- भारत के पश्चिमी घाट अपने अनूठे भू-भाग और आवासों की वजह से जैव विविधता के हॉटस्पॉट बने हुए है। यहां स्थानिक प्रजातियों की भरमार है।
- कई आवास और जलवायु कारक क्रमिक विकास प्रक्रियाओं पर असर डालते हैं और इस विविधता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को समृद्ध करती है और आवास संरक्षण के लिए बेहतर नीति और प्रबंधन रणनीति विकसित करने की वजह भी है।
भारत के पश्चिमी घाट मोटे तौर पर गोवा गैप और पालघाट गैप द्वारा अलग किए गए तीन उपखंडों – उत्तरी, मध्य और दक्षिण में विभाजित हैं। ये इलाके अपनी जलवायु स्थिरता, असमतल सतह और घने एवं दुर्गम जंगलों से घिरे होने के कारण जैव विविधता का उद्गम स्थल और एक संग्रहालय बन गए हैं। सालों तक पश्चिमी घाटों में प्राकृतिक आवास को लेकर किए गए सिलसिलेवार अध्ययनों ने बताया है कि सूखा, बारिश, और समुद्रतल से इसकी ऊंचाई ने क्रमिक विकास की प्रक्रियाओं को किस तरह से प्रभावित किया है और किस तरह से इस समृद्ध विविधता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्राकृतिक आवास का संरक्षण और उसकी बहाली जैव विविधता के संरक्षण और वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है। इसके बदले में पारिस्थितिक तंत्र या वन्यजीवों से मिलने वाले विभिन्न लाभों को बढ़ाया जा सकता है।
आवास में विविधता से संबंध
चट्टान पर रहने वाले जीवों पर किए अध्ययनों में से एक में वैज्ञानिकों के एक समूह ने पाया कि ऐसी प्रजातियां जो लैटेराइट पठारी आवासों पर अत्यधिक परिवर्तनशील जलवायु में रह सकती हैं, वो लैंड यूज पैटर्न मसलन कृषि वानिकी और खेतों जैसी जगहों पर परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं। यह अध्ययन जनवरी 2023 में प्रकाशित किया गया था।
बंजर भूमि के रूप में वर्गीकृत प्राकृतिक आवास लैंड यूज पैटर्न में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं, जो यहां पाई जाने वाली उभयचर और सरीसृप प्रजातियों के लिए उपयुक्त आवास के क्षेत्र को कम कर देता है। इससे उनकी विविधता और उनकी बड़ी संख्या पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हालांकि ज्यादातर अध्ययन वनों के प्राकृतिक आवासों पर लैंड यूज परिवर्तन के प्रभावों पर ध्यान में रखकर किए गए हैं, लेकिन अनोखे लेटराइट पठारों में यह जैव विविधता को कैसे प्रभावित करता है, इसकी समझ सीमित रही है।
यह अध्ययन अभी एक प्रीप्रिंट है जिसे पीर-रिव्यु द्वारा प्रमाणित किए जाना बाकी है। इसमें नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन, बॉम्बे एनवायरनमेंटल एक्शन ग्रुप और रिलायंस फाउंडेशन के शोधकर्ताओं ने उत्तरी पश्चिमी घाटों में दो स्थानिक हर्पेटोफुना की व्यापकता की तुलना आमतौर पर पाए जाने वाले सॉ-स्केल्ड वाइपर (इचिस कैरिनाटस) के साथ-साथ अबाधित पठारी स्थलों, कृषि वानिकी वृक्षारोपण स्थलों और पठारों पर खाली पड़े खेतों में रहने वाले रहने वाले जीवों की संरचना से की है। उन्होंने पाया कि लैंड यूज बदलने पर प्रजातियों की प्रतिक्रियाएं अलग अलग सन्दर्भों में बदल रही थीं।
लैटेरिटिक पठारों को एग्रोफोरेस्ट्री प्लांटेशन और खेतो में बदलने से संकटग्रस्त और स्थानिक सरीसृप एच अल्बोफासिआटस और सामान्य सांप ई कैरिनाटस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जंगलों और पठारों में पाया जाने वाला एक स्थानिक उभयचर ‘जी शेषाचारी’ पश्चिमी घाटों के कम गतिविधियों वाले पठारों और बागों की बजाय खाली पड़े धान के खेतों में ज्यादा संख्या में मौजूद था।
