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राज्य वित्त आयोग की खराब हालत का विकेंद्रीकरण प्रक्रिया पर असर

मध्य प्रदेश में नरसिंहगढ़ के पास एक ओपन पंचायत। 73वें और 74वें संशोधनों के बाद भारत ने 1990 के दशक में प्रभावी स्थानीय शासन सुनिश्चित करने की दिशा में पहला निश्चित कदम उठाया था। तस्वीर- सुयश द्विवेदी/विकिमीडिया कॉमन्स 

मध्य प्रदेश में नरसिंहगढ़ के पास एक ओपन पंचायत। 73वें और 74वें संशोधनों के बाद भारत ने 1990 के दशक में प्रभावी स्थानीय शासन सुनिश्चित करने की दिशा में पहला निश्चित कदम उठाया था। तस्वीर- सुयश द्विवेदी/विकिमीडिया कॉमन्स 

  • अधिकांश राज्य नियमित अंतराल पर राज्य वित्त आयोगों के गठन के संवैधानिक दायित्व का पालन करने में विफल रहे हैं।
  • राज्य वित्त आयोग (एसएफसी) राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच वित्त के हस्तांतरण के लिए एक महत्वपूर्ण निकाय है। विशेषज्ञों, जगह और डेटा की कमी जैसे बहुत से कारण राज्य वित्त आयोगों के कामकाज में बाधा डाल रहे हैं।
  • राज्यों द्वारा एसएफसी का गठन सुनिश्चित किया जाए, इसके लिए नए सिरे से जोर दिया जा रहा है क्योंकि केंद्रीय वित्त आयोग ने स्थानीय अनुदान जारी करना अनिवार्य कर दिया है।

ठीक 30 साल पहले भारत ने शासन का विकेंद्रीकरण करना शुरू किया और संविधान में संशोधनों के जरिए ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में स्थानीय निकायों को सशक्त बनाया गया। इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, राज्यों के लिए राज्य वित्त आयोग गठन करने का एक आदेश भी जारी किया गया था। आयोग का काम हर पांच साल में स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करना और ये तय करना था कि राज्य और स्थानीय सरकार के अधिकारियों के बीच राजस्व कैसे वितरित किया जाए।

इस समय तक, सभी राज्यों को छठे वित्त आयोग का गठन कर लेना चाहिए था, जो 2021-22 से लेकर 2026-27 तक संचालित होता। लेकिन अब तक सिर्फ नौ राज्यों ने छठे राज्य वित्त आयोग का गठन किया है और इनमें से सिर्फ दो ही सक्रिय तौर पर काम कर रहे हैं।

इस साल 14 मार्च को लोकसभा में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में आयोग के गठन में देरी की वजहों का रेखांकित किया गया था। रिपोर्ट बताती है कि “मंत्रालय द्वारा सूचित किए गए 26 राज्यों में से सिर्फ नौ राज्यों ने छठे राज्य वित्त आयोग का गठन किया है। और उनमें से सिर्फ दो ही सक्रिय हैं। कुछ राज्यों ने तो चौथे और पांचवें वित्त आयोग तक का गठन भी नहीं किया है।”

रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात, झारखंड और गोवा ने सिर्फ तीन (छह में से) एसएफसी का गठन किया था। जबकि कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और त्रिपुरा ने चार एसएफसी का गठन किया है। अरुणाचल प्रदेश ने सिर्फ दो एसएफसी का गठन किया है।

इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के अध्यक्ष जॉर्ज मैथ्यू ने कहा कि एसएफसी का गठन भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है। आयोग से अपेक्षा की जाती है कि वह राज्यों और स्थानीय निकायों के वित्त की समीक्षा करे और सरकारी शक्ति के विकेंद्रीकरण की सुविधा प्रदान करे। हालांकि, एसएफसी 73वें और 74वें संशोधन का सबसे उपेक्षित पहलू है। वह बताते हैं, “एक भी राज्य ने ऐसा नहीं किया, जिसकी भारत के संविधान को अपेक्षा थी। उन्होंने कहा कि केरल ने जरूर कुछ हद तक आगे बढ़ने की कोशिश की है, लेकिन इसके अलावा किसी अन्य राज्य ने एसएफसी के बारे में गंभीरता नहीं दिखाई है।”

