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पराली जलाने के मामले में मध्य प्रदेश का देश में दूसरा स्थान, सरकारी योजनाओं से बेखबर किसान

भोपाल के लहारपुरा के पास गेहूं के खेतों में लगी आग। फसल काटने के बाद कई किसान खेत साफ करने के लिए फसल अवशेष में आग लगा देते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

भोपाल के लहारपुरा के पास गेहूं के खेतों में लगी आग। फसल काटने के बाद कई किसान खेत साफ करने के लिए फसल अवशेष में आग लगा देते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

  • मध्य प्रदेश में पराली या नरवाई जलाने की घटनाएं साल-दर-साल बढ़ रही है। साल 2020 के पहले चार महीनों में 28,855 और 2021 में इसी अवधि में 26,515 घटनाएं हुई थीं।
  • गेहूं उत्पादन में मध्य प्रदेश का स्थान उत्तर प्रदेश के बाद देश में दूसरा है। हालांकि, नरवाई जलाने के मामले में मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश के काफी आगे है।
  • किसान पराली जलाने के पीछे की बड़ी वजहों में मानते हैं में मुख्य रूप से गेहूं की खेती में हार्वेस्टर के बढ़ते प्रयोग और नई फसल की बुआई में जल्दबाजी को मानते हैं।
  • नरवाई को जुताई करके खेत की मिट्टी में मिलाना एक पारम्परिक और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने वाला उपाय हो सकता है। हालांकि, इसके लिए किसानो को फसल की कटाई के बाद करीब तीन से चार महीने का इंतज़ार करना पड़ता है।

मध्य प्रदेश गेहूं उत्पादन में देश में दूसरे स्थान पर आता है, यह बात प्रदेश के लिए गर्व का विषय है। लेकिन इसके साथ ही मध्य प्रदेश अब फसल अवशेषों को जलाने के मामले में भी दूसरे स्थान पर आ रहा है। पिछले कुछ सालों में प्रदेश नरवाई जलाने के मामलों में तेजी से आगे बढ़ रहा है, जिसके कारण वायु और मिट्टी की गुणवत्ता में कमी के साथ-साथ मवेशियों के लिए भूसे की किल्लत जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। 

मोंगाबे- हिन्दी ने अपनी इस तीन भाग की सीरीज में इस समस्या के कारण, समाधान के तरीके और सरकार द्वारा लिए जा रहे निर्णयों को जानने की कोशिश की। 

पढ़ें इस सीरीज का पहला भाग।


पराली जलाने की घटनाओं की ख़बरें अधिकतर ठंड के मौसम में उत्तरी भारत के इलाकों से आती हैं। लेकिन, अप्रैल और मई के महीनों में ऐसी कई घटनाएं मध्य प्रदेश में होती हैं और साल दर साल इन घटनाओं में वृद्धि हो रही है। 

प्रदेश में गेहूं की फसल की कटाई के ठीक बाद फसल के अवशेषों, जिसे स्थानीय भाषा में नरवाई कहा जाता है, में आग लगाने की घटनाएं सामने आने लगती हैं और इस ही के साथ नाकाम होती हैं सरकार की कई योजनाएं और प्रशासन के द्वारा की गयी कई अपीलें। 

पिछले कुछ सालों की तरह इस साल भी प्रदेश में गेहूं की कटाई के साथ ही नरवाई जलाने की घटनाएं बढ़ने लगीं।  भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा की गई मॉनिटरिंग से मिले आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश में जनवरी से मई के बीच नरवाई जलाने की 20,998 घटनाएं सामने आयी हैं जिसमें से सबसे ज़्यादा अप्रैल के महीने में (16,101) हुई हैं। 

साल 2020 के पहले चार महीनों में 28,855 और 2021 में इसी अवधि में 26,515 घटनाएं हुई थीं। 

नरवाई या पराली जलाने की घटनाओं में मध्य प्रदेश देश में पंजाब के बाद दूसरे नंबर पर है। साल 2020 में पंजाब में फसल अवशेष जलाने की 92,922 घटनाएं हुईं, मध्य प्रदेश में इस साल ये घटनाएं 49459 थीं। वहीं साल 2020-21 में जून 2020 से मई 2021 के आंकड़े पंजाब में 92,849 घटनाएं दिखते हैं, इस ही दौरान मध्य प्रदेश में 41,538 घटनाओं का रिकॉर्ड मिलता है।

इंदौर के एक बाहरी इलाके एरियल व्यू, जिसमें आग लगने के बाद काले पड़ चुके खेत देखे जा सकते हैं। तस्वीर: शैलेष श्रीवास्तव/मोंगाबे
इंदौर के एक बाहरी इलाके एरियल व्यू, जिसमें आग लगने के बाद काले पड़ चुके खेत देखे जा सकते हैं। तस्वीर: शैलेष श्रीवास्तव/मोंगाबे
मध्य प्रदेश में नरवाई जलाने के कारण आसमान से कुछ ऐसा नजारा दिखता है। तस्वीर- शैलेष श्रीवास्तव/मोंगाबे
मध्य प्रदेश के इंदौर के आसपास के क्षेत्र में कई खेतों में जलते फसल के अवशेष। तस्वीर- शैलेष श्रीवास्तव/मोंगाबे