पश्चिमी घाट के मिरिस्टिका स्वैम्प के 2022 के एक अन्यअध्ययन में ‘अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई)’ के वैज्ञानिकों ने पाया कि मौसमी बाढ़ इन प्रजातियों की विविधता पर भी असर डालती है – खासतौर पर इस क्षेत्र के प्रसिद्द जायफल (नटमग) की प्रजातियों पर। अध्ययन में पाया गया कि पश्चिमी घाटों में मौसमी बाढ़ ने पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण मिरिस्टिकेसी फैमिली में विविधता ला दी। इसी फैमिली का मिरिस्टिका फ्रेग्रेंस स्थानीय आजीविका के स्रोत के रूप में आर्थिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है। इसे आमतौर पर जायफल के रूप में जाना जाता है।
पश्चिमी घाट में कीड़ों की प्रजातियां भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। स्कोलोपेंड्रिड कनखजूरे की 19 प्रजातियों पर 2021 में किए गए एक अलग अध्ययन से पता चलता है कि जैसे-जैसे अक्षांश बढ़ता है, कीड़ों की विविधता कम होती चली जाती है। दक्षिणी पश्चिमी घाट में विविध और स्थानिक प्रजातियों की सबसे ज्यादा भरमार थी। वहीं दूसरी तरफ उत्तरी पश्चिमी घाट में कम विविधता होने के बावजूद, लेटरिटिक पठारों में नई परिस्थिति के अनुरूप अपने व्यवहार को बदलने वाली अलग-अलग तरह की स्थानिक प्रजाति काफी संख्या में मौजूद थी। जबकि इन पठारों को खराब मिट्टी और उच्च मौसमी घटनाओं के लिए जाना जाता है।
उच्च विविधता के लिए जिम्मेदार कारक
दिसंबर 2022 के एक अन्य हालिया अध्ययन में पाया गया है कि पश्चिमी घाट में उच्च विविधता का कारण दक्षिणी क्षेत्र की उच्च भू-जलवायु स्थिरता और नम एवं अपने मुताबिक सीजन वाली जगहों पर प्रजातियों की अपने पैतृक लक्षणों को बनाए रखने की प्रवृत्ति से जुड़ा है। इसके अलावा, निम्न अक्षांशों में बेहद ज्यादा स्थलाकृतिक विषमता (टोपोग्राफिक हेट्रोजेनेटी) प्रजातियों के सतत और उच्च विविधीकरण दर दोनों के लिए जिम्मेदार होती है। क्रमिक विकास प्रक्रिया की गहराइयों में झांके तो पाएंगे कि कुछ प्रजातियों की वंशावली उनके मुताबिक सीजन वाले इलाके और शुष्क उत्तरी पश्चिमी घाट में पाई जाती हैं। दरअसल, वह इलाका दक्षिण का है जहां उच्च विविधता बनी रहती है। पेपर बताता है कि यह सीजन न होने और पानी की ज्यादा उपलब्धता की वजह से है। पेपर फिलहाल प्री-प्रिंट अवस्था में है और अभी पीर रिव्यु द्वारा प्रमाणित नहीं है।
सूखा, वर्षा और समुद्रतल से ऊंचाई के मामले में जलवायु परिवर्तन क्रमिक विकास की विविधता को आकार देते हैं। ऐसे कई प्राकृतिक आवास संबंधी कारक भी हैं जो इस विविधता की वजह बनते हैं।
एक अन्य अध्ययन (वर्तमान में जर्नल लिम्नोलॉजी एंड ओशनोग्राफी में समीक्षाधीन है) ने उत्तरी पश्चिमी घाटों में लेटरिटिक पठारों पर अस्थायी रॉक-पूल की जांच की। इन आवासों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन ये स्थानिक प्रजातियों की विविधता को बनाए रखने के लिए जाने जाते हैं। इनमें से कई प्रजातियां तो विज्ञान के लिए नई हैं। लेखकों ने इन पूलों में उनके भरने और सुखाने वाले चक्रों में आर्थ्रोपोडा समुदायों के पदचिन्हों का अनुसरण किया है। सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक मिहिर कुलकर्णी का कहना है कि इन आवासों में समृद्ध जैव विविधता को पूरे लैंडस्केप के संरक्षण के जरिए सबसे बेहतर तरीके से संरक्षित किया और बनाए रखा जा सकता है। इस लैंडस्केप की खासियत अलग-अलग पूलों के बजाय अपनी पर्यावरणीय परिस्थितियों में भिन्न कई पूलों को आश्रय देना है।
