- तमिलनाडु में झींगा पालन की ओर रुझान बढ़ रहा है। इसकी एक वजह है मछली की तुलना में झींगा कम समय में तैयार हो जाती है।
- केंद्र और राज्य दोनों सरकारें वित्तीय सब्सिडी और बीमा योजनाओं से मछली पालन को बढ़ावा दे रही हैं।
- झींगा फार्म से समुद्र की पारिस्थितिकी को कई तरह के नुकसान हो सकते हैं। जलवायु परिवर्तन से पहले से ही मीठे पानी के प्रवाह में और कमी होने की आशंका है। इससे खारेपन वाले क्षेत्र और बढ़ेंगे।
- अवैध रूप से झींगा पालन के मामले भी बढ़ रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक तमिलनाडु के सभी 12 तटीय जिलों (चेन्नई को छोड़कर) में 2086 झींगा फार्म काम कर रहे हैं। लेकिन इनमें से केवल 852 झींगा फार्म (40%) को सीएए से मंजूरी मिली है।
भारत में, पिछले कुछ वर्षों में, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मत्स्य पालन को प्रोत्साहित करने के लिए अलग-अलग योजनाएं चलाई गई हैं। इन अनुकूल नीतियों के चलते देश में झींगा पालन, मुख्य रूप से व्हाइटलेग झींगा (लिटोपेनियस वन्नामेई) की खेती, तेजी से बढ़ रही है। साल 2021-22 में इस झींगे का निर्यात 5,15,907 मीट्रिक टन से 25% बढ़कर 6,43,037 मीट्रिक टन हो गया। इसके कुल निर्यात में से, लगभग 59.05% (यूएस डॉलर मूल्य में) संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया गया। इसके बाद चीन को 14.59%, यूरोपीय संघ को 8.16%, दक्षिण पूर्व एशिया को 4.78%, जापान को 3.61%, जापान को 3.17% निर्यात किया गया। समुद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (MPEDA) के आंकड़ों के अनुसार, मध्य-पूर्व और अन्य देशों में 6.64% निर्यात हुआ।
केंद्र और राज्य दोनों सरकारें वित्तीय सब्सिडी और बीमा योजनाओं से मछली पालन को बढ़ावा दे रही हैं। इससे पारंपरिक मछुआरा समुदाय चिंतित है। प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना को हाल ही में केंद्रीय बजट से 6,000 करोड़ रुपये का आवंटन प्राप्त हुआ। वहीं तमिलनाडु जहां देश में दूसरी सबसे लंबी तट रेखा है, तेजी से मछली पालन उद्योग को रोजगार सृजन के लिए अहम और बढ़ती आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा के स्रोत के रूप में देख रहा है।
साल 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन – जिसमें पांच तटीय राज्यों-पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और ओडिशा में झींगा फार्म के विकास के बाद भूमि उपयोग परिवर्तन (साल 1988 से 2013 तक) का विश्लेषण किया गया – में पाया गया कि तटीय समुदायों के लिए अहम सामुदायिक जगहें जैसे कृषि भूमि और नमक के खेत को मछली पालन के काम में ले लिया गया है। अरियानकुंडु निवासियों के बयान इस अध्ययन की बारीकी से पुष्टि करते हैं।