साल 2022-23 में जुलाई 2022 से जून 2023 के बीच पंजाब में 63,390 घटनाएं हुईं और इस अवधि में मध्य प्रदेश में 33,122 घटनाओं को दर्ज किया गया 

नरवाई जलाने की घटनाओं में वृद्धि का असर प्रदेश के वायु गुणवत्ता सूचकांक पर पड़ रहा है। पिछले कुछ सालों में इन इलाकों में वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी देखी गयी है। किसानों का कहना है कि उनके पास नरवाई जलाने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। सरकार ने कोई उपाय नहीं दिया है और मौजूदा समाधान छोटे और मध्यम किसानों के लिए महंगे साबित होते हैं।  

मध्य प्रदेश और गेहूं का उत्पादन 

मध्य प्रदेश गेहूं उत्पादन के मामले में भारत के अग्रणी राज्यों में से है। सामान्यतः प्रदेश गेहूं उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर होता है। साल 2020-21 में प्रदेश ने 17.62 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन किया था जो कि देश के कुल उत्पादन (109.52 मिलियन टन) का 16% है। वहीं साल 2019-20 में प्रदेश के गेहूं उत्पादन का आंकड़ा 19.61 मिलियन टन था। 

मैप- टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ
मैप- टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ फाउंडेशन

इन दोनों वर्षों में मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश का गेहूं उत्पादन इसका करीब दो गुना था। साल 2020-21 में प्रदेश ने 35.50 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन किया था वहीं साल 2019-20 में प्रदेश के गेहूं उत्पादन का आंकड़ा 33.82 मिलियन टन था। लगभग दुगने उत्पादन के बावजूद भी उत्तर प्रदेश में नरवाई जलाने की घटनाएं मध्य प्रदेश के मुकाबले काफी कम पाई जाती हैं। उत्तर प्रदेश में इस साल जनवरी से अप्रैल के बीच में 8345 घटनाएं हुई हैं जिनमें से सबसे ज़्यादा 6250 घटनाएं अप्रैल के महीने में हुई हैं।

हाथों से कटाई और अगली फसल की जल्दी

विदिशा जिले के रहने वाले धर्मेंद्र पाटीदार इस समस्या के पीछे कुछ सालों से गेहूं की खेती में हार्वेस्टर के बढ़ते प्रयोग और नई फसल की बुआई में जल्दबाज़ी को बताते हैं।  

“पहले हमारे यहां के किसान साल में एक फसल बोते थे तो किसानो के पास इतना समय होता था कि नरवाई सड़ कर खेत में मिल जाती थी। लोग हाथों से फसल काटते थे जिससे बहुत नीचे से फसल काटी जाती थी और नरवाई का भूसा बनाया जाता था,” पाटीदार बताते हैं। 

“कुछ लोगों को जानकारी का अभाव है कि इसके दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं। दूसरा, लोगों का निजी स्वार्थ है। उन्हें लगता है कि नरवाई जल्दी से हम जला देंगे तो जल्दी से हम अपने खेत तैयार कर सकते हैं,” वह आगे कहते हैं। 

अगली फसल के लिए खेत को जल्दी तैयार करने के लिए कुछ किसान नरवाई जलाते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
अगली फसल के लिए खेत को जल्दी तैयार करने के लिए कुछ किसान नरवाई जलाते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

विदिशा के ही एक अन्य किसान सिंघराज बघेल बताते हैं कि नरवाई को जुताई करके खेत की मिट्टी में मिलाना एक पारम्परिक और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने वाला उपाय है। लेकिन इसके लिए उन्हें फसल की कटाई के बाद करीब तीन से चार महीने का इंतज़ार करना पड़ता है। 

“नरवाई के सड़ने के लिए हमें बारिश का इंतज़ार करना पड़ता है और यह प्रक्रिया जुलाई या अगस्त तक चलती है। चूंकि सोयाबीन की बुआई का समय भी जुलाई के आसपास होता है, ऐसे में बहुत से किसान नरवाई को जलाकर अपने खेतों को साफ़ कर देते हैं,” बघेल बताते हैं। 

देवास जिले के किसान संदीप प्रजापति बताते हैं कि गेहूं की फसल के बाद वो अपने खेतों में सोयाबीन की फसल बोते हैं और गेहूं की नरवाई के कारण सोयाबीन के बीज जमीन में ठीक से नहीं पहुँच पाते हैं, इसलिए नरवाई जलाना अधिकतर किसानों की मजबूरी है। 


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प्रजापति यह भी कहते हैं कि इस समस्या से निपटने के लिए उन्हें सरकार के द्वारा कोई भी उपाय नहीं बताया गया है। 