स्थानीय निकायों को कार्यों और संसाधनों को हस्तांतरित करके लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की दिशा में किए गए प्रयासों का एक लंबा इतिहास रहा है। 1990 के दशक में प्रभावी स्थानीय शासन सुनिश्चित करने के लिए भारत ने अपना पहला निश्चित कदम उठाया था। कई संसदीय समितियों और अस्वीकृति के बाद, नीति निर्माताओं ने आखिरकार दिसंबर 1992 में पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) और शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) को सशक्त बनाने के लिए संविधान को बदल दिया। 1993 में इन कानूनों की अधिसूचना के बाद संसद ने पीआरआई को 29 और यूएलबी को 18 विषयों को सौंपा था। इस अधिनियम ने हर पांच साल के बाद स्थानीय निकाय के नियमित चुनाव को अनिवार्य कर दिया था।

इन्हीं संशोधनों के साथ, अनुच्छेद 243-I को पेश किया गया, जो राज्यों और पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने और उपायों की सिफारिश करने के लिए एसएफसी के गठन की बात करता है। अनुच्छेद कहता है “एक राज्य का राज्यपाल, संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम, 1992 की शुरूआत से एक साल के अंदर और उसके बाद हर पांचवें वर्ष की समाप्ति पर, पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन करेगा और राज्यपाल को सिफारिशें भेजेगा।”

एसएफसी की ओर से की गई सिफारिशों को आधार माना जाएगा और उसी के बाद केंद्रीय वित्त आयोग (यूएफसी) स्थानीय सरकार के वित्त को बढ़ाने के लिए और सिफारिशें करेगा। 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि ज्यादातर राज्य सरकारों ने समय पर एसएफसी का गठन नहीं किया और इस महत्वपूर्ण संवैधानिक तंत्र को मजबूत करने के लिए उचित महत्व नहीं दिया। 

मांगर गांव के पास स्थित भिंडावास लैंडफिल। 1990 के दशक में संवैधानिक संशोधनों के बाद संसद ने पंचायती राज संस्थानों को 29 और शहरी स्थानीय निकायों को 18 विषयों को सौंपा था। फोटो- सान्शे बिस्वास और मेनन वेरकोट।
मांगर गांव के पास स्थित भिंडावास लैंडफिल। 1990 के दशक में संवैधानिक संशोधनों के बाद संसद ने पंचायती राज संस्थानों को 29 और शहरी स्थानीय निकायों को 18 विषयों को सौंपा था। फोटो- सान्शे बिस्वास और मेनन वेरकोट।

सत्ता के विकेंद्रीकरण के भारत के अब तक के सफर और एसएफसी की स्थिति के बारे में बात करते हुए, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के पूर्व प्रोफेसर तापस सेन कहते हैं, “30 साल पहले संवैधानिक संशोधनों के जरिए जो परिकल्पना की गई थी, उसकी तुलना में हम कहीं नहीं हैं।” उनका कहना है कि स्थानीय निकायों को शक्ति देने का साफ तौर पर विरोध किया जाता रहा  है। उन्होंने कहा कि शहरी निकायों की स्थिति ग्रामीण निकायों की तुलना में खराब है क्योंकि शहरों में लगभग कोई राजनीतिक जागरूकता नहीं है और लोग खुद को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते हैं।

अर्थशास्त्री पिनाकी चक्रवर्ती को भी यही लगता है। उनके मुताबिक 73वें और 74वें संशोधन को लगभग तीन दशक बीत चुके हैं। अगर कुछ राज्यों को छोड़ दे तो, विकेंद्रीकरण को लेकर कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है। एक संस्था के रूप में स्थानीय सरकार अभी भी विकसित हो रही है। चक्रवर्ती 2019 में एसएफसी की स्थिति की जांच करने के उद्देश्य से किए गए एक अध्ययन का हिस्सा थे।

आयोग के गठन के विचार का विफल होना

एनआईपीएफपी की ओर से एसएफसी की स्थिति पर 2019 में एक अध्ययन किया गया था। इसमें 25 राज्यों की पड़ताल की गई। अध्ययन में संवैधानिक निकाय के कामकाज में बाधा डालने वाले कई मसले पाए गए थे।

एसएफसी के गठन में देरी को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट ने कहा कि ऑफिस के लिए जगह के साथ-साथ तकनीकी कर्मचारियों, कंप्यूटर, फर्नीचर की कमी जैसे कई मसले थे। इनके चलते काफी समय बर्बाद हुआ है।