आईसीएआर-सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रैकिशवाटर एक्वाकल्चर द्वारा किए गए अध्ययन में यह भी बताया गया कि इन राज्यों में अस्वीकृत फार्म मौजूद हैं। लेखक लिखते हैं, “सीएए ने पी. वन्नामेई (एल. वन्नामेई के रूप में भी जाना जाता है) के लिए फार्म की एक सूची को मंजूरी दी है, जिसमें संकेत दिया गया है कि 15,274 हेक्टेयर (सीएए, 2018) को आज तक अनुमति दी गई थी और समुद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (झींगे के निर्यात के लिए जिम्मेदार एजेंसी) से पता चलता है कि वन्नामेई कल्चर के तहत क्षेत्र 59,116 हेक्टेयर (एमपीईडीए, 2016) था। सीएए और एमपीईडीए से उपलब्ध आंकड़ों की तुलना के आधार पर, खेती के तहत क्षेत्र और अनुमोदित कृषि क्षेत्र के बीच का अंतर इंगित करता है कि पी. वन्नामेई खेतों की बड़ी सीमा बिना मंजूरी के संचालित होती है।”
अध्ययन में यह भी सामने आय कि साल 1988 और 2013 के बीच सिर्फ तमिलनाडु में 809 हेक्टेयर कृषि भूमि, 12 हेक्टेयर नमक के खेत, 13 हेक्टेयर मैंग्रोव, 1,813 हेक्टेयर दलदल, 127 हेक्टेयर झाड़ियों वाली भूमि और चार हेक्टेयर जलाशयों को मत्स्य पालन के लिए परिवर्तित कर दिया गया।
तमिलनाडु में मत्स्य पालन विभाग यह भी बताता है कि तमिलनाडु के सभी 12 तटीय जिलों (चेन्नई को छोड़कर) में 2086 झींगा फार्म काम कर रहे हैं। लेकिन इनमें से केवल 852 झींगा फार्म (40%) को तटीय जलकृषि प्राधिकरण कानून, 2005 (Coastal Aquaculture Authority Act, 2005/सीएए) से मंजूरी मिली है।
कमाई वाला व्यापार
फिलहाल मछली पालन उद्योग आर्थिक रूप से फायदे का सौदा है और तमिल नाडु के रामेश्वरम जिले के झींगा किसान इसके प्रमाण हैं। मध्य रामेश्वरम से लगभग 60 किलोमीटर दूर तमिलनाडु में थिरुपुल्लानी एक गांव है। यहां झींगा पालन के साथ-साथ मैंग्रोव भी बचे हुए हैं। पलानी कुमार सात साल से यहां झींगा पालन कर रहे हैं।
समुद्री जीवविज्ञान में स्नातक कुमार ने एक दशक से अधिक समय तक एक निजी मछली पालन फर्म में काम किया और अपना खुद का फार्म स्थापित करके अपनी उद्यमशीलता के सपने को आगे बढ़ाने का फैसला किया। वो कहते हैं, “झींगा की कीमत आकर्षक है। टूना जैसी एक किलो की मछली हमें 250-300 रुपए तक देती है। वहीं एल. वन्नामेई के लिए हमें 400-450 रुपए मिलते हैं। हालांकि मछली पालन में बहुत समय लगता है, वहीं झींगा एक साल में दो बार तैयार हो जाता है।
उनका दावा है कि आठ एकड़ (3.23 हेक्टेयर) में फैले एल. वन्नामेई का उनका फार्म टिकाऊ तरीके से चलता है। मछली पालन धरती के साथ-साथ लोगों के लिए अनुकूल भी है। कुमार कहते हैं जो प्रोटीन की मांग को पूरा करने के लिए सीफूड की क्षमता में विश्वास करते हैं, वो कहते हैं, “मनुष्य हमेशा समुद्री भोजन का सेवन करता रहा है। पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने की तुलना में समुद्र में बहुत ज्यादा मछली पकड़ना और ट्रॉलिंग हमारे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए बहुत अधिक खतरनाक हैं। हमने महासागर का अत्यधिक दोहन किया है और हमें वहीं रुकने और मछली पालन के साथ अपनी जरूरतों को पूरा करने की आवश्यकता है।”
हालांकि वह कहते हैं, झींगा पालन की अपनी चुनौतियों है। झींगा किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटना चाहिए और इस बारे में सोचना चाहिए कि अपने बिजनेस को किस तरह टिकाऊ बनाए रखा जाए।
सभी तस्वीरें- नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे द्वारा।
