- राजस्थान के रूपाहेली कला गांव के लोगों का आरोप है कि पास की एक फैक्ट्री से होने वाला प्रदूषण उनके स्वास्थ्य और अन्य समस्याओं का कारण बन रहा है।
- फैक्ट्री ने किसी भी मानदंड का उल्लंघन करने से इनकार किया है। राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने फैक्ट्री को क्लीन चिट देते हुए कहा कि उत्सर्जन निर्धारित सीमा के भीतर है।
- कई निवासियों ने गांव छोड़ दिया है। लेकिन जो अभी भी यहां बने हुए हैं उन्होंने अपनी एक दशक पुरानी समस्या का समाधान नहीं होने पर 2023 के विधानसभा चुनावों के बहिष्कार का एलान कर दिया है।
सुभाष वैष्णव, 52, राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के गुलाबपुरा कस्बे में रहते हैं। वह हर दिन सुबह 5 बजे उठते हैं और घर के रोजमर्रा के कामों को निपटा कर अपनी दुकान खोलने के लिए निकल पड़ते हैं। उनकी दुकान यहां से 20 किलोमीटर दूर, उनके पैतृक गांव रूपाहेली कला में स्थित है। चार साल पहले वैष्णव ने अपनी 30 साल पुरानी बिजली की दुकान और रूपाहेली में अपने पैतृक घर को छोड़कर गुलाबपुरा जाने का फैसला किया था। अब, हर सुबह वह अपनी दुकान पर जाते हैं और शाम को अपने किराए के मकान में लौट आते हैं। उनका कहना है कि आने-जाने में भले ही उन्हें ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता हो, लेकिन परिवार के बाकी लोगों की सेहत के लिहाज से यह अच्छा है।
वैष्णव ने मोंगाबे-इंडिया से अपनी परेशानी साझा करते हुए बताया, “वहां रहते हुए मुझे गंभीर संक्रमण हो गया और सांस की बीमारी लग गई। मेरे बच्चों को भी सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी। काम के लिए इतनी दूर आने से मेरी जेब पर बोझ तो पड़ता है लेकिन कम से कम मेरा परिवार तो सुरक्षित है।”
उन्होंने कहा कि रूपाहेली कला गांव के पास में एक फैक्ट्री आने के बाद वहां से बहुत से लोग गांव छोड़कर चले गए। फैक्ट्री से निकलने वाला धुआं लोगों की सेहत पर असर डाल रहा है।
शांतोल ग्रीन (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड’ फैक्ट्री को यहां 2012 में स्थापित किया गया था। यह फैक्ट्री क्रम्ब रबर से हाई-ग्रीन कार्बन का उत्पादन करती है। क्रम्ब रबर और टायर चिप्स को रीसायकल करने के लिए थर्मल डीकंपोजिशन प्रोसेस ‘टायर पायरोलिसिस’ का इस्तेमाल किया जाता है। फैक्ट्री टायर के कचरे को ‘लो सल्फर इंडस्ट्रियल फ्यूल ऑयल’, कार्बन ब्लैक और स्टील स्क्रैप में रीसायकल करती है। इस प्रक्रिया में, प्रोरोगास, ब्लैक कार्बन और तेल मिश्रित पानी जैसे उप-उत्पादों बनाए जाते हैं।
रूपाहेली कला के निवासियों की शिकायत है कि वायु प्रदूषण इतना ज्यादा हो गया है कि ज्यादातर घरों में एक न एक अस्थमा या त्वचा रोगी मिल ही जाएगा। लगभग 30 परिवार गांव छोड़कर गुलाबपुरा शहर के शास्त्री नगर क्षेत्र में रहने के लिए चले गए हैं। अब इस इलाके को आम बोलचाल की भाषा में छोटी रूपाहेली कहा जाने लगा है।
लगातार होता विरोध
कारखाने के आस-पास रहने वाले लोगों ने संगठित होकर कई विरोध प्रदर्शन किए हैं। पहला सार्वजनिक आंदोलन 2015 में हुआ था। तब रूपाहेली कला के लोगों ने विरोध में गांव के स्थानीय बाजारों को बंद कर दिया था और राष्ट्रीय राजमार्ग के पास इकट्ठा होकर फैक्ट्री मालिक और जिला प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी की थी। लोगों का दावा है कि तब से उन्होंने कम से कम दो बार जन आंदोलन किया है और हर छह महीने में सब डिविजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के कार्यालय में फैक्ट्री को बंद करने की मांग को लेकर जाते रहे हैं।
रूपाहेली कला के अलावा, कारखाने के आसपास के अन्य गांव जैसे आपलियास, नांगाजी-का-खेड़ा और छतरपुरा भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन रूपाहेली कला गांव इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित है। हाल ही में चारों ग्राम पंचायतों ने 22 दिसंबर 2022 को गुलाबपुरा स्थित एसडीएम कार्यालय को एक पत्र देकर फैक्ट्री बंद करने की मांग की थी। उन्होंने 2023 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के बहिष्कार करने का फैसला किया है।