कुलकर्णी ने कहा, “अस्थायी पूल जलवायु परिवर्तन (बारिश के बदलते पैटर्न सीधे हाइड्रो-पीरियड को प्रभावित करते हैं) और मानव-मध्यस्थ प्राकृतिक आवासों के विनाश के लिए बेहद सवेंदनशील हैं। दोनों ही विविध, स्थानिक समुदायों को खतरे में डालते हैं। इन परिदृश्यों पर स्थानीय हितधारकों की निर्भरता को ध्यान में रखते हुए, सुरक्षा उपायों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत है।
मिरिस्टिका स्वैम्पस पर एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि इस जैव विविधता हॉटस्पॉट में प्रजातियों के विविधीकरण के पीछे एक कारण मौसमी बाढ़ भी है जो इस जगह की पारिस्थितिक विविधीकरण के लिए काफी महत्वपूर्ण है। फरवरी 2022 में प्रकाशित मल्टी-इंस्टीट्यूशनल स्टडी में पांच जायफल फैमिली का पता लगाया गया, जो भारत में पश्चिमी घाटों के जंगलों के लिए स्थानीय हैं और विभिन्न प्रकार के परिदृश्यों में फैली हैं। निचले स्तर की मौसमी बाढ़ से लेकर उच्च भूमि और गैर-बाढ़ वाले आवासों तक ये हर जगह मिल जाएंगे।
यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज, अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE), नेचर कंजरवेंसी सेंटर द्वारा कॉनकॉर्डिया यूनिवर्सिटी और क्यूबेक सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी साइंस के सहयोग से किए गए अध्ययन में पाया गया कि मौसमी बाढ़ प्रजातियों में रूपात्मक और शारीरिक बदलाव लेकर आती है। हम यहां दो तरह के मुख्य प्राकृतिक आवासों में पाई जाने वाली प्रजातियों की एरियल रूट का उदाहरण ले सकते हैं। एक मौसमी रूप से बाढ़ वाले आवास जैसे नदी तट और दलदल, तो वहीं दूसरे प्राकृतिक आवासों में बाढ़ न आने वाली जगहें मसलन ऊंची भूमि पर स्थित सदाबहार और अर्ध-सदाबहार वन।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि पैतृक प्रजातियों में एरियल रूट्स नहीं थीं। बाद में इनकी फैमिली की अन्य प्रजातियों ने ‘नी रूट’ और ‘स्टिल्ट रूट’ जैसे बाढ़ सहिष्णुता के लक्षण विकसित कर लिए। हो सकता है कि प्राकृतिक आवासों में बाढ़ प्रवणता ने विविधीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। वहीं दूसरी तरफ दलदली क्षेत्रों में पनपने वाली प्रजातियों ने एरियल रूट्स विकसित कर लीं, जबकि हाइलैंड्स में इन्हें इनके बगैर देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी भौगोलिक सीमा में विपरीत पैटर्न भी दिखाए हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र से मिलने वाले फायदे
पश्चिमी घाट जिस विशाल विविधता का पोषण करता है, वो पारिस्थितिकी तंत्र बदले में मानव जाति को कई तरह के लाभ भी देता है। इनकी यही खासियत उन्हें पारिस्थितिक रूप और साथ ही आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण बनाती है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी घाट में मिरिस्टिका स्वैम्प स्थानीय भूजल विज्ञान को नियंत्रित करते हैं। यहां उगे फलों का इस्तेमाल मसालों के रूप में किया जाता है और स्थानीय समुदायों को वैकल्पिक कमाई करने में मदद मिलती है। इनके बीजों को उष्णकटिबंधीय जंगलों में हॉर्नबिल, जंगली सूअर और अन्य स्तनधारी खाते हैं। कुछ प्रजातियों को उनके औषधीय गुणों के लिए भी जाना जाता है।
दूसरी ओर, सरीसृप, सांप और कनखजूरे न्यूट्रिएंट साइकलिंग, जैविक नियंत्रण, बीज फैलाव, प्रोटीन के स्रोत, कच्चे माल और औषधि प्रदान करते हैं। इनका इस्तेमाल स्थानीय समुदायों के धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता है और वे क्षेत्र के सांस्कृतिक ताने-बाने में एक प्रमुख घटक हैं।
बढ़ता खतरा और संरक्षण के उपाय
