- कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन का असर जलविद्युत परियोजनाओं पर भी पड़ रहा है। खराब मौसम की स्थिति में ये प्रोजेक्ट बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं।
- भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में खराब मौसम के चलते जल विद्युत परियोजनाएं प्रभावित हुई हैं।
- विशेषज्ञों और शोधार्थियों की सलाह है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की दिशा में कदम उठाए जाएं। इसके तहत, इन प्रोजेक्ट्स को बनाने से पहले ही उनको जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरे का आकलन किया जाए और जलवायु के प्रति लचीले ढांचे तैयार किए जाएं।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गांधीनगर की एक स्टडी के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से जल विद्युत परियोजनाओं की क्षमता पर व्यापक असर पड़ सकता है।
17 फरवरी 2023 को सामने आई इस स्टडी का दावा है कि बारिश और गर्मी में हो रही बढ़ोतरी के चलते भारत के ज्यादातर जलविद्युत प्रोजेक्ट में बिजली उत्पादन की क्षमता बढ़ जाएगी। हालांकि, इसी के साथ इन प्रोजेक्ट के लिए खतरे भी बढ़ेंगे जैसे कि बाढ़ और उनकी वजह से बांध टूटने का खतरा।
इस स्टडी में देश के कुल 46 बड़े जलविद्युत बांधों में होने वाले बिजली निर्माण का अध्ययन किया गया। इसमें पाया गया कि भविष्य में होने वाली गर्म जलवायु और बारिश में होने वाली बढ़ोतरी से अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब से, ज्यादातर बड़े बांधों में पानी का प्रवाह 7 से 70 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा। इस तरह होने वाली बढ़ोतरी की वजह से ज्यादातर बांधों में बिजली निर्माण 9 से 36 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा।
इस स्टडी में के मुताबिक, इन बदलावों का असर जलाशयों में भंडारण और उसमें प्रवाह और पानी से पैदा होने वाली बिजली पर पड़ता है और यह दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन से ये चीजें प्रभावित होती हैं। स्टडी में बताया गया कि मध्य भारत की जलविद्युत परियोजनाओं में पानी का प्रवाह में ज्यादा बढ़ने वाला है।
स्टडी कहती है, “भविष्य की अनुमानित जलवायु के आधार पर ज्यादा बांधों के लिए यही कयास लगाए जा रहे हैं कि उनमें पानी का बहाव बढे़गा और जलाशयों में पानी रोकने की स्थिति भी बढ़ जाएगी। हालांकि, जलवायु परिवर्तन की ये स्थितियां जलविद्युत उत्पादन के लिए बेहतर होगी लेकिन इसी के साथ खराब स्थितियों से जुड़े खतरे भी पैदा होंगे।” इस स्टडी में यह भी कहा गया कि भविष्य में इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए कई उल्लेखनीय उपाय करने होंगे।
इस स्टडी को लिखने वालों ने कहा है, “हमारी स्टडी भविष्य में देश के बड़े बांधों के हाइड्रो क्लाइमेट और जल विद्युत में होने वाले बदलावों के बारे में कई अहम जानकारी देती है जो भारत के नीति निर्माताओं और योजना बनाने वालों के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। इसके अलावा, हमने भारत में गर्म होती जलवायु की स्थिति में जल विद्युत के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन और उसके असर को धारण कर पाने के मामले में आने वाली चुनौतियों और मौकों को भी हाइलाइट किया है। हमारी छानबीन चेतावनी वाले एक ऐसे सिस्टम की जरूरत पर जोर देती है जो भविष्य में जलाशयों के काम करने की क्षमता में मदद कर सके।”
लागू कर पाना है इसकी अहम कुंजी
भारत में खराब मौसम की घटनाएं नई नहीं हैं और ये जलविद्युत परियोजनाओं को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (CEA) के दस्तावेजों के मुताबिक, साल 1974 से 2008 के बीच कम से कम 24 जल विद्युत परियोजनाएं ऐसी थीं जो बाढ़ की वजह से प्रभावित हुईं और उनके सामान्य कामकाज और उनकी क्षमता पर असर पड़ा, रिपोर्ट में कहा गया। इसमें से 19 प्रोजेक्ट ऐसे थे जो ऑपरेशन और मरम्मत के चरणों में प्रभावित हुए, 7 ऐसे थे जिनके निर्माण के दौरान ही उनको नुकसान पहुंचा।
