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[साक्षात्कार] भारत में ग्रासलैंड पॉलिसी की जरूरत पर संरक्षणवादी एम के रंजीतसिंह झाला से बातचीत

एमके रंजीतसिंह भारत के वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम के वास्तुकारों में से एक हैं। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे

एमके रंजीतसिंह भारत के वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम के वास्तुकारों में से एक हैं। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे

  • वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के प्रमुख योजनाकार और ‘एक्शन प्लान फॉर इंट्रोडक्शन ऑफ चीता इन इंडिया’ के एक सह-लेखक एम के रंजीतसिंह झाला ने उपेक्षित घास के मैदानों और उनकी जैव विविधता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए संरक्षण का आह्वान किया है।
  • भारत में ग्रासलैंड पॉलिसी की वकालत करते हुए उन्होंने राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि अगर यह नीति तैयार की जाती है, तो अन्य कामों के साथ-साथ चराई के मौसम को रेगुलेट करने में भी मदद मिलेगी।
  • मोंगाबे-इंडिया के साथ इस साक्षात्कार में रंजीतसिंह ने कहा कि एक्स-सीटू संरक्षण इन-सीटू संरक्षण के अधीन होना चाहिए। उन्होंने ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के आवासों में बिजली कंपनियों के साथ चल रहे संघर्ष के बारे में भी बात की।

वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए देश का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कानून ‘वन्य जीवन (संरक्षण)’ अधिनियम के कमजोर होने के खिलाफ चेतावनी देते हुए एमके रंजीतसिंह झाला ने उपेक्षित ग्रासलैंड प्रजातियों जैसे कैराकल (स्याहगोश) और रेगिस्तानी बिल्ली के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करने का आह्वान किया। इस कानून के बनाने में रंजीतसिंह की काफी बड़ी भूमिका रही है।

रणजीतसिंह ने ‘सेंट्रल इंडिया लैंडस्केप सिंपोजियम’ में मोंगाबे-इंडिया से बातचीत करते हुए कहा, “वन्यजीव संरक्षण अधिनियम को कमजोर नहीं बल्कि और मजबूत किया जाना चाहिए। ध्यान हटाने के लिए अब जंगल में संरक्षण की बजाए कैद में संरक्षण (जंगल में संरक्षण के पूरक के रूप में नहीं बल्कि अपने आप में एक अंत के रूप में) में बदलने पर जोर दिया जा रहा है। मैं इन-सीटू संरक्षण में विश्वास करता हूं। एक्स-सीटू संरक्षण इन-सीटू संरक्षण के अधीन होना चाहिए। कुल मिलाकर जो हो रहा है वह सही नहीं हैं।” 

मोंगाबे-इंडिया ने रणजीतसिंह के 85वें जन्मदिन से कुछ दिन पहले कान्हा नेशनल पार्क के बफर जोन में हुई संगोष्ठी में उनके साथ मुलाकात की थी। इस क्षेत्र में उन्होंने 1960-1970 के दशक में मध्य भारतीय बारहसिंघा (स्वैम्प डियर) को विलुप्त होने से बचाने में मदद की थी। एक पूर्व नौकरशाह रंजीतसिंह कहते हैं कि कानून के लिए उनका पछतावा ‘वर्मिन’ शब्द को इसमें शामिल किए जाने से है। क्योंकि अब इस शब्द का ‘दुरुपयोग’ किया जाने लगा है। उन्होंने समझाया, “लेकिन उन दिनों वर्मिन का इस्तेमाल सिर्फ उन कुछ प्रजातियों के लिए किया जाता था, जिन्हें नियंत्रित करने की जरूरत थी।” 

‘घास के मैदानों पर निर्भर प्रजातियों पर ध्यान दें’

साल 2023 में प्रोजेक्ट टाइगर अपने 50वें वर्ष में है। प्रोजेक्ट टाइगर तैयार करने के लिए टास्क फोर्स के सदस्य सचिव के रूप में भारत में पहले टाइगर रिजर्व की पहचान के लिए काम करने वाले रंजीतसिंह ने इस बात पर जोर दिया कि उन्होंने “बाघ के संरक्षण को हमेशा एक वांछित परिणाम पाने का जरिया माना है, यह अपने आप में सभी समस्याओं का अंत नहीं है। और मैं चीता को वास्तविक लक्ष्यों को पूरा करने का एक जरिया मानता हूं।”

रंजीतसिंह प्रोजेक्ट चीता (भारत में चीता पुन: वापसी योजना) का जिक्र घास के मैदान पर निर्भर प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करने के साधन के रूप में कर रहे थे। उन्होंने चीते की पुन: वापसी के लिए 2009 टास्क फोर्स की अध्यक्षता की और ‘भारत में चीता पुनर्वास के लिए कार्य योजना’ का सह-लेखन किया।

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साल 1952 में भारत में चीते विलुप्त हो गए। साल 2009-2010 में प्रारंभिक चर्चाओं का दौर शुरू हो गया था। लेकिन विलुप्त हो चुके एशियाई चीतों के बजाय अफ्रीकी चीतों को लाने को लेकर एक दशक से अधिक समय तक चली मुकदमेबाजी और विवाद के बाद ही उन्हें लाने की राह खुल पाई। और साल 2022 में भारत में फिर से चीतों को लाया गया।