आसींद के विधायक जब्बार सिंह सांखला भी 2021 के बाद से कई बार राज्य विधानसभा में इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। उदाहरण के लिए, 28 मार्च, 2022 को उन्होंने सरकार से कहा कि या तो कारखाने को बंद करो या उत्सर्जन का स्थायी समाधान खोजो।
मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए भारतीय जनता पार्टी के विधायक सांखला ने कहा, “मैं उनकी दुर्दशा के बारे में सुनता रहा हूं। मैंने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया भी है। पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जिससे न सिर्फ ग्रामीणों पर बल्कि खेतों की सेहत पर भी असर पड़ रहा है। लोग पलायन को विवश हैं। सरकार को फैक्ट्री बंद कर देनी चाहिए, नहीं तो हम विरोध करते रहेंगे।”
सेहत पर तो असर, लेकिन पहले पड़ताल जरूरी
आपलियास गांव के एक किसान रामचंद्र पुरोहित ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि रात 1 बजे से सुबह 5 बजे तक फैक्ट्री का धुआं अपने चरम पर होता है। “कभी-कभी हवा पूरी तरह से काली हो जाती है। धुएं की गंध गांवों के कोने-कोने तक फैल जाती है।”
सत्तर साल के रणजीत सिंह राठौर की बताई कहानी भी अलग नहीं है। उन्होंने कहा, “फैक्ट्री से रात 1 से 5 बजे के बीच काफी ज्यादा धुआं निकलता है। उस समय हम सो रहे होते हैं। लेकिन धुएं की गंध इतनी तेज होती है कि सांस लेना मुश्किल हो जाता है। सभी दरवाजे और खिड़कियां बंद करने के बाद भी धुंआ घरों के अंदर घुस आता है।”
जो लोग गांव छोड़कर जाने का खर्च उठा सकते हैं वो स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों के डर से गांवों से निकल दूसरे इलाकों की ओर रुख कर रहे हैं, खासकर भीलवाड़ा, गुलाबपुरा और विजयनगर के नजदीकी शहरों में। स्थानीय लोगों का कहना है कि कुछ ने तो गांवों के बाहर अपना घर बना लिया है।
गांव के सरपंच भवानी सिंह राठौर ने शिकायती लहजे में कहा, “फिलहाल गांव में लगभग 1,500 परिवार रहते हैं। हालांकि 200 से ज्यादा परिवार पहले ही इस कारखाने के चलते गांव छोड़कर जा चुके हैं। इस फैक्ट्री से तंग आकर हर साल परिवार दूसरे शहरों में पलायन कर जाते हैं। हमारे गांव के मंदिर के पुजारी और बुजुर्ग लोग रोज सुबह भजन गाते हुए ‘राम-धूनी’ किया करते थे, मगर वायु प्रदूषण के कारण वो सब भी बंद हो गया है। अगर सरकार नहीं सुनती है, तो हम चुनाव का बहिष्कार करेंगे।”
फैक्ट्री के नजदीक खेतों में काली धूल की परत जमी है। पौधों की सतह पर हाथ लगाने से उन पर जमा कार्बन दिखाई देता है। सत्तर साल के घीसाजी जाट और उनके भाई रामनाथ जाट (60) की रूपाहेली कला गांव में खेती की जमीन है। वह मिट्टी की खुदाई कर रहे हैं ताकि काली धूल से ढ़की मिट्टी की परत को हटाकर वास्तविक रंग की मिट्टी को दिखा सकें।
घीसाजी ने दावा करते हुए कहा, “जब से यह कारखाना शुरू हुआ है, फसल आधे से भी कम हो गई है। कार्बन की वजह से कई पौधों ने फल देना बंद कर दिया। मुझे 2016 में अपने उन सभी पेड़ों को काटना पड़ा था।” वह अपनी 25 एकड़ जमीन पर अनार उगाते हैं।
गुरुग्राम स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था ‘सोसाइटी फॉर इंडोर एनवायरनमेंट’ के सदस्य सचिन पंवार का कहना है कि जहरीली गैस शरीर के अंदर जाने से सेहत संबंधी समस्याएं मुमकिन हैं। दरअसल प्लास्टिक और रबर को जलाने से होने वाले उत्सर्जन में जटिल जहरीले यौगिक होते हैं। इसमें SOx और NOx के अलावा कई फिनोल और बेंजीन भी मौजूद हो सकते हैं। लंबे समय तक उच्च स्तर के वायु प्रदूषकों के संपर्क में रहने को दुनिया भर में कई अध्ययनों से सीधे तौर पर कैंसर से जोड़ा गया है।
गैर-संचारी रोगों पर राष्ट्रीय कार्यान्वयन अनुसंधान संस्थान ‘आईसीएमआर’, जोधपुर के निदेशक अरुण शर्मा ने ग्रामीणों द्वारा लगाए गए आरोपों पर टिप्पणी की। उन्होंने कहा, “किसी भी तरह के धुएं के लगातार कुछ समय तक संपर्क में रहने से लोगों को अस्थमा और क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) होने की काफी संभावना होती है। लेकिन किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले इन मुद्दों की वैज्ञानिक जांच की जानी चाहिए। कैंसर इस बात पर निर्भर करता है कि क्या धुएं में कार्सिनोजेनिक एजेंट हैं। ये घातक बीमारी का कारण बन सकते हैं। इसकी उचित उपकरणों के साथ जांच की जरूरत है।”
