झींगा फार्म के विरोध में क्यों हैं रामेश्वरम के पारंपरिक मछुआरे

Rameswaram fishers bringing their catch to the shore. Photo by Narayana Swamy Subbaraman.

रामेश्वरम के मछुआरे पकड़ी हुई मछलियों को किनारे पर लाते हुए। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन/मोंगाबे

पर्यावरण और आजीविका के लिए खतरा

अरियानकुंडु के लोग अपने गांव के पीछे बने झींगा फार्म द्वारा कई तरह के नियम तोड़ने का हवाला देते हैं, जिससे उनकी आजीविका के लिए खतरा पैदा हो गया है।

सबसे पहले, झींगा फार्म तटीय जलकृषि प्राधिकरण कानून, 2005 (Coastal Aquaculture Authority Act, 2005/सीएए,) का उल्लंघन कर रहे हैं। कानून कहता है, “उच्च ज्वार वाली जगह से 200 मीटर के भीतर कोई तटीय मछली पालन नहीं किया जाएगा।” अरियानकुंडु में किनारे पर स्थित इन फार्म ने उस सीमा का पालन नहीं किया है। करुणामूर्ति कहते हैं, “खुदाई और खनन में काम आने वाली विशालकाय मशीनों ने कई कीमती प्रवाल संरचनाओं (जिन्हें स्थानीय रूप से पवाझा पराई कहा जाता है) को नष्ट कर दियाइनका इस्तेमाल शुरू में भूमि की सतह को समतल बनाने के लिए किया गया था।  ये संरचनाएं समुद्र तटों को कटाव से बचाती हैं।” उन्होंने दावा किया कि पारिस्थितिकी के लिए अहम इन प्रवाल संरचनाओं को नुकसान पहुंचाना अवैध है।

करुणामूर्ति ने कहा,तट के करीब इन पवाझा पराई के पास आमतौर पर मछलियां प्रजनन के लिए आती हैं। इन प्रवाल संरचनाओं को नष्ट करने से पास रहने वाले मछुआरों की आजीविका खत्म हो रही है।”

इन पाइपलाइनों से झींगा फार्म के लिए समुद्र से पानी की आपूर्ति की जाती है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि अरियानकुंडु में तट पर स्थित कुछ खेतों ने सीएए नियमों का पालन नहीं किया है। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन/मोंगाबे 
इन पाइपलाइनों से झींगा फार्म के लिए समुद्र से पानी की आपूर्ति की जाती है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि अरियानकुंडु में तट पर स्थित कुछ खेतों ने सीएए नियमों का पालन नहीं किया है। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन/मोंगाबे

दूसरा उल्लंघन सीएए कानून की ज़रूरतों का पालन नहीं करना है। यह कहता है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव से बचने के लिए झींगा फार्म को उपज के बाद पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से पहले उसे साफ करना चाहिए। भंडारण के लगभग 90-120 दिनों के बाद बढ़ते हुए तालाबों से झींगा निकाला जाता है। झींगा तालाब के पानी की गुणवत्ता इन मछलियों के बढ़ने की अवधि के दौरान बिगड़ जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि झींगों के आकार और बायोमास के साथ उनके चारे की दर बढ़ जाती है। इसलिए, गंदे पानी की उच्चतम मात्रा और सबसे खराब गुणवत्ता (पोषक तत्व भार, कुल अमोनिया और आयनित अमोनिया और कुल छोड़े गए ठोस पदार्थ के संदर्भ में) आमतौर पर झींगा को निकालने से ठीक पहले पाई जाती है। इस दौरान झींगा का बायोमास सबसे अधिक होता है।

केंद्र ने झींगा फार्म से निकलने वाले गंदे पानी को साफ करने के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए हैं। इनके मुताबिक, “झींगा के गंदे पानी में जीवित और मृत प्लैंकटन, चारे का कचरा, मल पदार्थ और झींगा के अन्य उत्पाद शामिल हैं… झींगा को निकालने के बाद सफाई के कामों के दौरान निकले गंदे पानी का खुले जल की पारिस्थितिकी पर बहुत ज्यादा असर हो सकता है। भले ही इसकी अवधि छोटी हो।”

लेकिन करुणामूर्ति कहते हैं, अरियानकुंडु में इनमें से कई झींगा फार्म ने पानी छोड़ने से पहले ठीक से इसे साफ नहीं किया।

सीएए के नियमों के मुताबिक पानी के पोषक तत्वों के स्तर को कम करने के लिए पांच हेक्टेयर क्षेत्र से बड़े फार्म के लिए गंदा पानी साफ करने वाली प्रणाली (ईटीएस) लगाना अनिवार्य हैं।  पांच हेक्टेयर से कम के फार्म के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। मत्स्य विज्ञान और मछली पालन समीक्षा में प्रकाशित 2020 के एक अध्ययन ने पाया, “कई झींगा पालकों ने अपने फार्म को छोटे फार्म के रूप में वर्गीकृत करने और ईटीएस में निवेश से बचने के लिए उन्हें अलग-अलग हिस्सों में दिखाया है। इस अध्ययन में जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर भविष्य में मछली पालन के असर की समीक्षा की गई है।