तमिलनाडु मत्स्य विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कुमार कहते हैं, “एक एकड़ का एक झींगा फार्म तालाब 6,000 क्यूबिक मीटर तक समुद्री जल धारण कर सकता है। इसे झींगा तैयार करने की जरूरत और किसान के प्रबंधन के तरीकों के अनुसार भरा जा सकता है।” “अनियमित भारी बारिश के कारण सतह के बह जाने की चुनौती है। समुद्र के स्तर में वृद्धि और संबंधित जोखिमों का खतरा है। इस वजह से फार्म को उच्च ज्वार वाली जगहों से दूर बनाना चाहिए। सीएए के नियमों का पालन करने से व्यवसाय को जलवायु जोखिमों से बचाया जा सकेगा और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने में भी मदद मिलेगी।”
सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रैकिश एक्वाकल्चर की ओर से मछली पालन पर विज़न 2050 दस्तावेज़ के मुताबिक, “चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए संभावित रणनीतियों के साथ-साथ मछली पालन पर जलवायु परिवर्तन के नतीजों को समझने के लिए अधिक केंद्रित अध्ययन की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन से पहले से ही मीठे पानी के प्रवाह में और कमी होने की आशंका है। इससे खारेपन वाले क्षेत्र और बढ़ेंगे।“
मछली पालन को पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए समाधान की तलाश
भारत में मछली पालन के विस्तार के लिए सरकार द्वारा सक्रिय योजनाएं बनाने के साथ, उद्योग में स्थिरता पक्का करने के लिए कई प्रकार के समाधानों की आवश्यकता है।
समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए, कुछ वैज्ञानिक खाद्य श्रृंखला की शुरुआत में ही मछली पालन के पर्यावरणीय फुटप्रिंट को कम करने के लिए काम कर रहे हैं। मछली पालन जल पर्यावरण को प्रभावित करने में चारे की गुणवत्ता अहम कारक है। अध्ययनों से पता चलता है कि झींगा द्वारा नहीं खाए जाने वाले अतिरिक्त पोषक तत्वों के साथ खराब चारा जब समुद्र में जाता है, तो वहां गंदगी बढ़ सकती है। अगर लगातार बड़ी मात्रा में पोषक तत्व समुद्री पानी में जाते रहते हैं, तो इससे यूट्रोफिकेशन और/या शैवाल प्रस्फुटन हो सकता है।
प्रोफेसर स्टीफन संपत कुमार टिकाऊ फ़ीड पर काम कर रहे शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करते हैं। सस्टेनेबल एक्वाकल्चर निदेशालय के केंद्रों में से एक, मंडपम सेंटर फॉर सस्टेनेबल एक्वाकल्चर (मंडपम सीईएसए) की तरफ से बात करते हुए उन्होंने कहा, “हम अच्छे प्रबंधन तरीकों (जैसे अच्छी गुणवत्ता वाले चारे का उपयोग करना और गंदे पानी को साफ करना) को अपनाने के लिए काम कर रहे हैं।” मंडपम सीईएसए का उद्देश्य लाइव चारे के रूप में माइक्रोएल्गे और ज़ोप्लांकटन पर रखरखाव और अनुसंधान करना है। प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ भी सूक्ष्म शैवाल के विकास का समर्थन करता है और क्षेत्र में अनुसंधान को प्राथमिकता देता है।
उन्होंने कहा, “कन्याकुमारी में स्थित एक और केंद्र है जो झींगा के बीज उत्पादन और स्वदेशी झींगा खेती पर ध्यान देता है। निदेशालय को अनुसंधान, प्रदर्शन और प्रशिक्षण तथा किसानों को प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के माध्यम से राज्य और देश में स्थायी मछली पालन विकसित करने के उद्देश्य से विकसित किया गया था। ये वे समाधान हैं जिन्हें हम लेकर आए हैं।”
