- असम का उदलगुरी जिला राज्य के उन क्षेत्रों में से एक है जहां मानव-हाथी संघर्ष काफी ज़्यादा है।
- राज्य में मानव-हाथी संघर्ष को कम करने के प्रयासों के बावजूद हाथियों और इंसानों के घायल होने या मारे जाने की घटनाएं बढ़ रही हैं।
- असम में हाथियों के लिए रहने के सिकुड़ते क्षेत्र और लोगों के सामाजिक बहिष्कार की मूल समस्या का बहुपक्षीय और सामाजिक-न्यायपूर्ण समाधान निकालने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है।
नवंबर, 2022 के पहले सप्ताह में सुबह करीब 5:30 बजे असम के उदलगुरी जिले के एक गांव में हाथी के बच्चे की धान के खेत में एक मौत हो जाने की खबर फ़ैल गई। मादा हाथी अपने बच्चे के शव को घसीट कर अपने साथ ले जाने की कोशिश कर रही थी। उदलगुरी जिला असम के उन इलाकों में से एक है जहां मानव-हाथी संघर्ष सबसे ज्यादा होते हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि इस तरह के संघर्षों में पिछले 12 सालों में 100 से अधिक हाथी और 200 लोग मारे जा चुके हैं।
सुबह लगभग 6 बजे तक वहां काफी लोग इकट्ठे हो गए और एक अकेले हथनी को पैरों से अपने मरे हुए बच्चे को धकेलते हुए देखने लगे। वहां मौजूद लोगों ने बताया कि पिछली रात 80 से 100 हाथियों के एक बड़े झुंड ने धान के खेत पर धावा बोल दिया था। यह हथनी और उसका बच्चा उसी झुंड का हिस्सा थे। झुंड सुबह करीब 4 बजे वापस जंगल की ओर चला गया।
गांव के नजदीक रहने वाले एक किसान ने कहा, “एक मां, चाहे वह इंसान हो या हाथी अपने बच्चे को अकेला जिंदा या मुर्दा नहीं छोड़ सकती है। एक मां अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहती है। आप इस मादा हाथी को ही देख लें। यह दिन के उजाले में सभी लोगों के बीच अपने बच्चे को जगाने की कोशिश में लगी हुई थी।
सुबह 7 बजे तक वहां 200 से ज्यादा लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। वे सभी चुपचाप खड़े थे और उन्होंने हाथी से एक निश्चित दूरी बनाए हुई थी।
हथनी वहां इतने सारे लोगों को देख घबरा रही थी, मगर उसने अपने मरे हुए बच्चे को सुरक्षित जगह पर खींच कर ले जाने की कोशिश को नहीं छोड़ा था। अब वह उसके शरीर को लुढ़काने के लिए अपने पिछले पैरों का इस्तेमाल करने लगी। हाथी के बच्चे की उम्र लगभग 3-4 साल की थी। वह इतना छोटा नहीं था कि उसे सूंड से खींचा जा सके। जैसे ही सुबह की ठंडक कम हुई और गर्मी का अहसास होने लगा, उसने अपने शरीर को मिट्टी और पानी का छिड़काव कर खुद को ठंडा कर लिया। अगले आठ घंटे तक वह बच्चे को वहां से दूर ले जाने के लिए घसीटती रही। हथनी खड़ी फसलों, उथली सिंचाई नहरों और झाड़ियों को पार करते हुए वहां से 400 मीटर दूर निकल आई। लेकिन दोपहर करीब 3 बजे उसके सब्र का बांध टूट गया। उसने शायद इस बात को स्वीकार कर लिया था कि वह अब अपने बच्चे को मौत के मुंह से वापस नहीं ला पाएगी। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी और जंगल में घुसने के लिए नदी के किनारे चली गई। वह और उसका झुंड अगले एक या दो सप्ताह के लिए फिर इस इलाके में नजर नहीं आया था।
हाथी बेहद संवेदनशील प्राणी हैं। इनमें सामाजिक बंधन बहुत मजबूत होता है। ये अपने साथियों की मौत पर इंसानों की तरह दुख मनाते हैं। माँ और उसके बच्चे का संबंध खासतौर पर मजबूत होता है क्योंकि बच्चा 8-10 सालों तक माँ के साथ निकटता से जुड़ा रहता है।