तमिलनाडु फिशरीज यूनिवर्सिटी (एक सरकारी संस्थान) में टिकाऊ मछली पालन निदेशालय के प्रोफेसर स्टीफन संपत कुमार विस्तार से बताते हैं, “झींगा तैयार होने के बाद फार्म से निकलने वाले पानी में कचरा और पोषक तत्व होते हैं। जब यह पानी अतिरिक्त कचरे के साथ ठहरा हुआ रहता है, इसे सूक्ष्मजीवों द्वारा खत्म या डिग्रेड करने की जरूरत होती है। इन सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग करने वाले शैवाल जीवित रहते हैं। यही कारण है कि आपको पानी में बहुत सारे शैवाल मिलते हैं।

जब इन फार्म से यह पूछने के लिए संपर्क किया गया कि वे इस पानी को साफ कैसे करते हैं या वे प्रदूषण को किस तरह दूर करने की योजना बनाते हैं, तो अरियानकुंडु के पीछे झींगा फार्म में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के पास कोई जवाब नहीं था। इस संवाददाता के दौरे के समय साइट पर बातचीत के लिए मालिक मौजूद नहीं थे।

मछली फार्म में तैयार झींगा को निकाला जा रहा है। तस्वीर-आर दिनेश।
मछली फार्म में तैयार झींगा को निकाला जा रहा है। तस्वीर-आर दिनेश।

रामेश्वरम के मछली पालक रोशन वी. का अनुमान है कि अरियानकुंडु के इन पुराने फार्मों में से कुछ ने लंबी दूरी के लिए पाइपलाइन लगाने में अतिरिक्त निवेश से बचने के लिए अपने फार्म को तट के करीब बनाया होगा। वह कहते हैं, “समुद्र से पानी खींचने वाली पाइपलाइनों में बहुत निवेश ज्यादा पैसा लगता है। नए उद्यमी लंबी दूरी के लिए पाइप लगाने और उन्हें बनाए रखने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यह चुनौतीपूर्ण है।

अरियानकुंडु के निवासियों का यह भी आरोप है कि मछली पालन में आई तेजी ने क्षेत्र में कृषि और चराई की भूमि को नष्ट कर दिया है। इसने उनके पीने के पानी को प्रदूषित कर दिया है, परिवारों को उस एकमात्र घर से विस्थापित कर दिया है जिसमें वह पीढ़ियों से रह रहे थे।

दूसरी तरफ, अरियानकुंडु से कुछ किलोमीटर पूर्व में पिल्लईकुलम है। पिल्लईकुलम कभी एक फलता-फूलता गांव था। यहां 60 से अधिक परिवार रहते थे। ये परिवार तट के पास मछली पकड़ने, खेती और अन्य गतिविधियों से का अभ्यास करते थे। केवल तीन घर आबाद हैं और निवासियों का आरोप है कि क्षेत्र में झींगा फार्म ने भूजल को प्रदूषित कर दिया और इसे खारा बना दिया। अब इसका इस्तेमाल मवेशियों और यहां रहने वाले नहीं कर सकते थे। वे अपने खेतों में सिंचाई नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे लोग अपने घरों को छोड़कर जाने लगे।

पिल्लईकुलम के तीन निवासियों में से एक जॉनसन पीटर याद करते हैं, “पहले हम यहां खेती करते थे। हमारे पास बहुतायत में केझवारागु (रागी), कंबु (मोती बाजरा), कथिरिकई (बैंगन), ठक्कली (टमाटर) के खेत थे। सैकड़ों की संख्या में नारियल और खजूर के पेड़ भी थे। अब, केवल हमलावर सीमाई कारुवेलम (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) या विलायती बबूल ही बचा है।पीटर के घर की छत से बाहर का नजारा उतना ही बेजार है, जितना वह बताते हैं।

पिल्लईकुलम के लोग अब एक ड्रम पानी के लिए 800 रुपये देते हैं। इस पानी का इस्तेमाल पीने, नहाने और मवेशियों के लिए किया जाता है। अपनी मूक-बधिर बेटी के साथ रहने वाली 75 साल की मारिया रोसाई बताती हैं, ” यह पूरे महीने भी नहीं चलता है।” 

सभी तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे 

क्या वास्तव में भूजल पास में स्थित झींगा फार्म के चलते खारा हो गया है, जैसा कि यहां रहने वाले लोगों का दावा है?