भारत में बिजली के स्रोत के मामले में जल विद्युत परियोजनाएं तीसरे नंबर पर हैं और कुल बिजली उत्पादन में इनकी हिस्सेदारी 11 प्रतिशत है। कोयले से बिजली उत्पादन 50 प्रतिशत और नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन 30 प्रतिशत है। भारत में 211 जलविद्युत परियोजनाएं ऐसी हैं जो 25 मेगावॉट से ज्यादा क्षमता वाली हैं और कुल मिलाकर इनकी क्षमता 46.8 गीगावॉट है। 41 जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण चल रहा है और इनके पूरा होने के बाद 17 गीगावाट अतिरिक्त क्षमता बढ़ जाएगी। इसमें से 30 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं हिमालय क्षेत्र में हैं जिनका निर्माण कार्य चल रहा है।
जोशीमठ में जमीन धंसने की घटना पर हुए हंगामे के बाद भारत के ऊर्जा मंत्रालय ने संसद में बताया कि सभी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद ही हरी झंडी दिखाई जाती है। इसके साथ ही, एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी (EAC) व्यापक तौर पर जांच-परख भी करती है।
कई एजेंसियां भी जलविद्युत परियोजनाओं की डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (DPR) का आकलन करती हैं। इसमें जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (GSI), सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (CEA), सेंट्रल वाटर कमीशन (CWC) और सेंट्रल सॉइल एंड मैटेरियल्स रिसर्च स्टेशन (CSMRS) की स्क्रूटनी भी शामिल होती है।
बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के डीपीआर बनाने की गाइडलाइन में विस्तार से कहा जाता है कि प्रोजेक्ट डेवलपर, प्रोजेक्ट साइट की सामान्य जलवायु परिस्थितियों और भूकंप की संभावनाओं का विश्लेषण करें और इसी के हिसाब से अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए कीमत तय करें। यानी डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान और पर्यावरण संरक्षण की लागत भी प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत में शामिल होनी चाहिए।
हालांकि, इस सेक्टर से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है ऐसे प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले बड़ी मुश्किल से ही जलवायु परिवर्तन के खतरों से जुड़े पर्याप्त आकलन किए जाते हैं। इससे, जलवायु परिवर्तन से जुड़े कई तरह के खतरे पैदा होते हैं।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल्स (SANDRP) के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर ने मोंगाबे इंडिया से बताया, “मैंने पिछले 15 सालों में नदी घाटी परियोजनाओं को लेकर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और इसकी एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी को कई चिट्ठियां लिखी हैं। हम मांग कर रहे हैं कि खासकर कमजोर हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के खतरे के आकलन के लिए पर्याप्त स्टडी की जाए उसके बाद ही जल विद्युत परियोजनाओं और बांधों को अनुमति दी जाए। जलविद्युत परियोजनाओं से जुड़ी नीतियों में सुधार की जरूरत है। इन प्रोजेक्ट से पहले इलाके की मौजूदा आपदा क्षमताओं का अध्ययन किया जाना चाहिए। साथ ही, यह भी समझना चाहिए कि इन इलाकों में नए प्रोजेक्ट बनाने और उन्हें चालू करने के बाद किस तरह के नए खतरे पैदा हो सकते हैं।”