मछली पालन के पारिस्थितिक प्रभावों के बारे में अध्ययन ने उद्योग को टिकाऊ बनाने के लिए कुछ समाधानों पर भी रोशनी डाली है।
यह पक्का करने के लिए कि सामुदायिक जगह का अतिक्रमण नहीं किया जाए, जिन शोधकर्ताओं ने झींगा के खेतों के विकास के बाद भूमि उपयोग परिवर्तन का विश्लेषण किया है, वे तटीय संसाधनों की निगरानी के लिए रिमोट सेंसिंग उपकरणों का उपयोग करने की सलाह देते हैं। 2018 के अध्ययन में वे लिखते हैं, “ निगरानी प्रणाली के साथ भविष्य में मछली पालन का विकास, उपग्रह-आधारित वर्गीकरण और बदलाव का पता लगाने के तरीकों से लाभान्वित होंगे।” अध्ययन ने 1988 से 2013 तक लैंडसैट उपग्रह डेटा, भौगोलिक सूचना प्रणाली तकनीकों और क्षेत्र सत्यापन का उपयोग करके भारत के तटीय आर्द्रभूमि में भूमि उपयोग परिवर्तन पर झींगा मछली पालन के प्रभाव का पता लगाया।
साल 2020 का अध्ययन जिसने जलीय पारिस्थितिक तंत्र और जैव विविधता पर मछली पालन के भविष्य के प्रभावों की समीक्षा की, में गंदे पानी को साफ करने वाली प्रणालियों के आसपास के मुद्दों पर चर्चा की गई। लेखक उद्योग के अस्तित्व को पक्का करने के लिए गंदे पानी को साफ करने के लिए मजबूत नियामक ढांचे की सिफारिश करते हैं और तटीय मछली पालन के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों से संबंधित मुद्दों को भी सुलझाते हैं।
देश और राज्य में मछली पालन के विस्तार की योजनाओं के साथ, यह अहम है कि सरकारें और झींगा फार्म मालिक स्थिरता पक्का करने के लिए योजना स्तर पर इन समाधानों की तलाश करें।
रोशन ने कहा, “हम मछली पालन को यथासंभव टिकाऊ बनाने के लिए काम कर रहे हैं। ज्यादा समर्थन के बल पर झींगा पालक निवेश की भारी चुनौतियों से पार पा सकते हैं।”
सीएए की योजनाएं
सीएए की 2021-22 की वार्षिक रिपोर्ट, झींगा फार्म और राज्यों से पर्यावरणीय प्रभावों को स्वीकार करती है, “पर्यावरणीय समस्याओं को दूर करने के लिए, जो मछली पालन गतिविधियों के टिकाऊ विकास के लिए प्रमुख बाधा है, सीएए द्वारा विभिन्न नियामक उपायों को लागू किया जाता है … देश के विभिन्न हिस्सों में सीएए द्वारा आयोजित अलग-अलग जागरूकता कार्यक्रमों के अलावा अच्छी मछली पालन प्रथाओं की वकालत करके इन पहलुओं पर किसान को जागरूक किया जा रहा है।”
और पढ़ेंः झींगा फार्म के विरोध में क्यों हैं रामेश्वरम के पारंपरिक मछुआरे
मोंगाबे-इंडिया के साथ बातचीत में, सदस्य सचिव, वी. कृपा कहती हैं कि मछली पालन “अब प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग नहीं है। वह कहती हैं, “शोधकर्ता कड़ी मेहनत कर रहे हैं और तकनीक और चारे की गुणवत्ता में बहुत सुधार हुआ है। अब और प्रदूषण संभव नहीं है।”
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सीएए और तमिलनाडु का मत्स्य पालन विभाग यह पक्का करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं कि राज्य में मछली पालन की विशाल क्षमता का उपयोग किया जाए। इससे किसानों और तटीय समुदायों को लाभ हो और तरीके पर्यावरण के अनुकूल हों।
प्रवक्ता वी. कृपा ने कहा कि रामेश्वरम में पारंपरिक मछुआरों द्वारा विरोध की वजह मौजूदा सामाजिक मुद्दों या आर्थिक संघर्ष थे। इसके पीछे झींगा पालन नहीं था।