नाम न छापने की शर्त पर एक मछली पालन विशेषज्ञ कहते हैं, “यह पक्के तौर पर संभव है कि जब हम समुद्री जल (बहुत सारे पोषक तत्वों और कचरे के साथ) को एक तटीय स्थान पर ठहरने देते हैं, जहां इसे लंबे समय तक स्थिर नहीं माना जाता है, तो यह इसके आसपास के जल निकायों और भूजल को खारा बना देता है।” 

ओडिशा में साल 2011 में हुए एक अध्ययन ने मछली पालन और आस-पास के क्षेत्र की मिट्टी के खारेपन के बीच संबंध का विश्लेषण किया। इसमें पाया गया कि रिसाव खारेपन का प्रमुख कारण है। अध्ययन के नतीजों में कहा गया, “मछली पालन फार्म में खारे पानी का भंडारण आसपास के कृषि क्षेत्रों में मिट्टी के खारेपन को प्रभावित करता है। हालांकि नमक की मात्रा मिट्टी के ऊपजाऊ नहीं रहने का अकेला कारण नहीं हो सकता है, लेकिन इससे उत्पादकता पर असर पड़ता है।


और पढ़ेंः उत्तर प्रदेश में होने लगा श्रिम्प-पालन, मिल सकता है स्थानीय लोगों को रोजगार


रोशन कहते हैं,कुछ किसान पानी छोड़ने से पहले पानी को छानने के लिए सेडीमेंट तालाबों का उपयोग कर रहे हैं। और यह पक्का करने के लिए कि तालाब से सीधे पानी का रिसाव न हो, तालाबों में उच्च घनत्व वाली पॉलीथीन शीट बिछाई जा सकती हैं। यह महंगा सौदा है। लेकिन अगर हमें अधिक सब्सिडी मिलती है, तो झींगा किसान यह पक्का कर सकते हैं कि भूजल को प्रभावित करने वाले पानी का रिसाव बिल्कुल न हो।” 

मछली पालन के विकास के लिए केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस)  40 हजार रुपए तक प्रति हेक्टेयर 25% सब्सिडी प्रदान करती है। लेकिन केवल दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन वाले झींगा पालक ही इसका लाभ उठा सकते हैं। रोशन और कई अन्य झींगा पालक जो दो हेक्टेयर से अधिक के मालिक हैं, वे इस सब्सिडी का लाभ उठाने के योग्य नहीं हैं। केंद्र सरकार की योजना प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना की केंद्रीय क्षेत्र योजना में कहा गया है कि सामान्यमछली पालक किसानों के लिए परियोजना/इकाई लागत का 40% और एससी/एसटी और महिलाकिसानों के लिए 60% लाभ उठाने का प्रावधान है। हालांकि, रोशन का कहना है कि द्वीप के झींगा किसानों को इस बात की जानकारी नहीं है कि इस सब्सिडी का लाभ किस तरह उठाया जाए।

 

यह स्टोरी इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज़्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार की गई है।

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: रामेश्वरम का एक पारंपरिक मछुआरा। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन / मोंगाबे 

क्रेडिट्स

संपादक

विषय

कार्बन क्रेडिट: यूपी के किसानों के लिए पर्यावरण संरक्षण, आमदनी का जरिया

उम्मीद और आशंकाओं के बीच भारत में जीनोम-एडिटेड चावल की दो किस्में जारी

बढ़ते शहरीकरण में अपने आप को ढालते मुंबई के सुनहरे सियार

गिद्ध सरक्षण: सिर्फ दवाओं पर पाबंदी नाकाफी, उठाने होंगे दूसरे कदम

[वीडियो] जोजरी: समाधान की आस में बदबू, बीमारियों से बेहाल हजारों परिवार, खतरे में जैव-विविधता

तटीय इलाकों में क्यों कम हो रहे हैं समुद्री बाज के घोंसले

हिमालयी क्षेत्रों में जलवायु संबंधी आपदाओं को कम करने के लिए प्रतिबद्ध एक केंद्र

सिकुड़ते जंगल और बढ़ती मानव बस्तियां, लॉयन-टेल्ड मेकाक के लिए दोहरी चुनौती

नए लेख

सभी लेख

तेजी से होते ‘विकास’ से क्यों दूरी बना रहें हैं दक्षिण गोवा के ये गांव?

बाघों की फिर से बसाई गई आबादी में ऐसे होते हैं रिश्ते

साहिबगंज मल्टीमॉडल टर्मिनल: उदघाटन के पांच साल बाद भी क्यों अटका है परिचालन?

दिल्ली में लोगों की भागीदारी से शहरी तालाब हौज़-ए-शम्सी का कायाकल्प

ग्रीनहाउस खेती में बिना डंक वाली मधुमक्खियां से मुनाफा ही मुनाफा

बढ़ते पर्यटन से जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते दक्षिण गोवा के गांव

कार्बन क्रेडिट: यूपी के किसानों के लिए पर्यावरण संरक्षण, आमदनी का जरिया

उम्मीद और आशंकाओं के बीच भारत में जीनोम-एडिटेड चावल की दो किस्में जारी