रिपोर्ट में कहा गया कि स्थानीय सरकार से संबंधित डेटा की अनुपलब्धता भी एसएफसी के कामकाज में बाधा डालती है। युएफसी द्वारा कराए गए अध्ययन में कहा गया है कि हर बार जब एक एसएफसी का गठन किया जाता है, तो उसे डेटा एकत्र करने के लिए शुरू से शुरू करना पड़ता है।

रिपोर्ट में कहा गया कि आयोग में विशेषज्ञों की भी कमी है, क्योंकि एसएफसी के ज्यादातर सदस्य और अध्यक्ष नौकरशाह और राजनेता हैं। रिपोर्ट बताती है, “यह बिना रोक-टोक और स्वतंत्र तरीके से सिफारिशें करने के लिए एक स्वायत्त निकाय के रूप में कार्य करने के लिए एसएफसी की क्षमता को सीमित करता है।” एसएफसी के ऊंचे पदों पर बैठे पदाधिकारियों के बीच विशेषज्ञता की कमी का जिक्र कई अन्य यूएफसी रिपोर्टों में भी किया गया है।

यह रिपोर्ट अलग-अलग एसएफसी द्वारा डिविजिबल पूल (राज्य और स्थानीय निकायों के बीच साझा राजस्व) को लेकर मतभेदों पर भी चर्चा करती है।

केरल में एक प्रशिक्षण कार्यशाला में पर्यावरण के मुद्दों पर चर्चा करते पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि। फोटे- केरल स्थानीय प्रशासन संस्थान 
केरल में एक प्रशिक्षण कार्यशाला में पर्यावरण के मुद्दों पर चर्चा करते पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि। फोटे- केरल स्थानीय प्रशासन संस्थान

एसएफसी द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, राज्य विधानसभा के सामने कार्रवाई रिपोर्ट (एटीआर) पेश करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां राज्य विधानसभा के समक्ष एटीआर लगाने में विफल रहे। स्थानीय सरकारों के वित्त और बुनियादी ढांचे के समर्थन पर डेटा की अनुपलब्धता कई राज्यों में एसएफसी के काम की गुणवत्ता में बाधा डाल रही है।

रिपोर्ट के लेखक पिनाकी चक्रवर्ती ने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए कहा कि सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे एसएफसी, एटीआर का समय पर गठन न होना है। इसके अलाव राज्य सरकार की किसी भी सिफारिश को स्वीकार नहीं करने पर उसका कारण न बताना भी एक बड़ी समस्या है। फिर यह उप-राज्य विकेंद्रीकरण की पूरी प्रक्रिया का मूल्यांकन करने के लिए लोगों के लिए खुला है।

एनआईपीएफपी के प्रोफेसर लेखा चक्रवर्ती का कहना है कि प्रतिष्ठित सार्वजनिक वित्त विशेषज्ञों की  अध्यक्षता में एसएफसी का गठन, सिफारिशों की विश्वसनीयता के लिए महत्वपूर्ण है। एसएफसी के सदस्यों में टेक्नोक्रेट और डोमेन दोनों तरह के विशेषज्ञ होने चाहिए। किसी राजनीतिक दल से संबंध न रखने वाले लोगों की नियुक्तियां सिफारिशों की विश्वसनीयता को मजबूत करेंगी।

राज्य के खिलाफ जनहित याचिका: क्या यह काम करेगा?

पेशे से वकील जी.वी. रेड्डी ने हाल ही में एसएफसी के गठन में देरी के लिए राज्य सरकार के खिलाफ आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि चौथे वित्त आयोग का कार्यकाल खत्म हुए दो साल से ज्यादा का समय बीत गया, लेकिन राज्य सरकार ने पांचवें वित्त आयोग का गठन नहीं किया। उनके विचार में, यह स्थानीय स्व-सरकारों को राज्य की संचित निधि से उनके वैध हिस्से से दूर करने की ओर ले जाता है। नतीजतन, वे अपने कार्यों को सही ढंग से करने में असमर्थ हैं। रेड्डी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के प्रवक्ता हैं।

उन्होंने जून 2022 में जनहित याचिका दायर की और 20 मार्च, 2023 को राज्य सरकार ने आखिरकार आंध्र प्रदेश में पांचवें वित्त आयोग का गठन किया। रेड्डी ने कहा, जो काम उन्हें अपने आप करना चाहिए था, उसे कराने में उन्हें नौ महीने लग गए। यह संवैधानिक जरूरतों का पालन करने के लिए सरकार की अनिच्छा को दिखाता है।