जलविद्युत प्रोजेक्ट के डेवलपर्स का भी मानना है कि जलवायु के खतरे के आकलन से जुड़े अध्ययन बहुत कम ही किए जाते हैं। उनका भी मानना है कि इससे इन प्रोजेक्ट पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरे बढ़ जाते हैं। भारत में जलविद्युत परियोजनाओं की एक बड़ी पब्लिक सेक्टर कंपनी नेशनल हाइड्रो पावर कॉर्पोरेशन (NHPC) ने मोंगाबे इंडिया को एक ईमेल के जवाब में बताया कि उसने अभी तक अपनी जलविद्युत परियोजनाओं पर जलवायु परिवर्तन के खतरों से जुड़े अध्ययन करने हैं यानी अभी तक ऐसा नहीं किया गया है। ऊर्जा मंत्रालय की ओर से साल 2022 में ऊर्जा सेक्टर की खतरों के प्रति तैयारी के बारे में जारी किए गए दस्तावेज में भी ऐसे अध्ययनों की जरूरत जताई गई है।
जलवायु के प्रति लचीलापन लाने की जरूरत
लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में जलविद्युत परियोजनाओं पर भविष्य में होने वाले जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन करने वाली इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) ने दावा किया कि जलविद्युत परियोजनाओं का लचीलापन ही इस सेक्टर के लिए सबसे अहम है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, “जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जरूरी है कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीले हों ताकि वे स्वच्छ ऊर्जा के रास्ते पर आगे बढ़ते रहें और अपना काम अच्छे से करते हैं। बिना इसके नई क्षमताएं बढ़ाना और अन्य सेवाएं प्रभावित हो सकती हैं क्योंकि खराब मौसम और भारी बारिश की घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है और उनसे जुड़े खतरे भी भारी संख्या में पैदा हो रहे हैं।”
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने दावा किया कि यह जरूरी है कि तमाम देश कुछ हल्के उपाय अपनाएं जिनमें जलविद्युत परियोजनाओं के डेवलपर्स को इन्सेन्टिव देने जैसे नीतिगत बदलाव शामिल हों, ताकि जलवायु के प्रति लचीले ढांचे तैयार हों, जरूरी नियमों का पालन किया जाए और अन्य कदम भी उठाए जाएं। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने कुछ सख्त कदम उठाने की भी वकालत की जैसे कि ढांचों और डिजाइन को और भी मजबूत बनाया जाए ताकि वे जलवायु परिवर्तन का मुकाबला कर सकें।
आईआईटी गांधीनगर की स्टडी ने भी अडवांस्ड अर्ली वॉर्निंग सिस्टम (EWS) के इस्तेमाल की सलाह दी ताकि जलविद्युत परियोजनाएं खराब परिस्थितियों के प्रति बेहतर तैयारी कर सकें। हालांकि, SANDRP के हिमांशु ठक्कर ने बताया कि ये नए सुझाव नहीं हैं। इनको लागू करने के स्तर पर देरी होती है।
हिमांशु ठक्कर बताते हैं, “2014 की रवि चोपड़ा कमेटी और पहले भी कई बार EWS का सुझाव दिया गया है। इसके बावजूद ज्यादातर जल विद्युत परियोजनाएं ऐसी हैं जिनमें EWS नहीं है, जबकि इससे कई लोगों की जान बचाई जा सकती है। चाहे वह साल 2021 के फरवरी महीने में चमोली में आई बाढ़ हो या फिर हिमालयी राज्यों की अन्य जलविद्युत परियोजनाओं में आई बाढ़, EWS की कमी की वजह से ज्यादा नुकसान हुआ है। आज भी भारत में शायद ही ऐसा कोई जलविद्युत प्रोजेक्ट होगा जिसमें ऐसा अडवांस EWS सिस्टम लगा हो जिस पर भरोसा किया जा सके, उसकी प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसके लिए किसी की जिम्मेदारी तय हो। EWS से जुड़ी सारी जानकारी निश्चित रूप से सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि सभी को इसके बारे में पता हो और जिम्मेदारी तय की जा सके।”
नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (NTPC) के प्रबंधन में चल रही तपोवन जलविद्युत परियोजना में साल 2021 में आई बाढ़ के बाद ही केंद्रीय मंत्री आर के सिंह ने ऐलान किया कि पहाड़ी इलाकों में NTPC की जलविद्युत परियोजनाओं में EWS को इंस्टॉल किया जाएगा।
आईआईएम कलकत्ता के रिटायर्ड प्रोफेसर जयंत बंदोपाध्याय ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि भारत को अपनी मौजूदा नीतियों पर फिर से ध्यान देने और उनमें कुछ बदलाव करने की जरूरत है ताकि उन्हें आज के समय के हिसाब के ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति और प्रभावी बनाया जा सके।