एक मां ही थी इसके लिए जिम्मेदार
असम में अक्टूबर, 2022 में करीब 20 हाथी मारे गए थे और उनमें से कई हाथियों के मरने का कारण खेत के आस-पास लगे बिजली के तारों से लगा झटका था। वन विभाग यह पता लगाने की कोशिशों में लगा था कि क्या इस मामले में भी हाथी के बच्चे की मौत का कारण करंट तो नहीं था।
मरे हुए हाथी का शरीर उस समय फोरेंसिक जांच के लिए उपलब्ध नहीं था, इसलिए अन्य सबूतों पर भरोसा करना पड़ा। जिस जगह पर हाथी के बच्चे की मौत हुई थी वहां पास ही जमीन का एक टुकड़ा था, जिस पर फसल लहलहा रही थी। इसकी सीमा पर तार-बाड़ लगाई गई थी। इस तरह की बाड़ लगाना एक आम बात है। माना जाता है कि गैर-विद्युतीकृत तार की बाड़ हाथियों को मनोवैज्ञानिक रूप से काफी हद तक रोकती है। हालांकि वहां बाड़ में करंट लाने के लिए कोई कनेक्टिंग तार नहीं मिला था।
धान के खेत के मालिक का घर वहीं पास में था। वह एक महिला थी और अपनी छह साल की बेटी के साथ अकेले रहती थी। यह छोटा सा गांव हाथियों की वजह से होने वाले नुकसान की चपेट में है। इन्हें आए दिन हाथियों की वजह से हुए नुकसान से जूझना पड़ता है। इस गांव के ज्यादातर लोग पहले चाय बागानों में मजदूरी किया करते थे।
महिला ने बताया कि उसके घर को तीन बार हाथियों ने तोड़ा है और उसके पास अपनी जमीन नहीं है। पहले वह भी चाय बागान में काम करती थी, लेकिन बीमारी और अपने पति के छोड़ कर चले जाने के बाद वह वहां लंबे समय तक काम करने में असमर्थ थी। उसने दूसरे गांव के एक अन्य व्यक्ति के साथ बटाई पर दो बीघा खेत लिया और उसमें धान उगाने का फैसला किया। यह पूछने पर कि क्या उसने बाड़ के तारों में करंट छोड़ा था, उसने कहा कि नहीं, उसने ऐसा नहीं किया था।
बाद में आगे की जांच करने पर, हाथी की खाल और मांस के कुछ हिस्से उसी धान के खेत की तार की बाड़ से चिपके मिले थे। लैंटाना झाड़ी के अंदर छिपे धान के खेत के चारों ओर एक जोड़ने वाला तार भी पाया गया। कनेक्टिंग तारों को भूमिगत रखा गया था।
महिला से एक बार फिर पूछताछ की गई। उसने आखिरकार स्वीकार कर लिया कि अपने साथी के साथ मिलकर उसने बाड़ में करंट दौड़ा रखा था। उसने बताया, “मेरे पास अपनी दुई बीघा माटी (दो बीघा जमीन) को बचाने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था।”
स्थिति नाजुक थी। प्रोटोकॉल के अनुसार, उसे वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत गिरफ्तार किया जाना था। लेकिन उसके छोटे बच्चे को देखते हुए वन कर्मचारियों ने तुरंत कोई कार्रवाई नहीं करने का फैसला किया। बाद में उस महिला और उसके साथी दोनों को गिरफ्तार कर पुलिस स्टेशन ले जाया गया। हालांकि अनुकंपा के आधार पर महिला को रिहा कर दिया गया और वह अपने गांव लौट आई। लेकिन उसके साथी पर हाथी की जानबूझकर हत्या का आरोप लगाया गया था।
कुछ दिनों बाद हाथी की मां को फिर से झुंड के साथ देखा गया था, जो दूसरे चाय बागान में घूम रहा था। वह अपने एक नवजात बच्चे को अपने साथ चिपकाए घूम रही थी।
मानव और हाथी के बीच संघर्ष