तेलंगाना के दुटेलगुडा गांव में आयोजित पारंपरिक ग्राम सभा समीलानी (ग्राम परिषद सम्मेलन)। फोटो- श्रीचरण बेहरा 
तेलंगाना के दुटेलगुडा गांव में आयोजित पारंपरिक ग्राम सभा समीलानी (ग्राम परिषद सम्मेलन)। तस्वीर- श्रीचरण बेहरा

यह पूछे जाने पर कि इसने यूएफसी की रिपोर्ट में कैसे बाधा डाली, पिनाकी चक्रवर्ती ने कहा कि एसएफसी की ओर से रिपोर्ट न मिलने पर यूएफसी अपने स्वयं के आकलन पर भरोसा करती है। अगर एसएफसी ने समय पर रिपोर्ट दी होती तो विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को फायदा पहुंचता।

केंद्रीय वित्त आयोग यह सुनिश्चित करने के लिए नए सिरे से जोर दे रहे हैं कि राज्य वित्त आयोगों को गंभीरता से लें। जबकि 14वें वित्त आयोग (2015-2020 से संचालित) ने एसएफसी के समय पर गठन की सिफारिश की और संस्थागत समर्थन के बारे में बात की। वहीं 15वें वित्त आयोग (2020-2025 तक संचालित) ने घोषणा की कि 2024-25 से अनुदान सिर्फ उन्हीं राज्यों को जारी किया जाएगा जो एसएफसी के संवैधानिक गठन का अनुपालन करते हैं। केंद्र सरकार एसएफसी के लिए कार्यशाला आयोजित कर रही है।

हालांकि, पंचायती राज मंत्रालय ने 9 मार्च को जारी एक बयान में पुष्टि की है कि स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने के लिए एसएफसी अपने महत्वपूर्ण कार्य करता रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए अभी मीलों का रास्ता तय करना है। कई विशेषज्ञों ने कहा कि स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।


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आगे के रास्ते के बारे में बात करते हुए लेखा चक्रवर्ती ने कहा कि एसएफसी का गठन राज्यों से स्थानीय निकायों को वित्तीय हस्तांतरण में मौजूद तदर्थवाद (एडहॉक) और मनमानी को कम करने के लिए किया जाता है। एसएफसी के गठन में देरी से धन के प्रवाह में अस्थिरता बढ़ सकती है। स्थानीय स्तर पर “अनफंडेड मैंडेट” एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। कार्यों और वित्त के बीच विषमता का परिणाम राज्य और स्थानीय निकायों के साथ-साथ स्थानीय निकायों के बीच असंतुलन होता है।

क्या मनी ट्रांसफर के लिए 15वें वित्त आयोग का अनिवार्य प्रावधान काम करेगा, चक्रवर्ती कहती हैं कि समय पर एसएफसी के गठन के लिए एक “चार्टर” और इसकी सुझाई गई संरचना और अधिदेश नए सिरे से जोर दे सकते हैं। वह भविष्यवाणी करती है कि 2025 तक काम करने वाला 16वां वित्त आयोग इस तरह का चार्टर ला सकता है।

वह डेटा के महत्व के बारे में और 16वां वित्त आयोग इसके बारे में क्या कर सकता है, को लेकर भी बात करती हैं। उन्होंने कहा, “स्थानीय सरकारी डेटा का बनाया जाना बेहद जरूरी है। इसके अलावा भारत में राज्यों में स्थानीय स्तर के डेटा तैयार करने के लिए ‘कंपेरेबल क्लासिफिकेशन कोड’ और लेखांकन में डेटा को डिजिटाइज़ करना महत्वपूर्ण है। डेटा लेखांकन के लिए एक समान कोड भारत में नहीं मिलता है। म्युनिसिपल फाइनेंस पर आरबीआई की हालिया रिपोर्ट ने इस मुद्दे को हरी झंडी दिखाई है। 16वें वित्त आयोग द्वारा विकेंद्रीकरण संबंधी विचार-विमर्श में इसे अत्यंत गंभीरता से लेने की जरूरत है।

 


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बैनर तस्वीर: मध्य प्रदेश में नरसिंहगढ़ के पास एक ओपन पंचायत। 73वें और 74वें संशोधनों के बाद भारत ने 1990 के दशक में प्रभावी स्थानीय शासन सुनिश्चित करने की दिशा में पहला निश्चित कदम उठाया था। तस्वीरसुयश द्विवेदी/विकिमीडिया कॉमन्स 

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