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जयंत बंदोपाध्याय ने मोंगाबे इंडिया को आगे बताया, “भारत में जल विद्युत ऊर्जा को लेकर कई सारे मानक, विशेषताएं और नियम ऐसे हैं जो काफी पुराने हैं और वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों के मुताबिक, उन्हें बदलने और अपग्रेड करने की जरूरत है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन से जलविद्युत परियोजनाओं पर पड़ने वाले असर भारत तक ही सीमित नहीं हैं, यह वैश्विक समस्या है। अभी हमें ग्रीन हाउस उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के असर की सही मात्रा का आकलन करना है ऐसे में जलवायु परिवर्तन के एकदम सटीक असर के बारे में नहीं बताया जा सकता है। यही वजह है कि जलवायु से जुड़ी समस्याओं को बहुत कम समझा जा रहा है और उनके बारे में अनुमान लगाना भी काफी कठिन है।”
उन्होंने यह भी कहा कि जलविद्युत परियोजनाओं के डेवलपर्स डिजाइन और निर्माण के लिए तय मानकों और गाइडलाइन का पालन करें। बंदोपाध्याय ने कहा, “पहली बात तो चुनौतियों के बारे में ही बहुत कम जानकारी है। दूसरी बात यह है कि हमारे पास अच्छी तकनीक भी नहीं है जो जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीले ढांचे बनाने में मदद कर सके।”
अपने हालिया विश्लेषण के मुताबिक, ऊर्जा के क्षेत्र के आपदा प्रबंधन के बारे में CEA के दस्तावेज में दावा किया गया है कि ज्यादातर जलविद्युत परियोजनाओं में बाढ़ आने की घटनाएं और उनको पहुंचने वाले नुकसान उस वक्त हुए जब ये प्रोजेक्ट काम करने लगे थे। इसमें यह भी बताया गया कि बाढ़ से प्रभावित हुई ज्यादातर जलविद्युत परियोजनाएं ‘फ्रांसिस टरबाइन’ का इस्तेमाल कर रही थीं जिनमें बाढ़ की स्थिति में खतरा ज्यादा होता है और पावर हाउस को नुकसान भी ज्यादा पहुंचता है। रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि अगर जलविद्युत परियोजनाओं के डेवलपर्स समय से कार्रवाई करते तो बहुत सारे नुकसान को टाला जा सकता था।
रिपोर्ट में कहा गया है, “यह देखा गया है कि अगर जलविद्युत परियोजनाओं के पावर हाउस के डिजाइन, निर्माण और ऑपरेशनल स्टेज पर ही पर्याप्त उपाय किए गए होते तो बहुत सारे नुकसान को कम किया जा सकता था और पुनर्वास में लगने वाला समय भी कम हो सकता था। कुछ मामलों में पावर हाउस में आने वाली बाढ़ भी टाली जा सकती थी।” रिपोर्ट इस बात की वकालत भी करती है कि नदियों के डूब क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाएं न बनाई जाएं, इन प्रोजेक्ट को ऊंचाई पर बनाया जाए, खारे पाने को सहने वाले ढांचे बनाए जाएं और सिमुलेशन के बारे में स्टडी भी की जाए।
इंटरनेशनल हाइड्रो पावर असोसिएशन (IHA) ने साल 2019 में वैश्विक स्तर पर एक गाइड तैयार की थी जिसके मुताबिक जलविद्युत परियोजनाओं को जलवायु के प्रति लचीला बनाया जा सकता था। इसमें जलविद्युत परियोजनाओं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए इन प्रोजेक्ट को मजबूत बनाने से जुड़े चार चरणों की वकालत की गई थी। इन चार में जलवायु के खतरे की स्क्रीनिंग, शुरुआती विश्लेषण, जलवायु के खतरे के टेस्ट, जलवायु के खतरे के मैनेजमेंट औऱ मॉनिटरिंग, रिपोर्टिंग और मूल्यांकन शामिल था।
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बैनर तस्वीर: एक निर्माणाधीन डैम की प्रतीकात्मक तस्वीर। ऊर्जा मंत्रालय ने संसद को बताया है कि सभी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को अनुमति देने से पहले पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से मंजूरी ली जाती है और एक्सपर्ट अप्रेजल कमेटी से व्यापक आकलन करवाया जाता है। तस्वीर– इंटरनेशनल रिवर्स
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