होता जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार है। खेत में कीटनाशकों के इस्तेमाल से नुकसानदेह कीड़ों के साथ-साथ किसान मित्र कीड़ों और पक्षियों को भी नुकसान होता है। अगर किसान अपने खेत में सही प्रकार से तैयार किया हुआ जैविक खाद ही इस्तेमाल में लाते हैं, तो कुछ समय बाद यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति और पानी को रोकने की क्षमता दोनों बढ़ती है। इससे खेत में फसल की पैदावार बढ़ती है,” उन्होंने कहा।

 

बैनर तस्वीरः मटर के खेत में निराई-गुराई का काम करतीं पोखरा ब्लॉक के वीणाधार गांव में रहने वाली महिलाएं। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे

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