इस मानव-हाथी संघर्ष क्षेत्र में दो माँओं – एक हथनी और इंसानी माँ – का जीवन एक-दूसरे से टकराया और एक दु:खद निष्कर्ष पर पहुंचा। यह एक आकस्मिक घटना नहीं थी। लेकिन मुठभेड़ का जो तरीका अपनाया गया वो पहले और हाल-फिलहाल में संयोगवश हुई घटनाओं से ही उत्पन्न हुआ था। असम में व्यापक वनों की कटाई के चलते हाथियों के रहने लायक जमीन नहीं बची है। खासतौर पर पिछले तीन दशकों में वे इंसानी आबादी वाले इलाकों में उगाए जाने वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थों पर तेजी से निर्भर हुए हैं। दूसरी ओर, असम में आदिवासी के रूप में जाने जाने वाले चाय बागानों में लगे मजदूर पिछले 150 सालों से बिना किसी सामाजिक उत्थान के गरीबी में जी रहे हैं। उनमें से अब बहुत से कामगार गांवों के आस-पास कुछ बीघा जमीन खरीदकर छोटी बस्तियों में रहने लगे हैं।
चाय मजदूर और हाथी, दोनों अब बागानों और धान के खेतों पर निर्भर होकर उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। चाय बागान दोनों को जिंदा बनाए रखते हैं, क्योंकि आदिवासी को वहां कम मजदूरी मिलती है, लेकिन साल भर काम मिलता है और हाथी जंगल के बाहर इन जगहों पर आश्रय पा लेते हैं। धान के खेत उनके जीवन के लिए जरूरी हैं। ये गरीब आदिवासी किसानों और हाथियों को समान रूप से जीवन जीने में मदद करते हैं। दोनों इन संसाधनों पर अपना-अपना दावा करने के लिए बेताब हो जाते हैं। नतीजन दोनों पक्षों को नुकसान होता है।
किसी दिन आदिवासी जीत जाते हैं तो कभी हाथी उन पर हावी हो जाते हैं। इस समस्या का कोई स्पष्ट समाधान न होने के कारण, भविष्य में इस तरह के नुकसान के बढ़ जाने की आशंका है।
दोनों के जीवन को ऊपर उठाने या इस समस्या का समाधान करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। लोगों और हाथियों के बीच भौगलिक अलगाव एक व्यावहारिक कदम नहीं है।
भारत में हाथियों के संरक्षण के लिए किए गए बड़े-बड़े विमर्श में, लोगों और हाथियों के बीच मुठभेड़ों रोकने के तरीकों का वर्णन करने के लिए सह-अस्तित्व एक मूलमंत्र बन गया है। लोग, जो अक्सर हाथियों से संबंधित नुकसान का खामियाजा भुगतते हैं, वास्तव में वे भी हाथियों के साथ सह-अस्तित्व की बात करते हैं, यह शायद सांस्कृतिक सहिष्णुता के कारण है। लेकिन, इसकी आड़ में इस असहज तथ्य को छिपाया नहीं जाना चाहिए कि संरक्षण नीति और अपनाए जा रहे उपाय, समस्या के मूल में छिपी असली जड़ से निजात पाने के लिए राजनीतिक समाधान की बात नहीं करते हैं। ऐसा कर वे इंसानों और हाथियों दोनों को बुरी तरह विफल कर रहे हैं।
वनों की कटाई और लोगों का सामाजिक बहिष्कार दोनों ही राजनीतिक प्रक्रियाओं के कारण हुए हैं। इंसान और हाथियों के जीवन को सुरक्षित करने के लिए समान राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। सौर बाड़ लगाना और जागरूकता सत्र आयोजित करना नुकसान पर सिर्फ अस्थायी मरहम हो सकता है। अगर हमें इंसान और हाथी, दोनों माँओं को न्याय दिलाना है तो इसके लिए राजनीतिक समाधान की ओर जाना होगा, जो बेहद जरूरी है।
(लेखक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, बेंगलुरु में पीएचडी स्कॉलर हैं।)
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बैनर तस्वीर: उदलगुरी के चाय बागानों में घूमते हाथी। तस्वीर- सयान बनर्जी