प्रजापति इस बात को भी मानते हैं कि नरवाई जलाने से उनके खेतों को नुकसान होता है, लेकिन वह कहते हैं, “नरवाई जलाना हमारी मजबूरी है।”

योजनाओं की कमी और जानकारी का अभाव 

पंजाब देश में नरवाई या पराली जलाने की समस्या से सबसे ज़्यादा प्रभावित प्रदेश है। लेकिन इस समस्या से निपटने के लिए सरकार किसानों को कई तरीके बताती है जिससे उन्हें उनके खेतों में बचे फसल के अवशेषों को नहीं जलाना पड़े। 

पूसा कैप्सूल, बायोमास पावर प्लांट, और हैप्पी सीडर ऐसे कुछ उपाय हैं जो पंजाब सरकार किसानों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती रही है। हालांकि, मध्य प्रदेश के किसानों को प्रशासन की तरफ से ऐसी कोई तरकीब नहीं बताई गई है जो उन्हें नरवाई से निपटना सीखा सके। 

मध्य प्रदेश मंत्री-परिषद ने नवंबर 2022 में नरवाई जलाने की प्रथा को हतोत्साहित करने, कृषि यंत्रीकरण को बढ़ाने और भूमि में नमी का संरक्षण करने के लिए “फसल अवशेष प्रबंधन” योजना को संचालित करने का निर्णय लिया। योजना में उपयोगी शक्ति चलित कृषि यंत्रों को चिन्हित कर कृषकों द्वारा इन्हें क्रय करने पर अनुदान उपलब्ध कराया जायेगा। लघु, सीमान्त, महिला, एस.सी. और एस.टी. कृषकों को 50 प्रतिशत एवं अन्य कृषकों को 40 प्रतिशत अनुदान दिया जायेगा। योजना का क्रियान्वयन कृषि अभियांत्रिकी संचालनालय करेगा। 

भारत में किसान धान की फसल लेने के बाद पराली को इस तरह जलाते हैं। इसकी वजह से भी प्रदूषण में काफी बढ़ोतरी होती है। फोटो- नील पाल्मर (सीआईएटी)/ विकिमीडिया कॉमन्स
भारत में किसान धान की फसल लेने के बाद पराली को इस तरह जलाते हैं। इसकी वजह से भी प्रदूषण में काफी बढ़ोतरी होती है। तस्वीर- नील पाल्मर (सीआईएटी)/ विकिमीडिया कॉमन्स

हालाँकि, किसानों को सरकार की ऐसी किसी योजना के बारे में पता नहीं है।  

कृषि यंत्र योजना पर के बारे में बात करते हुए विदिशा के धर्मेंद्र पाटीदार कहते हैं, “हमारी तरफ कृषि विभाग द्वारा ऐसा कुछ नहीं बताया गया है।”

वहीं कृषि अर्थशास्त्री और किसान स्वराज संगठन के संस्थापक भगवान मीणा इस योजना को नाकाफी बताते हुए कहते हैं, “कृषि यन्त्र के लिए 50% की सब्सिडी काफी नहीं है। एक रोटावेटर की कीमत करीब सवा लाख रुपये होती है और इसका उपयोग सिर्फ नरवाई के लिए हो सकता है। कृषि की और किसी भी गतिविधि में इसका उपयोग नहीं होता है। ऐसे में एक किसान के लिए इतना बड़ा निवेश करना बहुत मुश्किल होगा।” 

मीणा सब्सिडी के लिए चुने जाने वाले किसानों की संख्या पर भी चिंता जताते हैं। उनके अनुसार इस योजना के अंतर्गत सब्सिडी के लिए आवेदन करने वाले सभी किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। आवेदन करने वाले किसानों में से करीब 10% को ही सब्सिडी मिल पाती है जो कि काफी नहीं है। 

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इस योजना के बारे में बात करते हुए कृषि अभियांत्रिकी संचालनालय के निदेशक राजीव चौधरी कहते हैं, “हमारा एक ऑनलाइन पोर्टल है जिसके माध्यम से हम किसानों को सब्सिडी प्रोवाइड करते हैं। इसमें कम्पलीट ऑनलाइन प्रक्रिया होती है जिसमें हम आधार से आवेदन लेते हैं।” 

किसानों को इस योजना की जानकारी नहीं होने के बारे में उनका कहना है कि कुछ अन्य योजनाओं के माध्यम से भी किसानों को कृषि उपकरणों पर सब्सिडी मिलती है, ऐसे में वह योजनाओं के नाम पर ध्यान नहीं देते हैं। “किसानों को ये समझ में नहीं आता कि ये कौन सी स्कीम है। इस पोर्टल में 4-5 स्कीम होती है तो किसान को पता नहीं चलता है,” उन्होंने कहा। 

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बैनर तस्वीरः भोपाल के लहारपुरा के पास गेहूं के खेतों में लगी आग। फसल काटने के बाद कई किसान खेत साफ करने के लिए फसल अवशेष में आग लगा देते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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