प्रोजेक्ट चीता के तहत विलुप्त चीतों को भारत के जंगल में वापसी की गई। साल 2009-2010 में प्रारंभिक चर्चाओं और विलुप्त हो चुके एशियाई चीतों के बजाय अफ्रीकी चीतों को लाने को लेकर एक दशक से अधिक समय तक चली मुकदमेबाजी और विवाद के बाद, उन्हें 2022 में भारत में फिर से लाया गया। तस्वीर- एमईएफोटोगैलरी / फ़्लिकर 
प्रोजेक्ट चीता के तहत विलुप्त चीतों को भारत के जंगल में वापसी की गई। साल 2009-2010 में प्रारंभिक चर्चाओं और विलुप्त हो चुके एशियाई चीतों के बजाय अफ्रीकी चीतों को लाने को लेकर एक दशक से अधिक समय तक चली मुकदमेबाजी और विवाद के बाद, उन्हें 2022 में भारत में फिर से लाया गया। तस्वीर– एमईएफोटोगैलरी / फ़्लिकर

उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “घास के मैदान को लेकर हमारे कुछ उद्देश्य हैं। हम बाघ, गैंडे, और कुछ हद तक हाथी और शेरों से ध्यान हटाकर दुनिया के कुछ सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। यह हिस्सा सबसे अधिक उपेक्षित है (जैसे मैंने पहाड़ों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए हिम तेंदुए का इस्तेमाल किया था)।” 

उन्होंने तर्क दिया, “और इस तरह से मैं घास के मैदानों पर निर्भर प्रजातियों पर ध्यान दिए जाने के लिए काम कर रहा हूं, जो लुप्तप्राय हो रही हैं। कैराकल भारत में सबसे लुप्तप्राय स्तनपायी है और प्रोजेक्ट चीता के तहत हमें एक कैराकल संरक्षण कार्यक्रम शुरू करना है। इसमें डेसर्ट कैट, लेसर फ्लोरिकन (खरमोर) और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (सोन चिडिया) का भी नाम आता है।”

उनका कहना है कि राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के बीच आने वाले काजीरंगा, कान्हा, और कुछ हद तक कॉर्बेट, दुधवा और दक्षिण में नीलगिरी जैसे कुछ मैदान भारत में सबसे अच्छी तरह से संरक्षित घास के मैदान है। वह बताते हैं, “नदियों के किनारे भी घास के मैदान हैं जो हॉग डियर के प्रजनन के लिए जाने जाते हैं।”

भारत को ग्रासलैंड नीति की जरूरत क्यों

पर्यावरण और वन मंत्रालय में 1973-75 में वन्यजीव संरक्षण के पहले निदेशक रंजीतसिंह ने भारत में हॉग डियर की आबादी में गिरावट का उदाहरण देते हुए कहा कि ग्रासलैंड प्रबंधन नीति के अभाव में घास पर निर्भर प्रजातियों को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। 

उन्होंने कहा, “अब 20 से कम हॉग डियर बचे हैं। जब मैं पहली बार 1962 में कॉर्बेट गया था तो वहां चीतल से ज्यादा हॉग डीयर थे। वे अब चले गए हैं क्योंकि हमने राष्ट्रीय उद्यान में भी ग्रास लैंड को बनाए नहीं रखा है। हमने रामगंगा बांध की वजह से ग्रासलैंड का एक बड़ा हिस्सा जलमग्न कर दिया और बाकी को जला दिया क्योंकि हमें बाघ और हाथियों को विजिटर्स को दिखाना था। वैसे यह मेरी अपनी राय है।”

वह बताते हैं, “अगर कॉर्बेट के बाहर एक बाघ की मौत हो जाती है तो इसे पहले पन्ने पर छापा जाता है। ऐसा करना गलत भी नहीं है। लेकिन दिक्कत इस बात की है कि जब भारत में घास पर निर्भर प्रजातियों की एक पूरी प्रजाति विलुप्त हो जाएगी तो कोई आंसू तक नहीं बहाएगा।” 

रंजीतसिंह के मुताबिक, ग्रासलैंड प्रबंधन नीति के अभाव में भारत में हॉग डियर की आबादी में भारी गिरावट आई है। तस्वीर- ब्रोजो92/ विकिमीडिया कॉमन्स 
रंजीतसिंह के मुताबिक, ग्रासलैंड प्रबंधन नीति के अभाव में भारत में हॉग डियर की आबादी में भारी गिरावट आई है। तस्वीर– ब्रोजो92/ विकिमीडिया कॉमन्स

भारत के लिए एक ग्रासलैंड नीति लाने की वकालत करते हुए उन्होंने राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा “जबकि हमें एक ग्रासलैंड नीति की उतनी ही जरूरत है जितनी कि एक वन नीति की।”