फैक्ट्री ने आरोपों से किया इनकार, प्रदूषण बोर्ड से मिली क्लीन चिट
फैक्ट्री ने इन आरोपों से इनकार किया है। मोंगाबे-इंडिया को ईमेल के जवाब में शांतोल ग्रीन (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक निर्मल सुतारिया ने ग्रामीणों के आरोपों का खंडन किया।
उन्होंने जवाब में कहा, “आरोप गलत और दुर्भावनापूर्ण तरीके से लगाए गए हैं। कई कर्मचारी पिछले 10 सालों से कारखाने के परिसर में काम कर रहे हैं और कथित स्वास्थ्य समस्याओं का एक भी मामला सामने नहीं आया है। हम उनकी नियमित जांच कराते रहते हैं। गांव तो कारखाने से काफी दूर है, जबकि हमारे कर्मचारी और उनके क्वार्टर फैक्ट्री परिसर में ही हैं। वो परिसर में 24 घंटे बिता रहे हैं और उन्हें कभी भी कोई समस्या नहीं हुई जैसा कि इन ग्रामीणों ने आरोप लगाया है।”
सुतारिया ने कारखाने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा कि वे कार्बन ब्लैक व क्रम्ब रबर से ईंधन तेल और सोडा ऐश से सोडियम सिलिकेट का निर्माण करते हैं। निर्मल ने ईमेल पर जवाब देते हुए कहा, “यह एक क्लोज-लूप प्रोसेस संयंत्र है जहां खुले वातावरण के संपर्क में आए बिना सामग्री को संसाधित किया जाता है। यह एक लगातार चलने वाली पायरोलिसिस प्रक्रिया है, जिसे एनजीटी और सीपीसीबी पहले से ही मान्यता देते आए हैं। निरंतर प्रक्रिया में संयंत्र बिना रुके काम करता है और प्रक्रिया सभी सुरक्षा उपकरणों के साथ पूरी तरह से ऐटोमाइज होती है।”
उन्होंने कहा, “हमारे पास प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मिला एनओसी (अनापत्ति प्रमाण पत्र) और फैक्ट्री लाइसेंस भी है।”
राजस्थान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (RSPCB) की ओर से मोंगाबे-इंडिया को दी गई आधिकारिक प्रतिक्रिया सुतारिया के दावे की पुष्टि करती है। इसमें कहा गया है कि इकाई ने पर्याप्त वायु प्रदूषण नियंत्रण उपाय स्थापित किए हुए हैं। टायर पायरोलिसिस प्रक्रिया 750 डिग्री सेल्सियस तापमान से नीचे पूरी तरह से क्लोज “रिटोर्ट रिएक्टर” में ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है। फ़्लू गैसों को 30 मीटर ऊंची चिमनी के जरिए वातावरण में छोड़ने से पहले गीले स्क्रबर्स के माध्यम से उपचारित किया जाता है।
मोंगाबे-इंडिया के सवालों के जवाब में आरपीसीबी का कहना है कि उसने 2022 में मई और दिसंबर में दो बार निरीक्षण किया है। उस दौरान उत्सर्जन निर्धारित सीमा के भीतर पाया गया।
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स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में वरिष्ठ नर्सिंग कर्मचारी भैरों सिंह कनावत रूपाहेली कला गांव के ही रहने वाले हैं। उन्होंने कारखाने के कर्मचारियों पर प्रदूषण का कोई असर न होने के कंपनी के दावे का खंडन किया। पिछले 27 साल से केंद्र पर काम कर रहे कनावत ने कहा कि कारखाने के कर्मचारी अस्थमा और त्वचा की एलर्जी जैसी कई बीमारियों से पीड़ित हैं। “फैक्ट्री में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासी क्षेत्रों से हैं। वे आम तौर पर यहां एक साल तक काम करते हैं और बाद में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। वे दवा लेने के लिए अक्सर क्लिनिक पर आते हैं।”
16 मार्च 2023 को विधायक जब्बार सिंह सांखला द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में जलवायु एवं पर्यावरण मंत्री हेमाराम चौधरी ने कहा कि समय-समय पर राजस्थान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गांव में प्रदूषण स्तर की जांच की है और सब कुछ तय सीमा के भीतर पाया गया है।
विधायक सांखला की मांग के बाद मंत्री चौधरी ने विधानसभा में कहा, “मैं जल्द ही प्रदूषण नियंत्रण विभाग के अधिकारियों को फिर से गांव में जाकर विधायक और ग्रामीणों द्वारा की गई शिकायतों की जांच करने का आदेश दूंगा। अगर प्रदूषण का स्तर तय सीमा से ज्यादा पाया गया तो हम फैक्ट्री के खिलाफ कार्रवाई करेंगे और उसे बंद करा देंगे।
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बैनर तस्वीर: फैक्ट्री से निकलने वाले प्रदूषण के प्रभाव को दिखाती रूपाहेली कला गांव की महिलाएं। तस्वीर- पारुल कुलश्रेष्ठ