प्राकृतिक आवास पैटर्न में तेजी से बदलाव के कारण पश्चिमी घाट में कई प्रजातियां दबाव में हैं। विविधता का नुकसान और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं पर इसका प्रभाव क्षेत्र में संरक्षण के महत्व को उजागर करता है।
उदाहरण के तौर पर हम प्लांट डायवर्सिटी जर्नल में प्रकाशित हुए ATREE के एक अध्ययन को ले सकते हैं। अध्ययन बताता है कि दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में कई वन-निवासी समुदाय अपनी आजीविका के लिए बेंत पर निर्भर हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण नॉन-वुड वन उत्पादों में से एक हैं। लेकिन बेंत के उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण अंधाधुंध तरीके से इन्हें काटा जाने लगा है।
प्राकृतिक आवासों के नुकसान और खराब पुनर्जनन के कारण बेंत की आबादी घट रही है। मौजूदा बेंत संसाधनों के संरक्षण के लिए तत्काल प्रयास किए जाने की जरूरत है। अध्ययन ने मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के बाहर अत्यंत उच्च प्रजाति समृद्धि के कम से कम दो से तीन स्थानों की पहचान की है, इन्हें सीटू संरक्षण के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
इसी तरह, पश्चिमी घाट और दक्षिण-पूर्व एशिया में कृषि के लिए मिरिस्टिका दलदलों का डायवर्सन कई मिरिस्टिका प्रजातियों को विलुप्त होने की ओर धकेल रहा है। IUCN रेड डेटा लिस्ट के अनुसार, भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में 174 प्रजातियों को खतरा है, इसमें मेडागास्कर की 10 में से 9 प्रजातियां शामिल हैं। व्यापक और समय से पहले कटाई के कारण बीज की विकास क्षमता भी कम हो गई है।
मिरिस्टिका स्वैम्प्स पर एक पेपर के प्रमुख लेखक शिव प्रकाश ने कहा, “प्रजातियां ‘लुप्तप्राय’ स्तर तक पहुंच सकती हैं। इसके लिए सही आकलन किए जाने की जरूरत है।” उन्होंने कहा कि राज्य के वन विभागों के सहयोग से दलदलों और अन्य प्राकृतिक आवासों को बहाल करने के प्रयासों से पश्चिमी घाटों में मिरिस्टिकेसी सहित कई प्रजातियों को संरक्षित करने में मदद मिली है। संरक्षण और बहाली से जैव विविधता संरक्षण में भी मदद मिल सकती है।
सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी से जुड़ी जाह्नवी जोशी बताती हैं, “पश्चिमी घाट का महाराष्ट्र वाला हिस्सा अनूठे जैव विविधता का हॉटस्पॉट है। इस क्षेत्र के जंगलों का एक बड़ा हिस्सा निजी स्वामित्व में है। ये समय-समय पर साफ-सफाई और कटाई के कारण खराब हो रहे हैं। इन्हें रबर, काजू और आम के बागानों में बदला जा रहा है।” उनका संगठन प्राकृतिक आवासों के क्षरण और जैव विविधता पर रूपांतरण के प्रभावों का दस्तावेजीकरण कर रहा है। वो स्थानीय हितधारकों के साथ पारिस्थितिक बहाली पर भी काम कर रहे हैं।
ये अध्ययन पश्चिमी घाटों में दीर्घकालिक संरक्षण के लिए रणनीति विकसित करने की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। इन अध्ययनों की ओर से दी गई पारिस्थितिक और विकासवादी अंतर्दृष्टि संरक्षण नीति बनाने में मदद कर सकती है। इसके अलावा स्टडी प्रजातियों की खासियतों के क्रमिक विकास के इतिहास को जानने से उनके अनुकूल विकास के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती है और संरक्षण प्रयासों का समर्थन कर सकती है। शोधकर्ताओं ने रेखांकित किया कि प्रजातियों के प्रकृति-आधारित संरक्षण के लिए उनके आवासों की बहाली और उनकी विविधता के संरक्षण को अपनाया जा सकता है।
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बैनर तस्वीर: पश्चिमी घाट का मोल्लेम नेशनल पार्क। तस्वीर-मैक्स पिक्सेल