उन्होंने कहा, “इस पॉलिसी को लागू करने का मतलब घास के मैदानों को रेगुलेट करना है। जिसका सीधा सा मतलब वोटों का नुकसान है। और लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण बात वोटों का नुकसान है।”

अगर एक ग्रासलैंड नीति तैयार की जाती है, तो अन्य कार्यों के साथ-साथ चराई के मौसम को विनियमित करने में मदद मिलेगी।

उन्होंने कहा, “इसके जरिए आप ग्रेजिंग सीजन को इस तरह से रेगुलेट कर सकते हैं कि वहां बारिश शुरू होने से थोड़ा पहले और घास काटने के बाद तक कोई चराई नहीं होगी। यह चराई के मौसम के नियमन और चरने वाले जानवरों की संख्या यानी घास के मैदानों की वहन क्षमता के बारे में होगा। इस तरह की प्रबंधन योजना होनी जरूरी है।” 

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए लड़ाई

अपने विश्वास के बारे में विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि “संरक्षण में संभावनाएं छिपी हैं।” उन्होंने विलुप्त होने की कगार पर खड़ी ग्रासलैंड बर्ड ‘सोन चिड़िया’ की दुर्दशा पर भी प्रकाश डाला। मौजूदा समय में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में इनकी संख्या 200 से कम है। इसकी आबादी 1969 में अनुमानित 1,260 से घटकर 2008 में तकरीबन 300 हो गई है। इनकी आबादी में 75 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। 

एक गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति ‘सोन चिडिया’ भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत सूचीबद्ध है। इसका मतलब है कि इस प्रजाति के लिए हर संभव सुरक्षा सुनिश्चित की जानी है। लेकिन औद्योगीकरण, खनन और गहन कृषि गतिविधियों ने इसके आवासों को खत्म कर दिया है। बिजली के तारों के साथ टकराव वर्तमान में इस भारतीय चिड़िया के लिए “सबसे बड़े खतरों में से एक” है। पक्षी कम ऊंचाई पर उड़ता है और उसके सामने की नजर खराब होती है। और अपनी इसी कमी की वजह से यह पक्षी अक्सर बिजली की लाइनों को दूर से देख नहीं पाता और दुर्घटना घट जाती है।” 

एक गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को भारत के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत सूचीबद्ध किया गया है। यह अधिनियम प्रजातियों के लिए उच्चतम संभव सुरक्षा सुनिश्चित करता है। तस्वीर- केशवमूर्ति एन / विकिमीडिया कॉमन्स 
एक गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को भारत के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत सूचीबद्ध किया गया है। यह अधिनियम प्रजातियों के लिए उच्चतम संभव सुरक्षा सुनिश्चित करता है। तस्वीर– केशवमूर्ति एन / विकिमीडिया कॉमन्स

रंजीतसिंह पिछले कई सालों से बिजली कंपनियों से राजस्थान के थार जैसे इलाकों में हाई-टेंशन बिजली की तारों को भूमिगत करने का आग्रह करते रहे हैं। ये इलाके इस पक्षी के प्रमुख आवासों में से हैं।

रंजीत सिंह ने सोन चिड़िया की सुरक्षा को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाली हुई है। उन्होंने कहा, “हम यह नहीं कह रहे हैं कि गांवों को बिजली की सप्लाई न करें। हम कह रहे हैं कि उनके बचे हुए प्रजनन क्षेत्रों में बिजली की तारों को भूमिगत कर दें। इन्हें अंडरग्राउंड करने में करीब एक करोड़ का खर्च आएगा। लेकिन एक बार जब यह भूमिगत हो जाएंगे तो इनके लिए किसी तरह के रखरखाव की जरूरत नहीं होगी। इसमें बिजली का कोई नुकसान नहीं है और यह एक दीर्घकालिक निवेश है। यह सिर्फ लागत है जो उन्हें ऐसा करने से रोक रही है।” 

लेकिन एक कानून के मुताबिक, किसी भी व्यावसायिक कंपनी के लाभ का दो प्रतिशत सीएसआर गतिविधियों के लिए दिया जाना चाहिए। जिन इलाकों में ये चिड़िया बची हैं वहां 100 से ज्यादा बिजली लाइन कंपनियां काम कर रही हैं। उनमें से 16 ने दो साल पहले घोषणा की थी कि एक साल में उन्होंने सभी करों का भुगतान करने के बाद 29,600 रुपये का मुनाफा कमाया है। तो उनके लाभ का 2% कितना हुआ? यह उन 16 कंपनियों के लिए लगभग 600 करोड़ है।

उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि “दरअसल कंपनियां खर्च नहीं करना चाहती हैं। बिजली की तारें अभी भी ओवरहेड हैं, बस्टर्ड मर रहे हैं और बहुत सारे अन्य पक्षियों को भी नुकसान पहुंच रहा है। लेकिन कंपनियां सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करती आ रही हैं। क्या आप इसे कानून का पालन करना कहेंगे?” 

 

इस इंटरव्यू को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर:एमके रंजीतसिंह भारत के वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम के वास्तुकारों में से एक हैं। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे

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